।। द्रव्यसंग्रह प्रश्नोत्तरी - अध्याय ३ ।।

व्यवहार और निश्चय मोक्ष मार्ग

सम्मद्दंसण णाणं, चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे।
ववहारा णिच्चयदो, तत्तियमइयो णिओअप्पा।।३९।।

सम्यग्दर्शन और ज्ञान चरित, ये मुक्ती के कारण जानो।
व्यवहार नयापेक्षा कहना, तीनों के लक्षण पहिचानो।।
इन रत्नत्रयमय निज आत्मा, निश्चय से शिव पथ का कारण।
इन उभय नयों के समझे बिन, निंह होता शिव पथ का साधन।।३९।।

अर्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र व्यवहारनय से ये मोक्ष के कारण हैं और निश्चयनय से इन रत्नत्रय से परिणत हुई अपनी आत्मा ही मोक्ष का कारण है, ऐसा तुम जानो।

प्रश्न — मोक्ष क्या है ?

उत्तर — आत्मा से आठों कर्मों का पूर्णरूप से अलग हो जाना मोक्ष है।

प्रश्न — मोक्ष मार्ग कितने प्रकार का है?

उत्तर — दो प्रकार का है-व्यवहार मोक्षमार्ग और निश्चय मोक्षमार्ग।

प्रश्न — व्यवहार मोक्षमार्ग किसे कहते हैं ?

उत्तर — व्यवहारनय से सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है।

प्रश्न — निश्चय मोक्षमार्ग क्या है ?

उत्तर — रत्नत्रय युक्त आत्मा को निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं।

आत्मा ही निश्चयनय से मोक्ष मार्ग है

रयणत्तयं ण वट्टइ, अप्पाणं मुयत्तु अण्णदवियम्हि।
तम्हा तत्तियमइयो, होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा।।४०।।

आत्मा को छोड़ न रह सकता, यह रत्नत्रय परद्रव्यों में।
अतएव इन्हीं रत्नत्रयमय, आत्मा ही हेतू मुक्ती में।।
निज शुद्ध चिदात्मा की श्रद्धा, सुज्ञान उसी में रत होना।
यह निश्चय रत्नत्रय होता, एकाग्रमयी परिणति होना।।४०।।

अर्थ — आत्मा को छोड़कर रत्नत्रय अन्य द्रव्यों में नहीं रहता है, इसीलिए वह रत्नत्रयमय आत्मा ही मोक्ष का कारण होता है। अर्थात् आत्मा से अतिरिक्त रत्नत्रय अन्यत्र नहीं रह सकता है इसी हेतु से यह आत्मा निश्चय मोक्षमार्ग माना गया है।

प्रश्न — निश्चयनय से रत्नत्रययुक्त आत्मा ही मोक्ष का कारण क्यों है ?

उत्तर — क्योंकि रत्नत्रय आत्मा अर्थात् जीवद्रव्य को छोड़कर अन्य में नहीं पाया जाता है।

प्रश्न — वे रत्नत्रय कौन से हैं ?

उत्तर — १. सम्यग्दर्शन २. सम्यक्ज्ञान ३. सम्यक्चारित्र।

प्रश्न - निश्चय मोक्षमार्ग किसे कहते हैं ?

उत्तर - अभेद रत्नत्रय को निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं।

प्रश्न - अभेद रत्नत्रय किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का भेद नहीं है, अभेदरूप परिणति है, उसको अभेद रत्नत्रय कहते हैं।

प्रश्न - व्यवहार मोक्षमार्ग किसे कहते हैं ?

उत्तर - भेदरूप रत्नत्रय के पालन को व्यवहार मोक्षमार्ग कहते हैं।

व्यवहार सम्यग्दर्शन

जीवादीसद्दहणं, सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु।
दुरभिणिवेसविमुक्वं, णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि।।४१।।

जीवादी तत्त्वों की श्रद्धा, करना सम्यक्त्व कहाता है।
वह आत्मा का ही है स्वरूप, जो निज में निज को पाता है।।
जिसके होने पर निश्चित ही, संशय आदि से रहित ज्ञान।
सम्यक् हो जाता है उसको, सम्यग्दर्शन समझो महान।।४१।।

अर्थ — जिसके होने पर ज्ञान दुरभिप्राय रहित समीचीन हो जाता है, ऐसा जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, जो कि आत्मा का स्वरूप ही है। अर्थात् सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है अन्यथा नहीं।

प्रश्न — सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ?

उत्तर — जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वो का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।

प्रश्न — आत्मा का वास्तविक स्वरूप क्या माना गया है ?

उत्तर — सम्यक्दर्शन आत्मा का वास्तविक स्वरूप होता है।

प्रश्न — ज्ञान में समीचीनता कैसे आती है ?

उत्तर — सम्यक्दर्शन के होने पर सम्पूर्ण ज्ञान समीचीन या सम्यक्ज्ञान बन जाता है।

प्रश्न — सम्यक्ज्ञान निर्दोष कैसे बनता है ?

उत्तर — १. संशय २. विपर्यय और ३. अनध्यवसाय, ये तीन चीजें जब ज्ञान में नहीं होती हैं तब वह ज्ञान, सम्यग्ज्ञान निर्दोष बनता है।

प्रश्न - दुरभिनिवेश किसे कहते हैं ?

उत्तर - संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को दुरभिनिवेश कहते हैं।

प्रश्न — संशय किसे कहते हैं ?

उत्तर — विरुद्ध नाना कोटि के स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। इसके होने पर किसी पदार्थ का निश्चय नहीं हो पाता, क्योंकि इसके होने पर बुद्धि सो जाती है-‘समीचीनतया बुद्धि: शेते यस्मिन् स: संशय:।’

प्रश्न — विपर्यय किसे कहते है ?

उत्तर — विपरीत एक कोटि को स्पर्श करने वाला ज्ञान विपर्यय कहलाता है। जैसे-सीप को चाँदी समझ लेना।

प्रश्न — संशय और विपर्यय में क्या अन्तर है ?

उत्तर — संशय में सीप है या चाँदी ? ऐसा संशय बना रहता है। निर्णय नहीं हो पाता, परन्तु विपर्यय में एक कोटि का निश्चय होता है। जैसे-सीप को सीप न समझकर चाँदी समझ लेना।

प्रश्न — अनध्यवसाय किसे कहते हैं ?

उत्तर — अध्यवसाय का अर्थ है निश्चय और इसका न होना अनध्यवसाय कहलाता है। जैसे रास्ते में चलते समय पैरों के नीचे अनेक चीजें आती हैं, पर उनमें से निश्चय किसी एक का भी नहीं हो पाता है, यही ज्ञान अनध्यवसाय कहलाता है।

प्रश्न - ज्ञान सम्यग्ज्ञान रूप कब होता है ?

उत्तर - सम्यग्दर्शन के होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है।

प्रश्न - सम्यग्दर्शन आत्मा का स्वरूप क्यों है ?

उत्तर - आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्यों में सम्यग्दर्शन नहीं होता, इसलिए सम्यग्दर्शन आत्मा का स्वरूप है।

सम्यग्ज्ञान का स्वरूप

संसयविमोह विब्भम, विवज्जियं अप्पपरसरूवस्स।
गहणं सम्मं णाणं; सायार-मणेयभेयं च।।४२।।

संशय विपरीत तथा विभ्रम, इन दोषों से वर्जित होकर।
अपने स्वरूप औ परस्वरूप को, ग्रहण करे निश्चित होकर।।
सविकल्प रूप बहु भेद सहित, वह सम्यग्ज्ञान कहाता है।
जो स्वपर प्रकाशी ज्ञान सदा, निज पर का भान कराता है।।४२।।

अर्थ — आत्मा के स्वरूप का और पर के स्वरूप का संशय, विपरीत और अनध्यवसाय रहित ग्रहण करना-जैसे का तैसा जानना सो सम्यग्ज्ञान है जोकि साकार-सविकल्प और अनेक भेद सहित है।

भावार्थ — पदार्थ के आकार का ‘यह घट है’ इत्यादि विकल्प रूप जानना यह ज्ञान का लक्षण है।

प्रश्न — सम्यक्ज्ञान किसे कहते हैं ?

उत्तर — संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित व आकार सहित अपने और पर के स्वरूप का जानना सम्यक्ज्ञान कहलाता है।

प्रश्न — सम्यक्ज्ञान के कितने भेद हैं ?

उत्तर — पाँच भेद हैं—(१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मन:-पर्ययज्ञान और (५) केवलज्ञान।

प्रश्न - श्रुतज्ञान के दो भेद कौन से हैं ?

उत्तर - अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट के भेद से श्रुतज्ञान दो प्रकार का है।

प्रश्न - अंगबाह्य श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो आरातीय (कुन्दकुन्दादि) आचार्यो के द्वारा रचित है, वह अंग- बाह्य कहलाता है।

प्रश्न - अंगबाह्य के कितने भेद हैं ?

उत्तर - अंगबाह्य को प्रकीर्णक कहते हैं, उसके चौदह भेद हैं। वह चौदह भेद निम्न प्रकार हैं-सामायिक, चतुर्विंशति संस्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, अनुत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और अशीतिक।

प्रश्न - अंग प्रविष्ट किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो गणधर के द्वारा तथा पूर्वधर के द्वारा रचित हैं, वह अंग प्रविष्ट कहलाते हैं।

प्रश्न - अंग प्रविष्ट श्रुतज्ञान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - अंग प्रविष्ट श्रुतज्ञान के बारह भेद हैं।

प्रश्न - अंग प्रविष्ट के बारह भेद कौन-कौन से हैं ?

उत्तर - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्त्यंग, ज्ञातृकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्न-व्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं।

प्रश्न - चौदह पूर्व के नाम कौन-कौन से हैं ?

उत्तर - उत्पादपूर्व, अग्रणीयपूर्व, वीर्यानुप्रवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञान प्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्माप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, विद्यानुप्रवादपूर्व, कल्याणवादपूर्व, प्राणानुप्रवादपूर्व, क्रियाविशालपूर्व, लोकबिन्दु- सारपूर्व ये चौदह पूर्व के नाम हैं।

प्रश्न - अवधिज्ञान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - सर्वावधि, परमावधि, देशावधि आदि अवधिज्ञान के भी अनेक भेद हैं।

प्रश्न - मन:पर्यय ज्ञान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - ऋजुमति और विपुलमति के भेद से मन:पर्यय ज्ञान के दो भेद हैं।

प्रश्न - ज्ञान सम्यव् किससे बनता है ?

उत्तर - सम्यग्दर्शन से ज्ञान में समीचीनता आती है क्योंकि सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से या क्षय से ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान में समीचीनता और समीचीनता सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन से आती है।

दर्शनोपयोग का स्वरूप

जं सामण्णं गहणं, भावाणं णेव कट्टुमायारं।
अविसेसदूण अट्ठे, दंसणमिदि भण्णए समये।।४३।।

जो भावों का आकार नहीं, करके सामान्य ग्रहण होता।
अर्थों में नहीं विशेष करे, वह दर्शन नाम कहा जाता।।
जिन शासन में इस विध से यह, दर्शन उपयोग कहा जाता।
भावों की सत्ता का ग्राहक यह, निराकार समझा जाता।।४३।।

अर्थ — पदार्थों में विशेषता-भेद नहीं करके और उनके आकार को ग्रहण नहीं करके जो पदार्थों का सामान्य-सत्तामात्र करना है वह जैन आगम में ‘दर्शन’ इस नाम से कहा जाता है।

भावार्थ — ‘यह घट है’, ‘यह गोल है’ इत्यादि भेद न करके जो निर्विकल्प मात्र ग्रहण होता है वह दर्शन है जो कि ज्ञान के पहले होता है।

प्रश्न — दर्शनोपयोग किसे कहते हैं ?

उत्तर — सामान्य अंश का जानना दर्शन कहलाता है। इसमें पदार्थ के आकार का ज्ञान नहीं होता है, केवल सत्ता का भान होता है। जैसे—सामने कोई पदार्थ आने पर सबसे पहले ‘‘यह कोई पदार्थ है’’ इतना मात्र जानना ‘दर्शनोपयोग’ है।

प्रश्न - दर्शन और ज्ञान में अन्तर क्या है ?

उत्तर - यह घट है, पट है, कृष्ण है, शुक्ल है इन विकल्पों को ग्रहण करता है वह ज्ञान है और जिनमें घट-पटादि ज्ञेय पदार्थ का विकल्प, ज्ञेयाकार का विकल्प ग्रहण नहीं होता, वह दर्शन है। यह दोनों में अन्तर है।

प्रश्न - सम्यग्दर्शन और दर्शन में क्या अन्तर है ?

उत्तर - सम्यग्दर्शन तत्वश्रद्धानरूप है और दर्शन सामान्य अवलोकनरूप है। सम्यग्दर्शन सम्यग्दृष्टि के ही होता है और दर्शन सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों के होता है। दर्शन मोक्षमार्ग में अनुपयोगी है। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में उपयोगी है। यह इन दोनों में मौलिक अन्तर है। विषय, विषयी के सन्निपात होने पर दर्शन होता है। वस्तु को जानने के लिए जो आत्मा का व्यापार होता है अथवा ज्ञान के उत्पादक प्रयत्न से संबंधित स्वसंवेदन अर्थात् आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं।

दर्शन और ज्ञान का क्रम

दंसणपुव्वं णाणं, छदुमत्थाणं ण दुण्णि उवओगा।
जुगवं जह्मा केवलि-णाहे जुगवं तु ते दो वि।।४४।।

दर्शनपूर्वक ही ज्ञान सदा, छद्मस्थ जनों को होता है।
इसलिए नहीं युगपत् दोनों, उपयोग उन्हों के होता है।।
पर केवलियों भगवंतों के, युगपत् दोनों उपयोग रहें।
वे लोकालोक प्रकाशी जिन, बस एक समय में सर्व ग्रहें।।४४।।

अर्थ — छद्मस्थ जीवों का ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है क्योंकि उनके दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं, किन्तु केवली भगवान् के दोनों ही उपयोग युगपत्-एक साथ होते हैं।

भावार्थ — अल्पज्ञानियों के पहले क्षण में दर्शन पुन: ज्ञान ऐसे क्रम से दोनों उपयोग होते हैं। किन्तु केवली भगवान् के ये एक साथ ही प्रगट रहते हैं।

प्रश्न — छद्मस्थ किसे कहते हैं ?

उत्तर — मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन पाँच ज्ञानों में से प्रारम्भ के चार ज्ञान छद्मस्थ (अल्पज्ञान) कहलाते हैं।

प्रश्न — छद्मस्थ जीव के उपयोग का क्रम बताइये।

उत्तर — छद्मस्थ जीव पहले देखते हैं और फिर बाद में जानते हैं, किसी पदार्थ को देखे बिना छद्मस्थ उसे जान ही नहीं सकते इसलिये छद्मस्थों के पहले दर्शनोपयोग होता है और बाद में ज्ञानोपयोग होता है।

प्रश्न — केवलज्ञानी के उपयोग का क्रम बताइये।

उत्तर — केवलज्ञानी किसी भी पदार्थ को एक ही साथ देखते और जानते हैं इसलिये उनका दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एकसाथ होता है।

प्रश्न - केवली भगवान के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एक साथ क्यों होते हैं ?

उत्तर - केवली भगवान के ज्ञान और दर्शन दोनों निरावरण हैं क्षायिक हैं इसलिए एक साथ होते हैं और छद्मस्थों के सावरण हैं क्षायोपशमिक हैं अत: उनके ज्ञानोपयोग-दर्शनोपयोग एक साथ नहीं हो ते, क्रमश: होते हैं।

प्रश्न - छद्मस्थ किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिनके ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम है, क्षय नहीं हुआ है ऐसे मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के जीव छद्मस्थ कहलाते हैं।

व्यवहार सम्यक्चारित्र और उसके भेद

असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं।
वदसमिदिगुत्तिरूवं, ववहारणया दु जिणभणियं।।४५।।

जो अशुभ क्रियाओं से विरती, औ शुभ में सदा प्रवृत्ती है।
उसको ही तुम चारित जानो, वह व्रत समिती और गुप्ती है।।
इन रूप चरित्र कहा जिनने, व्यवहार नयापेक्षा समझो।
इन बिन निश्चय चारित्र न हो, इसलिए इन्हें साधन समझो।।४५।।

अर्थ — अशुभ क्रियाओं से विरक्त होना और शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति करना चारित्र है जोकि व्रत, समिति और गुप्ति रूप है ऐसा तुम जानो। यह चारित्र व्यवहार नय की अपेक्षा से जिनेन्द्र देव द्वारा कथित है।

भावार्थ — व्यवहार चारित्र पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ऐसे तेरह प्रकार का है जो कि जिनदेव द्वारा कहा गया है।

प्रश्न — व्यवहार चारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर — अशुभ कार्यों—हींसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह पापों का त्याग करना, यत्नाचारपूर्वक चलना, बोलना, बैठना, खाना आदि करना और अशुभ मन-वचन और काय को वश में करना तथा शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना व्यवहार चारित्र है।

प्रश्न - अशुभोपयोग किसे कहते हैं ?

उत्तर - आत्र्तध्यान, रौद्रध्यान को अशुभोपयोग कहते हैं-अथवा विषय और कषायों में गाढ़ प्रीति, दु:शास्त्र श्रवण, दुष्टचित्तप्रवृत्ति, दु:गोष्ठी (बुरी संगति) आदि अशुभोपयोग हैं।

प्रश्न - शुभोपयोग किसे कहते हैं ?

उत्तर - सविकल्प धर्मध्यान को शुभोपयोग कहते हैं, अथवा व्यसन, कषाय, हिंसादि पापजनक कार्यों से विरक्त होकर दान, पूजा, व्रत, समिति, गुप्ति आदि में प्रवृत्ति करना शुभोपयोग कहलाता है। अथवा अशुभोपयोग से निवृत्ति और पाँच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तिरूप प्रवृत्ति को व्यवहार या सराग चारित्र कहते हैं। इसका दूसरा नाम अपहृत संयम भी है। यह शुभोपयोग सहित होता है। सराग चरित्र में बाह्य पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग है, यह उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से चारित्र है। जितने अंश में कषायों का अभाव हुआ है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है। ऐस यह शुभोपयोग लक्षण धारक व्यवहार चारित्र निश्चयचारित्र का साधक है।

निश्चयचारित्र का लक्षण

बहिरब्भंतरकिरिया-रोहो भवकारणप्पणासट्ठं।
णाणिस्स जं जिणुत्तं, तं परमं सम्मचारित्तं।।४६।।

भव कारण के नाशन हेतू, ज्ञानी के बाह्य क्रियाओं का।
औ आभ्यन्तरी क्रियाओं का, इन सबका जो रोधन होता।।
वह जिनवर द्वारा कहा गया, निश्चय सम्यक्चारित्र सही।
जो साधु उसको पा लेते, वे पा लेते हैं मोक्षमही।।४६।।

अर्थ — ज्ञानी जीव के संसार के कारणों का नाश करने के लिए जो बाह्य और अभ्यंतर क्रियाओं का रोकना है वह जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित परम सम्यक्चारित्र है।

भावार्थ — सम्पूर्ण अंतरंग बहिरंग प्रवृत्तियों को रोक करके जो आत्मा में स्थिर हो जाना है वही निश्चय सम्यक्चारित्र है जो कि महामुनियों के ही हो सकता है।

प्रश्न - चारित्र के कितने भेद हैं ?

उत्तर - चारित्र के मुख्यत: दो भेद हैं-निश्चय और व्यवहार।

प्रश्न - व्यवहार चारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो व्रत, समिति आदि भेदरूप है, जिसमें हिंसादि, अशुभ क्रियाओं से निवृत्ति और अहिंसादि शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति होती है, वह व्यवहार चारित्र है।

प्रश्न - व्यवहार चारित्र के कितने भेद हैं ?

उत्तर - देश चारित्र, सकल चारित्र आदि अनेक भेद हैं।

प्रश्न - देश चारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिसमें अहिंसादि व्रतों का एकदेश पालन किया जाता है, वह श्रावक का व्रत कहलाता है, यह देशसंयम है, इसका दूसरा नाम संयमासंयम भी है।

प्रश्न - देशसंयम को संयमासंयम क्यों कहते हैं ?

उत्तर - संकल्पपूर्वक मन, वचन, काय से, कृत, कारित, अनुमोदना से त्रस घात का तो त्याग किया है, इसलिए संयम है। स्थावर घात का त्याग नहीं है, इसलिए असंयम है तथा संयम और असंयम दोनों एक साथ होने से इसे संयमासंयम कहते हैं।

प्रश्न - देश संयम के कितने भेद हैं ?

उत्तर - सामान्यत: अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव से उत्पन्न होता है इसलिए एक प्रकार का है और प्रत्याख्यानावरण कषाय की तरतमता से इसके अनेक भेद हैं, उनको ग्यारह भागों में विभाजित किया है।

प्रश्न - देश संयम के ग्यारह भेद कौन से हैं ?

उत्तर - (१) दर्शन प्रतिमा-निर्दोष सम्यग्दर्शन और आठ मूलगुणों का पालन करना और संसार-शरीर-भोगों से विरक्त होकर पंचपरमेष्ठी की शरण में लीन रहना। (२) व्रत प्रतिमा-माया, मिथ्यात्व और निदानरूप तीन शल्यों का त्यागकर निरतिचार पाँच अणुव्रतों का पालन और अभ्यासरूप से सात शीलों का धारण।

प्रश्न - सात शील किसे कहते हैं ?

उत्तर - तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत को सात शील कहते हैं। (३) सामायिक प्रतिमा-त्रिकाल देववंदना करना, चारों दिशाओं में तीन-तीन आवर्त और चार शिरोनति करके। (४) प्रोषध प्रतिमा-अष्टमी और चतुर्दशी के दिन अपनी शक्ति के अनुसार प्रोषध (एकासन) उपवास और प्रोषधोपवास करना। (५) सचित्त त्याग प्रतिमा-अपक्व अंकुरोत्पत्ति के कारणभूत सचित्त जड़, फल, बीज आदि को अचित्त किये बिना नहीं खाना और अप्रासुक पानी नहीं पीना।

प्रश्न - प्रासुक किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो पानी गर्म किया हो, या सौंफ, लौंग आदि डालने से जिसका रंग बदल गया है, वह पानी प्रासुक कहलाता है। (६) रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा-रात्रि में खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना तथा दिन में मैथुन सेवन नहीं करना। इस प्रतिमा का दूसरा नाम दिवामैथुनत्याग प्रतिमा भी है।

प्रश्न - छट्ठी प्रतिमा में रात्रि भोजन का त्याग है तो पाँचवीं प्रतिमा तक रात्रि में पानी आदि पी सकता है क्या ? यदि नहीं पी सकता है, तो छट्ठी प्रतिमा को रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा क्यों कहा ?

उत्तर - रात्रि में चार प्रकार के आहार का त्याग तो प्रथम प्रतिमा में ही हो जाता है, छट्ठी प्रतिमा में निरतिचार रात्रिभुक्ति त्याग होता है।

प्रश्न - रात्रि भुक्ति का त्याग का अतिचार कौन सा है ?

उत्तर - सूर्योदय के ४८ मिनट हो जाने के बाद और सूर्यास्त के ४८ मिनट पूर्व भोजन करना, रात्रि में भोजन कराना, रात्रि में बने हुए पदार्थों को भक्षण करना रात्रि भुक्ति त्याग का अतिचार है। छट्ठी प्रतिमाधारी इन सबका त्याग करके निरतिचार व्रत का पालन करता है। (७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा-स्त्रीमात्र के संयोग का त्याग करना। (८) आरंभ त्याग प्रतिमा-नौकरी, खेती, व्यापार आदि हिंसाजनक आरंभ का त्याग। (९) परिग्रह त्याग प्रतिमा-बाह्य दश प्रकार के परिग्रह से ममत्व का त्याग कर अपने पहनने योग्य धोती, दुपट्टा आदि के सिवाय सर्व परिग्रह का त्याग करना। (१०) अनुमति त्याग-आरंभजन्य कार्यों में तथा लौकिक विवाहादिकार्यों में अनुमति नहीं देना। (११) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा-घर को छोड़कर मुनिराज के पास जाकर व्रतों को ग्रहण करके भिक्षावृत्ति से भोजन करता है और एक लंगोटी तथा एक दुपट्टा रखता है। ये देशसंयम के ११ भेद संक्षेप से कहे हैं, विस्तार से इसके असंख्यात भेद हैं।

प्रश्न - सकल चारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर - हिंसादि पाँचों पापों का सर्वथा त्याग करना तथा पंच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति का पालन सकल चारित्र है।

प्रश्न - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात किस चारित्र के भेद हैं ?

उत्तर - ये सब सकल चारित्र के भेद हैं।

प्रश्न — निश्चयचारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर — बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से प्रादुर्भूत आत्मा की शुद्धि को निश्चय सम्यक्चारित्र कहते हैं।

प्रश्न — बाह्य-आभ्यन्तर क्रिया कौन रोकता है ?

उत्तर — ‘णाणी’—ज्ञानी पुरुष अपनी मानसिक, वाचनिक व कायिक आभ्यन्तर और बाह्य क्रियाओं को रोकता है।

प्रश्न — बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से ज्ञानी को क्या प्राप्त होता है ?

उत्तर — ज्ञानी को बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से निश्चय चारित्र की प्राप्ति होती है।

ध्यानाभ्यास की प्ररेणा

दुविहं पि मोक्खहेउं, झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा।
तम्हा पयत्तचित्ता, जूयं झाणं समब्भसह।।४७।।

मुनिवरगण ध्यान लगा करके, इन द्विविध मोक्ष के कारण को।
जो निश्चय और व्यवहाररूप, निश्चित ही पा लेते उनको।।
अतएव प्रयत्न सभी करके, तुम ध्यानाभ्यास करो नित ही।
सम्यक् विधिपूर्वक बार-बार, अभ्यास सफल होता सच ही।।।४७।।

अर्थ — मुनिराज निश्चित ही ध्यान के द्वारा दोनों प्रकार के मोक्ष के कारण को प्राप्त कर लेते हैं, इसलिए प्रयत्न चित्त होते हुए तुम लोग ध्यान का सम्यक् प्रकार से अभ्यास करो।

भावार्थ — निश्चय और व्यवहार ये दोनों मोक्ष मार्ग ध्यान से ही प्राप्त हो सकते हैं।

प्रश्न - निश्चय और व्यवहार मोक्ष मार्ग की सिद्धि किससे होती है ?

उत्तर - निश्चय और व्यवहार दोनों ही मोक्षमार्ग की सिद्धि ध्यान से होती है।

प्रश्न - ध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - किसी विषय में मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है।

प्रश्न - ध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - शुभ-अशुभ के भेद से ध्यान दो प्रकार का है।

प्रश्न - अशुभ ध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - पंचेन्द्रियजन्य विषयों में चित्त का एकाग्र हो जाना अशुभ ध्यान है।

प्रश्न - अशुभ ध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - अशुभ ध्यान के दो भेद हैं-आत्र्तध्यान और रौद्रध्यान।

प्रश्न - आत्र्तध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - आत्र्त का अर्थ पीड़ा है। मानसिक और शारीरिक पीड़ा के कारण शोक, संताप, अरति और चिंता मन पर प्रभुत्व जमा लेती है, वह आत्र्तध्यान है।

प्रश्न - आत्र्तध्यान कितने प्रकार का है ?

उत्तर - आत्र्तध्यान चार प्रकार का है- (१) अनिष्ट संयोगज-अनिष्ट वस्तु का संयोग होने पर उसके वियोग- पृथक्करण के लिए होने वाली चिन्ता। (२) इष्ट वियोगज-इष्ट वस्तु के प्राप्त होने पर उसका संबंध विच्छेद न होने की चिंता और संबंध विच्छेद होने पर उसकी पुन: प्राप्ति की कामना। (३) पीड़ा चिन्तन-व्याधिजन्य दु:ख और पीड़ा से मुक्ति पाने की चिंता। (४) निदान-भविष्य में कमनीय स्वप्नों की पूर्ति की चिंता।

प्रश्न - रौद्रध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - रुद्र का अर्थ है-व्रूर आशय। व्रूर आशय से उत्पन्न होने वाली चित्तवृत्ति की एकाग्रता रौद्रध्यान है।

प्रश्न - रौद्रध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - रौद्रध्यान के चार भेद हैं- (१) हिंसानुबंधी-प्राणि हिंसा का व्रूर संकल्प अथवा हिंसाजन्य कार्यों में मानसिक आनन्द का अनुभव होना। (२) मृषानुबंधी-असत्य, परपीड़ाजनक वाणी का प्रयोग करना व असत्य, अप्रिय, कठोर वचन बोलकर आनन्दित होना। (३) चौर्यानुबंधी-अदत्तादान की चित्त वृत्ति-या चोरी करने मेें आनन्द का अनुभव करना, चोरी करने का चिंतन करना। (४) विषयसंरक्षणानुबंधी-परिग्रह की रक्षा में संलग्नचित्त का होना या परिग्रह के प्राप्त होने पर मानसिक आनन्द का अनुभव होना। यहाँ पर मोक्षमार्ग का प्रकरण है-अत: इन अशुभ ध्यानों से कोई प्रयोजन नहीं है। यहाँ प्रयोजन है-शुभ और शुद्धध्यान से। वह शुभध्यान है-धर्मध्यान और शुद्धध्यान है शुक्लध्यान। धर्मध्यान और शुक्लध्यान मोक्ष का कारण है और आत्र्त-रौद्रध्यान संसार का।

प्रश्न - धर्मध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - धार्मिक कार्यों में चित्त का एकाग्र होना धर्मध्यान है।

प्रश्न - धर्मध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - धर्मध्यान के चार भेद हैं।

प्रश्न - धर्मध्यान के चार भेद कौन-कौन हैं?

उत्तर - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये धर्मध्यान के चार भेद हैं।

ध्यान का उपाय

मा मुज्झह मा रज्जह, मा दुस्सह इट्ठणिट्ठअत्थेसु।
थिरमिच्छह जइ चित्तं, विचित्तझाणप्पसिद्धीए।।४८।।

सब इष्ट अनिष्ट पदार्थों में, मत मोह करो मत राग करो।
मत द्वेष करो इन तीनों का, जैसे होवे परिहार करो।।
इस विधि के ध्यान सुसाधन के, हेतु यदि तुम अपने मन को।
स्थिर करना चाहो तो तुम, बस सब विभाव से दूर हटो।।४८।।

अर्थ — यदि तुम अनेक प्रकार का ध्यान सिद्ध करने के लिए मन को स्थिर करना चाहते हो तो इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में मोह मत करो, राग मत करो और द्वेष मत करो।

भावार्थ — मोह, राग और द्वेष इनके निमित्त से मन ही एकाग्रता नहीं हो सकती है इसीलिए इनको हटाना आवश्यक है।

प्रश्न — राग किसे कहते हैं ?

उत्तर — इष्ट वस्तु में प्रीति को राग कहते हैं।

प्रश्न — द्वेष किसे कहते हैं ?

उत्तर — अनिष्ट वस्तु में अप्रीति को द्वेष कहते हैं।

प्रश्न — ध्यान के अनेक प्रकार कौन-से हैं ?

उत्तर — (१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ तथा (४) रूपातीत।

प्रश्न - धर्मध्यान में लीन होने का उपाय क्या है ?

उत्तर - इष्ट, अनिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष नहीं करना ही ध्यान में लीन होने का उपाय है, क्योंकि सांसारिक पदार्थों में रागद्वेष करने से आत्मा आत्र्त-रौद्र- ध्यान में पंâसकर संसार में भटकती है और रागद्वेष का त्याग कर आत्मस्वभाव में लीन होने से रत्नत्रय के कारणभूत धर्मध्यान और शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है और आत्मा संसार से छूट जाती है।

प्रश्न - णमोकार मंत्र के अक्षरों का ध्यान किस ध्यान में गर्भित होता है ?

उत्तर - णमोकार मंत्र के अक्षरों का ध्यान पदस्थ ध्यान में गर्भित है।

प्रश्न - ध्यान किस गुण की पर्याय है ?

उत्तर - ध्यान चारित्र गुण की पर्याय है।

ध्यान के योग्य मंत्र

पणतीस सोल छप्पण, चदुदुगमेगं च जबह झाएह।
परमेट्ठिवाचयाणं, अण्णं च गुरूवएसेण।।४९।।

परमेष्ठी के वाचक पैंतीस, अक्षरयुत महामंत्र शाश्वत।
सोलह छह पाँच चार दो औ, एकाक्षर ऊँ अकारादिक।।
गुरु के उपदेशों से बहुविध, के अन्य मंत्र को भी पाकर।
नित जाप करो तुम ध्यान करो, जैसे हो मन स्थिरता कर।।४९।।

अर्थ — परमेष्ठी के वाचक पैंतीस, सोलह, छह, पाँच, चार, दो और एक अक्षर वाले मंत्रों का तथा गुरु के उपदेश से अन्य भी मन्त्रों का जाप करो और ध्यान करो।

भावार्थ — णमोकार मंत्र में पैंतीस अक्षर हैं, ‘अरिहन्त सिद्ध आइरिय उवज्झाय साहू’ यह सोलह अक्षर का मंत्र है, ‘अरिहन्त सिद्ध’ ‘ऊँ नम: सिद्धेभ्य:’ इनमें छह ‘अ सि आ उ सा’ में पाँच, अरिहन्त में चार, सिद्ध में दो और ऊँ या ह्रीं में एक अक्षर है। अथवा गुरु की आज्ञा से सिद्ध चक्र आदि मंत्रों का जाप्य या ध्यान करना चाहिए।

प्रश्न — परमेष्ठी किसे कहते हैं ?

उत्तर — जो परम पद में स्थित हैं वे परमेष्ठी कहलाते हैं।

प्रश्न — परमेष्ठीवाचक पैंतीस अक्षरों का मंत्र कौन-सा है ?

उत्तर — णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं। इसे णमोकार मंत्र, अनादिनिधन मंत्र, अपराजित आदि अनेक नामों से जाना जाता है।

प्रश्न — ध्यान की सिद्धि के लिये जाप्य की विधि क्या है ?

उत्तर — जाप्य तीन प्रकार से किया जाता है—(१) वाचनिक, (२) मानसिक, (३) उपांशु जाप्य। वाचनिक—वचन से बोलकर जप करना। मानसिक—मन-मन में उच्चारण करना। उपांशु—ओठों को हिलाते हुये मंद-मंद स्वर में जाप करना। इनमें मानसिक जाप उत्तम है। उसका फल भी उत्तम है। ‘उपांशु’ जाप मध्यम है तथा वाचनिक जाप जघन्य माना जाता है।

प्रश्न - सोलह अक्षर का मंत्र कौन सा है ?

उत्तर - अरिहंत सिद्ध आइरिय उवज्झाय साहू। अथवा ॐ अर्हदाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो नम: आदि।

प्रश्न - छह अक्षरों का मंत्र कौन सा है ?

उत्तर - अरिहंत सिद्ध। ॐ नम: सिद्धेभ्य:। अरहंत सिद्ध। नमोर्हत्सिद्धेभ्य:। इत्यादि छह अक्षर के मंत्र हैं।

प्रश्न - पाँच अक्षरों का मंत्र कौन सा है ?

उत्तर - असि आ उसा। अर्हद्भ्यो नम: इत्यादि पाँच अक्षर से निष्पन्न मंत्र हैं।

प्रश्न - चार अक्षर का मंत्र कौन सा है ?

उत्तर - अरिहंत यह चार अक्षरों से निष्पन्न मंत्र हैं।

प्रश्न - दो अक्षर का मंत्र कौन सा है ?

उत्तर - सिद्ध दो अक्षर का मंत्र है।

प्रश्न - एक अक्षर का मंत्र कौन सा है ?

उत्तर - ॐ, ह्रीं इत्यादि एकाक्षरी मंत्र हैं।

प्रश्न - ॐ अक्षर की निष्पत्ति कैसे हुई है, यह किसका वाचक है ?

उत्तर - यह ‘ॐ’ अक्षर अरिहंत आदि के प्रथम अक्षर से निष्पन्न है अत: यह पंचपरमेष्ठी वाचक है। सो ही कहा है- अरिहंता असरीरा, आइरिया तह उवज्झया मुणिणो। पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पञ्च परमेट्ठी।। अरिहंत का आदि अक्षर ‘अ’, अशरीरी (सिद्ध) का प्रथम अक्षर ‘अ’, आचार्य का प्रथम अक्षर ‘आ’, उपाध्याय का प्रथम अक्षर ‘उ’ और साधु अर्थात् मुनि का प्रथम अक्षर ‘म्’ इस प्रकार पंच परमेष्ठियों के प्रथम अक्षर (अ±अ±आ±उ±म्) इस प्रकार संधि करने पर ‘ॐ’ मंत्र की निष्पत्ति होती है। अर्थात् अ±अ± की संधि दीर्घ आ±आ·आ। आ±उ±-ओ। म्-का अनुस्वार लगता है। अत: यह ‘ॐ़’ पंचपरमेष्ठी वाचक है। पदस्थ धर्मध्यान में मन को स्थिर करने के लिए परमेष्ठी वाचक बीजाक्षरों का और मंत्राक्षरों का ध्यान किया जाता है।

प्रश्न - इन मंत्राक्षरों के सिवाय अन्य भी कोई मंत्र है जिसका ध्यान कर सकते हैं ?

उत्तर - सिद्धचक्र, ऋषिमंडल यंत्र, कलिकुण्ड आदि अनेक ध्यान करने योग्य मंत्र हैं, जिनका गुरुओं के उपदेश से जानकर ध्यान करना चाहिए।

अरिहंत परमेष्ठी का लक्षण

णट्ठचदुघाइकम्मो, दंसणसुहणाणवीरियमइयो।
सुहदेहत्थो अप्पा, सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो।।५०।।

जिन घाति चतुष्टय कर्म हरा, दर्शन सुख ज्ञान वीर्य मय हैं।
सु अनन्त चतुष्टय रूप परम, औदारिक तनु में स्थित हैं।।
अष्टादशदोष रहित आत्मा, वे ही अर्हंत परम गुरु हैं।
वे ध्यान योग्य हैं, नित उनको, तुम ध्यावो वे त्रिभुवन गुरु हैं।।५०।।

अर्थ — जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया है, जो अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत ज्ञान और अनंत वीर्य इन चार चतुष्टय के धारक हैं, जो शुभ-परमौदारिक दिव्य शरीर में स्थित हैं, जो शुद्ध अर्थात् दोष रहित हैं ऐसे आत्मा अरहंत परमेष्ठी हैं उनका ध्यान करना चाहिए।

प्रश्न — अरिहंत परमेष्ठी किन्हें कहते हैं ?

उत्तर — जिनने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं तथा जो अनन्तदर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य से युक्त हैं और १८ दोषों से रहित होते हैं, उन्हें अरिहंत कहते हैं।

प्रश्न — घातिया कर्म किसे कहते हैं ? वे कौन से हैं ?

उत्तर — जो जीव के अनुजीवी गुणों का घात करते हैं वे घातिया कर्म कहलाते हैं। वे चार—(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) मोहनीय और(४) अन्तराय हैं।

प्रश्न — अनन्त चतुष्टय कौन से हैं ?

उत्तर — अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ये अनन्त-चतुष्टय कहलाते हैं।

प्रश्न — किस कर्म के नाश से कौन-सा गुण प्रगट होता है ?

उत्तर — ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अनन्तज्ञान, दर्शनावरण कर्म के क्षय से अनन्तदर्शन, मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्तसुख तथा अन्तराय कर्म के क्षय से अनन्तवीर्य प्रकट होता है।

प्रश्न — अरिहंतों के साथ शुद्ध विशेषण क्यों दिया ?

उत्तर — अठारह दोषों से रहित होने से वे शुद्ध आत्मा हैं, इसलिये शुद्ध विशेषण दिया है।

प्रश्न - अठारह दोष कौन-कौन हैं ?

उत्तर - क्षुधा (भुख), प्यास, बुढ़ापा, रोग, मरण, जन्म, भय, विस्मय, चिंता, अरति, खेद, स्वेद (पसीना) मद, राग, द्वेष, मोह, शोक, जुगुप्सा। ये अठारह दोष अरिहंत के नहीं होते हैं।

सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप

णट्ठट्ठकम्मदेहो, लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा।
पुरुसायारो अप्पा, सिद्धो झाएह लोय सिहरत्थो।।५१।।

जिन अष्ट कर्म तनु नष्ट किया, औ शाश्वत लोकालोक सकल।
उसके ज्ञाता औ दृष्टा हैं, जो पुरुषाकार तथा निष्कल।।
जो लोक शिखर पर स्थित हैं, वे आत्मा सिद्ध कहाते हैं।
तुम सब जन उनका ध्यान करो, वे सबको सिद्ध बनाते हैं।।५१।।

अर्थ — जिन्होने आठ कर्म रूपी शरीर का नाश कर दिया है, जो लोक और अलोक के जानने और देखने वाले हैं, पुरुषाकार हैं और लोक के शिखर पर स्थित हैं ऐसे आत्मा सिद्ध परमेष्ठी हैं उनका तुम सब जन ध्यान करो।

प्रश्न — सिद्ध परमात्मा कैसे होते हैं?

उत्तर — जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-इन आठ कर्मों से रहित हैं, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्मण शरीर से रहित हैं, जो लोक-अलोक को जानने वाले हैं, वे सिद्ध परमेष्ठी हैं।

प्रश्न — सिद्ध परमेष्ठी कहाँ रहते हैं?

उत्तर — सिद्धपरमेष्ठी लोक के अग्रभाग में रहते हैं।

प्रश्न — लोक के अग्रभाग को क्या कहते हैं?

उत्तर — लोक के अग्रभाग को ‘सिद्धालय’ कहते हैं।

प्रश्न — सिद्धालय में सिद्धों का आकार कैसी होता है ?

उत्तर — सिद्ध परमेष्ठी का आकार पुरुषाकार होता है। वे लोकाग्र में अपने अंतिम शरीर से किञ्चित् न्यून आकार के रूप में रहते हैं।

आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप

दंसणणाणपहाणे, वीरियचारित्त-वरतवायारे।
अप्पं परं च जुंजइ, सो आइरियो मुणी झेओ।।५२।।

दर्शन औ ज्ञान प्रधान जहाँ, ऐसे जो वीर्याचार तथा।
चारित्र महातप ये पाँचों, आचार कहाते सौख्यप्रदा।।
इन पंचाचारो में निज को, पर को जो नित्य लगाते हैं।
वे ध्यान योग्य हैं श्रेष्ठ मुनी, वे ही आचार्य कहाते हैं।।५२।।

अर्थ — जिनमें ज्ञानाचार और दर्शनाचार प्रधान हैं ऐसे वीर्याचार चारित्राचार और परम तपश्चरणाचार में जो अपने को और पर को लगाते हैं वे मुनि आचार्य परमेष्ठी हैं जो कि ध्यान करने योग्य हैं।

भावार्थ — जो साधु स्वयं पंचाचार का पालन करते हैं और शिष्यों को भी पालन कराते हैं वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।

प्रश्न — आचार्य परमेष्ठी किन्हें कहते हैं?

उत्तर — जो पंचाचार का स्वयं पालन करते हैं तथा शिष्यों से भी पालन कराते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।

प्रश्न — पंचाचार के नाम क्या हैं?

उत्तर — १. दर्शनाचार, २. ज्ञानाचार, ३. चारित्राचार, ४. तपाचार, ५. वीर्याचार। इनकी संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है- १. दर्शनाचार-निर्दोष सम्यक् दर्शन का पालन करना दर्शनाचार है। २. ज्ञानाचार-अष्टांग सहित सम्यक्ज्ञान की आराधना करना ज्ञानाचार है। ३. चारित्राचार-’तेरह प्रकार के चारित्र का निर्दोषरूप से आचरण करना चारित्राचार है। ४. तपाचार-बारह प्रकार के तपों का निर्दोष रीति से पालन करना तपाचार है। ५. वीर्याचार-अपनी शक्ति को नहीं छिपाते हुए उत्साहपूर्वक संयम की आराधना करना वीर्याचार है।

उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप

जो रयणत्तयजुत्तो, णिच्चं धम्मोवएसणे णिरदो।
सो उवझाओ अप्पा, जदिवरवसहो णमो तस्स।।५३।।

जो रत्नत्रय से युक्त सदा, धर्मोपदेश में तत्पर हैं।
जो यति पुंगव में श्रेष्ठ रहें, सो आत्मा उपाध्याय गुरु हैं।।
उनको नित नमन हमारा है, वे ज्ञानामृत बरसाते हैं।
मोहादीविष से मूच्र्छित को, जिनवच औषधी पिलाते हैं।।५३।।

अर्थ — जो रत्नत्रय से सहित हैं और नित्य ही धर्मोपदेश देने मे लवलीन रहते हैं वे यतीश्वरों में भी श्रेष्ठ आत्मा उपाध्याय परमेष्ठी हैं उनको मेरा नमस्कार होवे।

प्रश्न — मुनियों में श्रेष्ठ कौन हैं?

उत्तर — ‘उपाध्याय परमेष्ठी’।

प्रश्न — ‘उपाध्याय परमेष्ठी’ कौन कहलाते हैं।

उत्तर — जो रत्नत्रय से युक्त हैं, नित्य धर्मोपदेश देने में तत्पर हैं। वे ‘उपाध्याय परमेष्ठी’ हैं।

प्रश्न — रत्नत्रय कौन से हैं?

उत्तर — सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-ये तीन रत्न ही रत्नत्रय कहलाते हैं।

प्रश्न - उपाध्याय परमेष्ठी में और आचार्य परमेष्ठी में क्या अन्तर है ?

उत्तर - आचार्य परमेष्ठी मार्गप्रवत्र्तक हैं दीक्षा-शिक्षा देते हैं-प्रायश्चित्त देते हैं उपाध्याय परमेष्ठी मार्गदर्शक हैं-वे वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं समझाते हैं, मार्ग दिखाते हैं, परन्तु दीक्षा वा प्रायश्चित्त देकर मार्ग में प्रवृत्ति नहीं कराते हैं।

प्रश्न - उपाध्याय परमेष्ठी के कितने गुण हैं ?

उत्तर - उपाध्याय परमेष्ठी दिगम्बर मुनि हैं-अत: अट्ठाईस मूलगुण तो होते ही हैं तथा ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का पठन-पाठन करते हैं, अत: पच्चीस मूलगुण और होते हैं।

साधु परमेष्ठी का स्वरूप

दंसणणाण समग्गं, मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं।
साधयदि णिच्चसुद्धं, साहू सो मुणी णमो तस्स।।५४।।

जो दर्शन ज्ञान सहित ऐसा, चारित्र कहा शिव का मारग।
जो नित ही शुद्ध कहा जाता, उस रत्नत्रय के जो साधक।।
वे ही साधू कहलाते हैं, जो करें साधना शिवपथ की।
रत्नत्रयमय उन साधू को, हो मेरा नमस्कार नित ही।।५४।।

अर्थ — जो मुनि मोक्ष के मार्ग स्वरूप दर्शन और ज्ञान से सहित नित्य ही शुद्ध ऐसे चारित्र को साधते हैं वे साधु परमेष्ठी हैं, उनको मेरा नमस्कार हो।

प्रश्न — साधु परमेष्ठी किसे कहते हैं?

उत्तर — जो रत्नत्रय की साधना शुद्ध रीति से करते हैं, वे साधु परमेष्ठी कहलाते हैं।

प्रश्न - आचार्य के कितने गुण होते हैं ?

उत्तर - अट्ठाईस मूलगुण तो होते ही हैं-उनके सिवाय, दश धर्म, बारह तप, तीन गुप्ति, पाँच आचार और छह आवश्यक का पालन ये छत्तीस गुण होते हैं।

निश्चयध्यान का लक्षण

जं किंचिवि चिंतंतो, णिरीहवित्ती हवे जदा साहू।
लद्धूणय एयत्तं, तदा हु तं तस्स णिच्चयं झाणं।।५५।।

जब साधूजन एकाग्रमना, होकर जो कुछ भी ध्याते हैं।
वे इच्छा रहित तपोधन ही, निज समरस आनंद पाते हैं।।
बस उसी समय निश्चित उनका, वह निश्चय ध्यान कहाता है।
वह ध्यान अग्निमय हो करके, सब कर्म कलंक मिटाता है।।५५।।

अर्थ — जब साधु एकाग्रता को प्राप्त होकर जो कुछ भी चिंतवन करते हुए इच्छा से रहित हो जाते हैं उसी समय उन साधु का वह ध्यान निश्चय ध्यान कहलाता है।

भावार्थ — पूर्णतया निर्विकल्प होकर जो साधु ध्यान करते हैं वही निश्चय-ध्यान माना गया है।

प्रश्न — साधु के निश्चय ध्यान कब होता है?

उत्तर — जब साधु विषयकषायों से विमुख होकर अरहन्तादि का ध्यान करते हुए आत्म-चिन्तन में लीन हो जाते हैं, तब उनके निश्चय ध्यान होता है।

प्रश्न — निश्चय ध्यान किसे कहते हैं?

उत्तर — पर से भिन्न स्व आत्मा में लीनता निश्चय ध्यान है।

प्रश्न — ध्यान करने वाला क्या कहलाता है?

उत्तर — ध्यान करने वाला ‘ध्याता’ कहलाता है।

प्रश्न — जिसका ध्यान किया जाता है, उसे क्या कहते हैं?

उत्तर — जिसका ध्यान किया जाता है, उसे ‘ध्येय’ कहते हैं।

प्रश्न — चित्त की एकाग्रता को क्या कहते हैं?

उत्तर — चित्त की एकाग्रता को ‘ध्यान’ कहते हैं।

प्रश्न - धर्म और शुक्लध्यान का ध्याता कौन होता है ?

उत्तर - पृथक्त्ववितर्व वीचार और एकत्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान के ध्याता चौदह पूर्व के ज्ञाता भावश्रुतकेवली होते हैं। सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यान के ध्याता सयोग केवली और व्युपरत क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान के ध्याता अयोगकेवली होते हैं। धर्मध्यान के दो भेद हैं-सविकल्प और निर्विकल्प। निर्विकल्प धर्मध्यान के ध्याता दिगम्बर मुनि ही होते हैं इसलिए इस गाथा में निर्विकल्प ध्यान का ध्याता साधु को कहा है, सविकल्प ध्यान के ध्याता मुख्यत: मुनिराज होते हैं और गौणत: सम्यग्दृष्टी श्रावक भी होता है।

प्रश्न - ध्येय किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिस आत्मस्वरूप का या णमोकार मंत्र, देव-शास्त्र-गुरु, सात तत्व आदि का चिंतन किया जाता है, वह ध्येय कहलाता है।

परमध्यान का लक्षण

मा चिठ्ठह माजंपह, मा चिंतह विंवि जेण होइ थिरो।
अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।।५६।।

तुम कुछ भी तन की चेष्टा को, मत करो वचन भी मत बोलो।
मन से भी चिंतन कुछ न करो, जैसे होवे स्थिर हो लो।।
इस विधि जब आत्मा आत्मा में, स्वयमेव लीन हो जाता है।
तुम समझो जग में यही ध्यान, बस सबसे श्रेष्ठ कहाता है।।५६।।

अर्थ — कुछ भी चेष्टा मत करो, मत बोलो और मत विचारो जिससे कि स्थिर होता हुआ आत्मा आत्मा में ही रत हो जाता है और यही उत्कृष्ट ध्यान होता है।

भावार्थ — काय, वचन और मन की सभी क्रियाओं को रोककर तथा मन को स्थिर करके जो आत्मा अपने आप में लीन हो जाता है उस समय ही उसका ध्यान निर्विकल्प परम ध्यान कहलाता है।

प्रश्न — परम ध्यान किसे कहते हैं?

उत्तर — मानसिक, वाचनिक और कायिक व्यापार को छोड़कर आत्मा का आत्मा में लीन हो जाना परम-उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है।

प्रश्न — परम ध्यान की सिद्धि किसे होती है?

उत्तर — वीतरागी, निर्र्ग्रन्थ, दिगम्बर मुनिराज को ही परम ध्यान की सिद्धि होती है।

ध्यान का कारण

तवसुदवदवं चेदा, झाणरह-धुरंधरो हवे जम्हा।
तम्हा तत्तियणिरदा, तल्लद्धीए सदा होई।।५७।।

जिस कारण से तप श्रुत औ व्रत, इनका धारक जो आत्मा है।
वह ध्यानमयी रथ की धुर का, धारक हो ध्यान धुरन्धर है।।
अतएव ध्यान प्राप्ती हेतू, इन तीनों में नित रत होवो।
तप श्रुत औ व्रत बिन ध्यान सिद्धि, नहिं होती अत: व्रतिक होवो।।५७।।

अर्थ — जिस हेतु से तप, श्रुत और व्रतों का धारक आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरी को धारण करने वाला हो जाता है, अत: उस ध्यान की प्राप्ति के लिए तप, शास्त्र और व्रत इन तीनों में सदा लीन हो जाओ।

भावार्थ — तपश्चरण, शास्त्र ज्ञान और व्रत इन तीनों के बिना ध्यान की सिद्धि असम्भव है अत: इन तीनो में तत्पर हो जाना चाहिए।

प्रश्न — ध्याता कैसा होना चाहिए?

उत्तर — बारह तप, पाँच महाव्रतों का पालन करने वाला एवं शास्त्रों का मनन करने वाला तपवान, श्रुतवान और व्रतवान आत्मा ही योग्य ध्याता हो सकता है।

प्रश्न — क्यों?

उत्तर — क्योंकि वही ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने में समर्थ होता है।

प्रश्न — ध्यानी आत्मा का वाहन क्या होता है?

उत्तर — ध्यानरूपी ‘रथ’ ध्यानी का वाहन कहलाता है।

प्रश्न — ध्यानरूपी रथ में यात्रा करने वाला किस नगर में प्रवेश करता है?

उत्तर — ध्यानरूपी रथ में बैठकर यात्रा करने वाला महापुरुष ‘मोक्षनगर’ में प्रवेश करता है।

प्रश्न — ध्यान की सिद्धि के लिए आवश्यक सामग्री क्या है?

उत्तर — ध्यान की सिद्धि के लिए-तप, श्रुत और व्रतों का परिपालन करना आवश्यक है। अत: यही उसकी आवश्यक सामग्री है।

ग्रन्थकर्ता का लघुता प्रकाशन

दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा, दोससंचयचुदा सुदपुण्णा।
सोधयंतु तणुसुत्तधरेण, णेमिचंदमुणिणा भणियं जं।।५८।।

श्री नेमिचंद्र मुनि अल्प सूत्र-ज्ञाता जो मैंने कहा सही।
यह ग्रंथ ‘द्रव्य-संग्रह’ नामा जो सार्थक नामा रचा सही।।
जो राग द्वेष दोषादि रहित श्रुत में परिपूर्ण मुनीश्वर हैं।
वे इसका संशोधन कर लें, जो मुझसे श्रेष्ठ ज्ञानधर हैं।।५८।।

अर्थ — मुझ अल्पज्ञानी नेमिचंद्र मुनिराज ने जो यह ‘द्रव्य-संग्रह’ कहा है इसको दोष समूह से रहित और श्रुुत में पूर्ण-श्रुत केवली ऐसे मुनियों के नाथ-महामुनि संशोधन करें।

भावार्थ — श्री नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती महामुनिराज अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि मैं अल्पसूत्रों का जानने वाला हूँ अत: पूर्ण श्रुत केवली और रागादि दोषों से रहित मुनि प्रधान इस मेरी कृति का संशोधन करें।

प्रश्न — ‘द्रव्यसंग्रह’ के रचयिता कौन हैं?

उत्तर — आचार्यश्री १०८ नेमिचन्द्र महामुनि ने द्रव्यसंग्रह ग्रंथ रचा है।

प्रश्न — अल्पज्ञानी शब्द किस बात का सूचक है?

उत्तर — अल्पज्ञानी शब्द आचार्य देव की लघुता प्रदर्शन एवं विनयगुण का प्रतीक है।

प्रश्न — यहाँ नेमिचन्द्र मुनिराज ने शास्त्र शुद्धि करने का अधिकार किसे दिया है?

उत्तर — यहाँ श्री नेमिचन्द्राचार्य का अभिप्राय है कि निर्दोष मुनिराज जो कि समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हैं वे मुनिराज ही शास्त्र शुद्ध करने के अधिकारी हैं। अर्थात् हम और आप जैसे अल्पज्ञानी मनुष्य इसमें कोई संशोधन नहीं कर सकते हैं।