|| भक्तामर स्तोत्र-मूल पाठ २५ से ३६ ||

मूल पाठ
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धि-बोधात्,
त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय-शंकरत्वात्।


धाताऽसि धीर! शिवमार्गविधेर् विधानात्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि।।२५।।

         अन्वयार्थ -(विबुधार्चित बुद्धि-बोधात्) आपकी बुद्धि का बोध-ज्ञान, देवों अथवा विद्वानों द्वारा पूजित होने से (त्वमेव) आप ही (बद्धः) बुद्ध हैं। (भुवनत्रय-शंकरत्वात्) तीनों लोकों में सुख-शांति करने के कारण (त्वम्) आप ही (शंकरः असि) शंकर-महादेव हैं। (शिवमार्गविधेः विधानात्) मोक्षमार्ग की विधि का विधान करने से (धीर!) हे धीर! (त्वमेव) आप ही (धाता असि) विधाता-ब्रह्या हैं और (भगवन्!) हे भगवन्! (व्यक्तम्) स्पष्टतः (त्वमेव) आप ही (पुरुषोत्तमः असि) पुरुषों में उत्तम-विष्णु हैं।।२५।।

पद्यानुवाद
तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमान तैं,
तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रयी विधान तैं।
तुही विधात है सही सुमोख पंथ धार तैं,
नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचार तैं।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे प्रभो! आपके केवलज्ञान की गणधरों ने अथवा देवों ने पूजा की है, अतः आप ही ‘बुद्धदेव‘ हैं। आप लोकत्रय जीवों का आत्म-कल्याण करने वाले हैं, इसलिए आप ही शंकर हैं। हे धीर, आपने रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग का सत्यार्थ उपदेश दिया है, अतः आप ही विधाता-ब्रह्या हैं। हे भगवन्! उपरोक्त गुणों से विभूषित होने के कारण आप ही साक्षात् पुरुषश्रेष्ठ श्रीकृष्ण हैं, अर्थात् बुद्ध, शंकर (महादेव), ब्रह्या और श्रीकृष्ण आदि को संसारी जीव देवों के नाम से पुकारते हैं, परन्तु अद्वितीय लोकोत्तर गुणों से विभूषित होने के कारण आप ही सच्चे देव हैं।

        वस्तु में तीन गुण पाये जाते हैं - (१) उत्पाद, (२) व्यय, और (३) ध्रौव्य। उनका सच्चा स्वरूप बताने वाले और उस मार्ग पर चलकर अपनी आत्मा का कल्याण करके संसार को जग-जाल से छुड़ाने का, मार्ग का दिग्दर्शन कराने वाले वास्तव में आप ही हैं। हे प्रभु! आपको संसार कितने ही नामों से याद करता है, परन्तु वे वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न होने से अन्यथा रूप में भी मानने लगे हैं; जो एक भ्रांति है। आपने वस्तु का स्वरूप जैसा देखा, जाना, अनुभव किया, उसका वैसा ही विधान विधिपूर्वक जन-कल्याण के लिये बनाया इसलिए आप ही बुद्ध, विष्णु, महेश और कृष्ण है।

मूल पाठ
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ!
तुभ्यं नमः क्षितिलामलभूषणाय।
तुभ्यं नमस्त्रिजगत्ः परमेश्वराय
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय।।२६।।

         अन्वयार्थ -(नाथ!) हे स्वामिन्! (त्रिभुवनार्तिहराय) तीनों लोकों की पीड़ा-दुःख को हरण करने वाले (तुभ्यं नमः) आपको नमस्कार हो। (क्षितितलामल-भूषणाय) भूतल के निर्मल आभूषण रूप (तुभ्यं नमः) आपको नमस्कार हो। (त्रिजगतः परमेश्वराय) तीनों जगत् के परमेश्वर रूप (तुभ्यं नमः) आपको नमस्कार हो और (जिन!) हे जिनेश्वर! (भवोदधि-शोषणाय) संसार-समुद्र को सुखाने वाले (तुभ्यं नमः) आपको नमस्कार हो।।२६।।

पद्यानुवाद
नमों करूं जिनेश तोहि आपदा-निवार हो,
नमों करूं सुभुरि भूमि-लोक के सिंगार हो।
नमों करूं भवाब्धि-नीर-राशि-शोष हेतु हो,
नमों करूं महेश तोहि मोखपंथ देतु हो।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे भगवन्! तीन लोकों की पीड़ा को हरने वाले! आपको नमस्कार है। भूतल अर्थात् भूमंडल के निर्मल आभूषण! आपको नमस्कार है। तीन जगत् के परमेश्वर! आपको नमस्कार है। हे जिनेन्द्र! भव सागर के सुखाने वाले अर्थात् जीवों को मोक्ष पहुँचाने वाले! आपको नमस्कार है।

        जीव चारों गतियों की चैरासी लाख योनियों में राग-द्वेष, मिथ्यात्व, मोहान्धकार आदि के कारण भ्रमण करता है, उसके दूर करने में भगवान आप निमित्त हैं इसलिए आपको नमस्कार करता हूँ। हे प्रभु! आप तो अनन्त गुणों के भंडार हैं, आपके उज्ज्वल गुणों को देवताओं, महात्माओं, विद्वानों द्वारा बखान करना प्रायः असम्भव है फिर मेरे जैसे अल्पज्ञ द्वारा आपके गुणों का वर्णन करना सम्भव नहीं है। रत्न, माणिक, मोतियों के आभूषण जगत् के रागी प्राणियों के श्रृंगार हैं, लेकिन जिसे अपनी आत्मा का बोध हो गया, जो पूर्ण रूप से प्रकट होने पर ‘केवलज्ञान‘ कहलाता है, वही उसका आभूषण है। असल में सर्वज्ञता वह आभूषण है जो अद्वितीय है, उसकी प्राप्ति के हेतु आप हैं अस्तु आपको नमस्कार करता हूँ। आवागमन-जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा दिलाने वाले! आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

मूल पाठ
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै-
स्त्वं संश्रितो निवकाशतया मुनीश-


दोषैरुपात्त-विविधाश्रय-जातगर्वैः,
स्वप्नान्तरेऽपि न कआचिदपीक्षितोऽसि।।२७।।

         अन्वयार्थ -(मुनीश!) हे मुनियों के स्वामी! (यदि नाम) यदि (निरवकाशतया) अन्य स्थल में अवकाश न मिलने के कारण (अशेषैः गुणैः) समस्त गुण (त्वम्) आपके (संश्रितः) आश्रित हो गये हैं, इसलिए (उपात्त-विविधश्रय-जातग्र्वैः) अनेक जगह आश्रय प्राप्त होने के कारण जिन्हें गर्व हो गया है, उन (दोषैः) दोषों के द्वारा (स्वप्नान्तरेऽपि) सपने में भी (कदाचित् अपि) कदापि (न ईक्षितः असि) आप नहीं देखे गये हैं, तो (अत्र) इस विषय में (कः विस्मयः) क्या आश्चर्य है ? कुछ भी नहीं।।२७।।

पद्यानुवाद
तुम जिन पूरण गुणगण भरे, दोष गर्वकरि तुम परिहरे।
ओर देवगण आश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर आय।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे मुनीश्वर! समस्त सद्गुणों ने आपमें सघन आश्रय पाया है अतएव दोषों को आपमें जरा-सा भी स्थान नहीं मिला। फलस्वरूप उन्होंने अन्य अनेक देवताओं में स्थान प्राप्त किया और इसलिए वे गर्व को प्राप्त हो गये हैं। फिर भी वे स्वप्न में भी कभी आपको लौटकर देखने को नहीं आये सो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है ? जिसे अन्यत्र आद मिलेगा, वह भला आश्रय न देने वाले व्यक्ति के पास लौटकर क्यों आयेगा ?

        संसार के समस्त सद्गुणों और दुर्गुणों की तुलना करते हुए समझाया है कि वीतरागता जैसे गुणों को सरागी देवों तथा अन्य मिथ्यात्वी लोगों ने अपनी शरण में नहीं लिया इसलिए वह सब सद्गुण उनका आसरा छोड़कर आपकी शरण में आ गये हैं तथा दुर्गुणों को अन्य सरागी देवों और मिथ्यादृष्टि लोगों का आसरा मिल जाने से उनको इस बात का गर्व हो गया मालूम होता है कि यदि एक स्थान पर हमें शरण न मिली तो क्या हुआ हमंे तो शरण में लेने वाले संसार में बहुत से देव हैं इसलिए वे दुर्गुण आपके पास स्वप्न में भी नहीं आयंे तो इसमें कौन अचम्भे वाली बात हैं।

मूल पाठ
उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूख-
माभाति रुपममलं भवतो नितान्तम्।
स्पष्टोललसत् किरणमस्ततमोवितानं
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति।।२८।।

         अन्वयार्थ -(उच्चैरशोकतरु-संश्रितम्) ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित तथा (उन्मयूखम्) जिसकी किरणें ऊपर को फैल रही हैं, ऐसा (भवतः अमलम् रूपम्) आपका उज्ज्वल रूप (स्पष्टोल्लसत्किरणम्) जिसकी किरणें स्पष्ट रूप से शोभायमान हैं और (अस्त तमोवितानम्) जिसने अंधकार-समूह को नष्ट कर दिया है, ऐसे (पयोधरपाश्र्ववर्ति) मेघ के निकट विद्यमान (रवेः बिम्बम् इव) सूर्य के बिम्ब की तरह (नितान्तम्) अत्यन्त (आभाति) शोभित होता है।।२८।।

पद्यानुवाद
तरु अशोक तल किरण उदार, तुम तन शोभित है अविकार।
मेघ-निकट ज्यों फुरंत, दिनकर दिपै तिमिर निहनंत।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे वीतराग प्रभो! समवसरण में ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान, चमकती और ऊपर की ओर फैलती हुई किरणों वाला आपका निर्मल स्वरूप ऐसा भव्य प्रतीत होता है, जैसा कि स्वरूप से चमकती हुई किरणों वाला एवं अन्धकार के समूह को नष्ट करने वाला सूर्य का बिम्ब सघन मेघों के समीप शोभित होता है। भगवान ऋषभदेव का पीतवर्ण सूर्य बिम्ब के सदृश है और अशोक वृक्ष मेघ के सदृश नीलवर्ण-युक्त। अशोक वृक्ष के सान्निध्य से ऋषभदेव का स्वतः तेजस्वी रूप और अधिक तेजस्वी दिखाई देने लगता है।

        भगवान के केवलज्ञान होने के पश्चात् समवसरण में इन्द्र आठ प्रातिहार्यों की रचना करता है, जिसमें सबसे पहला प्रातिहार्य है - अशोक वृक्ष। किसी विशेष महिमा का ज्ञान कराने वाले एक चिन्ह को जिसका निर्माण इन्द्र करता है, उसे प्रातिहार्य कहते हैं। समवसरण में अशोक वृक्ष तीर्थंकर विशेष की अपेक्षा से उनके शरीर की अवगाहना के अनुपात से बारह गुणा ऊँचा होता है। अशोक वृक्ष के नीचे बैठने से आकुलता दूर होती है और शांति प्राप्त होती है। आजकल भी अशोक वृक्ष की छाल औषधियों में काम आती है।

मूल पाठ
सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्।
बिम्बं वियद् विलसंदशुलता-वितानं
तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्त्ररश्मेः।।२९।।

         अन्वयार्थ -(मणिमयूखशिखाविचित्रे) रत्नों की किरणों के अग्र भाग से चित्र-विचित्र (सिंहासने) सिंहासन पर (तव) आपका (कनकावदातम्) सोने की तरह उज्ज्वल (वपुः) शरीर (तुंगोदयाद्रि-शिरसि) ऊँचे उदयाचल के शिखर पर (वियद्-विलसदंशुलता-वितानम्) आकाश में जिसकी किरणरूपी लताओं का समूह शोभायमान है, उस (सहस्त्ररश्मेः) सूर्य के (बिम्बम् इव) मंडल की तरह (विभ्राजते) सुशोभित हो रहा है।।२९।।

पद्यानुवाद
सिंहासन मणि किरण विचित्र, तापर कंचन वरण पवित्र।
तुम तन शोभित किरण विथार, ज्यों उदयाचल रवि तमहार।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे भगवन्! जिस प्रकार ऊँचे उदयाचल पर्वत के शिखर पर आकाश में प्रकाशमान किरणरूपी लताओं के विस्तार से युक्त सूर्य का बिम्ब शोभा को प्राप्त होता है, उसकी प्रकार जड़े हुए बहुमूल्य रत्नों की किरण प्रभा से शोभित ऊँचे सिंहासन पर आपका स्वर्ण के समान देदीप्यमान स्वच्छ शरीर शोभा को प्राप्त हो रहा है।

        सिंहासन का अर्थ है उत्कृष्ट आसन। सिंहासन की शोभा उस पर बैठने वाले से होती है न कि सिंहासन पर बैठने वाले की। संसार में साधारण मनुष्य की बाह्य विभूति को देखकर हम उसके पुण्य का या पद का अनुमान लगाते हैं, परन्तु जहाँ साक्षात् तीर्थंकर भगवान विराजमान हों उनके पुण्य की पराकाष्ठा का, उनके परम पद का भान भी हमें बाहरी विभूतियों से मिलता है। भगवान समवसरण में रत्नजडि़त सिंहासन पर चार अंगुल अधर अंतरिक्ष में विराजमान होते हैं। वह सिंहासन भी उनकी विभूतियों का एक प्रतीक है। रत्नजडि़त सिंहासन तो देदीप्यमान है ही; परन्तु भगवान के परम औदारिक शरीर के विराजने से और भी अधिक देदीप्यमान हो जाता है।

        सिंहासन की तुलना उदयाचल पर्वत से तथा भगवान की उपमा तेजस्वी सूर्य से की है, जिसके उदय होने पर अँधेरा दूर हो जाता है, उसी प्रकार भगवान के केवलज्ञान प्रकट होने पर समवसरण में आने वाले प्राणियों का मिथ्यात्व और मोहान्धकाररूपी अँधेरा दूर हो जाता है। भगवान का सिंहासन कमल के आकार का होता है। उस सिंहासन पर भगवान चार अंगुल अधर अंतरिक्ष में विराजमान होते हैं।

मूल पाठ
कुन्दावदात-चलचामर-चारुशोभं
विभ्राजते तव वपुः कलधोतकान्तम्।
उद्यच्छशांक-शुचिनिर्झर-वारिधार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम्।।३॰।।

         अन्वयार्थ -(कुन्दावदातचलचामरचारुशोभम्) कुन्द के फूल के समान स्वच्छ श्वेत चंचल चामरों के द्वारा जिसकी शोभा सुन्दर है, ऐसा (तव) आपका (कलधौतकान्तम्) सोने के समान कमनीय (वपुः) शरीर (उद्यच्छशांकशुचि-निर्झर-वारिधारम्) जिस पर चन्द्रमा के समान निर्मल झरने के जल की धारा उछल-बह रही है, उस (सुरगिरेः शातकौम्भम् उच्चैस्तटम् इव) मेरु पर्वत के सोने के बने हुए ऊँचे तट की भांति (विभ्राजते) शोभायमान होता है।।३॰।।

पद्यानुवाद
कुन्दु पुहुप सित-चम ढुरंत, कनक-वरन तुम शोभंत।
ज्यों सुमेरु तट निर्मल कांति, झरना झरै नीर उमगांति।।
अर्थ - अभिप्राय

        जैसे उदित होते हुए चन्द्रमा के समान झरनो की निर्मल जलधाराओं से सुमेरु का सुवर्णमयी ऊँचा शिखर शोभा पाता है, वैसे ही देवताओं के द्वारा दोनों ओर ढुरने वाले कुन्द पुष्प के सदृश श्वेत चँवरों की सुन्दर शोभा से युक्त आपका स्वर्ण कान्ति वाला दिव्य देह भी अत्यन्त सुन्दर शोभा को प्राप्त हो रहा है। सुवर्णमय सुमेरु पर्वत के दोनों तरफ मानो निर्मल जल वाले दो झरने झरते हों, इस प्रकार से भगवान के सुवर्ण शरीर पर दो उज्ज्वल चँवर ढुर रहे हैं।

        भगवान के सुन्दर शरीर का वर्णन सोने के समान सुमेरु पर्वत से और सफेद चँवरों की तुलना उगते हुए चन्द्रमा के समान उज्ज्वल गिरते हुए जल के झरने, अर्थात् जलधारा से की गई है। इस मोह दृश्य को देखकर जगत् के प्राणी का मन तो प्रफुल्लित होता ही है, ज्ञानी पुरुष को यह भी संकेत मिलता है कि जो प्रभु के चरणों में गिरेंगे, उनकी शरण लेंगे वह नियम से ऊपर उठेंगे ही ज्से यह ढुलते हुए चँवर। इस प्रकार समवसरण (विशेष धर्मसभा जिसमें प्रभु की दिव्य ध्वनि खिरती है) में यक्षेन्द्रों द्वारा कुंद पुष्प के समान सफेद चैंसठ चँवर जब भगवान के तपे हुए सोने के समान शरीर पर ढुरते हैं, तब आपके शरीर की कान्ति और भी बढ़ जाती है और ऐसा प्रतीत होता जैसे सुमेरु पर्वत के दोनों ऊँचे किनारों से चन्द्रमा के समान उज्ज्वल जल के झरने झरते हों।

मूल पाठ
छत्रत्रयं तव विभाति शशांककान्त-
मुच्चैः स्थितं स्थगितभानुकर-प्रतापम्।
मुक्ताफल-प्रकरजाल-विवृद्धशोभं,
प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम्।।३१।।

         अन्वयार्थ -(शशांककान्तम्) चन्द्रमा के समान सुन्दर (स्थगित-भानुकर-प्रतापम्) सूर्य की किरणों के संताप को रोकने वाले तथा (मुक्ताफलप्रकारजाल-विवृद्धशोभम्) मोतियों के समूह की जाली-झालर से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले (तव उच्चैः स्थितम्) आपके ऊपर स्थित (छत्र-त्रयम्) तीन छत्र (त्रिजगतः) तीनों लोक के (परमेश्वरत्वम्) स्वामित्व को (प्रख्यापयत्) प्रगट करते हुए से (विभाति) प्रतीत होते हैं।।३१।।

पद्यानुवाद
ऊँचे रहैं सूर-दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपै अगोप।
तीन लोक की प्रभुता कहैं, मोती झालर सों छवि लहैं।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे भगवन्! आपके मस्तक के ऊपर जो तीन छत्र है वे तीन जगत् के स्वामित्व को प्रकट करते हैं। वे छत्र चन्द्रमा के समान ऊपर उठे हुए रमणीय श्वेत वर्ण वाले हैं, रोक दिया है जिन्होंने सूर्य की किरणों के आतप (प्रताप) को और मोतियों की झालरों के समूह से, ऐसे वे बड़े ही शोभायमान हो रहे हैं।

        संसार में भी पुण्यशाली सम्राटों के सिर पर एक छत्र होता है जो उनके विशेष पुण्य के वैभव को प्रकट करता है, परन्तु यहाँ परम वीतरागी, सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान के सिर पर तीन छत्र, एक के ऊपर एक जिनमें मणिमुक्ताओं की झालर लगी हुई है, जो सूर्य के तेज प्रकाश को (गर्मी को) रोके हुए हैं; यह सूचित करते हैं कि आप तीन लोक-ऊध्र्व, मध्य और अधो (पाताल) के स्वामी है। ऐसा पुण्य हरेक प्राणी का नहीं होता, परन्तु यह तीर्थंकर भगवान के पुण्य के बाह्य वैभव का सूचक है। साधारण मनुष्य वर्षा और गर्मी से बचने के लिए छतरी का उपयोग करता है। उसे हाथ में लेकर चलना पड़ता है। राजा, महाराजा, सम्राट के वैभव को बताने के लिए एक छत्र को भी सेवक हाथ में लेकर चलता है, परन्तु भगवान के सिर पर यह तीन छत्र अंतरिक्ष मंे अपने आप चलते हैं। यह उनके पुण्य का वैभव तो है ही, साथ ही साथ यह भी सूचित करता है कि भगवान तीन लोकों के सम्राट् हैं।

मूल पाठ
गंभीरताररवपूरित-दिग्विभाग-
स्त्रैलोक्यलोक-शुभसंगम-भूतिदक्षः।
सद्धर्मराजजयघोषण-घोषकः सन्,
खे दुन्दुभिध्र्वनति ते यशसः प्रवादी।।३२।।

         अन्वयार्थ -(गंभीरताररवपूरित-दिग्विभागः) गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं के विभाग को पूर्ण करने वाली (त्रैलोक्यलोकशुभसंगम-भूतिदक्षः) तीन लोक के जीवों को शुभ सम्पत्ति प्राप्त कराने में निपुण-समर्थ और (सद्धर्मराज-जयघोषक-घोषकः) सद्धर्म के अधिपति की जय घोषण करने वाली (दुन्दुभिः) दुन्दुभि (ते) आपके (यशसः) यश का (प्रवादी सन्) कथन करती हुई (खे) आकाश में (ध्वनति) शब्द कर रही है।३२।।

पद्यानुवाद
दुन्दुभि शब्द गहर गंभीर, चहुं दिश होय तुम्हारे धीर।
त्रिभुवन-जन शिव संगम करै, मानूं जय जय रव उच्चरै।।
अर्थ - अभिप्राय

        आकाश में देवता दुन्दुभि बजाते हैं, तब उसके शब्द, सुन्दर, गंभीर, उच्च स्वर से दसों दिशाएँ गूँज जाती हैं, उससे ऐसा अनुभूत होता है कि वह तीन लोकों के प्राणियों को कल्याण-प्राप्ति के लिये आह्वाहन कर रहा है और भगवान ही सच्चे धर्म का निरूपण करने वाले हैं। इस प्रकार से भगवान के यश को वह संसार में विस्तारता हुआ बजता रहता है।

        जब भगवान ने मोह राजा पर विजय प्राप्त कर ली तभी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्मों ने भगवान का साथ छोड़ दिया और वह पूर्ण रूप से वीतराग, सर्वज्ञ, अनंत चतुष्टय के धारी बन गये और अब इस संसार को छोड़कर शाश्वत सुख के साम्राज्य का स्थान-मोक्ष में जाने की तैयारी में हैं तभी महाबली मोह राजा ने वहाँ कैसा व्यंग्य कसा है। राजा मोह कहता है कि मेरा तीन लोकों में राज्य स्थापित है। जो भी प्राणी नरक निगोद से लगाकर सर्वार्थसिद्ध तक जहाँ भी जाना चाहे भेजता हूँ। वहाँ की सुविधानुसार सब प्रकार की सेवा करता हूँ। मेरे नौकर-चाकर उनकी मदद करते हैं। यदि कोई मेरा कहा न माने तो मैं संसार से निकालकर बाहर कर देता हूँ। उनकी सारी विभूति छीन ली जायेगी, न वहाँ शरीर होगा, न शरीर सम्बन्धी भोग की सामग्री। उनको ऐसे स्थान पर भेज दिया जायेगा जहाँ वह शाश्वत बने रहेंगे। कोई भ्रम न रहे अतएव गन्धर्वों के द्वारा यह घोषणा करवा रहा हूँ कि ‘‘जो भी प्राणी भविष्य मंे मेरी अवज्ञा करेगा उसको भी यही सजा दी जायेगी।।‘‘

मूल पाठ
मन्दार-सुंदर-नमेरु-सुपारिजात-
संतानकादिकुसुमोत्करवृष्टिरुद्धा।
गन्धोदबिंदु-शुभमन्द-मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिवः पतित ते वचसां ततिर्वा।।३३।।

         अन्वयार्थ -(गन्धोदबिंदु-शुभ-मन्दमरुत्प्रपाता) सुगंधित जल-बिंदुओं और उत्तर मन्द-मन्द बहती हुई हवा के साथ गिरने वाली (उद्धा) श्रेष्ठ और (दिव्या) मनोहर (मन्दार-सुंदर-नमेरु-सुपारिजात-संतानकादि-कुसुमोत्करवृष्टिः) मन्दार, सुंदर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पतरुओं के पुष्प-समूह की वृष्टि (ते) आपके (वचसाम्) वचनों की (ततिः वा) पंक्ति की तरह (दिवः पतित) आकाश से गिरती है।।३३।।

पद्यानुवाद
मंद पवन गंधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुप सुवृष्टि।
देव करैं विकसित दल सार, मानों द्विज पंकति अवतार।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे नाथ! आपके समवसरण अर्थात् धर्मसभा विशेष में गंधोदक की बूँदों से पवित्र मन्द पवन के झोंकों से बरसने वाली देव-कृत पुष्प वर्षा, बड़ी ही सुन्दर मालूम होती है। उसमें मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात और संतानक आदि कल्पवृक्षों के मनोहर सुगंधित पुष्प् निरन्तर झड़ते रहते हैं। ये पुष्प जब आकाश से बरसते हैं तो ऐसा मालूम होता है, मानो आपके वचनों की दिव्य पंक्तियाँ ही बरस रही हों।

        समवसरण में जो कल्पवृक्षों के फूलों की वर्षा होती है उनका मुख ऊपर की ओर होता है। यह विशेषता है। भगवान की दिव्य ध्वनि की तुलना आचार्यश्री ने कल्पवृक्षों के फूलांे से की है। समवसरण बारह भागों में विभक्त होता है जहाँ गणधर, साधु, साध्वी, देव, देवांगनाएँ, मनुष्य तथा पशु-पक्षी सभी अपने-अपने स्थान पर बैठकर भगवान का उपदेश सुनते हैं। भगवान की वाणी जो धारा प्रवाह खिरती है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि पक्षी भी पंक्तिबद्ध आपकी वाणी को सुनने को आते हैं। भगवान के बाह्य पुण्य की विशेषत तो देवगण द्वारा समवसरण की संरचना, उसकी सुन्दरता आदि तो इन आठ प्रातिहार्यों से मालूम पड़ती है। इसके साथ-साथ संत-महात्माओं, मुमुक्षओं का मन भगवान की वाणी को सुनकर आनन्द विभोर हो जाता है और उस वाणी को अपने हृदय-पटल पर उतारकर, उस पर श्रद्धा करके, आचरण के साथ अपना जीवन सफल बनाते हैं।

मूल पाठ

शुम्भत्प्रभावलय-भूरिविभा विभोस्ते,
लोकत्रय-द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती।
प्रोद्यद्-दिवाकर-निरन्तर भूरिसंख्या,
दीप्त्या जलत्यपि निषामपि सोम-सौम्याम् ।।34।।

        अन्वयार्थ - अन्वयार्थ- (लोकत्रय-द्युतिमताम्) तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की (द्युतिम्) कान्ति को भी (आक्षिपन्ती) तिरसकृत करती हुई (ते विभोः) आप-प्रभु की (शुम्भत्प्रभावलयभूरिविभा) शुभ्र-भामण्डल की विशाल प्रभा (दिप्त्या) अपनी दीप्ति से (प्रोद्यद् विदवाकरनिरंतर-भूरिसंख्या) उदय होते हुए अन्तररहित अनेक सूर्यों जैसी कान्ति से उपलक्ष्ति होकर (अपि) भी (सोम-सौम्याम्) चन्द्रमा की सौम्य-शीतल (निशाम् अपि) रात्रि को भी (जयति) जीत रही है।।34।।

पद्यानुवाद
तुम तन भामण्डल जिनचंद, सब दुतिवन्त करत है मंद।
कोटि शंख रवितेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करै अछाय।।
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अर्थ - अभिप्राय

        हे भगवन्! आपके भामण्डल की ज्योतिर्मयी प्रभा तीन जगत् के सभी ज्योति वाले पदार्थों की ज्योति को लज्जित कर देती है औरएक साथ उदित हुए सहस्त्रों सूयों के प्रकाश से अधीक प्रकाश वाली होती हुई भी वह भामण्डल की प्रभा, पूर्णमासी की शीतल चन्द्रिका को भी पराजित कर देती है। अर्थात् भामण्डल की प्रभा सहस्त्रों सूर्यों की प्रभा से अधिक होने पर भी किसी को सन्ताप नहीं पहुॅंचाती है, प्रत्युत चन्द्रमा की चाँदनी से भी अधिक शान्ति प्रदान करती है।

        भगवान जहाँ विराजमान होते हैं, वहाँ दिन-रात्रि नहीं होता, वहाँ चन्द्रमा-सूर्य की आवश्यकता नहीं होती, वह स्थान सदा प्रकाशवान रहता है। जब सन्त-महात्माओं के मुख परएक अनुपम तेज झलकता है तब तीर्थकर भगवान के परम औदारिक दिव्य देह से निकलने वाली ज्योति के क्या कहने? भगवान केी शरीर से निकलने वाली ज्योति जो गोलाकार होती है, उसे ही भामण्डल कहते हैं। आगम में उल्लिखित है भव्य जीवों को उस भामण्डल में अपने तीन अतीत, एक वर्तमान और तीन भावी-कुल सात भवों का ज्ञान हो जाता है। यदि आगामी भवों की संख्या कम हो तो कम ही भव दिखाई देेते हैं। भगवान की आत्मा जब कर्ममल से रहित हो जाती है, पूर्ण सर्वज्ञता प्रकट हो जाती है, सकल परमात्मा बन जाते हें तभी उनकी देह भी इतनी पवित्र ओर तेजस्वी हो जाती है कि उनके शरीर से प्रकाश निःसृत होता रहता है। तेरहवें गुणस्थान परइस अवस्था का प्रादुर्भाव होता है। भगवान के शरीर से निकला हुआ तेज, जो करोड़ों सूर्यों के तेज से भी तेजस्वी है फिरभी वह चन्द्रमा के प्रकाश जैसी शीतलता प्रदान करने वाला हे, आतापकारी नहीं है। उसी प्रकार भगवान की मधुर वाणी संसार की पीड़ा को हरण करने वाली तथा सुख-शान्ति को प्रदान करने वाली है।

मूल पाठ
स्वर्गापवर्गममार्ग-विमार्गणेष्टः
सद्धर्मतत्वकथनैक-पटुस्त्रिलोक्याः।
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्व-
भाषाभाव - परिणामगुणैः प्रजोज्यः।।35।।

        अन्वयार्थ -(ते) आपकी (दिव्यध्वनिः) दिव्यध्वनि (स्वर्गापवर्गममर्ग-विमार्गणेष्टः) स्वर्ग और मोक्ष को जाने वाले मार्ग को खोजने में इष्ट (त्रिलोक्याः) तीना लोक के जीवों के सद्धर्मतत्त्व-कथनैक-पटुः सम्यक् धर्मतत्त्व के कथन करने में अत्यन्त प्रवीण और (विशदार्थ-सर्व-भाषा-स्वभाव-परिणामगुणैः प्रयोज्यः) स्पष्ट अर्थ वाली समस्त भाषाओं में परिवर्तित होने वाले स्वाभाविक गुणों से प्रयुक्त सहित (भवति) होती है।।35।।

पद्यानुवाद
स्वर्ग मोक्ष मारग संकेत, परम धरम उपदेशन हेत।
दिव्य वचन तुम खिरैं अगाध, सब भाषा-गर्भित हितसाध।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे भगवन्! आपकी दिव्य ध्वनि विलक्षण गुणसे युक्त है, स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बताने वाली, तीन लोक के प्राणियों को सत्य धर्म का रहस्य समझाने में कुशल, स्पष्ट अर्थात् विशद् अर्थ वाली है और संसार की सभी भाषाओं में परिणत होने के कारण आति विलक्षण है।

        भगवान के नगाड़े की आवाज को सुनकर जब देव, मनुष्य और तिर्यंचगति के जीव अपने कल्याणार्थ अपने-अपने स्थान पर समवसरण में बैठे होते हैं तब ओंकाररूपी निरक्षरी वाणी खिरती है। जो सब भाषायम हो जाती है और प्राणी चाहे किसी भी भाषा का जानने वाला हो वह अपनी-अपनी भाषा में समझ लेता है। इतना ही नहीं पशु-पक्षी भी अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। भगवान की वाणी ब भाषामयी होने में उनका विशेष पुण्य निमित्त कारण है। आगम में उल्लिखित है कि भगवान की दिव्य ध्वनि एक योजन अर्थात् चार कोस तक सुनाई पड़ती है। दिव्य ध्वनि अर्थात् भगवान की वाणी भव्य जीवेम के पुण्य से दिन में चार बार-प्रातः, दोपहर, सायंकाल और अर्ध-रात्रि को बिना इच्छा के खिरा करती है। समवसरण में हजारों लाखों जीव अपने-अपने विचार, जिज्ञासाएं, शंकाएं सँजोए होते हैं। भव्य जीवों के पुण्य के उदय से जो वाणी सूक्ष्म संकेत रूप में खिरती है, उसमें सब प्राणियों की जिज्ञासा का समाधान हो जाता है। उस समय तो प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी योग्यता अनुसार उस वाणी को समझ लेत है। परन्तु गणधर देव उस वाणी को विस्तार से समझकर जनता-जनार्दन के हित भिन्न-भिन्न विषयों पर अलग-अलग उपदेश देते हैं जिसे द्वादशांग वाणी कहते हैं।

मूल पाठ
उन्निद्रहेम-नवपंकज-पुंजकान्ति,
पर्युल्लसन्-नख-मयूखशिखाभिरामौ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः,
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति।।36।।

अन्वयार्थ -(जिनेन्द्र!) हे जिनेन्द्र! (उन्निद्रहेमनव-पंकजपुंजकान्ति) खिले हुए सोने के नवीन कमल समूह के समान कान्ति वाले तथा (पर्युल्लसन्नखमयूख-शिखाभिरामौ) चारों ओरसे शोभायमान नखों की किरणों के अग्र भाग से सुन्दर (तव) आपके (पादै) दोनों चरण (यत्र) जहाँ (पदानि) कदम (धत्तः) रखे हैं, (तत्र) वहाँ (विबुधाः) देव (पद्मानि) कमल (परिकल्पयन्ति) रच देेते हैं।।36।।

पद्यानुवाद
विकसित सुवरन कमल-दुति, नख-दुति मिलि चमकाहिं।
तुम पद पदवी जहं धरैं, तहं सुर कमल रचाहिं।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे जिनेन्द्र! विकसित नूतन स्वर्ण-कमलों के समूह के समान दिव्य कान्ति वाले तथा सब ओर फैलने वाली नख-किरणों की ज्योति से अतीव सुन्दर लगने वाले आपके पवित्र चरण जहाँ-जहाँ टेकते हैं, वहाँ-वहाँ भक्त देवता पहले ही स्वर्ण-कमलों की रचना कर देते हैं।

        भगवान के विहार के समय देवगण पन्द्रह-पन्द्रह कल्पित स्वर्ण-कमलों की रचना पन्द्रह पंक्तियों में दो सौ पच्ची कमलों की रचना करते हैं। भगवान का चरण मध्य के कमल पर होता है। जैसे-जैसे भगवानअपना कदम आगे बढ़ाते हैं पीछे के कमलों की पंक्तियाँ सिमटकर आगे-आगे आ जाती है। इस प्रकार भगवान के प्रत्येक चरण के चारों ओर दो सौ पच्चीस कमल होते हैं। जिस प्रकार भगवान सिंहासन पर भी चार अंगुल अधर अन्तरिक्ष में विराजमान होते हैं, उसी प्रकार विहार के समय भी कमलों से चार-अंगुल अक्षर रहते हैं। तीर्थींकर भगवान केवली सर्वज्ञ होने पर कभी भी जमीन पर नहीं चलते।