प्रायश्चित्तं—पूर्वापराधशोधनं। विनयमनुतद्ध् वृत्तिः। वैयावृत्यं स्वशक्त्योपकारः। तथैव स्वाध्यायः सिद्धान्ताद्यध्ययनं। ध्यानं चैकाग्रिंचतानिरोधः व्युत्सर्गः। अभ्यन्तरतप एतदिति।।३६०।।
प्रायश्चित्तस्वरूपं निरूपयन्नाह—

पायच्छित्तं त्ति तवो जेण विसुज्झदि हु पुव्वकयपावं।
पायच्छित्तं पत्तोति तेण वुत्तं दसविहं तु।।३६१।।

आचारवृत्ति — बाह्य तप वही है कि जिससे मन में संक्लेश नहीं उत्पन्न होता है, जिससे श्रद्धा—शुभ अनुराग उत्पन्न होता है और जिससे योग अर्थात् मूलगुण हानि को प्राप्त नहीं होते हैं अर्थात् बाह्य तप का अनुष्ठान वही अच्छा माना जाता है कि जिसके करने से मन में संक्लेश न उत्पन्न हो जावे या शुभ परिणामों का विघात न हो जावे अथवा मूलगुणों की हानि न हो जावे।
गाथार्थ — यह बाह्य तप बाह्य जैन मत से र्बिहभूत जनों में प्रगट है, परम घोर है, सो कहा गया है। अब मैं अभ्यन्तर—जैनदृष्टि लोगों में प्रसिद्ध ऐसे अभ्यन्तर तप को कहूँगा।।३५९।।
आचारवृत्ति — यह छः प्रकार का बाह्य तप का, जो मिथ्या दृष्टिजनों में भी प्रख्यात है और अत्यन्त दुष्कर है, मैंने प्रतिपादन किया है। अब आगम में प्रवेश करने वाले ऐसे सम्यग्दृष्टिजनों के द्वारा जाने गए छह भेद वाले अभ्यन्तर तप को भी मैं कहूँगा। अभ्यन्तर तप के वे छह प्रकार कौन से हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं—
गाथार्थ — प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग, ये अभ्यन्तर तप हैं।।३६०।।
आचारवृत्ति — पूर्व के किए हुए अपराधों का शोधन करना प्रायश्चित्त है। उद्धतपनरहित वृत्ति का होना अर्थात् नम्र वृत्ति का होना विनय है। अपनी शक्ति के अनुसार उपकार करना वैयावृत्त्य है। सिद्धान्त आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय है। एक विषय पर चिन्ता का निरोध करना ध्यान है और उपधि का त्याग करना व्युत्सर्ग है। ये छह अभ्यन्तर तप हैं।
प्रायश्चित्तमपराधं प्राप्तः सन् येन तपसा पूर्वकृतात्पापात् विशुद्धयते हु—स्फुटं पूर्वं व्रतैः सम्पूर्णो भवति तत्तपस्तेन कारणेन दशप्रकारं प्रायश्चित्तमिति।।३६१।।
के ते दशप्रकारा इत्याशंकायामाह—

आलोयणपडिकमणं उभयविवेगो तहा विउस्सग्गो।
तव छेदो मूलं विय परिहारो चेव सद्दहणा।।३६२।।

आलोचना—आचार्याय देवाय वा चारित्राचारपूर्वकमुत्पन्नापराघनिवेदनं। प्रतिक्रमणं—रात्रि भोजनत्यागव्रतसहितपंचमहाव्रतोच्चारणं संभावनं दिवसप्रतिक्रमणं पाक्षिकं वा। उभयं—आलोचन प्रतिक्रमणे। विवेको—द्वप्रकारो गणविवेकः स्थानविवेको वा। तथा व्युत्सर्गः—कायोत्सर्गः। तपोऽनशनादिकं। छेदो—दीक्षायाः पक्षमासादिभिर्हानिः। मूलं—पुनरद्य प्रभृति व्रतारोपणं। अपि च परिहारो द्विप्रकारो गणप्रतिबद्धोऽप्रतिबद्धो वा। यत्र प्रश्रवणादिकं कुर्वन्ति मुनयस्तत्र तिष्ठन्ति पिछिकामग्रतः कृत्वा यतीनां वन्दनां करोति तस्य यतयो न कुर्वन्ति, एवं या गणे क्रिया गणप्रतिबद्धः परिहारः। यत्र देशे धर्मो न ज्ञायते तत्र गत्वा मौनेन तपश्चरणानुष्ठानकरणमगणप्रतिबद्धः परिहारः। तथा श्रद्धानं तत्त्वरुचौ परिणामः क्रोधादिपरित्यागो वा। एतद्दशप्रकारं प्रायश्चित्तं दोषानुरूपं दातव्यमिति। कश्चिद्दोषः आलोचनमात्रेण निराक्रियते। कश्चित्प्रतिक्रमणेन कश्चिदालोचनप्रतिक्रमणाभ्यां कश्चिद्विवेकेन कश्चित्कायोत्सर्गेण कश्चित्तपसा कश्चिच्छेदेन कश्चिन्मूलेन कश्चित्परिहारेण कश्चिच्छ्रद्धानेनेति।।३६२।।
अब प्रायश्चित्त का स्वरूप निरूपित करते हैं— गाथार्थ — अपराध को प्राप्त हुआ जीव जिसके द्वारा पूर्वकृत पाप से विशुद्ध हो जाता है वह प्रायश्चित्त तप है। इस कारण से वह प्रायश्चित्त दश प्रकार का कहा गया है।।३६१।।
आचारवृत्ति — अपराध को प्राप्त हुआ जीव जिस तप के द्वारा अपने पूर्वसंचित पापों से विशुद्ध हो जाता है वह प्रायश्चित्त है। जिससे स्पष्टतया पूर्व के व्रतों से परिपूर्ण हो जाता है वह तप भी प्रायश्चित्त कहलाता है। वह प्रायश्चित्त दश प्रकार का है।
वे दश प्रकार कौन से हैं ऐसी आशंका होने पर कहते हैं—
गाथार्थ — आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये दश भेद हैं।।३६२।।
आचारवृत्ति — आचार्य अथवा जिनदेव के समक्ष अपने में उत्पन्न हुए दोषों का चारित्राचारपूर्वक निवेदन करना आलोचना है। रात्रिभोजनत्याग व्रत सहित पाँच महाव्रतों का उच्चारण करना, सम्यव् प्रकार से उनको भाना अथवा दिवस और पाक्षिक सम्बन्धी
प्रायश्चित्तस्य नामानि प्राह—

पोराणकम्मखवणं खिवणं णिज्जरण सोधणं धुवणं।
पुंच्छणमुछिवण छिदणं त्ति पायच्छित्तस्स णामाइं।।३६३।।

पुराणस्य कर्मणः क्षपणं विनाशः, क्षेपणं, निर्जरणं, शोधनं, धावनं, पुच्छणं, निराकरणं, उत्क्षेपणं, छेदनं द्वैधीकरणमिति प्रायश्चित्तस्यैतान्यष्टौ नामानि ज्ञातव्यानि भवन्तीति।।३६३।।
प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमण है। आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों को करना तदुभय है। विवेक के दो भेद हैं—गण विवेक और स्थानविवेक। कायोत्सर्ग को व्युत्सर्ग कहते हैं। अनशन आदि तप हैं। पक्ष-मास आदि से दीक्षा की हानि कर देना छेद है। आज से लेकर पुनः व्रतों का आरोपण करना अर्थात् फिर से दीक्षा देना मूल है। परिहार प्रायश्चित्त के भी दो भेद हैं—गणप्रसिद्ध और गण अप्रतिबद्ध। जहाँ मुनिगण मूत्रादि विसर्जन करते हैं, इस प्रायश्चित्त वाला पिच्छिका को आगे करके वहाँ पर रहता है, वह यतियों की वंदना करता है किन्तु अन्य मुनि उसको वन्दना नहीं करते हैं। इस प्रकार से जो गण में क्रिया होती है वह गणप्रतिबद्ध परिहार प्रायश्चित्त है। जिस देश में धर्म नहीं जाना जाता है वहाँ जाकर मौन से तपश्चरण का अनुष्ठान करते हैं उनके अगणप्रतिबद्ध परिहार प्रायश्चित्त होता है। तत्त्वरुचि में जो परिणाम होता है अथवा क्रोधादि का त्याग रूप जो परिणाम है वह श्रद्धान प्रायश्चित्त है। यह दश प्रकार का प्रायश्चित्त दोषों के अनुरूप देना चाहिए। कुछ दोष आलोचनामात्र से निराकृत हो जाते हैं, कुछ दोष प्रतिक्रमण से दूर किए जाते हैं तो कुछेक दोष आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों के द्वारा नष्ट किए जाते हैं, कई दोष विवेक प्रायश्चित्त से, कई कायोत्सर्ग से, कई दोष तप से, कई दोष छेद से, कई मूल प्रायश्चित्त से, कई परिहार से एवं कई दोष श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त से दूर किए जाते हैं।
विशेष — आजकल ‘परिहार’ नाम के प्रायश्चित्त को देने की परम्परा नहीं है।
प्रायश्चित के पर्यायवाची नामों को कहते हैं—
गाथार्थ — पुराने कर्मों का क्षपण, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुंछन, उत्क्षेपण और छेदन ये सब प्रायश्चित्त के नाम हैं।।३६३।। आचारवृत्ति—पुराने कर्मों का क्षपण—क्षय करना अर्थात् विनाश करना, क्षेपण—दूर करना, निर्जरण—निर्जरा करना, शोधन—शोधन करना, धावन—धोना, पुंछन—
विनयस्य स्वरूपमाह—

दंसणणाणेविणओ चरित्ततवओवचारिओ विणओ।
पंचविहो खलु विणओ पंचमगइणायगो भणिओ।।३६४।।

दर्शने विनयो ज्ञाने विनयश्चारित्रे विनयस्तपसि विनयः औपचारिको विनयः पंचविधः खलु विनयः पंचमीगतिनायकः प्रधानः भणितः प्रतिपादित इति।।३६४।। दर्शनविनयं प्रतिपादयन्नाह—

उवगूहणादिआ पुव्वुत्ता तह भत्तिआदिआ य गुणा।
संकादिवज्जणं पि य दंसणविणओ समासेण।।३६५।।

उपगूहनस्थिरीकरणवात्सल्यप्रभावनाः पूर्वोक्ताः। तथा भक्त्यादयो गुणाः पंचपरमेष्ठिभक्त्यानुरागस्तेषामेव पूजा तेषामेव गुणानुवर्णनं, नाशनमवर्णवादस्या-सादनापरिहारो भक्त्यादयो गुणाः। शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसानां वर्जनं परिहारो दर्शनविनयः समासेनेति।।३६५।।
पोछना अर्थात् निराकरण करना, उत्क्षेपण—पेंकना, छेदन—दो टुकड़े करना इस प्रकार ये प्रायश्चित्त के आठ नाम जानने चाहिए।
अब विनय का स्वरूप कहते हैं— गाथार्थ — दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तपोविनय और औपचारिक विनय यह पाँच प्रकार का विनय पंचमगति का नायक कहा गया है।।३६४।।
आचारवृत्ति — दर्शन में विनय, ज्ञान में विनय, चारित्र में विनय, तप में विनय और औपचारिक विनय यह पाँच प्रकार का विनय निश्चित रूप से पाँचवीं गति अर्थात् मोक्षगति में ले जाने वाला प्रधान कहा गया है, ऐसा समझना अर्थात् विनय मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है। दर्शन विनय का प्रतिपादन करते हैं—
गाथार्थ — पूर्व में कहे गए उपगूहन आदि तथा भक्ति आदि गुणों को धारण करना और शंकादि दोष का वर्जन करना यह संक्षेप से दर्शन विनय है।।३६५।।
आचारवृत्ति — उपगूहन, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये पूर्व में कहे गए हैं तथा पंच परमेष्ठियों में अनुराग करना, उन्हीं की पूजा करना, उन्हीं के गुणों का वर्णन करना, उनके प्रति लगाए गए अवर्णवाद अर्थात् असत्य आरोप का विनाश करना और उनकी आसादना अर्थात् अवहेलना का परिहार करना—ये भक्ति आदि गुण कहलाते हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा और अन्य दृष्टि—मथ्यादृष्टियों की प्रशंसा, इनका त्याग करना यह संक्षेप से दर्शन विनय है।

जे अत्थपज्जया खलु उवदिट्ठा जिणवरेिंह सुदणाणे।
ते तह रोचेदि णरो दंसणविणयो हवदि एसो।।३६६।।

येऽर्थपर्याया जीवाजीवादयः सूक्ष्मस्थूलभेदेनोपदिष्टाः स्पुटं जिनवरैः श्रुतज्ञाने द्वादशांगेषु चतुर्दशपूर्वेषु, तान् पदार्थांस्तथैव तेन प्रकारेण याथात्म्येन रोचयति नरो भव्यजीवो येन परिणामेन स एष दर्शनविनयो ज्ञातव्य इति।।३६६।। ज्ञानविनयं प्रतिपादयन्नाह—

काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे।
वंजणअत्थतदुभयं विणओ णाणम्हि अट्ठविहो।।३६७।।

द्वादशांगचतुर्दशपूर्वाणां कालशुद्ध्या पठनं व्याख्यानं परिवर्तनं वा। तथा हस्तपादौ प्रक्षाल्य पर्यकेऽवस्थितस्वाध्ययनं। अवग्रहविशेषेण पठनं। बहुमानं यत्पठति यस्माच्छ्रणोति तयोः पूजागुणस्तवनं। तथैवानिह्नवो यत्पठति यस्मात्पठति तयोः कीर्तनं।
भावार्थ — शंकादि चार दोषों का त्याग, उपगूहन आदि चार अंग जो विधिरूप हैं उनका पालन करना तथा पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदि करना यही सब दर्शन की विशुद्धि को करने वाला दर्शन विनय है।
गाथार्थ — जिनेन्द्रदेव ने आगम में निश्चित रूप से जिन द्रव्य और पर्यायों का उपदेश किया है, उनका जो मनुष्य वैसा ही श्रद्धान करता है वह दर्शन विनय वाला होता है।।३६६।।
आचारवृत्ति — सूक्ष्म और बादर के भेद से जिन जीव-अजीव आदि पदार्थों का जिनेन्द्रदेव ने द्वादशांग और चतुर्दशपूर्व रूप श्रुतज्ञान में स्पष्ट रूप से उपदेश दिया है, जो भव्य जीव उन पदार्थों का उसी प्रकार से जैसे का तैसा विश्वास करता है तथा जिस परिणाम से श्रद्धान करता है वह परिणाम ही दर्शनविनय है। ज्ञानविनय का प्रतिपादन करते हैं—
गाथार्थ — काल, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय—इनमें विनय करना यह ज्ञान सम्बन्धी विनय आठ प्रकार का है।।३६७।।
आचारवृत्ति — द्वादशांग और चतुर्दश पूर्वों को कालशुद्धि से पढ़ना, व्याख्यान करना अथवा परिवर्तन—पेâरना कालविनय है। उन्हीं ग्रन्थों का (या अन्य ग्रन्थों का) हाथ पैर धोकर पर्यंकासन से बैठकर अध्ययन करना विनयशुद्धि नाम का ज्ञानविनय है। नियम विशेष लेकर पढ़ना उपधान है। जो ग्रन्थ नियम से पढ़ते हैं और जिनके मुख से सुनते हैं उस पुस्तक और उन गुरु
व्यञ्जनशुद्धं, अर्थशुद्धं व्यञ्जनार्थोभयशुद्धं च यत्पठनं। अनेन न्यायेनाष्टप्रकारो ज्ञाने विनय इति।।३६७।।
तथा—

णाणं सिक्खदि णाणं गुणेदि णाणं परस्स उवदिसदि।
णाणेण कुणदि णायं णाणविणीदो हवदि एसो।।३६८।।

ज्ञान शिक्षते विद्योपादानं करोति। ज्ञानं गुणयति परिवर्तनं करोति। ज्ञानं परस्मै उपदिशति प्रतिपादयति। ज्ञानेन करोति न्यायमनुष्ठानं। य एवं करोति ज्ञानविनीतो भवत्येष इति। अथ दर्शनाचारदर्शनविनययोः को भेदस्तथा ज्ञानाचारज्ञानविनययोः कश्चन भेद इत्याशंकायामाह—शंकादिपरिणामपरिहारे यत्नः उपगूहनादिपरिणामानुष्ठाने यत्नः कालादिविनयः, तथा द्रव्यक्षेत्रभावादिविषयश्च यत्नः। ज्ञानाचारः पुनः कालशुद्ध्यादिषु सत्सु श्रुतं पठनयत्नं। ज्ञानविनयः श्रुतोपकरणेषु च यत्नः श्रुतविनयः। तथापनयति तपसा तमोऽज्ञानं उपनयति च मोक्षमार्गे आत्मानं तपोविनयः नियमितमतिः सोऽपि तपोविनय इति ज्ञातव्य इति।।३६८।।
इन दोनों की पूजा करना और उनके गुणों का स्तवन करना बहुमान है। उसी प्रकार से जिस ग्रन्थ को पढ़ते हैं और जिनसे पढ़ते हैं उनका नाम कीर्तित करना अर्थात् उस ग्रन्थ या उन गुरु के नाम को नहीं छिपाना यह अनिह्नव है। शब्दों को शुद्ध पढ़ना व्यंजन शुद्ध विनय है। अर्थ शुद्ध करना अर्थशुद्ध विनय है और दोनों को शुद्ध रखना व्यंजनार्थ उभयशुद्ध विनय है। इस न्याय से ज्ञान का विनय आठ प्रकार से करना चाहिए। उसी ज्ञान की विशेषता को कहते हैं— गाथार्थ — ज्ञान शिक्षित करता है, ज्ञान गुणी बनाता है, ज्ञान पर को उपदेश देता है, ज्ञान से न्याय किया जाता है। इस प्रकार यह जो करता है वह ज्ञान से विनयी होता है।।३६८।।
आचारवृत्ति — ज्ञान विद्या को प्राप्त कराता है। ज्ञान अवगुण को गुणरूप से परिवर्तित करता है। ज्ञान पर को उपदेश का प्रतिपादन करता है। ज्ञान से न्याय सत्प्रवृत्ति करता है जो ऐसा करता है वह ज्ञानविनीत होता है।
प्रश्न — दर्शनाचार और दर्शन विनय में क्या अन्तर है ? उसी प्रकार ज्ञानाचार और ज्ञान विनय में क्या अन्तर है ?
उत्तर — शंकादि परिणामों के परिहार में प्रयत्न करना और उपगूहन आदि गुणों के अनुष्ठान में प्रयत्न करना दर्शनविनय है। पुनः शंकादि के अभावपूर्वक तत्त्वों के श्रद्धान में यत्न करना दर्शनाचार है। उसी प्रकार कालशुद्धि आदि विषय अनुष्ठान में प्रयत्न
चारित्रविनयस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह—

इंदियकसायपणिहाणपि य गुत्तीओ चेव समिदीओ।
एसो चरित्तविणओ समासदो होइ णायव्वो।।३६९।।

इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि कषायाः क्रोधादयः तेषामिन्द्रियकषायाणां प्रणिधानं प्रसरहानिरिन्द्रियकषायप्रणिधानं इन्द्रियप्रसरनिवारणं कषायप्रसरनिवारणं। अथवेन्द्रियकषायाणां अपरिणामस्तद्गतव्यापारनिरोधनं। अपि च गुप्तयो मनोवचनकायशुभप्रवृत्तयः। समितय ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोच्चारप्रस्रवणप्रतिष्ठापनाः। एष चारित्रविनयः समासतः संक्षेपतो भवति ज्ञातव्यः। अत्रापि। समितिगुप्तय आचारः। तद्रक्षणोपाये यत्नश्चारित्रविनय इति।।३६९।। तपोविनयस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह—

उत्तरगुणउज्जोगो सम्मं अहियासणा य सद्धा य।
आवासयाणमुचिदाणं अपरिहाणीयणुस्सेहो।।३७०।।

आतापनाद्युत्तरगुणेषूद्योग उत्साहः। सम्यगध्यासनं तत्कृतश्रमस्य निराकुलतया सहनं। तद्गतश्रद्धा—तानुत्तरगुणान् कुर्वतः शोभनपरिणामः। आवश्यकानां समतास्तव-वन्दनाप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानकायोत्सर्गाणामुचितानां कर्मक्षयनिमित्तानां परिमितानामपरि-हाणिरनुत्सेधः न हानिः कर्तव्या नापि वृद्धिः। षडेव भावाश्चत्वारः पंच वा न कर्तव्याः।
करना काल आदि विनय हैं तथा द्रव्य, क्षेत्र और भाव आदि के विषय में प्रयत्न करना यह सब ज्ञानाचार है। कालशुद्धि आदि के होने पर श्रुत के पढ़ने का प्रयत्न करना ज्ञान विनय है और श्रुत के उपकरणों में अर्थात् ग्रन्थ, उपाध्याय आदि में प्रयत्न करना श्रुतविनय है। उसी प्रकार से जो तप से अज्ञान तम को दूर करता है और आत्मा को मोक्षमार्ग के समीप करता है वह तपोविनय है और नियमितमति होना है वह भी तप का विनय है ऐसा जानना चाहिए। चारित्र विनय का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं
गाथार्थ — इन्द्रिय और कषायों का निग्रह, गुप्तियाँ और समितियाँ संक्षेप से यह चारित्र विनय जानना चाहिए।।३६९।।
आचारवृत्ति — चक्षु आदि इन्द्रियाँ और क्रोधादि कषायों का प्रणिधान—प्रसार की हानि का होना अर्थात् इन्द्रिय के प्रसार का निवारण करना और कषायों के प्रसार का निवारण करना। अथवा इन्द्रिय और कषायों का परिणाम अर्थात् उनमें होने वाले व्यापार का निरोध करना, यह इन्द्रिय कषाय प्रणिधान है। मन, वचन और काय की शुभ प्रवृत्ति
तथा सप्ताष्टौ न कर्तव्याः। या यस्यावश्यकस्य वेला तस्यामेवासौ कर्तव्यो नान्यस्यां वेलायां हािंन वृिंद्ध प्राप्नुयात्। तथा यस्यावश्यकस्य यावन्तः पठिताः कायोत्सर्गास्तावन्त एव कर्तव्या न तेषां हानिर्वृद्धिर्वा कार्या इति।।३७०।।

भत्ती तवोधियम्हि य तवम्हि अहीलणा य सेसाणं।
एसो तवम्हि विणओ जहुत्तचारित्तसाहुस्स।।३७१।।

भक्तिः स्तुतिपरिणामः सेवा वा। तपसाधिकस्तपोऽधिकः तिंस्मस्तपोधिके। आत्मनोऽधिकतपसि तपसि च द्वादशविधतपोऽनुष्ठाने च भक्तिरनुरागः। शेषाणामनुत्कृष्ट-तपसामहेलना अपरिभवः। एष तपसि विनयः सर्वसंयतेषु प्रणामवृत्तिर्यथोक्तचारित्रस्य साधोर्भवति ज्ञातव्य इति।।३७१।।
गुप्तियाँ हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उच्चार प्रस्रवण प्रतिष्ठापना ये पाँच समितियाँ हैं। यह सब चारित्र विनय संक्षेप से कहा गया है। यहाँ पर भी समिति और गुप्तियाँ चारित्राचार हैं और उनकी रक्षा के उपाय में जो प्रयत्न है वह चारित्र विनय है। भावार्थ — इन्द्रियों का निरोध और कषायों का निग्रह होना तथा समिति, गुप्ति की रक्षा में प्रयत्न करना यह सब चारित्रविनय हैै। अब तपो विनय का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ — उत्तर गुणों में उत्साह, उनका अच्छी तरह अभ्यास, श्रद्धा, उचित आवश्यकों में हानि या वृद्धि न करना तपोविनय है।।३७०।।
आचारवृत्ति — आतापन आदि उत्तर गुणों में उद्यम—उत्साह रखना, उनके करने में जो श्रम होता है उसको निराकुलता से सहन करना, उन उत्तर गुणों को करने वाले के प्रति श्रद्धा—शुभ भाव रखना। समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक हैं। ये उचित हैं, कर्मक्षय के लिए निमित्त हैं। ये परिमित हैं, इनकी हानि और वृद्धि नहीं करना अर्थात् ये आवश्यक छह ही हैं, इन्हें चार वा पाँच नहीं करना तथा सात या आठ भी नहीं करना। जिस आवश्यक की जो बेला है उसी बेला में वह आवश्यक करना चाहिए अन्य बेला में नहीं अन्यथा हानि-वृद्धि हो जावेगी तथा जिस आवश्यक के जितने कायोत्सर्ग बताए गए हैं उतने ही करना चाहिए, उनकी हानि या वृद्धि नहीं करना चाहिए।
भावार्थ — उत्तर गुणों के धारण करने में उत्साह रखना, उनका अभ्यास करना और उनके करने वालों में आदर भाव रखना तथा आवश्यक क्रियाओं को आगम की कथित विधि से उन्हीं-उन्हीं के काल में कायोत्सर्ग की गणना से करना यह सब तपोविनय है। जैसे दैवसिक प्रतिक्रमण में वीरभक्ति में १०८ उच्छ्वासपूर्वक ३६ कायोत्सर्ग,
पंचमौपचारिकविनयं प्रपंचयन्नाह—

काइयवाइयमाणसिओ त्ति अ तिविहो दु पंचमो विणओ।
सो पुण सव्वो दुविहो पच्चक्खो तह परोक्खो य।।३७२।।