आचारस्य गुणा जीदप्रायश्चित्तस्य कल्पप्रायश्चित्तस्य गुणास्तद्गतानुष्ठानानि तेषां दीपनं प्रकटनं। आत्मशुद्धिश्चात्मकर्मनिर्मुक्तिः। निद्र्वन्द्वः कलहाद्यभावः। ऋजोर्भाव आर्जवं स्वस्थता, मृदो भावो मार्दवं मायामानर्योिनरासः। लघोर्भावो लाघवं निःसंगता लोभनिरासः। भक्तिर्गुरुसेवा। प्रह्लादकरणं च सर्वेषां सुखोत्पादनं। यो विनयं करोति तेनाचरजीदकल्पविषया ये गुणास्ते दीपिता उद्योतिता भवंति। आर्जव-मार्दवलाघवभक्तिप्रह्लादकरणानि च भवंति विनयकर्तुरिति।।३८७।।

कित्ती मित्ती माणस्स भंजण गुरुजणे य बहुमाणं।
तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा।।३८८।।

र्कीितः सर्वव्यापी प्रतापः ख्यातिश्च। मैत्री सर्वैः सह मित्रभावः। मानस्य गर्वस्य भंजनमामर्दनं। गुरुजने च बहुमानं पूजाविधानं। तीर्थंकराणामाज्ञा पालिता भवति। गुणानुमोदश्च कृतो भवति। एते विनयगुणा भवन्तीति। विनयस्य कर्ता कीा\त लभते। तथा मैत्रीं लभते। तथात्मनो मानं निरस्यति। गुरुजनेभ्यो बहुमानं लभते। तीर्थकराणामाज्ञां च पालयति। गुणानुरागं च करोतीति।।३८८।। वैयावृत्यस्वरूपं निरूपयन्नाह—

आइरियादिसु पंचसु सबालवुड्ढाउलेसु गच्छेसु।
वेज्जावच्चं वुत्तं कादव्वं सव्वसत्तीए।।३८९।।

आचार्योपाध्यायस्थविरप्रवर्तकगणधरेषु पंचसु। बाला नवकप्रव्रजिताः। वृद्धा वयोवृद्धास्तपोवृद्धा गुणवृद्धास्तैराकुलो गच्छस्तथैव बालवृद्धाकुले गच्छे सप्तपुरुषसन्ताने। वैयावृत्यमुक्तं यथोक्तं कर्तव्यं सर्वशत्क्या सर्वसामथ्र्येन उपकरणाहारभैषजपुस्तकादिभिरुपग्रहः कर्तव्य इति।।३८९।।
अब विनय की स्तुति करते हैं—
गाथार्थ — विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम, तप और ज्ञान होता है। विनय के द्वारा आचार्य और सर्वसंघ आराधित होता है।।३८६।।
आचारवृत्ति — विनय मोक्ष का द्वार है अर्थात् मोक्ष में प्रवेश कराने वाला है। विनय से संयम होता है, विनय से तप होता है और विनय से ज्ञान होता है। विनय से आचार्य और सर्वसंघ आराधित किए जाते हैं अर्थात् अपने ऊपर अनुग्रह करने वाले हो जाते हैं।
गाथार्थ — विनय से आचार, जीद, कल्प आदि गुणों का उद्योतन होता है तथा आत्मशुद्धि, निद्र्वंद्वता, आर्जव, मार्दव, लघुता, भक्ति और आह्लादगुण प्रकट होते हैं।।३८७।।
आचारवृत्ति — विनय से आचार के गुण, जीदप्रायश्चित्त और कल्पप्रायश्चित्त के गुण तथा उनमें कहे हुए का अनुष्ठान, इन गुणों का दीपन अर्थात् प्रकटन होता है। विनय से आत्मशुद्धि अर्थात् आत्मा की कर्मों से निर्मुक्ति होती है, निद्र्वंद्व—कलह आदि का अभाव हो जाता है। आर्जव—स्वस्थता आती है, मृदु का भाव मार्दव अर्थात् माया और मान का निरसन हो जाता है, लघु का भाव लाघव—नःसंगपना होता है अर्थात् लोभ का अभाव हो जाने से भारीपन का अभाव हो जाता है। भक्ति—गुरु के प्रति भक्ति होने से गुरु सेवा भी होती है और विनय से प्रह्लादकरण—सभी में सुख का उत्पन्न करना आ जाता है। तात्पर्य यह है कि जो विनय करता है उसके उस विनय के द्वारा आचार, जीद और कल्पविषयक जो गुण हैं वे उद्योतित होते हैं। आर्जव, मार्दव, लाघव, भक्ति और आल्हादकरण ये गुण विनय करने वाले में प्रकट हो जाते हैं।
गाथार्थ — र्कीित, मैत्री, मान का भंजन, गुरुजनों में बहुमान, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन और गुणों का अनुमोदन ये सब विनय के गुण हैं।।३८८।।
आचारवृत्ति — विनय से सर्वव्यापी प्रताप और ख्याति रूप र्कीित होती है। सभी के साथ मित्रता होती है, गर्व का मर्दन होता है, गुरुजनों में बहुमान अर्थात् पूजा या आदर मिलता है, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन होता है और गुणों की अनुमोदना की जाती है। ये सब विनय के गुण हैं। तात्पर्य यह है कि विनय करने वाला मुनि र्कीित को प्राप्त होता है, सबसे मैत्री भाव को प्राप्त हो जाता है, अपने मान का अभाव करता है, गुरुजनों से बहुमान पाता है, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन करता है और गुणों में अनुराग करता है। अब वैयावृत्त्य का स्वरूप निरूपित करते हैं—
गाथार्थ — आचार्य आदि पाँचों में, बाल-वृद्ध से सहित गच्छ में वैयावृत्त्य को कहा गया है सो सर्वशक्ति से करनी चाहिए।।३८९।।
आचारवृत्ति — आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक और गणधर ये पाँच हैं। नवदीक्षित को बाल कहते हैं। वृद्ध से वयोवृद्ध, तपोवृद्ध और गुणों से वृद्ध लिए गए हैं। सात पुरुष की परम्परा को अर्थात् सात पीढ़ी को गच्छ कहते हैं। इन आचार्य आदि पाँच
पुनरपि विशेषार्थं श्लोकेनाह—

गुणाधिए उवज्झाए तवस्सि सिस्से य दुव्वले।
साहुगण कुले संघे समणुण्णे य चापदि।।३९०।।

गुणैरधिको गुणाधिकस्तस्मिन् गुणाधिके। उपाध्याये श्रुतगुरौ। तपस्विनि कायक्लेशपरे। शिक्षके शास्त्रशिक्षणतत्परे दुःशीले या दुर्बले व्याध्याक्रान्ते वा। साधुगणे ऋषियतिमुन्यनगारेषु। कुले शुक्रकुले स्त्रीपुरुषसन्ताने। संघे चातुर्वण्र्ये श्रवणसंघे। समनोज्ञे सुखासीने सर्वोपद्रवरहिते। आपदि चोपद्रवे संजाते वैयावृत्यं कर्तव्यमिति।।३९०।। वै कृत्वा वैयावृत्यं कर्तव्यमित्याह—

सेज्जोग्गासणिसेज्जो तहोवहिपडिलेहणा हि उवग्गहिदे।
आहारोसहवायण वििंकचणंवंदणादीिंह।।३९१।।

शय्यावकाशो वसतिकावकाशदानं निषद्याऽऽसनादिकं। उपधिः कुण्डिकादि। प्रतिलेखनं पिच्छिकादिः। इत्येतैरुपग्रह उपकारः। अथवैतैरुपगृहीते स्वीकृते। तथाहारौषध-वाचनाव्याख्यानवििंकचनमूत्रपुरीषादिव्युत्सर्गवन्दनादिभिः। आहारेण भिक्षाचर्यया। औषधेन शुंठिपिप्पल्यादिकेन। शास्त्रव्याख्यानेन। च्युतमलनिर्हरणेन। वन्दनया च। शय्यावकाशेन निषद्ययोपधिना प्रतिलेखनेन च पूर्वोक्तानामुपकारः कर्तव्यः। एतैस्ते प्रतिगृहीता आत्मीकृता भवन्तीति।।३९१।। केषु स्थानेषूपकारः क्रियतेऽत आह—

अद्धाणतेणविदरायणदीरोधणासिवे ओमे।
वेज्जावच्चं वुत्तं संगहसारक्खणोवेदं।।३९२।।

प्रकार के साधुओं की तथा बाल, वृद्ध से व्याप्त ऐसे संघ की आगम में कथित प्रकार से सर्वशक्ति से वैयावृत्य करना चाहिए अर्थात् अपनी सर्व सामथ्र्य से उपकरण, आहार, औषधि, पुस्तक आदि से इनका उपकार करना चाहिए। भावार्थ — तप और त्याग में आचार्यों ने शक्ति के अनुसार करना कहा है किन्तु वैयावृत्ति में सर्वशक्ति से करने का विधान है। इससे वैयावृत्ति के विशेष महत्त्व को सूचित किया गया है। पुनरपि विशेष अर्थ के लिए आगे के श्लोक (गाथा) द्वारा कहते हैं—
गाथार्थ — गुणों से अधिक, उपाध्याय, तपस्वी, शिष्य, दुर्बल, साधुगण, कुल, संघ और मनोज्ञतासहित मुनियों पर आपत्ति के प्रसंग में वैयावृत्ति करना चाहिए।।३९०।।
आचारवृत्ति — गुणाधिक—अपनी अपेक्षा जो गुणों में बड़े हैं, उपाध्याय—श्रुतगुरु, तपस्वी कायक्लेश में तत्पर, शिक्षक—शास्त्र के शिक्षण में तत्पर, दुर्बल—दुःशील अर्थात् दुष्ट परिणाम वाले अथवा व्याधि से पीड़ित, साधुगण—ऋषि, यति, मुनि और अनगार, कुल—गुरुकुल—परम्परा, संघ—चर्तुिवध श्रमण संघ, समनोज्ञ—सुख से आसीन या सर्वोपद्रव से रहित ऐसे साधुओं पर आपत्ति या उपद्रव के आने पर वैयावृत्ति करना चाहिए। विशेष—यहाँ पर कुल का अर्थ गुरुकुल परम्परा से है। तीन पीढ़ी की मुनिपरम्परा को कुल तथा सात पीढ़ी की मुनिपरम्परा को गच्छ कहते हैं। ‘मूलाचार-प्रदीप’ (अध्याय ७, गाथा ६८-६९) के अनुसार, जिस मुनि संघ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवत्र्तक, स्थविर और गणाधीश ये पाँच हों उस संघ की कुल संज्ञा है।
क्या करके वैयावृत्ति करना चाहिए ? सो ही बताते हैं—
गाथार्थ — वसति, स्थान, आसन तथा उपकरण इनका प्रतिलेखन द्वारा उपकार करना, आहार, औषधि आदि से; मलादि दूर करने से और उनकी वन्दना आदि के द्वारा वैयावृत्ति करना चाहिए।।३९१।।
आचारवृत्ति — शय्यावकाश—मुनियों को वसतिका का दान देना, निषद्या—मुनियों को आसन आदि देना, उपधि—कमण्डलु आदि उपकरण देना, प्रतिलेखन—ापच्छिका आदि देना, इन कार्यों से मुनियों का उपकार करना चाहिए अथवा इनके द्वारा उपकार करके उन्हें स्वीकार करना। आहारचर्या द्वारा, सोंठ, पिप्पल आदि औषधि द्वारा, शास्त्र-व्याख्यान द्वारा, कदाचित् मल-मूत्र आदि च्युत होने पर उसे दूर करने द्वारा और वन्दना आदि के द्वारा वैयावृत्ति करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि वसतिका दान, आसनदान, उपकरणदान, प्रतिलेखन आदि के द्वारा पूर्वोक्त साधुओं का उपकार करना चाहिए। इन उपकारों से वे अपने किए जाते हैं। किन स्थानों में उपकार करना ? सो ही बताते हैं—
गाथार्थ — मार्ग, चोर, िंहस्रजन्तु, राजा, नदी का रोध और मारी के प्रसंग में, र्दुिभक्ष में, सारक्षण से सहित वैयावृत्ति करना चाहिए।।३९२।।
आचारवृत्ति — मार्ग में चलने से जो थक गए हैं, जिन पर चोरों ने उपद्रव किया है, िंसह-व्याघ्र आदि िंहसक जन्तुओं से जिनको कष्ट हुआ है, राजा ने जिनको पीड़ा दी है, नदी की रुकावट से जिनको बाधा हुई है, अशिव अर्थात् मारी रोग आदि से जो पीड़ित हैं, र्दुिभक्ष से पीड़ित हैं ऐसे साधु यदि अपने संघ में आए हैं तो उनका संग्रह करना चाहिए। जिनका संग्रह किया है उनकी रक्षा करनी चाहिए। इसका ऐसा सम्बन्ध करना
अध्वनि श्रान्तस्य। स्तेनैश्चौरैरुपद्रु तस्य। श्वापदैः िंसहव्याघ्रादिभिः परिभूतस्य। राजभिः खंचितस्य। नदीरोधेन पीडितस्य। अशिवेन मारिरोगादिव्यथितस्य। ओमे—र्दुिभक्षपीडितस्य। वैयावृत्यमुक्तं संग्रहसारक्षणोपेतं। तेषामागतानां संग्रहः कर्तव्यः। संगृहीतस्य रक्षणं कर्तव्यं। अथचैवं सम्बन्धः कर्तव्यः। एतेषु प्रदेशेषु संग्रहोपेतं सारक्षणोपेतं च वैयावृत्यं कर्तव्यमिति। अथवा रोधशब्दाः प्रत्येक मभिसम्बध्यते। पथिरोधश्चौररोधः श्वापदरोधः राजरोधो नदीरोध एतेषु रोधेषु तथा अशिवे र्दुिभक्षे च वैयावृत्यं कर्तव्यमिति।।३९२।। स्वाध्यायस्वरूपमाह—

परियट्टणाय वायण पडिच्छणाणुपेहणा य धम्मकहा।
थुदिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होइ सज्झाओ।।३९३।।

परिवर्तनं पठितस्य ग्रन्थस्यानुवेदनं। वाचना शास्त्रस्य व्याख्यानं। पृच्छना शास्त्रश्रवणं। अनुप्रेक्षा द्वादशानुप्रेक्षाऽनित्यत्वादि। धर्मकथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितानि। स्तुतिर्मुनिदेववन्दना मंगल इत्येवं संयुक्तः पंचप्रकारो भवति स्वाध्यायः। परिवर्तनमेको वाचना द्वितीयः पृच्छना तृतीयोऽनुप्रेक्षा चतुर्थो धर्मकथास्तुतिमंगलानि समुदितानि पंचमः प्रकारः। एवं पंचविधः स्वाध्यायः सम्यग्युक्तोेऽनुष्ठेय इति।।३९३।। ध्यानस्वरूपं विवृण्वन्नाह—

अट्टं च रुद्दसहियं दोण्णिवि झाणाणि अप्पसत्थाणि।
धम्मं सुक्वंâ च दुवे पसत्थझाणाणि णेयाणि।।३९४।।

आर्तध्यानं रौद्रध्यानेन सहितं। एते द्वे ध्याने अप्रशस्ते नरकतिर्यग्गतिप्रापके। धर्मध्यानं शुक्लध्यानं चैते द्वे प्रशस्ते देवगतिमुक्तिगतिप्रापके। इत्येवंविधानि ज्ञातव्यानि। एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमिति।।३९४।। आर्तध्यानस्य भेदानाह—

अमणुण्णजोगइट्ठविओगपरीसहणिदाणकरणेसु।
अट्टं कसायसहियं झाणं भणिदं समासेण।।३९५।।

अमनोज्ञेन ज्वरशूलशत्रुरोगादिना योगः सम्पर्क। इष्टस्य पुत्रदुहितृमातृपितृबन्धु-शिष्यादिकस्य वियोगोऽभावः। परीषहाः सुत्तृट्छीतोष्णादयः। निदानकरणं इहलोकपरलोकभोगविषयोऽभिलाषः। इत्येतेषु प्रदेशेष्वार्तमनःसंक्लेशः कषायसहितं ध्यानं भणितं समासेन संक्षेपतः। कदा ममानेनामनोज्ञेन वियोगो भविष्यतीत्येव
कि इन स्थानों में संग्रह से सहित और उनकी रक्षा से सहित वैयावृत्य करना चाहिए। अथवा रोध शब्द को प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए। जैसे मार्ग में जिन्हें रोका गया हो, चोरों ने रोक लिया है, िंहस्र जन्तुओं ने रोक लिया हो, राजा ने रुकावट डाली हो, नदी से रुकावट हुई हो तो ऐसे रोध के प्रसंग में तथा दुःख में र्दुिभक्ष में वैयावृत्ति करना चाहिए। स्वाध्याय का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ — परिवर्तन, वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा तथा स्तुति-मंगल संयुक्त पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना चाहिए।।३९३।।
आचारवृत्ति — पढ़े हुए ग्रन्थ को पुनः-पुनः पढ़ना या रटना परिवर्तन है। शास्त्र का व्याख्यान करना वाचना है। शास्त्र का श्रवण करना पृच्छना है। अनित्यत्व आदि बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का िंचतवन करना अनुप्रेक्षा है। त्रेसठ शलाकापुरुषों के चरित्र पढ़ना धर्मकथा है। स्तुति—मुनि वन्दना, देव-वन्दना, और मंगल इनसे संयुक्त स्वाध्याय पाँच प्रकार का होता है। तात्पर्य यह है कि (१) परिवर्तन, (२) वाचना, (३) पृच्छना, (४) अनुप्रेक्षा और (५) समूहरूप धर्मकथा स्तुतिमंगल—इन पाँच प्रकार के स्वाध्याय का सम्यक प्रकार से अनुष्ठान करना चाहिए। ध्यान का स्वरूप वर्णन करते हैं—
गाथार्थ — आर्त और रौद्र सहित दो ध्यान अप्रशस्त हैं। धर्म और शुक्ल ये दो प्रशस्त ध्यान हैं ऐसा जानना चाहिए।।३९४।।
आचारवृत्ति — आर्तध्यान और रौद्र ध्यान ये दो ध्यान अप्रशस्त हैं। ये नरकगति और तिर्यंचगति को प्राप्त कराने वाले हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दो प्रशस्त हैं। ये देवगति और मुक्ति को प्राप्त कराने वाले हैं, ऐसा समझना। एकाग्रचिन्तानिरोध—एक विषय पर चिन्तन का रोक लेना यह ध्यान का लक्षण है। आर्तध्यान के भेदों को कहते हैं—
गाथार्थ — अनिष्ट का योग, इष्ट का वियोग, परीषह और निदानकरण इनमें कषाय सहित जो ध्यान है वह संक्षेप से आर्तध्यान कहा गया है।।३९५।।
आचारवृत्ति — अमनोज्ञयोग—ज्वर, शूल, शत्रु, रोग आदि का सम्पर्क होना, इष्ट वियोग—पुत्र, पुत्री, माता, पिता, बन्धु, शिष्य आदि का वियोग होना, परिषह—क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि बाधाओं का होना; निदान—इस लोक या परलोक में भोग-विषयों की अभिलाषा करना। इन स्थानों में जो आर्त अर्थात् मन का संक्लेश होता है वह कषाय सहित ध्यान आर्तध्यान कहलाता है। इनका वर्णन यहाँ संक्षेप से किया गया है। जैसे—कब मेरा इस अनिष्ट से वियोग होगा इस प्रकार से चिन्तन करना
चिन्तनमार्तध्यानं प्रथमं। इष्टैः सह सर्वदा यदि मम संयोगो भवति वियोगो न कदाचिदपि स्वाद्यद्येवं चिन्तनमार्तध्यानं द्वितीयं। क्षुत्तृटछीतोष्णादिभिरहं व्यथितः कदैतेषां ममाभावः स्यात्। कथं मयौदनादयो लभ्या येन मम क्षुधादयो न स्युः। कदा मम वेलायाः प्राप्तिः स्याद्येनाहं भुंजे पिबामि वा। हाकारं पूत्कारं जलसेकं च कुर्वतोऽपि न तेन मम प्रतीकार इति चिन्तनमार्तध्यानं तृतीयमिति। इहलोके यदि मम पुत्राः स्युः परलोके यद्यहं देवो भवामि स्त्रीवस्त्रादिकं मम स्यादित्येवं चिन्तनं चतुर्थमार्तध्यानमिति।।३९५।। रौद्रध्यानस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह—

तेणिक्कमोससारक्खणेसु तध चेव छव्विहारंभे।
रुद्दं कसायसहिदं झाणं भणियं समासेण।।३९६।।

स्तैन्यं परद्रव्यापहरणाभिप्रायः। मृषाऽनृते तत्परता। सारक्षणं यदि मदीयं द्रव्यं चोरयति तमहं निहन्मि, एवमायुधव्यग्रहस्तमारणाभिप्रायः। स्तैन्यमृषावादसारक्षणेषु। तथा चैव षड्विधारम्भे पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायिकविराधने च्छेदनभेदन-वधता-डनदहनेषूद्यमः रौद्रं कषायसहितं ध्यानं भणितं। समासेन संक्षेपेण। परद्रव्यहरणे तत्परता प्रथमं रौद्रं। परपीडाकरे मृषावादे यत्नः द्वितीयं रौद्रं। द्रव्यपशुपुत्रादिरक्षणविषये चौरदायादिमारणोद्यमे यत्नस्तृतीयं रौद्रं। तथा षड्विधे जीवमारणारम्भे कृताभिप्रायश्चतुर्थं रौद्रमिति।।३९७।। ततः—

अवहट्टु अट्टरुद्दे महाभए सुग्गदीयपच्चूहे।
धम्मे वा सुक्के वा होहि समण्णागदमदीओ।।३९७।।

यत एवंभूते आर्तरौद्रे। िंकविशिष्टे, महाभये महासंसारभीतिदायिनि (नी) सुगतिप्रत्यूहे—देवगतिमोक्षगतिप्रतिवूâले। अपहृत्य निराकृत्य। धर्मध्याने शुक्लध्याने वा भव सम्यग्विधानेन गतमतिः। धर्मध्याने शुक्लध्याने च सादरो सुष्ठु विशुद्धं मनो विधेहि समाहितमतिर्भवेति।।३९७।।
पहला आर्तध्यान है। इष्टजनों के साथ यदि मेरा संयोग होता है तो कदाचित् भी वियोग न होवे ऐसा चिन्तन होना दूसरा आर्तध्यान है। क्षुधा, तृषा आदि के द्वारा मैं पीड़ित हो रहा हूँ, मुझसे कब इनका अभाव होवे ? मुझे कैसे भात—भोजन आदि प्राप्त होवें कि जिससे मुझे क्षुधा आदि बाधाएँ न होवें ? कब मेरे आहार की बेला आवे कि जिससे मैं भोजन करूँ अथवा पानी पिऊँ ? हाहाकार या पूत्कार और जल-सिञ्चन आदि करते हुए भी उन बाधाओं से मेरा प्रतीकार नहीं हो रहा है अर्थात् घबराने से, हाय-हाय करने से, पानी छिड़कने से भी प्यास आदि बाधाएँ दूर नहीं हो रही हैं इत्यादि प्रकार से चिन्तन करना तीसरे प्रकार का आर्तध्यान है। इस लोक में यदि मेरे पुत्र हो जावें, परलोक में यदि मैं देव हो जाऊँ तो ये स्त्री, वस्त्र आदि मुझे प्राप्त हो जावें इत्यादि चिन्तन करना चौथा आर्तध्यान है। रौद्रध्यान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं—
गाथार्थ — चोरी, असत्य, परिग्रहसंरक्षण और छह प्रकार की जीविंहसा के आरम्भ में कषाय सहित होना रौद्रध्यान है, ऐसा संक्षेप से कहा है।।३९६।।
आचारवृत्ति — स्तैन्य—परद्रव्य के हरण का अभिप्राय होना, मृषा—असत्य बोलने में तत्पर होना, सारक्षण—यदि मेरा द्रव्य कोई चुराएगा तो मैं उसे मार डालूँगा, इस प्रकार से आयुध को हाथ में लेकर मारने का अभिप्राय करना, षड्विधानारम्भ—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस इन षट्कायिक जीवों की विराधना करने में, इनका छेदन-भेदन करने में, इनको बाँधने में, इनका वध करने में, इनका ताड़न करने में और इन्हें जला देने में उद्यम का होना अर्थात् इन जीवों को पीड़ा देने में उद्यत होना, कषाय सहित ऐसा ध्यान रौद्र कहलाता है। यहाँ पर इसका संक्षेप से कथन किया गया है।
तात्पर्य यह है कि परद्रव्य के हरण करने में तत्पर होना प्रथम रौद्रध्यान है। पर को पीड़ा देने वाले असत्य वचन के बोलने में यत्न करना दूसरा रौद्रध्यान है। द्रव्य अर्थात् धन, पशु, पुत्रादि के रक्षण के विषय में, चोर, दायाद अर्थात् भागीदार आदि के मारने में प्रयत्न करना यह तीसरा रौद्रध्यान है और छह प्रकार के जीवों के मारने के आरम्भ में अभिप्राय रखना यह चौथा रौद्रध्यान है।
विशेष — इन्हीं ध्यानों के िंहसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी ऐसे नाम भी अन्य ग्रन्थों में पाए जाते हैं। जिसका अर्थ है हिंसा में आनन्द मानना, झूठ में आनन्द मानना, चोरी में आनन्द मानना और परिग्रह के संग्रह में आनन्द मानना। यह ध्यान रुद्र अर्थात् व्रूâर परिणामों से होता है। इसमें कषायों की तीव्रता रहती है अतः इसे रौद्रध्यान कहते हैं। इसके बाद—क्या करना ? सो कहते हैं—
गाथार्थ — सुगति के रोधक महाभयरूप इन आर्त, रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान में अथवा शुक्लध्यान में एकाग्रबुद्धि करो।।३९७।।
आचारवृत्ति — महासंसार भय को देने वाले और देवगति तथा मोक्षगति के प्रतिवूâल ऐसे इन आर्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान, शुक्लध्यान में अच्छी तरह अपनी मति लगाओ अर्थात् धर्म और शुक्लध्यान में आदर सहित होकर अच्छी तरह अपने विशुद्ध मन को लगाओ, उन्हीं में एकाग्रबुद्धि को करो।
धर्मध्यानभेदान् प्रतिपादयन्नाह—

एयग्गेण मणं णिरुंभिऊण धम्मं चउव्विहं झाहि।
आणापायविवायविचओ य संठाणविचयं च।।३९८।।

एकाग्रेण पंचेन्द्रियव्यापारपरित्यागेन कायिकवाचिकव्यापारविरहेण च। मनो मानसव्यापारं। निरुध्यात्मवशं कृत्वा। चर्तुिवधं चतुर्भेदं। ध्याय चिन्तय। के ते चत्वारो विकल्पा इत्याशंकायामाह—आज्ञाविचयोऽपायविचयो विपाकविचयः संस्थानविचयश्चेति।।३९८।। तत्राज्ञाविचयं विवृण्वन्नाह—

पंचत्थिकायछज्जीवणिकाये कालदव्वमण्णे य।
आणागेज्झे भावे आणाविचयेण विचिणादि।।३९९।।

पंचास्तिकायाः जीवास्तिकायोऽजीवास्तिकायो धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकायो वियदास्तिकाय इति तेषां प्रदेशबन्धोऽस्तीति कृत्वा काया इत्युच्यन्ते। षड्जीवनिकायश्च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसाः। कालद्रव्यमन्यत्। अस्य प्रदेशबन्धाभावादस्तिकायत्वं नास्ति। एतानाज्ञाग्राह्यान् भावान् पदार्थान्। आज्ञाविचयेनाज्ञास्वरूपेण। विचिनोति विवेचयति ध्यायतीति यावत्। एते पदार्थाः सर्वज्ञनाथेन वीतरागेण प्रत्यक्षेण दृष्टा न कदाचिद् व्यभिचरन्तीत्यास्तिक्यबुध्द्या तेषां पृथक्पृथग्विवेचनेनाज्ञाविचयः। यद्यप्यात्मनः प्रत्यक्षबलेन हेतुबलेन वा न स्पष्टा तथापि सर्वज्ञाज्ञानिर्देशन गृह्वाति नान्यथावादिनो जिना यत इति।।३९९।। अपायविचयं विवृण्वन्नाह—

कल्लाणपावगाओ पाए विचिणादि जिणमदमुविच्च।
विचिणादि वा अपाये जीवाण सुहे य असुहे य।।४००।।

कल्याणप्रापकान् पंचकल्याणानि यैः प्राप्यन्ते तान् प्राप्यान् सम्यग्दर्शनज्ञान- चारित्राणि। विचिनोति ध्यायति। जिनमतमुपेत्य जैनागममाश्रित्य। विचिनोति वा ध्यायति
धर्मध्यान के भेदों को कहते हैं—
गाथार्थ — एकाग्रतापूर्वक मन को रोककर उस धर्म का ध्यान करो जिसके आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार भेद हैं।।३९८।।
आचारवृत्ति — पंचेन्द्रिय विषयों के व्यापार का त्याग करके और कायिक, वाचिक व्यापार से भी रहित होकर, एकाग्रता से मानस व्यापार को रोककर अर्थात् मन को अपने वश में करके चार प्रकार के धर्मध्यान का चिन्तवन करो। वे चार भेद कौन हैं? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं—आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार भेद धर्मध्यान के हैं।
भावार्थ — यहाँ एकाग्रचिन्तानिरोध लक्षण वाला ध्यान कहा गया है। पंचेन्द्रियों के विषय का छोड़ना और काय की तथा वचन की क्रिया नहीं करना ‘एकाग्र’ है तथा मन का व्यापार रोकना चिन्तानिरोध है। इस प्रकार से ध्यान के लक्षण में इन्द्रियों के विषय से हटकर तथा मन-वचन-काय की प्रवृत्ति से छूटकर जब मन अपने किसी ध्येय विषय में टिक जाता है, रुक जाता है, स्थिर हो जाता है उसी को ध्यान यह संज्ञा आती है।
गाथार्थ — उसमें से पहले आज्ञाविचय का वर्णन करते हैं—पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय और कालद्रव्य ये आज्ञा से ग्राह्य पदार्थ हैं। इनको आज्ञा के विचार से चिन्तवन करना है।।३९९।।
आचारवृत्ति — जीवास्तिकाय, अजीवास्तिकाय, (पुद्गलास्तिकाय) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय हैं। इन पाँचों में प्रदेश का बन्ध अर्थात् समूह विद्यमान है अतः इन्हें काय कहते हैं। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये षट्जीवनिकाय हैं। और अन्य—छठा कालद्रव्य है। इसमें प्रदेशबन्ध का अभाव होने से यह अस्तिकाय नहीं है अर्थात् काल एकप्रदेशी होने से अप्रदेशी कहलाता है इसलिए यह ‘अस्ति’ तो है किन्तु काय नहीं है। ये सभी पदार्थ जिनेन्द्रदेव की आज्ञा से ग्रहण करने योग्य होने से आज्ञाग्राह्य हैं। आज्ञाविचय से अर्थात् आज्ञारूप से इनका विवेचन करना—ध्यान करना आज्ञाविचय है।
तात्पर्य यह है कि वीतराग सर्वज्ञदेव ने इन पदार्थों को प्रत्यक्ष से देखा है। ये कदाचित् भी व्यभिचरित नहीं होते हैं अर्थात् ये अन्यथा नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार से आस्तिक्य बुद्धि के द्वारा उनका पृथव्-पृथव् विवेचन करना, चिन्तवन करना यह आज्ञाविचय धर्मध्यान है। यद्यपि ये पदार्थ स्वयं को प्रत्यक्ष से या तर्क के द्वारा स्पष्ट नहीं हैं फिर भी सर्वज्ञ की आज्ञा के निर्देश से वह उनको ग्रहण करता है; क्योंकि ‘नान्यथावादिनो जिनाः’ जिनेन्द्रदेव अन्यथावादी नहीं हैं। अपायविचय का वर्णन करते हैं—
गाथार्थ — जिनमत का आश्रय लेकर कल्याण को प्राप्त कराने वाले उपायों का चिन्तन करना अथवा जीवों के शुभ और अशुभ का चिन्तन करना अपायविचय है।।४००।।
आचारवृत्ति — जिनके द्वारा पंचकल्याणक प्राप्त किए जाते हैं वे सम्यग्दर्शन और चारित्र प्राप्य हैं अर्थात् उपायभूत हैं। जैनागम का आश्रय लेकर इनका ध्यान करना
वा। अपायान् कर्मापगमान् स्थितिखण्डाननुभागखण्डानुत्कर्षापकर्षभेदान्। जीवानां सुखानि जीवप्रदेशसंतर्पणानि। असुखानि दुःखानि चात्मनस्तु विचिनोति भावयतीति। एतैः कर्तव्यैर्जीवा दूरतो भवन्ति शासनात्, एतैस्तु शासनमुपढौकते, एतैः परिणामैः संसारे भ्रमन्ति जीवाः, एतश्च संसाराद्विमुञ्चन्तीति चिन्तनमपायचिन्तनं नाम द्वितीयं धर्मध्यानमिति।।४००।। विपाकविचयस्वरूपमाह—

एआणेयभवगयं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं।
उदओदीरणसंकमबंधंमोक्खं च विचिणादि।।४०१।।

एकभवगतमनेकभवगतं च जीवानां पुण्यकर्मफलं पापकर्मफलं च विचिनोति। उदयं स्थितिक्षयेण गलनं विचिनोति ये कर्मस्कन्धा उत्कर्षापकर्षादिप्रयोगेण स्थितिक्षयं प्राप्यात्मनः फलं ददते तेषां कर्मस्कन्धानामुदय इति संज्ञा तं ध्यायति। तथा चोदीरणमपक्वपाचनं। ये कर्मस्कन्धाः सत्सु स्थित्यनुभागेषु अवस्थिताः सन्त आकृष्याकाले फलदाः क्रियन्ते तेषां कर्मस्कन्धानामुदीरणमिति संज्ञा तद् ध्यायति। संक्रमणं परप्रकृतिस्वरूपेण गमनं विचिनोति। तथा बन्धं जीवकर्मप्रदेशान्योन्यसंश्लेषं ध्यायति। मोक्षं जीवकर्मप्रदेशविश्लेषमनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वरूपं विचिनोतीति सम्बन्धः। तथा शुभ प्रकृतीनां गुडखण्डशर्करामृतस्वरूपेणानुभागचिन्तनम् अशुभप्रकृतीनां निम्बकांजीरविषहालाहलस्वरूपेणानुभागचिन्तनम् अशुभप्रकृतीनां निम्बकांजीर विषहालाहल स्वरूपेणानुभागचिन्तनम् तथा घातिकर्मणां लतादार्वस्थिशिलास मानानुिंचतनं। नरवतिर्यग्मनुष्यदेवगतिप्रापककर्मफलचिन्तनं इत्येवमादिचिन्तनं विपाकविचयधम्र्यध्यानं नामेति।।४०१।। संस्थानविचयस्वरूपं विवृण्वन्नाह—

उड्ढमहतिरियलोए विचिणादि सपज्जए ससंठाणे।
एत्थेव अणुगदाओ अणुपेक्खाओ य विचिणादि।।४०२।।

ऊध्र्वलोवंâ सपर्ययं सभेदं संस्थानं त्र्यस्रचतुरस्रवृत्तदीर्घायतमृदंगसंस्थानं पटलेन्द्रकश्रेणीबप्रकीर्णकविमानभेदभिन्नं विचिनोति ध्यायति। तथाधोलोवंâ सपर्ययं ससंस्थानं वेत्रासनाद्याकृतिं त्र्यस्रचतुरस्रवृत्तदीर्घायतादिसंस्थानभेदभिन्नं सप्तपृथिवीन्द्र-
उपायविचय धर्मध्यान है; जीव के प्रदेशों को संतर्पित करने वाला सुख है और आत्मा के प्रदेशों में पीड़ा उत्पन्न करने वाला दुःख है। इस तरह से जीवों के सुख और दुःख का चिन्तवन करना अर्थात् जीव इन कार्यों के द्वारा जिनशासन से दूर हो जाते हैं और इन शुभ कार्यों के द्वारा जिनशासन के निकट आते हैं, उसे प्राप्त कर लेते हैं। या इन परिणामों से संसार में भ्रमण करते हैं और इन परिणामों से संसार से छूट जाते हैं। इस प्रकार से चिन्तवन करना यह अपायविचय नाम का दूसरा धर्मध्यान है।
भावार्थ — कल्याण के लिए उपायभूत रत्नत्रय का चिन्तवन करना उपायविचय तथा कर्मों के अपाय—अभाव का चिन्तवन करना अपायविचय है। अब विपाकविचय का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ — जीवों के एक और अनेक भव में होने वाले पुण्य-पाप कर्म के फल को तथा कर्मों के उदय, उदीरणा, बन्ध और मोक्ष को जो ध्याता है उसके विपाकविचय धर्मध्यान होता है।।४०१।।
आचारवृत्ति — मुनि विपाकविचय धम्र्यध्यान में जीवों के एक भव में होने वाले या अनेक भव में होने वाले पुण्यकर्म के और पापकर्म के फल का चिन्तन करते हैं। कर्मों के उदय का विचार करते हैं। स्थिति के क्षय से गलन होना उदय है अर्थात् जो कर्मस्कन्ध उत्कर्षण या अपकर्षण आदि प्रयोग द्वारा स्थिति क्षय को प्राप्त करके आत्मा को फल देते हैं उन कर्मस्कन्धों की उदय यह संज्ञा है। वे जीवों के कर्मोदय का विचार करते हैं। अपक्वपाचन को उदीरणा कहते हैं अर्थात् जो कर्मस्कन्ध स्थिति और अनुभाग के अवशेष रहते हुए विद्यमान हैं उनको खींच करके जो अकाल में ही उन्हें फल देने वाला कर लेना है सो उदीरणा है अर्थात् प्रयोग के बल से अकाल में ही कर्मों को उदयावली में ले आना उदीरणा है। इसका ध्यान करते हैं। किसी प्रकृति का पर-प्रकृतिरूप से होना बन्ध है। जीव और कर्म के प्रदेशों का पृथक्करण होकर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य स्वरूप को प्राप्त हो जाना मोक्ष है। इस संक्रमण का, बंध और मोक्ष का चिन्तवन करते हैं। उसी प्रकार से शुभ प्रकृतियों के गुड़, खांड, शर्करा और अमृत रूप अनुभाग का चिन्तवन करना तथा अशुभ प्रकृतियों का नीम, कांजीर, विष और हालाहलरूप अनुभाग का विचार करना तथा घातिकर्मों का लता, दारू, हड्डी और शिला के समान अनुभाग है ऐसा सोचना नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति को प्राप्त कराने वाले ऐसे कर्मों के फल का चिन्तन करना इत्यादि प्रकार से जो भी कर्मसम्बन्धी चिन्तन करना है, यह सब विपाकविचय नाम का धम्र्यध्यान है। संस्थानविचय का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ — भेदसहित और आकार सहित ऊध्र्व, अधः और तिर्यग्लोक का ध्यान करते हैं और इसी से सम्बन्धित द्वादश अनुप्रेक्षा का भी विचार करते हैं।।४०२।।
कश्रेणिविश्रेणिबद्धप्रकीर्णकप्रस्तरस्वरूपेण स्थितं शीतोष्णनारकसहितं महावेदनारूपं च विचिनोति। तथा तिर्यग्लोकं सपर्ययं सभेदं ससंस्थानं झल्लर्याकारं मेरुकुलपर्वतादि ग्रामनगरपत्तनभेदभिन्नं पूर्वविदेहापरविदेहभरतैरावतभोगभूमिद्वीपसमुद्रवननदीवेदिकाय-तनकूटादिभेदभिन्नं दीर्घह्रस्ववृत्तायतत्र्यराचतुरस्रसंस्थानसहितं विचिनोति ध्यायतीति सम्बन्धः। अत्रैवानुगता अनुप्रेक्षा द्वादशानुप्रेक्षा विचिनोति।।४०२।। कस्ता अनुप्रेक्षा इति नामानीति दर्शयन्नाह—

अद्धुवमसरणमेगत्तमण्ण संसारलोगमसुचित्तं।
आसवसंवरणिज्जर धम्मं बोिंध च िंचतिज्जो।।४०३।।

अध्रुवमनित्यता। अशरणमनाश्रयः। एकत्वमेकोऽहं। अन्यत्वं शरीरादन्योऽहं। संसारश्चतुर्गतिसंक्रमणं। लोक ऊध्र्वाधोमध्यवेत्रासनझल्लरीमृदंगरूपश्चतुर्दश-रज्जवायतः। अशुचित्वं। आस्रवः कर्मास्रवः। संवरो महाव्रतादिकं। निर्जरा कर्मसातनं। धर्मोऽपि दशप्रकारः क्षमादिलक्षणः। बोधिं च सम्यक्त्वसहिता भावना एता द्वादशानुप्रेक्षाश्चिन्तय। तत् एतच्चर्तुिवधं धर्मध्यानं नामेति।।४०३।। शुक्लध्यानस्य स्वरूपं भेदांश्च विवेचयन्नाह—

उवसंतो दु पुहुत्तं झायदि झाणं विदक्कवीचारं।
खीणकसाओ झायदि एयत्तविदक्कवीचारं।।४०४।।

उपशान्तकषायस्तु पृथक्त्वं ध्यायति ध्यानं। द्रव्याण्यनेकभेदभिन्नानि त्रिभियोगैर्यतो ध्यायति ततः पृथक्त्वमित्युच्यते। वितर् श्रुतं यस्माद्वितर्वेण श्रुतेन सह वर्तते यस्माच्च नवदशचतुर्दशपूर्वधरैरारभ्यते तस्मात्सवितर्वक तत्। विचारोर्थव्यंजनयोगः (ग) संक्रमणः। एकमर्थं त्यक्त्वार्थान्तरं ध्यायति मनसा संिंचत्य वचसा प्रवर्तते कायेन प्रवर्तते एव
आचारवृत्ति — ऊध्र्वलोक पर्याय सहित अर्थात् भेदों सहित तथा आकार सहित—त्रिकोण, चतुष्कोण, गोल, दीर्घ, आयत और मृदंग के आकार वाला है। इसमें पटलों में इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानों से अनेक भेद हैं। इसका मुनि ध्यान करते हैं। अधोलोक भी भेद सहित और वेत्रासन आदि आकार सहित है। त्रिकोण, चतुष्कोण, गोल, दीर्घ आदि आकार इसमें भी घटित होते हैं। इसमें सात पृथिवियाँ हैं। इन्द्रक, श्रेणी, विश्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक प्रस्तार हैं। कुछ नरकबिल शीत हैं और कुछ उष्ण हैं। ये महावेदनारूप हैं इत्यादि का ध्यान करना। उसी प्रकार से तिर्यग्लोक भी नाना भेदों सहित और अनेक आकृति वाला है, झल्लरी के समान है, मेरु पर्वत, कुलपर्वत आदि तथा ग्राम, नगर, पत्तन आदि से भेद सहित है। पूर्वविदेह, अपरविदेह, भरत, ऐरावत, भोगभूमि, द्वीप, समुद्र, वन, नदी, वेदिका, आयतन और कूटादि से युक्त है। दीर्घ, ह्रस्व, गोल, आयत, त्रिकोण, चतुष्कोण आकारों से सहित है। मुनि इसका भी ध्यान करते हैं अर्थात् मुनि तीनों लोक सम्बन्धी जो कुछ आकार आदि का चिन्तवन करते हैं वह सब संस्थानविचय धर्मध्यान है और इन्हीं के अन्तर्गत द्वादश अनुप्रेक्षाओं का भी चिन्तवन करते हैं। उन अनुप्रेक्षाओं के नाम बताते हैं—
गाथार्थ — अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि इनका चिन्तवन करना चाहिए।।४०३।।
आचारवृत्ति — अध्रुव—सभी वस्तुएँ अनित्य हैं। अशरण—कोई आश्रयभूत नहीं है। एकत्व—मैं अकेला हूँ। अन्यत्व—मैं शरीर से भिन्न हूँ। संसार—चतुर्गति में संसरण करना—भ्रमण करना ही संसार है। लोक—यह ऊध्र्व, अधः और मध्यलोक की अपेक्षा वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के आकार का है और चौदह राजू ऊँचा है। अशुचि—शरीर अत्यन्त अपवित्र है। आस्रव—कर्मों का आना आस्रव है। संवर—महाव्रत आदि से आते हुए कर्म रुक जाते हैं। निर्जरा—कर्मों का झड़ना निर्जरा है। धर्म—उत्तम क्षमा आदि लक्षणरूप धर्म दश प्रकार का है। बोधि—सम्यक्त्व सहित भावना ही बोधि है। इस प्रकार से इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करना चाहिए। शुक्लध्यान का स्वरूप और उसके भेदों को कहते हैं—
गाथार्थ — उपशान्तकषाय मुनि पृथक्त्ववितर्वâवीचार नामक शुक्लध्यान को ध्याते हैं। क्षीणकषाय मुनि एकत्ववितर्व अवीचार नामक ध्यान करते हैं।।४०४।।
आचारवृत्ति — उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि पृथक्त्ववितर्व-वीचार ध्यान को ध्याते हैं। जीवादि द्रव्य अनेक भेदों से सहित हैं, मुनि इनको मन, वचन और काय इन तीनों योगों के द्वारा ध्याते हैं इसलिए इस ध्यान का पृथक्त्व यह सार्थक नाम है। श्रुत को वितर्व कहते हैं। वितर्व—श्रुत के साथ रहता है अर्थात् नवपूर्वधारी, दशपूर्वधारी या चतुर्दश पूर्वधरों के द्वारा प्रारम्भ किया जाता है इसलिए वह वितर्क कहलाता है। अर्थ, व्यंजन और योगों के संक्रमण का नाम वीचार है अर्थात् जो एक अर्थ—पदार्थ को छोड़कर भिन्न अर्थ का ध्यान करता है, मन से चिन्तवन करके वचन से करता है, पुनः काययोग से ध्याता है। इस तरह परम्परा से योगों का संक्रमण होता है अर्थात् द्रव्यों का संक्रमण होता है और व्यंजन अर्थात् पर्यायों का संक्रमण होता है। पर्यायों में स्थूल पर्यायें व्यंजन पर्याय हैं और जो वचन के अगोचर सूक्ष्म पर्याय हैं वे अर्थ पर्यायें कहलाती हैं। इनका संक्रमण इस ध्यान में होता है इसलिए यह ध्यान
परंपरेण संक्रमो योगानां द्रव्याणां व्यंजनानां च स्थूलपर्यायाणामर्थानां सूक्ष्मपर्यायाणां वचनगोचरातीतानां संक्रमः सवीचारं यानमिति। अस्य त्रिप्रकारस्य ध्यानस्योपशान्त-कषायः स्वामी। तथा क्षीणकषायो ध्यायत्येकत्वं वितर्वâमवीचारं। एवंâ द्रव्यमेकार्थपर्याय- मेवंâ व्यंजनपर्यायं च योगनैकेन ध्यायति तद्ध्यानमेकत्वं, वितर्वâः श्रुतं पूर्वोक्तमेव, अवीचारं अर्थव्यंजनयोगसंक्रान्तिरहितं। अस्य त्रिप्रकारस्यैकत्ववितर्वâवीचारभेदभिन्नस्य क्षीणकषायः स्वामी।।४०४।। तृतीयचतुर्थशुक्लध्यानस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह—

सुहुसकिरियं सजोगी झायदि झाणं च तदियसुक्कंतु।
जं केवली अजोगी झायदि झाणं समुच्छिण्णं।।४०५।।

सूक्ष्मक्रियामवितर्कमवीचारं श्रुतावष्टम्भरहितमर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिवियुक्तं सूक्ष्मकायक्रियाव्यवस्थितं तृतीयं शुक्लं सयोगी ध्यायति ध्यानमिति। यत्कैवल्ययोगी ध्यायति ध्यानं तत्समुच्छिन्नमवितर्कमविचारमनिवृत्तिनिरुद्धयोगमपश्चिमं शुक्लमविचलं मणिशिखावत्। तस्य चतुर्थध्यानस्यायोगी स्वामी। यद्यप्यत्र मानसो व्यापारो नास्ति तथाप्युपचारक्रिया ध्यानमित्युपचर्यते। पूर्वप्रवृत्तिमपेक्ष्य घृतघटवत् पुंवेदवद्वेति।।४०५।। व्युत्सर्गनिरूपणायाह—

दुविहो य विउस्सग्गो अब्भंतर बाहिरो मुणेयव्वो।
अब्भंतर कोहादी बाहिर खेत्तादियं दव्वं।।४०६।।

द्विविधो द्विप्रकारो व्युत्सर्गः परिग्रहपरित्यागोऽभ्यन्तरवाहिरो अभ्यन्तरो बाह्यश्च ज्ञातव्यः। क्रोधादीनां व्युत्सर्गोभ्यन्तरः क्षेत्रादिद्रव्यस्य त्यागो बाह्यो व्युत्सर्ग इति।।४०६।।

वीचार सहित है अतः इसका सार्थक नाम पृथक्त्ववितर्कवीचार है। इस ध्यान में तीन प्रकार हो जाते हैं अर्थात् पृथक्त्व—नाना भेदरूप द्रव्य, वितर्क—श्रुत और वीचार—अर्थ व्यंजन, योग का संक्रमण इन तीनों की अपेक्षा से यह ध्यान तीन प्रकार रूप है। इस ध्यान के स्वामी उपशान्तकषायी महामुनि हैं। क्षीणकषायगुणस्थान वाले मुनि एकत्ववितर्व अवीचार ध्यान को ध्याते हैं। वे एक द्रव्य को अथवा एक अर्थपर्याय को या एक व्यंजन पर्याय को किसी एक योग के द्वारा ध्याते हैं अतः यह ध्यान एकत्व कहलाता है। इसमें वितर्व—श्रुत पूर्वकथित ही है अर्थात् नव, दश या चतुर्दश पूर्वों के वेत्ता मुनि ही ध्याते हैं। अर्थ, व्यंजन और योगों की संक्रान्ति से रहित होने से यह ध्यान अवीचार है। इसमें भी एकत्व, वितर्व और अवीचार ये तीन प्रकार होते हैं। इस तीन प्रकाररूप एकत्व, वितर्व, अवीचार ध्यान को करने वाले क्षीणकषाय महामुनि ही इसके स्वामी हैं। विशेषार्थ—यहाँ पर उपशान्तकषाय वाले के प्रथम शुक्लध्यान और क्षीणकषाय वाले के द्वितीय शुक्लध्यान माना है। श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी ‘तत्त्वार्थसार’ में कहा है—

‘द्रव्याण्यनेकभेदानि योगैध्र्यायति यत्रिभिः।
शांतमोहस्ततो ह्येतत्पृथक्त्वमिति कीर्तितम् ।।४७।।
द्रव्यमेवं तथैकेन योगेनान्यतरेण च।
ध्यायति क्षीणमोहो यत्तदेकत्वमिदं भवेत्।।४८।।

अभिप्राय यही है कि उपशान्तमोह मुनि पृथक्त्ववितर्ववीचार शुक्लध्यान को ध्याते हैं और क्षीणमोह मुनि एकत्ववितर्कवीचार को ध्याते हैं। तृतीय और चतुर्थ शुक्लध्यान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं—
गाथार्थ — सूक्ष्मक्रिया नामक तीसरा शुक्लध्यान सयोगी ध्याते हैं। जो अयोगी केवली ध्याते हैं वह समुच्छिन्न ध्यान है।।४०५।।
आचारवृत्ति — जो सूक्ष्मकाय क्रिया में व्यवस्थित है अर्थात् जिनमें काययोग की क्रिया भी सूक्ष्म हो चुकी है वह सूक्ष्मक्रिया ध्यान है। यह अवितर्क और अविचार श्रुत के अवलम्बन से रहित है अतः अवितर्क है और इसमें अर्थ, व्यंजन तथा योगों का संक्रमण नहीं है अतः यह अविचार है। ऐसे इस सूक्ष्मक्रिया नामक तृतीय शुक्लध्यान को सयोग केवली ध्याते हैं।
जिस ध्यान को अयोगकेवली ध्याते हैं वह समुच्छिन्न है। वह अवितर्क, अविचार, अनिवृत्तिनिरुद्ध योग, अनुत्तर, शुक्ल और अविचल है, मणिशिखा के समान है अर्थात् इस समुच्छिन्न ध्यान में श्रुत का अवलम्बन नहीं है अतः अवितर्क है। अर्थ व्यंजन योग की संक्रान्ति भी नहीं है अतः अविचार है। सम्पूर्ण योगों का—काययोग का भी निरोध हो जाने से यह अनिवृत्तिनिरोध योग है। सभी ध्यानों में अन्तिम है इससे उत्कृष्ट अब और कोई ध्यान नहीं रहा है अतः यह अनुत्तर है। परिपूर्णतया स्वच्छ उज्ज्वल होने से शुक्लध्यान इसका नाम है। यह मणि के दीपक की शिखा के समान होने से पूर्णतया अविचल है। इस चतुर्थ ध्यान के स्वामी चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली हैं।
यद्यपि इन तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में मन का व्यापार नहीं है तो भी उपचार क्रिया से ध्यान का उपचार किया गया है। यह ध्यान का कथन पूर्व में होने वाले ध्यान

अभ्यन्तरस्य व्युत्सर्ग भेदप्रतिपादनार्थमाह—
मिच्छत्तवेदरागा तहेव हस्सादिया य छद्दोसा।
चत्तारि तह कसाया चोद्दस अब्भंतरा गंथा।।४०७।।

मिथ्यात्वं। स्त्रीपुंनपुंसकवेदास्त्रयः। रागा हास्यादयः षट् दोषा हास्यरत्यरतिशोक-भयजुगुप्साः चत्वारस्तथा कषाया क्रोधमानमायालोभाः। एते चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः। एतेषां परित्यागोऽभ्यन्तरो व्युत्सर्ग इति।।४०७।। बाह्यव्युत्सर्गभेद प्रतिपादनार्थमाह—

खेत्तं वत्थु धणधण्णगदं दुपदचदुप्पदगदं च।
जाणसयणासणाणि य कुप्पे भंडेसु दस होंति।।४०८।।

क्षेत्रं सस्यादिनिष्पत्तिस्थानं। वास्तु गृहप्रसादादिवं। धनगतं सुवर्णरूप्यद्रव्यादि। धान्यगतं शालियवगोधूमादिकं द्विपदा दासीदासादयः। चतुष्पदगतं गोमहिष्याजादिगतं। यानं शयनमासनं। कुप्यं कार्पासादिवंâ। भाण्डं िंहगुमरीचादिवंâ। एवं बाह्यपरिग्रहो दशप्रकारस्तस्य त्यागो बाह्यो व्युत्सर्ग इति।।४०८।। द्वादशविधस्यापि तपसः स्वाध्यायोऽधिक इत्याह—

बारसविधह्मिवि तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदिट्ठे।
णवि अत्थि णवि य होही सज्झायसमं तवोकम्मं।।४०९।।

द्वादशविधस्यापि तपसः सबाह्याभ्यन्तरे कुशलदृष्टे सर्वज्ञगणधरादिप्रतिपादिते नाप्यस्ति नापि च भविष्यति स्वाध्यायसमानं तपःकर्म। द्वादशविधेऽपि तपसि मध्ये स्वाध्यायसमानं तपोनुष्ठानं न भवति न भविष्यति।।४०९।।

सज्झायं कुव्वंतो पंचेंदियसंवुडो तिगुत्तो य।
हवदि य एअग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खू।।४१०।।

की प्रवृत्ति की अपेक्षा करके कहा गया है, जैसे कि पहले घड़े में घी रखा था पुनः उस घड़े से घी निकाल देने के बाद भी उसे घी का घड़ा कह देते हैं अथवा पुरुषवेद का उदय नवमें गुणस्थान में समाप्त हो गया है फिर भी पूर्व की अपेक्षा वेद से मोक्ष की प्राप्ति कह देते हैं।
भावार्थ — इन सयोगी और अयोगकेवली के मन का व्यापार न होने से इनमें ‘एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानं’ यह ध्यान का लक्षण नहीं पाया जाता है। फिर भी कर्मों का नाश होना यह ध्यान का कार्य देखा जाता है अतएव वहाँ पर उपचार से ध्यान माना जाता है। अब अन्तिम व्युत्सर्ग तप का निरूपण करते हैं—
गाथार्थ — आभ्यन्तर और बाह्य के भेद से व्युत्सर्ग दो प्रकार जानना चाहिए। क्रोध आदि अभ्यन्तर हैं और क्षेत्र आदि द्रव्य बाह्य हैं।।४०६।।
आचारवृत्ति — परिग्रह का परित्याग करना व्युत्सर्ग तप है। वह दो प्रकार का है—अभ्यन्तर और बाह्य। क्रोधादि अभ्यन्तर परिग्रह हैं, इनका परित्याग करना अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है। क्षेत्र आदि बाह्य द्रव्य का त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग है। अभ्यन्तर व्युत्सर्ग का वर्णन करते हैं—
भावार्थ — मथ्यात्व, तीन वेद, हास्य आदि छह दोष और चार कषायें ये चौदह अभ्यन्तर परिग्रह हैं।।४०७।।
आचारवृत्ति — मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चौदह अभ्यन्तर परिग्रह हैं। इनका परित्याग करना अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है। बाह्य व्युत्सर्ग भेद का प्रतिपादन करते हैं—
भावार्थ — क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन-आसन, कुप्य और भांड ये दश परिग्रह होते हैं।।४०८।। आचारवृत्ति—धान्य आदि की उत्पत्ति के स्थान को क्षेत्र—खेत कहते हैं। घर, महल आदि वास्तु हैं। सोना, चाँदी आदि द्रव्य धन हैं। शालि, जौ, गेहूँ आदि धान्य हैं। दासी, दास आदि द्विपद हैं। गाय, भैंस, बकरी आदि चतुष्पद हैं। वाहन आदि यान हैं। पलंग, िंसहासन आदि शयन-आसन हैं। कपास आदि कुप्य कहलाते हैं और हींग, मिर्च आदि को भांड कहते हैं। ये बाह्य परिग्रह दश प्रकार के हैं, इनका त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग है। बारह प्रकार के तप में भी स्वाध्याय सबसे श्रेष्ठ है ऐसा निरूपण करते हैं—
गाथार्थ — कुशल महापुरुष के द्वारा देखे गए अभ्यन्तर और बाह्य ऐसे बारह प्रकार के भी तप में स्वाध्याय के समान अन्य कोई तप न है और न ही होगा।।४०९।।
आचारवृत्ति — सर्वज्ञदेव और गणधर आदि के द्वारा प्रतिपादित इन बाह्य और अभ्यन्तर रूप बारह प्रकार के तपों में भी स्वाध्याय के समान न कोई अन्य तप है ही और न ही होगा अर्थात् बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय तप सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
गाथार्थ — विनय से सहित हुआ मुनि स्वाध्याय को करते हुए पंचेन्द्रिय से संवृत्त और तीन गुप्ति से गुप्त होकर एकाग्रमन वाला हो जाता है।।४१०।।
स्वाध्यायं कुर्वन् पंचेन्द्रियसंवृतः त्रिगुप्तश्चेन्द्रियव्यापाररहितो मनोवाक्कायगुप्तश्च, भवत्येकाग्रमनाः शास्त्रार्थतन्निष्ठो विनयेन समाहितो विययुक्तो भिक्षुः साधुः। स्वाध्यायस्य माहात्म्यं र्दिशतमाभ्यां गाथाभ्यामिति।।४१०।। तपोविधानक्रममाह—

सद्धिप्पासादवदंसयस्स करणं चदुव्विहं होदि।
दव्वे खेत्ते काले भावे वि य आणुपुव्वीए।।४११।।

तस्य द्वादशविधस्यापि तपसः किंविशिष्टस्य, सिद्धिप्रासादावतंसकस्य मोक्षगृहकर्णपूरस्य मण्डनस्याथवा सिद्धिप्रासादप्रवेशकस्य करणमनुष्ठानं चर्तुिवधं भवति। द्रव्यमाहारशरीरादिकं। क्षेत्रमनूपमरुजांगलादिकं स्निग्धरूक्षवातपित्तश्लेष्म-प्रकोपकं। कालः शीतोष्णवर्षादिरूपः। भावः (व) परिणामश्चित्तसंक्लेशः। द्रव्यक्षेत्र-कालभावानाश्रित्य तपः कुर्यात्। यथा वातपित्तश्लेष्मविकारो न भवति। आनुपूव्र्यानुक्रमेण क्रमं त्यक्त्वा यदि तपः करोति चित्तसंक्लेशो भवति संक्लेषाच्च कर्मबन्धः स्यादिति।।४११।। तपोऽधिकारमुपसंहरन् वीर्या सूचयन्नाह—

अब्भंतरसोहणओ एसो अब्भंतरो तओ भणिओ।
एत्तो विरियाचारं समासओ वण्णइस्सामि।।४१२।।

अभ्यन्तरशोधनकमेतदभ्यन्तरतपो भणितं भावशोधनायैतत्तपः तथा बाह्यमप्युक्तं। इत ऊध्र्वं वीर्याचारं वर्णयिष्यामि संक्षेपत इति।।४१२।।
आचारवृत्ति — जो मुनि विनय से युक्त होकर स्वाध्याय करते हैं वे उस समय स्वाध्याय को करते हुए पंचेन्द्रियों के विषय व्यापार से रहित हो जाते हैं और मन-वचन-काय-रूप तीन गुप्ति से सहित हो जाते हैं तथा शास्त्र पढ़ने और उसके अर्थ के चिन्तन में तल्लीन होने से एकाग्रचित्त हो जाते हैं। इन दो गाथाओं के द्वारा स्वाध्याय का माहात्म्य दिखलाया है। तप के विधान का क्रम बतलाते हैं—
गाथार्थ — मोक्षमहल के भूषणरूप तप के कारण चार प्रकार के हैं जो कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप क्रम से हैं।।४११।।
आचारवृत्ति — यह जो बारह प्रकार तप है वह सिद्धिप्रासाद का भूषण है, मोक्ष महल का कर्णफूल है अर्थात् मोक्षमहल का मंडनरूप है अथवा मोक्षमहल में प्रवेश करने का साधन है। ऐसा यह तपश्चरण का अनुष्ठान चार प्रकार का है अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों का आश्रय लेकर यह तप होता है। आहार और शरीर आदि को द्रव्य कहते हैं। अनूप—जहाँ पानी बहुत पाया जाता है, मरु—जहाँ पानी बहुत कम है, जांगल—जलरहित प्रदेश, ये स्थान स्निग्ध रूक्ष हैं एवं वात, पित्त या कफ को बढ़ाने वाले हैं। ये सब क्षेत्र कहलाते हैं। शीत, उष्ण, वर्षा आदि रूप काल होता है और चित्त के संक्लेश आदि रूप परिणाम को भाव कहते हैं। अपनी प्रकृति आदि के अनुकूल इन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को देखकर तपश्चरण करना चाहिए। जिस प्रकार से वात, पित्त या कफ का विकार उत्पन्न न हो, अनुक्रम से ऐसा ही तप करना चाहिए। यदि मुनि क्रम का उल्लंघन करके तप करते हैं तो चित्त में संक्लेश हो जाता है और चित्त में संक्लेश के होने से कर्म का बन्ध होता है।
भावार्थ — जिस आहार आदि द्रव्य से वात आदि विकार उत्पन्न न हो, वैसा आहार आदि लेकर पुनः उपवास आदि करना चाहिए। किसी देश में वात प्रकोप हो जाता है, किसी देश में पित्त का या किसी देश में कफ का प्रकोप बढ़ जाता है ऐसे क्षेत्र को भी अपने स्वास्थ्य के अनुकूल देखकर ही तपश्चरण करना चाहिए। जैसे, जो उष्ण प्रदेश हैं वहाँ पर उपवास अधिक होने से पित्त का प्रकोप हो सकता है। ऐसे ही शीत काल, उष्णकाल और वर्षाकाल में भी अपने स्वास्थ्य को संभालते हुए तपश्चरण करना चाहिए। सभी ऋतुओं में समान उपवास आदि से वात, पित्त आदि विकार बढ़ सकते हैं तथा जिस प्रकार से परिणामों में संक्लेश न हो इतना ही तप करना चाहिए। इस तरह सारी बातें ध्यान में रखते हुए तपश्चरण करने से कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष की सिद्धि होती है अन्यथा, परिणामों में क्लेश हो जाने से कर्म बन्ध जाता है। यहाँ इतना ध्यान में रखना आवश्यक है कि प्रारम्भ में उपवास, कायक्लेश आदि को करने में परिणामों में कुछ क्लेश हो सकता है किन्तु अभ्यास के समय उससे घबराना नहीं चाहिए। धीरे-धीरे अभ्यास को बढ़ाते रहने से बड़े-बड़े उपवास और कायक्लेश आदि सहज होने लगते हैं। अब तप आचार के अधिकार का उपसंहार करते हुए और वीर्याचार को सूचित करते हुए आचार्य कहते हैं—
गाथार्थ — अन्तरंग को शुद्ध करने वाला यह अन्तरंग तप कहा गया है। इसके बाद संक्षेप से वीर्याचार का वर्णन करूँगा।।४१२।।
आचारवृत्ति — भावों को शुद्ध करने के लिए यह अभ्यन्तर तप कहा गया है और इसकी सिद्धि के लिए बाह्य तप को भी कहा है। अब इसके बाद मैं वीर्याचार को थोड़े रूप में कहूँगा।