|| भक्तामर स्तोत्र-मूल पाठ १३ से २४ ||
मूल पाठ
वक्त्रं क्व ते सुरनरोगनेत्रहारि,
निःशेष-निर्जित-जगत्-त्रितयोपमानम्।
बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य
यद् वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम्।।१३।।

         अन्वयार्थ -(सुरनरोगनेत्रहारि) देव, मनुष्य तथा नागेन्द्र के नेत्रों को हरण करने वाला एवं (निःशेषनिर्जित जगत्-त्रितयोपमानम्) जिसने तीनों जगत् की उपमाओं को सम्पूर्ण रूप से जीत लिया है, वह (ते वक्त्रम्) आपका मुख (क्व) कहाँ और (कलंकमलिनम्) कलंक से मलिन (निशाकरस्य) चन्द्रमा का (तद् बिम्बम्) वह मंडल (क्व) कहाँ (यत्) जो (वासरे) दिन में (पलाश-कल्पम्) ढाक के पत्ते की तरह (पाण्डु) पीला-फीका (भवति) हो जाता है।।१३।।

पद्यानुवाद
कहं तुम मुख अनुपम अविकार, सुर-नर-नाग नयन मन हार।
कहाँ चन्द्र-मंडल सकलंक, दिन में ढाक पत्र सम रंक।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे भगवन्! आपका सुन्दर मुख देवों, मनुष्यों और नागकुमारों के नेत्रों को आकर्षित करने वाला और तीनों लोकों की समस्त श्रेष्ठ उपमाओं को जीतने वाला है। जो लोग चन्द्रबिम्ब से आपके मुख की उपमा देते हैं तो भी भूल है; क्योंकि चन्द्रबिम्ब तो दिन में ढाक के सूखे पत्ते के सदृश फीका हो जाता है और मृग के चिन्ह से मलिन है, किन्तु आपका मुख निर्मल और सदा ही प्रकाशमान रहता है।

        संसार में मुख की सुन्दरता की उपमा चन्द्रमा से दी जाती है। प्रायः यह कहा जाता है कि उसका मुख चाँद जैसा सुन्दर है। परन्तु प्रभु, आपके मुख की उपमा किसी भी पदार्थ से नहीं की जा सकती, क्योंकि आपका मुख रात-दिन प्रकाशित रहता है। जहाँ आप विराजमान होते हैं, वहाँ आपकी ज्योति से दिन में सूर्य और रात्रि में चन्द्रमा की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हर समय उजाला ही उजाला रहता है। आपका शरीर वज्रऋषभनाराच संहनन, अर्थात् गठन बनावट ही ऐसा है जिसकी उपमा हम तीन लोक के किसी भी पदार्थ से नहीं कर सकते। जब पुण्योदय से सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति होती है, तब जिनके तीर्थंकर प्रकृति के पुण्य का उदय हो, उनका क्या कहना ? अतएव प्रभु की उपमा किसी भी पदार्थ से नहीं कर सकते।

मूल पाठ
संपूर्णमंडल-शशांक-कलाकलाप-
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति।
यं संश्रितास्-त्रिजगदीश्वर! नाथमेकम्
कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम्।।१४।।

         अन्वयार्थ -(संपूर्णमंडल-शशांककलाकलापशुभ्रा) पूर्ण चन्द्रमंडल की कलाओं के समान स्वच्छ (तव) आपके (गुणाः) गुण त्रिभुवन्) तीनों लोकों को (लंघयन्ति) लाँघ रहे हैं-सर्वत्र फैले हुए हैं। (ये) जो (एकम्) मुख्य रूप से (त्रिजगदीश्वरनाथम्) तीनों लोकों के नाथ के (संश्रिताः) आश्रित हैं, उन्हें (यथेष्टम्) इच्छानुसार (संचरतः) विचरण करते हुए (कः) कौन (निवारयति) रोकता है ? कोई नहीं रोक सकता।।१४।।

पद्यानुवाद
पूरन चंद जोति छविवंत, तुम गुन तीन जगत् लंघंत।
एक नाथ त्रिभुवन आधार, तिन विचरत को करै निवार।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे त्रिलोक के स्वामी! पूर्णिमा के चन्द्रमंडल की कलाओं के समान आपके अत्यन्त उज्ज्वल गुण तीनों लोकों में व्याप्त हैं। अर्थात् तीन लोक में फैले हुए हैं। क्योंकि जो गुण एक अर्थात् अद्वितीय स्वामी के आश्रय में रहे हुए हैं उन्हें इच्छानुसार सर्वत्र विचरण करने से कौन रोक सकता है ? अर्थात् कोई भी नहीं रोक सकता।

        तीन लोकों में आपके अनन्त गुणों की व्याप्ति है। जैसे कोई महान् सम्राट् के बंधु-बांधव या परिजन बिना रोकटोक के मनमाने रूप में जहाँ कहीं घूमने के लिये स्वतंत्र हैं और उन्हें रोकने का साहस कोई नहीं करता, उसी प्रकार आपके अनन्त गुण केवल आप तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वे तो तीन लोकों में विपुलता से व्यापत हो रहे हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा की शुभ्र कलाएँ दोज से लेकर पूर्णमासी तक क्रमशः विकासमान होती रहती हैं, उसी प्रकार आपके उज्ज्वल धवल गुण पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान पूर्ण रूप से विकसित हो चुके हैं। जिस प्रकास से चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से लोक का कोना-कोना व्याप्त हो जाता है, उसी तरह आपके निर्मल गुणों से त्रैलाक्य प्रभावित है। उनकी इस प्रभावना का प्रयोजन स्पष्ट है कि उन गुणों ने अन्य किसी देव का अवलंबन नहीं लिया, बल्कि आपकी वीतरागता को ही एक मात्र अपना नाथ स्वीकारा है। आशय यह है कि जिनदेव के गुणों की चर्चा तीन कालों तथा तीन लोकों में होती ही रहती है। उस चर्चा को अथवा उनके द्वारा प्रणीत तŸवों को रोकने का साहस अथवा खंडन करने का प्रयास आज तक किसी के द्वारा सम्भव नहीं हुआ।

मूल पाठ
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर्
नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम्।
कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ?।।१५।।

         अन्वयार्थ -(यदि) अगर (ते) आपका (मन) मन (त्रिदशांगनाभिः) देवांगनाओं के प्रदर्शन से (मनाक् अपि) जरा-सा भी (विकारमार्गं न नीतम्) विकार भाव को प्राप्त नहीं हो सकता, तो (अत्र) इस बात में (किम् चित्रम्) आश्चर्य ही क्या है ? (चलिताचलेन) पहाड़ों को भी हिला देने वाले (कल्पान्तकालमरुता) प्रलयकाल के झंझावात द्वारा (किम्) क्या (कदाचित्) कभी (मन्दराद्रिशिखिरम्) मेरु पर्वत का शिखर (चलितम्) हिलाया जा सकता है ? कभी नहीं।।१५।।

पद्यानुवाद
जो सुरतिय विभ्रम आरंभ, मन न डिग्यो तुम तो न अचम्भ।
अचल चलावै प्रलय समीर, मेरु शिखर डगमगै न धीर।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे वीतराग भगवन्त! स्वर्ग की सुन्दर अप्सराओं ने अपने हाव-भाव-विलासों के द्वारा आपको विचलित करने का भरसक प्रयत्न किया, परन्तु आपका चिŸा जरा-सा भी विचलित नहीं हुआ, सो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। प्रलयकाल का प्रचंड पवन बड़े-बड़े पर्वतों को चलायमान कर देता है, परन्तु क्या कभी वह सुमेरु के शिखर को भी कम्पित कर सका है ? कदापि नहीं।

        आपने अपने पूर्ण शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति कर ली है और इस प्रकार से पर-वस्तुओं का कुटिल प्रभाव आप पर किंचित् मात्र भी नहीं होता, आपका अन्तर्-बाह्य परम वीतराग और निर्विकार है। आप ऐसे योगी और शुक्लध्यानी हैं कि जिन्हें विचलित करने में कोई भी समर्थ नहीं है। यह तो सभी जानते हैं कि विषयवासना ने तीन लोकों पर विजय प्राप्त की है। महान् योद्धा भी काम के वशीभूत होते देखे गये हैं। परन्तु आप एक ऐसे निरुपमेय महावीर हैं जिन्होंने कि उस रागरूपी शत्रु पर विजय प्राप्त की है जिसने तीन लोकों को पराजित कर दिया था। आपने तो अपने पुरुषार्थ से आरम्भ में ही दर्शन और चारित्र मोहनीय कर्मों का क्षय कर दिया, जिससे धातिया कर्मों की सेंतालीस प्रकृतियाँ भी नेस्तानाबूद हो गईं। इस प्रकार राग-द्वेष, मोह-माया, कामवासना पर अखंड विजय प्राप्त कर ली है और सदा अपने सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान व ध्यान में लीन रहते हैं उनको कोई कैसा भी निमित्त मिले, नहीं डिगा सकता। वस्तुतः आप सुमेरु के सदृश धीर, वीर, गंभीर अचल दुस्सह परीषहनयी हैं।

मूल पाठ
निर्धूमवर्तिरपविर्जित-तैलपूरः
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ।।१६।।

         अन्वयार्थ -(नाथ!) हे स्वामिन्। आप (निर्धूमवर्तिः) धुएँ तथा बाती से रहित, निर्दोष प्रवृत्ति वाले और (अपवर्जित तैलपूरः) तेल से शून्य होकर भी (इदम्) इस (कृत्स्नम्) समस्त (जगत्त्रयम्) त्रिभुवन को (प्रकटीकरोषि) प्रकाशित कर रहे हैं तथा आप (चलिताचलानाम्) पर्वतों को कम्पायमान कर देने वाली (मरुताम्) हवाओं के लिये (गम्यो न) गम्य नहीं हैं-वे भी आप पर असर नहीं कर सकती। इस तरह (त्वम्) आप (जगत्-प्रकाशः) संसार को प्रकाशित करने वाले (आपः दोपः) अद्वितीय दीपक (असि) हैं।।१६।।

पद्यानुवाद
धूम रहित बाती गत नेह, परकाशै त्रिभुवन घर एह।
वात-गम्य नाहीं परचंड, अपर दीप तुम बलो अखंड।।
अर्थ - अभिप्राय

        लौकिक दीपक तो घर के किसी एक कोने को ही प्रकाशित करता है और उसमें तेल-बत्ति की आवश्यकता रहती है, धूम छोड़ता है और वायु के हल्के से झौंके से ही बुझ जाता है, किन्तु हे नाथ! आप तेल, बत्ति और धूमरहित दीपक हैं, अर्थात् हे प्रभु! आप सम्पूर्ण जगत् को एक साथ प्रकाशित करने वाले एक अलौकिक दीपक हो। आपको न बत्ति की आवश्यकता है, न तेल की अपेक्षा है, न आपसे धूम निकलता है और बड़े-बड़े पर्वतों को कम्पित करने वाली प्रचंड हवा भी आप पर कुछ भी असर नहीं कर सकती, अतः आप लौकिक दीपक की अपेक्षा अद्वितीय दीपक हैं।

        हे परम ज्योति! आप एक अद्वितीय अपर्व दीपक है जिसमें क्षायिक केवलज्ञान की शाश्वत अखंड ज्योति के परिप्रेक्ष्य में तीन लोकों के समस्त पदार्थ एक साथ अपनी द्रव्य गुण पर्यायों से युक्त सवयमेव प्रकाशमान हैं। आपका जीवन राग से नहीं, बल्कि वीतरागता के चैतन्य प्राणों से देदीप्यमान है। आप अपने में परिपूर्ण शुद्ध और एक होने से किसी पर वस्तु की अपेक्षा नहीं रखते, अव्याबाध सुख-प्राप्ति हेतु आपको सांसारिक विषमताएँ बाधा पहुँचाने में समर्थ नहीं हैं। अतएव आप लौकिक दीपक से सर्वथा भिन्न एक अलौकिक स्व-पर-प्रकाशक, अविनाशी अपूर्व चिन्मय दीपक हैं।

मूल पाठ
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति।
नाम्भोधरादर-निरुद्धमहाप्रभावः,
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके।।१७।।

         अन्वयार्थ -(मुनीन्द्र!) हे मुनियों के इन्द्र! आप (कदाचित्) कभी भी (न अस्तं उपयासि) न अस्त होते हैं (न राहुगम्यः) न राहु के द्वारा ग्रस्त होते हैं और (न अम्भोधरोदरनिरुद्ध-महाप्रभावः) न मेघ से ही आपका महान् तेज अवरूद्ध हो सकता है। आप तो (युगपत्) एक साथ (जगन्ति) तीनों लोकों को (सहसा) शीघ्र ही (स्पष्टीकरोषि) प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार आप (लोके सूर्यातिशायि महिमा असि) जगत् में सूर्य से बढ़कर महिमा वाले हैं।।१७।।

पद्यानुवाद
छिपहु न लुपहु राहु की छांहि, जग-परकाशक हो छिन मांहि।
घन-अनवर्त दाह विनिवार, रवि तैं अधिक धरो गुणसार।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे मुनीश्वर! आप सूर्य से भी अधिक विलक्षण महिमाशाली हो। सूर्य प्रतिदिन उदित होता है और संध्या के समय अस्त हो जाता है, किन्तु आपका केवलज्ञानरूपी सूर्य सदैव प्रकाशमान रहता है। सूर्य को राहु ग्रसित कर लेता है, किन्तु आपके ज्ञान आलोक को कोई भी दुष्कृत रूप राहु ग्रसित नहीं कर सकता। सूर्य सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है और वह भी क्रम-क्रम से, किन्तु आप तो तीन जगत् को एक साथ केवलज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करते हैं। सूर्य का प्रकाश मेघों से ढक दिया जाता है, किन्तु आपके महाप्रभाव को संसार में कोई भी पदार्थ अवरुद्ध नहीं कर सकता, यानि ज्ञानावरणीय कर्म नष्ट हो चुका है। अतः आप सूर्यातिशायि महिमा वाले हो।

        हे केवलज्ञान मार्तण्ड! सूर्य उदस होकर अस्तांचल को जाता है। परन्तु आपका स्वभावरूपी सूर्य कभी अभाव को प्राप्त होने वाला नहीं है। संक्रमण कालों में सूर्य पर जो राहु आदि ग्रहों की काली छाया पड़ जाती है और उसके फलस्वरूप सूर्य का प्रताप निस्तेज हो जाता है, परन्तु आप पर सांसारिक विकाररूपी ग्रहों की छाया कभी भी नहीं पड़ती। आपका प्रताप-पुँज शाश्वत रहता है, क्योंकि सूर्य दिन में प्रकाश देता है, रात में नही। सूर्य खुले स्थानों को आलोकित करता है, आच्छन्न स्थानों को नहीं। परन्तु आपका केवलज्ञानरूपी सूर्य तीन जगत् के चराचर पदार्थों को तीन कालों में एक साथ ही प्रकाशित करता रहता है। सार रूप में कह सकते हैं कि श्रमण परम्परा में वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी को ही देव माना है, पूज्य माना है, उन्हीं को नमन किया है; किसी अन्य को नहीं।

मूल पाठ
नित्योदय दलितमोहमान्धकारं
गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम्।
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति-
विद्योतयज्जगदपूर्वशशांकबिम्बम्।।१८।।

         अन्वयार्थ -(नित्योदयम्) हमेशा उदय रहने वाला (दलितमोह-महान्धकराम्) मोहरूपी महान् अन्धकार के नाशक (राहुवदनस्य न गम्यम्) राहु के मुख द्वारा ग्रस्त नहीं होता (वारिदानां न गम्यम्) बादलों के द्वारा ढक नहीं जाता (अनल्प-कान्ति) अधिक कांतिमान् और (जगत् विद्योतयत्) संसार को प्रकाशित करता हुआ (तव मुखाब्जम्) आपका मुख कमल (अपूर्व शशांक बिम्बम्) अपूर्व चन्द्रबिम्ब के रूप में (विभ्राजते) सुशोभित हो रहा है।।१८।।

पद्यानुवाद
सदा उदित विदलित मन मोह, विघटित मेघ राहु-अवरोह।
तुम मुख कमल अपूरव चन्द, जगत् विकाशी जोति अमन्द।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे भगवन्! आपका मुख कमल विलक्षण चन्द्रमा है। नभ का चन्द्र तो केवल रात्रि में ही उदित होता है, किन्तु आपका मुख-चन्द्र सदा ही उदयरूपी रहता है। चन्द्रमा थोड़े से बाह्य अन्धकार को नाश करता है, परन्तु आपका मुखचन्द्र मोहरूपी आंतरिक घोर अंधकार का विनाश करता है। चन्द्र को राहु केतु ग्रसित करता है और मेघ भी आच्छादित कर लेता है, परन्तु आपके मुखरूपी चन्द्र को अज्ञानरूपी अन्धकार आच्छादित नहीं कर सकता है और दुष्कृतरूपी राहु केतु ग्रसित नहीं कर सकता। चन्द्रमा पृथ्वी के कुछ भाग को ही प्रकाशित करता है, किन्तु आपका मुख-चन्द्र सम्पूर्ण लोक को प्रकाशमान करता है। नभ का चन्द्र अल्पकान्ति का धारक, हानि-वृद्धिमय है किंतु आपका मुख-चन्द्र सदा अनन्त कांतिधारक है। अतः आपका मुख-चन्द्र एक अपूर्व अलौकिक चन्द्र है।

        लौकिक चन्द्रमा तो उदय भी होता है और अस्त भी, किन्तु आपका ओजमय मुखमंडल चन्द्र न तो उदय ही होता है और न अस्त ही। भगवान के शरीर से निकलने वाली कान्ति हजारों चन्द्र-सूर्य की कान्ति से भी अधिक होती है जिससे तीन लोकों में एक साथ प्रकाश फैलता है। चन्द्रमा रात्रि का अन्धकार तो दूर कर सकता है, परन्तु मोहान्धकार नहीं। हे प्रभो! वह आप ही दूर कर सकते हैं। इस प्रकार लौकिक चन्द्रमा की ज्योत्स्ना बादलों से पराभूत हो जाती है, किन्तु आपके गुणों की शुभ्र ज्योत्स्ना को किसी भी प्रकार का आवरण रोक नहीं पाता। लौकिक चन्द्रमा तो अपना प्रकाश सीमित क्षेत्र में प्रसारित कर पाता है, जबकि आपका ज्ञानालोक तीन लोकों में विकीर्ण रहता है।

मूल पाठ
किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा ?
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमस्सु नाथ !
निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके
कार्यं कियज्जलधरैर् जलभार-नमै्रः।।१९।।

         अन्वयार्थ -(नाथ!) हे स्वामिन्! (युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमस्सु) आपके मुखरूपी चन्द्रमा के द्वारा अंधकार के नष्ट हो जाने पर (शर्वरीषु) रात्रि में (शशिना) चन्द्रमा से (वा) अथवा (अह्नि) दिन में (विवस्वता) सूर्य से (किम्) क्या प्रयोजन है ? (निष्पन्नशालिवनशालिनि) पैदा हुए धन्य के वनों से शोभायमान (जीवलोके) संसार में (जलभारनम्रैः) पानी के भार से झुके हुए (जलधरैः) बादलों से (कियत् कार्यम्) कितना काम रह जाता है ? कुछ भी नहीं।।१९।।

पद्यानुवाद
निश दिन शशि रवि को नहिं काम, तुम मुखचंद हरै तम-धाम।
जो स्वभावतैं उपजै नाज, सजल मेघ तैं कौनहु काज।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे स्वामी! आपके मुखरूपी चन्द्रमा से अन्धकार के नष्ट हो जाने पर रात्रि में चन्द्रमा से और दिन में सूर्य के प्रकाश के क्या प्रयोजन है ? संसार में खेतों मे धान्य के परिपक्व हो जाने पर पानी से भरे हुए बादलों से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं।

        हे भगवन्! जब आपके केवलज्ञानरूपी प्रकाश ने अन्तरंग और बहिरंग देानों प्रकार के अंधकार को दूर कर दिया तब सूर्य - चन्द्रमा की कोई आवश्यकता नहीं रही। सूर्य केवल दिन में और चन्द्रमा रात्रि में ही सीमित प्रकाश करता है परंतु आपके समवसरण, अर्थात् विशेष धर्मसभा में आपके केवलज्ञानरूपी सूर्य का रात-दिन हर समय इतना प्रकाश रहता है कि वहाँ सूर्य-चन्द्रमा की जरूरत ही नहीं पड़ती। इसी प्रकार जब धान की, अर्थात् अनाज की फसल पककर कटने के लिए तैयार खड़ी हो उस समय पानी का बरसना बेकार है। आशय यह है कि जब प्राणियों का मोहान्धकार ही समाप्त हो चुका हो, तब रात्रि में चन्द्रमा और दिन में सूर्य के चमकने से क्या लाभ ? असल में आत्मा के स्वाभाविक प्रकाश की तुलना हम किसी पौद्गलिक प्रकाश, यथा-दीपक, बिजली, चन्द्र, सूर्य आदि से नहीं कर सकते। आत्मा के दिव्य प्रकाश के आगे यह सब उपोदय नहीं है। यदि आपे वस्तुस्वरूप पर विचारें तो विदित होता है कि हम संयोग-वियोग के कारण ही दुःखी होते आ रहे हैं यथार्थस्वरूप के समझने पर, श्रद्धावान हो तदू्रप आचरण हो जाने पर इन दुःखों से मुक्ति मिल सकती है।

मूल पाठ
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु।
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं
नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि।।२॰।।

         अन्वयार्थ -(त्वयि) आपमें (कृतावकाशम्) अवकाश स्थान को प्राप्त (ज्ञानम्) ज्ञान (यथा) जिस प्रकार (विभाति) शोभायमान होता है, (एवं तथा) उस प्रकार (हरिहरादिषु) विष्णु-शंकर आदि (नायकेषु) देवों में (न विभाति) सुशोभित नहीं होता (स्फुरन्मणिषु) चमकती हुई मणियों में (तेजः) तेज (यथा) जैसा (महत्त्वं याति) महत्त्व पाता है, (तु एवं) वैसा महत्व तो (किरण्णकुले अपि) किरणों से व्याप्त (काचशकले) काँच के टुकड़े पर (न याति) नहीं पाता।।२॰।।

पद्यानुवाद
जो सुबोध सोहै तुम माँहि, हरि हर आदिक में सो नाहिं।
जो द्युति महा रतन में होहि, काँच खंड पावै नहिं सोय।।
अर्थ - अभिप्राय

        अनन्त पयार्यत्मक पदार्थों को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान आपमें पूर्ण रूप से सुशोभित हो रहा है, वैसा हरि अर्थात् विष्णु, हर अर्थात् महेश, ब्रह्या और नायकों में, अर्थात् लौकिक देवों में नहीं है। क्योंकि जैसा प्रकाश स्फुरायमान मणियों में गौरव को प्राप्त होता है, वैसा किरणों से चमकने वाले काँच के टुकड़ों में नहीं है।

        केवलज्ञान की ऐसी स्वाभाविक महिमा है जिसमें अनन्त पदार्थों की भूत, भविष्यत् और वर्तमान की सब पर्यायें एक साथ झलकती हैं। केवली के अतिरिक्त ऐसा ज्ञान किसी को नहीं होता। ऐसा ज्ञान पूर्ण वीतरागी को ही होता है, सरागी को नहीं। उसी प्रकार जो चमक सच्चे महारत्नों में होती है, वैसी चमक काँच के टुकड़े में सूर्य की किरणों के ग्रहण करने पर भी नहीं हो सकती। वस्तुतः स्व-पर-प्रकाशक केवलज्ञान के समक्ष क्षायोपशमिक और क्षायिक ज्ञानों की क्या बिसात है ?

मूल पाठ
मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।
किं वीक्षितन भवता भुवि येन नान्यः,
काश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि।।२१।।

         अन्वयार्थ -(नाथ!) हे स्वामिन्! (मन्ये) मैं मानता हूँ कि (दृष्टा) देखे गये (हरि-हरादय एव) विष्णु-महादेव आदि देव ही (वरम्) अच्छे हैं। (येषु दृष्टेषु) जिनके देखे जाने पर (हृदयम्) मन (त्वयि) आपके विषय में (तोषम् एति) संतुष्ट हो जाता है। (भवता) आपके (वीक्षितेन) दर्शन से (किम्) क्या लाभ है ? (येन) जिससे कि (भुवि) पृथ्वी पर (अन्यः कश्चित्) दूसरा कोई देव (भवान्तरेऽपि) दूसरे जन्म मे भी (मनः) चित्त को (न हरति) हर नहीं पाता।।२१।।

पद्यानुवाद
सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया,
स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया।
कछू न तोहि देख के जहाँ तुही विशेखिया,
मनोग चित्त चोर और भूल हू न पेखिया।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे प्रभो! हरि-हर आदि देवों को देखना अच्छा हैं, क्योंकि उन्हें देखकर भी अन्तःकरण को संतोष और शांति नहीं मिलती है। इसका कारण यह है कि उनकी राग-द्वेष मलिन मुद्रा से पूर्ण शांति लाभ होता है, अतः आपमें मन रम जाता है तथा आपके प्राप्त हो जाने से संसार में जन्म-जन्मांतर में भी कोई देवी-देवता मन को हरण नहीं कर सकता। अर्थात् हरि-हर आदि की सरागी मुद्रा देखने वालों को आपकी वीतरागता अपनी ओर सहज ही में आकर्षित कर लेती है। क्योंकि परम शांति यही मिलती है। परंतु आपकी शरण में प्राप्त जीवों को कोई आकर्षित नहीं कर सकता, क्योंकि यहीं पर परम शांति लाभ होने से चिर तृप्ति हो जाती है।

        हे देवाधिदेव! यह सुखद रहा कि मैंने अच्छे-श्रेष्ठ सरागी देवों का स्वरूप पूर्व में जान लिया तदुपरांत वीतरागी स्वरूप से परिचित हुआ। यह सामान्य दृष्टिकोण है कि एक प्रकार की दो वस्तुओं के देखने पर ही, उनकी तुलना करने पर ही वस्तु विशेष से वाकिफ होना होता है, उसमें से फिर श्रेष्ठता का बोध होता है। धनवान की श्रेष्ठता निर्धन की तुलना में ही की जा सकती है। इसी प्रकार प्रकाश की अन्धकार से, दिन की रात्रि से, ज्ञानी की अज्ञानी से, बलवान की निर्बल आदि की तुलना से यथार्थ वस्तु का ही मूल्यांकन किया जा सकता है। इसी प्रकार वीतरागता की तुलना सरागता से करने पर ही वीतरागता की श्रेष्ठता का बोध होता है।

मूल पाठ
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रन्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वाः दिशो दधति भानि सहस्त्ररश्मिं,
प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम्।।२२।।

         अन्वयार्थ -(स्त्रीणां शतानि) सैकड़ों स्त्रियाँ (शतशः) सैकड़ों (पुत्रान्) पुत्रों को (जनयन्ति) जन्म देती हैं, लेकिन (त्वदुपमम्) आप जैसे (सुतम्) पुत्र को (अन्या जननी) दूसरी कोई माता (न प्रसूता) पैदा कर सकी। (भानि) नक्षत्रों को (सर्वाः दिशः) सब दिशाएँ (दधति) धारण करती हैं, परन्तु (स्फुरदंशुजालं सहस्त्ररश्मिम्) चमकती किरणों के समूह वाले सूर्य को (प्राची दिक् एव) पूर्व दिशा ही (जनयति) प्रकट करती है।।२२।।

पद्यानुवाद
अनेक पुत्रवंतिनी नितम्बिनी सपूत हैं,
न तो समान पुत्र और मात तैं प्रसूत हैं।

दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिनै,
दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै।।
अर्थ - अभिप्राय

        संसार मे सैकड़ों ही स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, किन्तु आपके समान महाप्रतापी पुत्ररत्न अन्य किसी माता ने जन्म नहीं दिया। वैसे तो सभी दिशाएँ अनेक ताराओं को धारण करती हैं, किन्तु प्रकाशमान सूर्य को केवल एक पूर्व दिशा ही प्रकट करती है।

        हे मरुदेवि-नाभिनंदन! धन्य हैं कि आप जैसे महापुरुष को, जिसने कि अपनी माता की कुक्षि से जन्म लेकर न केवल भू-मंडल को कृतार्थ किया, परन्तु आप जैसे लाल को पाकर माता भी धन्य-अनन्य हो उठी। वह माता आपसे भी अधिक धन्य है जिसने आप जैसे त्रिलोकीनाथ को जनम देकर स्वयं को ही कृतार्थ नहीं किया, बल्कि तीन लोक भी कृतकृत्य हो गये। आज के युग में मानव-समाज की संतानोत्पत्ति की संख्या कीडे़-मकोड़ो जैसी हो गई है तो भी उससे न तो विश्व का ही कल्याण हो रहा है और न स्वयं का। करोड़ों माताएँ करोड़ों पुत्रों को उत्पन्न करते हैं, परन्तु इतनी बड़ी संख्या होने पर भी उनकी शक्ति की तुलना आपके अतुल बल से नहीं की जा सकती। यही कारण है कि न तो आप जैसे पुत्र ही इस वसुंधरा पर दिखाई देते हैं और न आप जैसे को जन्म देने वाली माताएँ ही दिखाई देती हैं।

मूल पाठ
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस-
मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात्।
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः।।२३।।

         अन्वयार्थ -(मुनीन्द्र!) हे मुनियों के नाथ! (मुनयः) मननशील मुनि (त्वाम्) आपको (आदित्यवर्णम्) सूर्य की तरह तेजस्वी (अमलम्) निर्मल और (तमसः परस्तात्) मोह-अन्धकार से परे रहने वाले, (परमं पुमांसम्) परम पुरुष (आमनन्ति) मानते हैं। वे (त्वाम् एव) आपको ही (सम्यक्) अच्छी तरह से (उपलभ्य) प्राप्त कर (मृत्युम्) मृत्यु को (जयन्ति) जीतते हैं। (शिवपदस्य) मोक्ष पद का, इसके सिवाय (अन्यः) दूसरा (शिवः) कल्याणकर (पन्थाः) मार्ग (न अस्ति) नहीं है।।२३।।

पद्यानुवाद
पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो,
कहैं मुनीश अंधकार नाश को सुभान हो।

महंत तोहि जान के न होय वश्य काल के,
न और कोई मोख पन्थ देय तोहि टाल के।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे मुनीश्वर! मुनिजन आपको सूर्य के समान तेजस्वी, राग-द्वेष आदि से रहित निर्मल और अज्ञानरूपीअन्धकार से विमुक्त परम श्रेष्ठ पुरुष मानते हैं। जो लोग श्रेष्ठ हृदय से भलीभाँति आपकी उपासना करते हैं, वे मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, अतः आपको छोड़कर मोक्ष पद का दूसरा कल्याणकारी मार्ग नहीं है।

        हे मुनीन्द्र! मुनिजन आपको परम पुरुष मानते हैं। राग-द्वेषादि कर्ममलरहित होने से निर्मल मानते हैं। मोह तिमिर नष्ट करने के कारण सूर्य के समान तेजस्वी मानते हैं और मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक आपकी भली प्रकार आराधना करके वे मृत्यु विजयी होकर अजरामर पद प्राप्त करते हैं, अतएव आपको मृत्युंजय मानते हैं। सच तो यह है कि आपको छोड़कर मोक्ष का कोई कल्याणकारी श्रेष्ठ मार्ग नहीं है, अतः आपको ही वे मोक्ष का मार्ग मानते हैं। हे ऋषभनाथ! लौकिक जन आपको शिवशंकर अथवा कैलाशपति के नाम से भी पुकारते हैं। शिव कल्याण को कहते हैं और पन्थाः मार्ग को कहते हैं। इस प्रकार से जिसने प्रशस्त, निरुपद्रव और कल्याणकारी मार्ग का दिग्दर्शन कराया हो वह शिव नहीं तो और क्या है ? वस्तुतः इस मार्ग द्वारा जिस पद अथवा मंजिल की प्राप्ति होती है, उस पद को शिवपद कहा जाता है और ऐसा शिवपद, अर्थात् अव्याबाध निराकुल सुख निर्वाण है जिसे आपने प्राप्त कर लिया है। अतएव आपके अतिरिक्त अन्य कोई भी शिव महादेव नहीं हो सकते।

मूल पाठ
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं,
ब्रह्याणमीश्वरमनन्तमनंगकेतुम्।
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं,
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः।।२४।।

         अन्वयार्थ -(सन्तः) साधु-संत (त्वाम्) आपको (अव्ययम्) अविनाशी (विभुम्) व्यापक (अचिन्त्यम्) अचिन्तय (असंख्यम्) असंख्य (आद्यम्) आदि (ब्रह्याणम्) ब्रह्या (ईश्वरम्) ईश्वर (अनन्तम्) अनन्त (अनंगकेतुम्) कामदेव के संहारार्थ केतु-तुल्य (योगीश्वरम्) योगीश्वर (विदितयोगम्) योग के वेत्त (अनेकम्) अनेक (एकम्) एक (ज्ञान-स्वरूपम्) ज्ञानस्वरूप और (अमलम्) निर्मल (प्रवदन्ति) कहते हैं।।२४।।

पद्यानुवाद
अनंत नित्य चित्त के अगम्य रम्य आदि हो,
असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्य हो अनादि हो।
महेश कामकेतु योग-ईश योग ज्ञान हो,
अनेक एक ज्ञान रूप शुद्ध सन्त-मान हो।।

        हे नाथ! संत पुरुष तुम्हें अव्यय (अनन्तज्ञानादिस्वरूप होने से अक्षय), विभु (परमैश्वर्यशाली अथवा ज्ञान की अपेक्षा व्यापक), अचिन्त्य (चिन्तवन में नहीं आने वाले, अर्थात् पूर्ण रूप से न जान सकने रूप), असंख्य (आपके गुणों की संख्या नहीं) आद्य (आदि तीर्थंकर), ब्रह्या (मोक्षमार्ग का सच्चा विधान करने वाले), ईश्वर (कृतकृत्य अर्थात् समस्त आत्मविभूति के स्वामी या तीन लोक के नाथ), अनंत (जिसका अंत न हो, अविनश्वर, अर्थात् अनंत चतुष्टय सहित), अनंगकेतु (शरीररहित या अनुपम सुंदर, अर्थात् कामदेव के नाश करने के लिए केतु रूप), योगीश्वर (ध्यानियों के प्रभु), विदितयोग (ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप योग के जानने वाले), अनेक (अनंत गुण पर्याय की अपेक्षा से), एक (अद्वितीय), ज्ञानस्वरूप (केवलज्ञानस्वरूप) और कर्ममलरहित होने से अमल-निर्मल कहते हैं।

        हे भगवन्! आप कभी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते, अतः आप अव्यय हैं। आपका ज्ञान सम्पूर्ण पदार्थों को जानता है एतदर्थ आप व्यापक हैं। बड़े ज्ञानी पुरुष गुण संख्यातीत हैं, अतः आप असंख्य हैं। इस अवसर्पिणी काल के चैबीस तीर्थंकरों में सबसे प्रथम हुए इसलिए आप आद्य हैं। कर्मभूमि के प्रारम्भ में जीवन-निर्वाह की बहत्तर (७२) एवं चैंसठ (६४) कलाओं की शिक्षा देने तथा मोक्षमार्ग का विधान करने के कारण आप ‘ब्रह्या‘ हैं। आप अनन्त शक्ति के धारक होने से ईश्वर हैं। अनन्त गुणों के धारक होने से आप अनन्त हैं। काम को जीतने से आप अनंगकेतु कहलाते हैं। योगियों के भी ईश्वर होने से आप योगीश्वर हैं। आप ध्यानयोग के ज्ञाता हैं, गुण पर्याय की अपेक्षा अनेक और द्रव्य की अपेक्षा एक हैं। ज्ञानस्वरूप हैं और निर्मल हैं। ऐसा संतजन आपके गुणों का वर्णन करते हैं।