आसव बंधणसंवर-णिज्जरमोक्खा सपुण्णपावा जे। जीवाजीव-विसेसा, तेवि समासेण पभणामो।।२८।।
हैं जीव अजीव इन्हीं दो के, सब भेद विशेष कहे जाते। वे आस्रव बंध तथा संवर, निर्जरा मोक्ष हैं कहलाते।। ये सात तत्त्व हो जाते हैं, इनमें जब मिलते पुण्य पाप। तब नौ पदार्थ होते इनको, संक्षेप विधि से कहूँ आज।।२८।।
अर्थ - जीव और अजीव के विशेष भेद रूप आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष होते हैं। ये पुण्य और पाप से सहित भी हैं। इन सबको हम संक्षेप से कहते हैं।
भावार्थ - जीव और अजीव के ही विशेष भेद आस्रव आदि रूप हैं जो कि सात तत्त्व हैं। उनमें पुण्य-पाप मिलाने से नव पदार्थ हो जाते हैं।
प्रश्न - मूल में द्रव्य कितने होते हैं?
उत्तर - दो हैं-१. जीव, २. अजीव।
प्रश्न - तत्त्व के कितने भेद हैं?
उत्तर - तत्त्व सात हैं-१. जीव, २. अजीव, ३. आस्रव, ४. बन्ध, ५. संवर, ६. निर्जरा और ७. मोक्ष
प्रश्न - पदार्थ कितने हैं?
उत्तर - सात तत्त्वों में पुण्य-पाप को मिलाने पर-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप ये नौ पदार्थ कहलाते हैं।
प्रश्न - जीव तत्त्व के कितने भेद हैं ?
उत्तर - जीव तत्त्व के तीन भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।
प्रश्न - बहिरात्मा किसे कहते हैं ?
उत्तर - शरीर और आत्मा को एक मानने वाला बहिरात्मा है। मिथ्यादृष्टि, जीव बहिरात्मा कहलाता है।
प्रश्न - अन्तरात्मा किसे कहते हैं ?
उत्तर - चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के जीव अन्तरात्मा हैं।
प्रश्न - परमात्मा किसको कहते हैं ?
उत्तर - अरिहंत और सिद्ध को परमात्मा कहते हैं। शरीर सहित होने से अरिहंत को सकल परमात्मा कहते हैं और कल (शरीर) से नि: (रहित) होने से सिद्धों को निकल परमात्मा कहते हैं।
प्रश्न - अजीव तत्त्व के कितने भेद हैं ?
उत्तर - अजीव तत्त्व के पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
प्रश्न - आस्रव किसको कहते हैं ?
उत्तर - कर्मों के आने को आस्रव कहते हैं।
प्रश्न - आस्रव के कितने भेद हैं ?
उत्तर - आस्रव के दो भेद हैं-द्रव्यास्रव और भावास्रव।
प्रश्न - द्रव्यास्रव किसको कहते हैं ?
उत्तर - मिथ्यात्वादि के कारण जो पुद्गल कार्माण वर्गणा आती है, वह द्रव्यास्रव है।
प्रश्न - भावास्रव किसको कहते हैं ?
उत्तर - मिथ्यात्वादि भावों को भावास्रव कहते हैं।
प्रश्न - बंध किसको कहते हैं ?
उत्तर - आत्मा के साथ दूध पानी की भाति कर्मों का मिल जाना बंध कहलाता है।
प्रश्न - बंध के कितने भेद हैं ?
उत्तर - बंध के दो भेद हैं-द्रव्य बंध और भाव बंध।
प्रश्न - द्रव्य बंध किसे कहते हैं ?
उत्तर - आत्म प्रदेश और कर्मों का परस्पर प्रवेश हो जाना द्रव्य बंध है।
प्रश्न - भाव बंध किसको कहते हैं ?
उत्तर - जिन चेतन भावों से कर्म बंधते हैं, वह परिणाम भाव बंध है।
प्रश्न - संवर किसको कहते हैं ?
उत्तर - कर्मों के निरोध को संवर कहते हैं या आस्रव का रुक जाना ही संवर है।
प्रश्न - संवर के कितने भेद है ?
उत्तर - संवर के दो भेद हैं-द्रव्य संवर और भाव संवर।
प्रश्न - द्रव्य संवर किसको कहते हैं ?
उत्तर - ज्ञानावरणादि कर्मों के आगमन का निरोध द्रव्य संवर है।
प्रश्न - भाव संवर किसे कहते हैं ?
उत्तर - आत्मा के जिन चैतन्य भावों से द्रव्य कर्म का आना रुकता है, वह भाव संवर है।
प्रश्न - निर्जरा किसको कहते हैं ?
उत्तर - एकदेश कर्मों के क्षय को निर्जरा कहते हैं।
प्रश्न - निर्जरा के कितने भेद हैं ?
उत्तर - निर्जरा के दो भेद हैं-द्रव्य निर्जरा और भाव निर्जरा।
प्रश्न - द्रव्य निर्जरा किसको कहते हैं ?
उत्तर - पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ जाना, आत्मा से पृथव् हो जाना द्रव्य निर्जरा है।
प्रश्न - द्रव्य निर्जरा के कितने भेद हैं ?
उत्तर - दो भेद हैं-सविपाक और अविपाक।
प्रश्न - सविपाक निर्जरा किसे कहते हैं ?
उत्तर - अपनी अवधि पूर्ण होने पर स्वत: कर्मों का उदय में आना और फल देकर झड़ जाना सविपाक निर्जरा है।
प्रश्न - अविपाक निर्जरा किसे कहते हैं ?
उत्तर - तप आदि विशिष्ट साधना से बलात्कर्मों का उदय में आकर झड़ जाना अविपाक निर्जरा है।
प्रश्न - भाव निर्जरा किसे कहते हैं ?
उत्तर - तप आदि विशिष्ट साधना से बलात्कर्मों का उदय में लाकर झड़ जाना अविपाक निर्जरा है।
उत्तर - आत्मा के जिन परिणामों से एकदेश कर्म छूटते हैं, उन परिणामों को भाव निर्जरा कहते हैं।
प्रश्न - मोक्ष किसको कहते हैं ?
उत्तर - संवर द्वारा नवीन कर्मों का आगमन रुक जाने पर और निर्जरा द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों के क्षीण हो जाने पर आत्मा की पूर्ण निष्कर्म दशा प्राप्त हो जाती है-आत्मा कर्म उपाधि से रहित हो जाती है, उसको मोक्ष कहते हैं।
प्रश्न - मोक्ष के कितने भेद हैं ?
उत्तर - मोक्ष के दो भेद हैं-द्रव्य मोक्ष और भाव मोक्ष।
प्रश्न - द्रव्यमोक्ष किसको कहते हैं ?
उत्तर - ज्ञानावरणादि आठो कर्मों से आत्मा का पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष है।
प्रश्न - भावमोक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर - कर्म आगमन के कारणभूत राग-द्वेषादि भावों का नाश हो जाना भावमोक्ष है।
प्रश्न - पुण्य किसको कहते हैं ?
उत्तर - जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर ले जाता है, वह पुण्य कहलाता है।
प्रश्न - पुण्य के कितने भेद हैं ?
उत्तर - पुण्य के दो भेद हैं-भाव पुण्य और द्रव्य पुण्य।
प्रश्न - द्रव्य पुण्य किसे कहते हैं ?
उत्तर - कर्मजन्य पुण्य प्रकृतियों को द्रव्य पुण्य कहते हैं।
प्रश्न - भाव पुण्य किसे कहते हैं ?
उत्तर - जीव के जिन परिणामों से शुभ कर्म प्रकृतियों का आगमन होता है, वह परिणाम भाव पुण्य है।
प्रश्न - पाप किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो आत्मा को शुभ क्रियाओं में नहीं जाने देता, जो आत्मा का पतन करता है, वह पाप कहलाता है।
प्रश्न - पाप के कितने भेद है ?
उत्तर - पाप के दो भेद हैं-भाव पाप और द्रव्य पाप।
प्रश्न - भाव पाप किसे कहते हैं ?
उत्तर - मिथ्यात्व आदि जीव के परिणामों को भाव पाप कहते हैं ?
प्रश्न - द्रव्य पाप किसे कहते हैं ?
उत्तर - मिथ्यात्वादि अशुभ कर्म प्रकृतियों को द्रव्य पाप कहते हैं।
आसवदि जेण कम्मं, परिणामेणप्पणो स विण्णेयो। भावासवो जिणुत्तो, कम्मासवणं परो होदि।।२९।।
आत्मा के जिन परिणामों से, कर्मों का आना होता है। जिनराज कथित परिणाम वही, भावास्रव जाना होता है।। जो कर्मों का आना होता, वह द्रव्यास्रव कहलाता है। आस्रव के कारण समझ जीव, सब आस्रव से छुट जाता है।।२९।।
अर्थ - आत्मा के जिन परिणामों से कर्म आता है उस परिणाम को जिनेन्द्र द्वारा कहा गया भावास्रव ्नााम से जानना चाहिये। इससे भिन्न कर्मों का आना द्रव्यास्रव होता है।
प्रश्न - आस्रव किसे कहते हैं?
उत्तर - आत्मा में कर्मों का आना आस्रव कहलाता है।
प्रश्न - आस्रव के कितने भेद हैं?
उत्तर - दो भेद हैं-१. भावास्रव, २. द्रव्यास्रव।
प्रश्न - भावास्रव किसे कहते हैं?
उत्तर - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप जिन परिणामों से कर्मों का आस्रव होता है उन परिणामों को भावास्रव कहते हैं।
प्रश्न - द्रव्यास्रव का क्या लक्षण है?
उत्तर - ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों का आना द्रव्यास्रव कहलाता है।
प्रश्न - द्रव्यास्त्रव और भावास्त्रव में अन्तर क्या है ?
उत्तर - इन दोनों में परस्पर निमित्त-नैमित्तक भाव है। जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर पुद्गल वर्गणा स्वयमेव अपने उपादान से कर्मरूप परिणत हो जाती है और मिथ्यात्व आदि द्रव्यकर्मप्रकृति का निमित्त प्राप्त कर स्वयं परिणमनशील आत्मा अपनी उपादान शक्ति से रागद्वेषरूप परिणमन करता है अत: द्रव्यास्त्रव से भावास्त्रव और भावास्त्रव से द्रव्यास्त्रव होता है।
मिच्छत्ताविरदिपमाद - जोगकोहादओथ विण्णेया। पण पण पण दह तिय चदु, कमसो भेदा दु पुव्वस्स।।३०।।
मिथ्यात्व पाँच अविरती पाँच, पन्द्रह प्रमाद त्रय योग कहे। क्रोधादि कषायें चार कहीं, सब मिलकर बत्तीस भेद लहे।। आत्मा के इन सब भावों से, कर्मों का आस्रव होता है। जो इन भावों से बचता है, वह द्रव्यास्रव को खोता है।।३०।।
अर्थ - पाँच मिथ्यात्व, पाँच अविरति, पन्द्रह प्रमाद, तीन योग और चार कषाय इस प्रकार क्रम से भावास्रव के बत्तीस भेद जानना चाहिये।
भावार्थ - एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान ये पाँच मिथ्यात्व हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पाँच अविरति हैं। चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रियों के विषय, निद्रा और स्नेह ये पन्द्रह प्रमाद हैं। मन, वचन और काय इनके निमित्त से आत्म प्रदेशों का परिस्पंदन ये तीन प्रकार का योग है और क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चार कषायें हैं।
प्रश्न - भावास्रव के कितने भेद हैं?
उत्तर - भावास्रव के पाँच भेद हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।
प्रश्न - भावास्रव के अन्य और भेद बताइये।
उत्तर - भावास्रव के विस्तार से ३२ भेद हैं-५ मिथ्यात्व, ५ अविरति, १५ प्रमाद, ३ योग, ४ कषाय · ३२।
प्रश्न - मिथ्यात्व किसे कहते हैं? इसके पाँच भेद कौन-से हैं?
उत्तर - तत्त्व का श्रद्धान नहीं होना मिथ्यात्व कहलाता है। इसके पाँच भेद हैं-एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक एवं अज्ञान।
प्रश्न - एकान्त मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?
उत्तर - अनेक धर्मात्मक वस्तु को एकान्तरूप से मानना एकान्त मिथ्यात्व है, जैसे आत्मा नित्य ही है-या अनित्य ही है।
प्रश्न - विपरीत मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?
उत्तर - धर्म के स्वरूप का विपरीत श्रद्धान करना-विपरीत मिथ्यात्व हैं, जैसे हिंसादि से स्वर्ग को प्राप्ति मानना।
प्रश्न - विनय मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?
उत्तर - विनय का अर्थ सत्कार है-बिना विवेक चाहे जिस किसी का सत्कार करना विनय मिथ्यात्व है।
प्रश्न - संशय मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?
उत्तर - वस्तु के स्वरूप का निश्चय न करने वा निरंतर संशयालु रहने को संशय मिथ्यात्व कहते हैं।
प्रश्न - अज्ञान मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?
उत्तर - हित एवं अहित की परीक्षा से शून्य विश्वास को अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं।
प्रश्न - अविरति किसे कहते हैं? उसके पाँच भेद कौन-से हैं?
उत्तर - पाँच पापों से विरत (त्याग) नहीं होना अविरति है। उसके पाँच भेद हैं-हिंसा अविरति, असत्य अविरति, चौर्य अविरति, कुशील अविरति और परिग्रह अविरति।
प्रश्न - प्रमाद किसे कहते हैं? इसके पन्द्रह भेद कौन-कौन से हैं?
उत्तर - शुभ क्रियाओं में यत्नपूर्वक-सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति नहीं करना प्रमाद है। इसके पन्द्रह भेद हैं-४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय विषय, १ निद्रा और १ स्नेह हैं।
प्रश्न - विकथा किसे कहते हैं ?
उत्तर - संयम की विरोधी कथाओं या वाक्य प्रबंधों को विकथा कहते हैं।
प्रश्न - विकथा कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर - स्त्रीकथा, भोजनकथा, राष्ट्रकथा, राजकथा, ये चार प्रकार की विकथा होती है।
प्रश्न - कषाय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिससे आत्मा के संयम गुण का घात होता है, जो आत्मा को कषती है, दु:ख देती है, उसे कषाय कहते हैं-उसके चार भेद है-क्रोध, मान, माया, लोभ।
प्रश्न - इन्द्रियाँ किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो आत्मा का चिन्ह है-जिसके द्वारा कर्म कल्मष आत्मा रस-रूप आदि को ग्रहण करता है, उन्हें इन्द्रियाँ कहते हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं।
प्रश्न - निद्रा किसे कहते हैं ?
उत्तर - स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इन्द्रियाँ जब अपने-अपने विषय को ग्रहण करने में असमर्थ हो जाती हैं, उसको निद्रा कहते हैं।
प्रश्न - योग किसे कहते हैं? उसके कितने भेद हैं?
उत्तर - मन, वचन, काय की क्रिया को योग कहते हैं। इसके तीन भेद हैं-मनोयोग, वचनयोग और काययोग।
णाणावरणादीणं, जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो च णेओ, अणेयभेयो जिणक्खादो।।३१।।
ज्ञानावरणादी कर्मों के, जो योग्य कहे पुद्गल जग में। वे आते हैं उनको समझो, द्रव्यास्रव वह हो क्षण क्षण में।। श्री जिनवर ने द्रव्यास्रव के, हैं भेद अनेकों बतलाये। वे आठ तथा इकसौ अड़तालिस, औ असंख्य भी कहलाये।।३१।।
अर्थ - ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों के योग्य जो पुद्गल वर्गणाओं का आस्रव होता है उसे द्रव्यास्रव जानना चाहिये। उसके जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित अनेक भेद होते हैं अर्थात् कर्म के ज्ञानावरण-दर्शनावरण आदि आठ भेद और मति ज्ञानावरण आदि एक सौ अड़तालिस अथवा असंख्यात लोक प्रमाण भी भेद होते हैं।
प्रश्न - द्रव्यास्रव किसे कहते हैं?
उत्तर - ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के योग्य जो पुद्गल परमाणु आते हैं, उन्हें द्रव्यास्रव कहते हैं।
प्रश्न - द्रव्यास्रव कितने प्रकार का है?
उत्तर - द्रव्यास्रव संक्षेप में आठ प्रकार का है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय।
प्रश्न - द्रव्यास्रव के और कितने भेद हैं?
उत्तर - द्रव्यास्रव के विस्तार से १४८ भेद हैं-ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ९, वेदनीय २, मोहनीय २८, आयु ४, नाम ९३, गोत्र २ और अन्तराय ५ के भेद से १४८ प्रकार का है।
बज्झदि कम्मं जेण दु, चेदणभावेण भावबंधो सो। कम्मदपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो।।३२।।
जिन चेतन के परिणामों से, ये कर्म जीव से बंधते हैं। उन भावों को ही भाव बंध, संज्ञा श्री जिनवर कहते हैं।। जो कर्म और आतम प्रदेश, इनका आपस में मिल करके। अति एकमेक हो बंध जाना, यह द्रव्यबंध है बहुविध से।।३२।।
अर्थ - आत्मा के जिन भावों से कर्म बंधता है वह आत्मा का भाव ही भाव बंध कहलाता है, कर्म और आत्मा के प्रदेशों का परस्पर में प्रवेश हो जाना—मिल जाना द्रव्य बंध कहलाता है।
प्रश्न - बन्ध किसे कहते हैं?
उत्तर - जीव कषाय सहित होने से कर्म के योग्य कार्मण वर्गणारूप पुद्गल परमाणुओं को जो ग्रहण करता है, वह बन्ध है।
प्रश्न - बन्ध के कितने भेद हैं?
उत्तर - दो भेद हैं-१. भावबन्ध २.द्रव्यबन्ध
प्रश्न - भावबन्ध किसे कहते हैं?
उत्तर - जिन मिथ्यात्वादि आत्म-परिणामों से कर्म बँधता है वह भावबन्ध कहलाता है।
प्रश्न - द्रव्यबन्ध किसे कहते हैं?
उत्तर - पुद्गल कर्मों से जो कर्मबन्ध होता है उसे द्रव्यबन्ध कहते हैं।
पयडिट्ठिदिअणुभाग-प्पदेसभेदा दु चदुविधो बंधो। जोगा पयडिपदेसा, ठिदि अणुभागा कसायदो होंति।।३३।।
प्रकृति, स्थिती, अनुभाग बंध, औ प्रदेश बंध ये चार कहे। इनमें से योगों के वश से, प्रकृती प्रदेश दो बंध कहे।। होते कषाय से स्थिति औ, अनुभाग बंध बहु दु:खकारी। इनके ही वश से जीव भ्रमे, अतएव कषाय दु:खकारी।।३३।।
अर्थ - प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध इन भेदों से बन्ध चार प्रकार का है। इनमें से प्रकृति और प्रदेश बन्ध योग के निमित्त से होते हैं तथा स्थिति और अनुभाग बन्ध कषाय से होते हैं।
प्रश्न - प्रकृतिबन्ध का क्या लक्षण है ?
उत्तर - कर्मों के स्वभाव को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। जैसे-ज्ञानावरणादि।
प्रश्न - स्थितिबन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर - ज्ञानावरणादि कर्मों का अपने स्वभाव से च्युत नहीं होना सो स्थितिबन्ध है।
प्रश्न - अनुभागबन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर - ज्ञानावरणादि कर्मों के रस विशेष को अनुभागबन्ध कहते हैं।
प्रश्न - प्रदेशबन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर - ज्ञानावरणादि कर्मरूप होने वाले पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या को प्रदेशबन्ध कहते हैं।
प्रश्न - चारों प्रकार के बन्ध किन-किन निमित्तों से होते हैं ?
उत्तर - इन चारों प्रकार के बन्धों में प्रकृति और प्रदेशबन्ध योग के निमित्त से होते हैं तथा स्थिति और अनुभागबन्ध कषाय के निमित्त से होते हैं।
चेदणपरिणामो जो, कम्मस्सासवणिरोहणे हेऊ। सो भावसंवरो खलु, दव्वासवरोहणे अण्णो।।३४।।
आत्मा का जो परिणाम हुआ, कर्मों का आस्रव रोकन में। हेतू होता वह कहा भाव-संवर जावे जिनवर वच में।। जो द्रव्यास्रव के रोधन में, कारण होता है श्रुत ख्याता। वह कहा द्रव्यसंवर जाता, इन दोनों से भव नश जाता।।३४।।
अर्थ - आत्मा का जो परिणाम कर्मों के आस्रव के रोकने में कारण है वह परिणाम ही भावसंवर है और द्रव्यास्रव के रोकने में जो कारण है वह द्रव्यसंवर कहलाता है।
प्रश्न - संवर के कितने भेद हैं ?
उत्तर - दो भेद हैं-१. भावसंवर २. द्रव्यसंवर।
प्रश्न - भावसंवर किसे कहते हैं ?
उत्तर- आस्रव को रोकने में कारणभूत आत्म-परिणाम भावसंवर है।
प्रश्न - द्रव्यसंवर किसे कहते हैं ?
उत्तर - कर्मरूप पुद्गल द्रव्य का आस्रव रुकना द्रव्यसंवर है।
प्रश्न - संवर किसको होता है ?
उत्तर - संवर तो सम्यग्दृष्टि के ही होता है, क्योंकि कर्म आस्रव के कारण मिथ्यात्व का नाश होता है अत: मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय से आने वाली इकतालीस कर्म प्रकृतियों का निरोध हो जाता है, कर्म प्रकृतियों का आना रुक जाना ही संवर है, मिथ्यादृष्टि के एक भी प्रकृति का निरोध नहीं होता है।
वदसमिदी गुत्तीओ, धम्माणुपिहा परीसहजओ य। चारित्तं बहुभेयं, णायव्वा भावसंवरविसेसा।।३५।।
व्रत पाँच समिति भी पाँच-गुप्ति हैं तीन धर्म दशरूप कहे। अनुप्रेक्षा बारह परिषहजय, बाईस सु चारित पाँच कहे।। ये कहे भाव संवर जिन ने, सब बासठ भेद समझ लीजे। इनके पालन से आत्मा में, कर्मास्रव का रोधन कीजे।।३५।।
अर्थ - व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और बहुत प्रकार के चारित्र ये सब भावसंवर के विशेष भेद जानने चाहिये।
प्रश्न - संक्षेप में भावसंवर के कितने भेद हैं ?
उत्तर - सात भेद हैं-१. व्रत, २. समिति, ३. गुप्ति, ४. धर्म, ५. अनुप्रेक्षा, ६. परिषहजय और ७. चारित्र।
प्रश्न - विस्तार से भावसंवर के कितने भेद हैं ?
उत्तर - विस्तार से भावसंवर के ६२ भेद हैं-५ व्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति, १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षा, २२ परीषहजय और ५ चारित्र।
प्रश्न - व्रत किसे कहते हैं ? और उनके क्या नाम हैं ?
उत्तर - पाँच पापों का त्याग करना व्रत है। व्रत ५ होते हैं-१. अिंहसाव्रत, २. सत्यव्रत, ३. अचौर्यव्रत, ४. ब्रह्मचर्यव्रत और ५. परिग्रहपरिमाणव्रत।
प्रश्न - समिति किसे कहते हैं ? पाँच समितियाँ कौन-सी हैं ?
उत्तर - जीवों की रक्षा के लिए यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने को समिति कहते हैं। पाँच समितियाँ हैं-१. ईर्या समिति, २. भाषा समिति, ३. एषणा समिति, ४. आदाननिक्षेपण समिति और ५. प्रतिष्ठापना समिति।
प्रश्न - गुप्ति किसे कहते हैं ? उसके भेद बताइये ?
उत्तर - संसार भ्रमण के कारणभूत मन, वचन, काय तीनों योगों का निग्रह करना गुप्ति है। उसके तीन भेद हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति।
प्रश्न - धर्म किसे कहते हैं ? उसके दस भेद कौन-से हैं ?
उत्तर - जो आत्मा को संसार के दु:खों से छुड़ाकर उत्तम सुख में प्राप्त करावे उसे धर्म कहते हैं। दस धर्म-१. उत्तम क्षमा, २. उत्तम मार्दव, ३. उत्तम आर्जव, ४. उत्तम शौच, ५. उत्तम सत्य, ६. उत्तम संयम, ७. उत्तम तप, ८. उत्तम त्याग, ९. उत्तम आकिञ्चन्य, १०. उत्तम ब्रह्मचर्य।
प्रश्न - अनुप्रेक्षा का लक्षण व उसके बारह भेद बताइये ?
उत्तर - शरीरादिक के स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। बारह अनुप्रेक्षाएँ-१. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचि, ७. आस्रव, ८. संवर, ९. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोधिदुर्लभ और १२. धर्म।
प्रश्न - परीषहजय किसे कहते हैं ? उसके बाईस भेदों के नाम बताइये।
उत्तर - क्षुधा, तृषा (भूख-प्यास) आदि की वेदना होने पर कर्मों की निर्जरा के लिए उसे शान्त भावों से सह लेना परीषहजय कहलाता है। बाईस परीषह के नाम-१. क्षुधा, २. तृषा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंशमशक, ६. नाग्न्य,७. अरति, ८. स्त्री, ९. चर्या, १०. निषद्या, ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३. वध, १४. याचना, १५. अलाभ, १६. रोग, १७. तृणस्पर्श, १८. मल, १९. सत्कार-पुरस्कार, २०. प्रज्ञा, २१. अज्ञान, २२. अदर्शन। इन २२ परीषहों को जीतना २२ प्रकार का परीषहजय है।
प्रश्न - उपसर्ग और परीषह में क्या अन्तर है ?
उत्तर - उपसर्ग कारण है और परीषह कार्य है।
प्रश्न - चारित्र का लक्षण बताकर उसके भेद बताइये ?
उत्तर - कर्मों के आस्रव में कारणभूत बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के रोकने को चारित्र कहते हैं। चारित्र पाँच प्रकार का होता है-१. सामायिक, २. छेदोपस्थापना, ३. परिहारविशुद्धि, ४. सूक्ष्मसाम्पराय और ५. यथाख्यात।
जह कालेण तवेण य, भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण। भावेण सडदि णेया, तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा।।३६।।
जिन परिणामों से यथाकाल, फल देकर पुद्गल कर्म झड़ें। औ जिन भावों से तप द्वारा, फल दे अकाल में कर्म झड़ें।। बस भाव निर्जरा कहलाता, है भाव वही ऐसा जानो। है द्रव्य निर्जरा कर्मों का, झड़ना यह बात सही मानो।।
अर्थ — यथाकाल—काल पूर्ण होने पर और तप के द्वारा जिनका फल भोग लिया है ऐसे पुद्गल कर्म जिन भावों से झड़ जाते हैं उन भावों को भाव निर्जरा जानना चाहिये और पुद्गल कर्मों का झड़ जाना ही द्रव्य निर्जरा है ऐसे निर्जरा के भी दो भेद हैं।
भावार्थ — फल देकर आत्मा से कर्मों का एक देश अलग होना निर्जरा कहलाती है। कर्मों की स्थिति पूरी होने पर जब वे उदय में आते हैं और उनका फल भोग लिया जाता है तब वे निर्जीर्ण हो जाते हैं। वह सविपाक-निर्जरा है तथा अकाल में तप आदि के द्वारा कर्मों का उदय में आकर खिर जाना अविपाक निर्जरा है। ये दोनों भेद भाव-निर्जरा और द्रव्य-निर्जरा दोनों में ही हो जाते हैं।
प्रश्न — निर्जरा किसे कहते हैं ? उसके भेद बताइये।
उत्तर — बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ना निर्जरा कहलाती है। निर्जरा के दो भेद हैं—१. भाव-निर्जरा, २. द्रव्य-निर्जरा। सविपाक और अविपाक निर्जरा के भेद से भी निर्जरा दो प्रकार की है।
प्रश्न — भाव निर्जरा का स्वरूप बताओ।
उत्तर — जिन परिणामों से बँधे हुए कर्म एकदेश झड़ जाते हैं उन परिणामों को भाव निर्जरा कहते हैं।
प्रश्न — द्रव्य निर्जरा का लक्षण क्या है ?
उत्तर— बँधे हुए द्रव्य कर्मों का एकदेश निर्जीर्ण होना द्रव्य निर्जरा है।
प्रश्न — सविपाक निर्जरा किसे कहते हैं ?
उत्तर — अपनी अवधि पाकर या फल देकर बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ना सविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा समय के अनुसार पककर अपने आप गिरे हुए आम के समान होती है।
प्रश्न — अविपाक निर्जरा का क्या स्वरूप है ?
उत्तर — तपश्चरण के द्वारा समय से पहले ही बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ना अविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा पाल में रखकर पकाये गये आम के समान होती है।
प्रश्न — तप किसे कहते हैं तथा तप के कितने भेद हैं ?
उत्तर — सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को प्रकट करने के लिये इच्छाओं का निरोध करना तप कहलाता है। मुख्यरूप से तप दो प्रकार का है—१. बाह्य तप तथा २. आभ्यन्तर तप।
प्रश्न — बाह्य तप किसे कहते हैं ?
उत्तर — जो बाहर से देखने में आता है अथवा जिसे सभी लोग पालन करते हैं, वह बाह्य तप है।
प्रश्न — बाह्य तप के कितने भेद हैं ?
उत्तर — बाह्य तप के छह भेद हैं—१. अनशन, २. अवमौदर्य, ३.वृत्तिपरिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विविक्तशय्यासन और ६. कायक्लेश।
प्रश्न — आभ्यन्तर तप किसे कहते हैं ?
उत्तर — जिन तपों का आत्मा से सीधा सम्बन्ध होता है वे आभ्यन्तर तप कहे जाते हैं।
प्रश्न — आभ्यन्तर तप के कितने भेद हैं ?
उत्तर — आभ्यन्तर तप के छह भेद हैं—१. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैय्यावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग और ६. ध्यान।
प्रश्न — प्रायश्चित तप के कितने भेद हैं, उनके नाम बतायें ?
उत्तर — प्रायश्चित तप के नव भेद होते हैं—१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. परिहार, ९. उपस्थापना।
प्रश्न — विनय के भेद तथा नाम बताइये ?
उत्तर — विनय के चार भेद हैं—१. ज्ञान विनय, २. दर्शन विनय, ३. चारित्र विनय तथा ४. उपचार विनय।
प्रश्न — वैय्यावृत्य तप के भेद व नाम बताइये ?
उत्तर — वैय्यावृत्य तप के १० भेद हैं—१. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. तपस्वी, ४. शैक्ष्य, ५. ग्लान, ६. गण, ७. कुल, ८. संघ, ९. साधु, १०. मनोज्ञ। इन दस प्रकार के मुनियों की सेवा करना दस प्रकार का वैय्यावृत्य है।
प्रश्न — स्वाध्याय तप के भेद व नाम बताओ ?
उत्तर — स्वाध्याय तप पाँच प्रकार का है—१. वाचना, २. पृच्छना, ३. अनुप्रेक्षा, ४. आम्नाय और ५. धर्मोपदेश।
प्रश्न — व्युत्सर्ग तप के भेद व नाम बताइये ?
उत्तर — व्युत्सर्ग तप के दो भेद हैं—बाह्य और आभ्यन्तर। धन-धान्यादि बाह्य परिग्रहों का त्याग बाह्य व्युत्सर्ग है तथा क्रोधादि अशुभ भावों का त्याग करना आभ्यन्तर व्युत्सर्ग तप है।
प्रश्न — ध्यान तप के भेद व नाम बताओ ?
उत्तर — ध्यान तप के चार भेद हैं—१. आत्र्त ध्यान, २. रौद्र ध्यान, ३. धम्र्य ध्यान और ४. शुक्ल ध्यान।
सव्वस्स कम्मणो जो, खयहेदू अप्पणो हु परिणामो। णेओ स भावमोक्खो, दव्वविमोक्खो य कम्मपुधभावो।।३७।।
जो निज आत्मा का भाव सभी, कर्मों के क्षय में हेतू है। बस भाव वही है भाव मोक्ष, जो अक्षय सुख में हेतू है।। आत्मा से कर्म पृथक् होना, सो द्रव्य मोक्ष कहलाता है। बस इसीलिये इन तत्त्वों का, श्रद्धान कराया जाता है।।
अर्थ — आत्मा का जो परिणाम सभी कर्मों के क्षय में हेतु है, उस परिणाम को ही भाव मोक्ष जानना चाहिये और आत्मा से कर्मों का पृथक् हो जाना ही द्रव्य मोक्ष कहलाता है।
प्रश्न — मोक्ष किसे कहते हैं ? इसके भेद बताइये।
उत्तर — समस्त कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष कहलाता है। मोक्ष के दो भेद हैं—भाव मोक्ष तथा द्रव्य मोक्ष।
प्रश्न — मोक्ष कौन प्राप्त करते हैं ?
उत्तर — भव्य जीव कर्मरहित होकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न — क्या संसार के सभी जीव मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं ?
उत्तर — नहीं, भव्य जीवों में ही मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता होती है।
प्रश्न — भव्य किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को प्राप्त करने की योग्यता है, वे भव्य कहलाते हैं।
सुह असुह भावजुत्ता, पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा। सादं सुहउणाणं, गोदं पुण्णं पराणि पावं च।।३८।।
शुभ भाव सहित ये जीव नियम से, पुण्यरूप हो जाते हैं। औ अशुभ भाव से पापरूप, मिल नव पदार्थ कहलाते हैं।। साता प्रकृति शुभ आयु नाम, शुभ गोत्र सुपुण्य प्रकृतियाँ हैं। इनसे उल्टी जो अशुभ आयु, नामादिक पाप प्रकृतियाँ हैं।।३८।।
अर्थ — शुभ और अशुभ भावों सहित जीव नियम से पुण्यरूप और पापरूप होते हैं। साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये पुण्यरूप हैं, इनसे भिन्न शेष कर्म पापरूप होते हैं।
भावार्थ — पुण्य और पाप पदार्थ भी भाव और द्रव्य की अपेक्षा दो-दो भेदरूप हो जाते हैं। उनमें से जीव के जो शुभ-अशुभ भाव हैं वे भाव पुण्य और भाव पाप हैं तथा पुद्गल कर्म की प्रकृतियों में से पुण्य प्रकृतियाँ द्रव्य-पुण्य और पाप प्रकृतियाँ द्रव्य-पाप हैं ऐसा समझना चाहिये।
प्रश्न — पुण्य कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर — पुण्य दो प्रकार का होता है—भावपुण्य और द्रव्यपुण्य।
प्रश्न — पाप कितने प्रकार का माना गया है ?
उत्तर — पाप दो प्रकार का माना गया है—भावपाप और द्रव्यपाप।
प्रश्न — भावपुण्य और द्रव्यपुण्य का क्या लक्षण है ?
उत्तर — शुभ भावों को धारण करने वाले जीव भावपुण्य कहलाते हैं तथा कर्मों की प्रशस्त प्रकृतियों को द्रव्यपुण्य कहते हैं।
प्रश्न — शुभ भाव कौन से हैं ?
उत्तर — जीवों की रक्षा करना, सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अरहन्त भगवान की भक्ति करना, पंचपरमेष्ठी को नमन करना, गुरुभक्ति, वैय्यावृत्य, दान, दया, मैत्री, प्रमोद आदि शुभ भाव हैं।
प्रश्न — अशुभ भाव कौन से कहलाते हैं ?
उत्तर — हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाँच पाप करना, देव-शास्त्र-गुरु की उपासना नहीं करना, गुरुओं की निन्दा करना, दान, दया, संयम, तपादि का पालन नहीं करना, क्रोध, मान, माया, लोभादि पापरूप भाव अशुभ भाव कहलाते हैं।
प्रश्न — पाप प्रकृतियाँ कितनी और कौनसी हैं ?
उत्तर — पाप प्रकृतियाँ १०० हैं—घातिया कर्म की ४७, असातावेदनीय १, नीचगोत्र १, नरकायु १ और नामकर्म की ५० (नरकगति १, नरकगत्यानुपूर्वी १, तिर्यग्गति १, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी १, जाति में से आदि की ४ जातियाँ, संस्थान-अन्त के ५, संहनन-अंत के ५, स्पर्शादिक अशुभ २०, उपघात १, अप्रशस्त विहायोगति १, स्थावर १, सूक्ष्म १, अपर्याप्त १, अनादेय १, अयश:कीर्ति १, अस्थिर १, अशुभ १, दुर्भग १, दु:स्वर १ और साधारण १)।
प्रश्न — पुण्य प्रकृतियाँ कितनी हैं और उनके क्या नाम हैं ?
उत्तर — पुण्य प्रकृतियाँ ६८ हैं—सातावेदनीय १, तिर्यंच-मनुष्य-देवायु ३, उच्चगोत्र १, मनुष्य गति १, मनुष्यगत्यानुपूर्वी १, देवगति १, देवगत्यानुपूर्वी १, पंचेन्द्रिय जाति १, शरीर ५, बंधन ५, संघात ५, अंगोपांग ३, शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श इन ४ के २० भेद, समचतुरस्रसंस्थान १, वङ्काऋषभनाराच संहनन, उपघात के बिना अगुरुलघु आदि ५ तथा प्रशस्तविहायोगति १, त्रस आदिक १२।