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श्री पार्श्वनाथ विधान
आरती श्री पार्श्वनाथ भगवान की
तर्ज-करती हूँ तुुम्हारी पूजा..............।
करते हैं प्रभु की आरति, मन का दीप जलेगा।
पारस प्रभु की भक्ती से, मन संक्लेश धुलेगा।।
जय पारस देवा, जय पारस देवा-२।।।
हे अश्वसेन के नन्दन, वामा माता के प्यारे।
तेईसवें तीर्थंकर पारस, प्रभु तुम जग से न्यारे।।
तेरी भक्ती गंगा में, जो स्नान करेगा।
पारस प्रभु की भक्ती से, मन संक्लेश धुलेगा।।
जय पारस देवा, जय पारस देवा-२।।१।।
वाराणसि में जन्मे, निर्वाण शिखर जी से पाया।
इक लोहा भी प्रभु चरणों में, सोना बनने आया।।
सोना ही क्या वह लोहा, पारसनाथ बनेगा।
पारस प्रभु की भक्ती से, मन संक्लेश धुलेगा।।
जय पारस देवा, जय पारस देवा-२।।२।।
सुनते हैं जग में वैर सदा, दो तरफा चलता है।
पर पार्श्वनाथ का जीवन, इसे चुनौती करता है।।
इक तरफा बैरी ही कब तक, उपसर्ग करेगा।
पारस प्रभु की भक्ती से, मन संक्लेश धुलेगा।।
जय पारस देवा, जय पारस देवा-२।।३।।
कमठासुर ने बहुतेक भवों में, आ उपसर्ग किया।
पारसप्रभु ने सब सहकर, केवलपद को प्राप्त किया।।
वैâवल्य ज्योति से पापों का, अंधेर मिटेगा।
पारस प्रभु की भक्ती से, मन संक्लेश धुलेगा।।
जय पारस देवा, जय पारस देवा-२।।४।।
प्रभु तेरी आरति से मैं भी, यह शक्ति पा जाऊं।
‘‘चन्दनामती’’ तव गुणमणि की, माला यदि पा जाऊं।।
तब जग में नहिं शत्रू का, मुझ पर वार चलेगा।
पारस प्रभु की भक्ती से, मन संक्लेश धुलेगा।।
जय पारस देवा, जय पारस देवा-२।।५।।
भजन श्री पार्श्वनाथ भगवान
तर्ज-फूलों सा चेहरा तेरा......
शाश्वत है तीरथ मेरा, सम्मेदगिरि नाम है।
गिरिवरों में श्रेष्ठ है, आदि सिद्धक्षेत्र है, मधुवन परम धाम है।
कहते हैं इस गिरि की वन्दना से, तिर्यंच नरकायु मिलती नहीं है।
श्रद्धा सहित इसकी अर्चना से, भव्यत्व कलिका खिलती रही है।।
रात अंधेरी हो, भक्ति सहेली हो, लगता न डर पर्वत पर कभी।
अतिशय से गूँजे यहाँ, सांवरिया का नाम है।
गिरिवरों में श्रेष्ठ है, आदि सिद्धक्षेत्र है, मधुवन परम धाम है।।१।।
इस युग के चौबीस तीर्थंकरों में, मोक्ष गए बीस जिनवर यहाँ से।
कितने करोड़ों मुनियों ने भी, तप करके शिवालय पाया यहाँ से।।
तीर्थ पुराना है, श्रेष्ठ खजाना है, सबको तिराता है संसार से।
तीरथ की कीरत अमर, कर सकता इंसान है।
गिरिवरों में श्रेष्ठ है, आदि सिद्धक्षेत्र है, मधुवन परम धाम है।२।।
जिनधर्म निधि को पाकर के उसका, सच्चा सदुपयोग करना है हमको।
आपस में मैत्री, दीनों पे करुणा, का भाव जग में सिखाना है सबको।।
स्वार्थ त्याग करके, शीघ्र जाग करके, जैनत्व की सब रक्षा करो।
तीरथ की रज ‘‘चन्दना’’ मस्तक का परिधान है।
गिरिवरों में श्रेष्ठ है, आदि सिद्धक्षेत्र है, मधुवन परम धाम है।।३।।