।। जैन न्याय ग्रंथों के मंगलाचरण ।।

(प्रस्तुतकर्ता—आचार्य विद्यानन्द मुनि)

जैन न्याय ग्रंथों के मंगलाचरण

सिद्ध सिद्धत्थाणं ठाणमणावमसुहं उवगयाणं।
कुसमयविसासणं सासणं जिणाणं भवजिणाणं।।

—(आचार्य सिद्धसेन, सम्मइसुत्तं (सन्मतिसूत्र))

अर्थ — संसार को जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान का शासन अनुपम सुख के स्थान को प्राप्त है, प्रमाणप्रसिद्ध अर्थों का स्थान है और मिथ्यामत का निवारण करने वाला स्वत:सिद्ध है।

उद्दीपीकृतधर्मतीर्थमचलं ज्योतिज्र्वलत्केवला—
लोकालोकितलोकालोकमखिलैरिन्द्रादिभिर्वन्दितम्।
वंदित्वा परमार्हतां समुदयं गां सप्तभंगीविधि:,
स्याद्वादामृतर्गिभणी प्रतिहतैकांतान्धकारोदयाम्।।

—(अकलंकदेव अष्टशती)

अर्थ— जिन्होंने धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया है और प्रज्वलित होती हुई अचल ज्योति रूप केवलज्ञान के आलोक (प्रकाश) से लोक और अलोक को देख लिया है तथा जो समस्त/इन्द्रों से वन्दित हैं, उन अरिहन्तों के समूह को नमस्कार हो। जिसने एकान्तरूपी अन्धकार को दूर कर दिया है ऐसी सप्तभंगीरूप स्याद्वादरूपी अमृत से पूर्ण वाणी को भी नमस्कार हो।

श्रीवद्र्धमानमभिवन्द्य स।मन्तभद्रमुद्भूतबोधमहिमानमनिन्द्यवाचम्।
शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितं कृतिरलङ्क्रियते मयास्य।।

—(आचार्य विद्यानन्दि, अष्टसहस्री)

अर्थ— जो समंत अर्थात् सर्वप्रकार से भद्र अर्थात् कल्याणस्वरूप हैं, जिनके केवलज्ञान की महिमा प्रकट हो चुकी है, जो विद्यानंदमय हैं, जिनके वचन अनिन्द्य अर्थात् अकलंक रूप अनेकान्तमय है, ऐसे श्री अर्थात् अंतरंग—अनन्त—चनुष्टयादि एवं बहिरंग—समवसरणादि विभूति से सहित अंतिम तीर्थंकर श्री वर्धमान भगवान को नमस्कार करके महाशास्त्र ‘तत्त्वार्थसूत्र’ के प्रारम्भ में ‘मोक्षमार्गस्य नेतारम्’ इत्यादि मंगलरूप से रचित स्तुति के विषयभूत आप्त की मीमांसा स्वरूप जो ‘देवागम स्तोत्र’ है उसे भाष्यरूप से मैं अलंकृत करता हूँ।

प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थ—बोध—दीधिति—मालिने।
नम: श्रीजिनचन्द्राय, मोह—ध्वान्त—प्रभेदिने।।।

—(आचार्य विद्यानन्दि, आप्तपरीक्षा)

अर्थ'— जो समस्त पदार्थ प्रकाशक ज्ञानकिरणों से विशिष्ट हैं (यानी भूत, भावी और वर्तमान सम्पूर्ण जीवादि पदार्थों के ज्ञाता है) और मोहरूपी अन्धकार के प्रभेदक हैं यानी मोहनीय कर्म के नाश करने वाले हैं उन श्री जिनरूप चन्द्रमा के लिए नमस्कार हो, यानी अरिहन्त परमात्मा को नमस्कार हो।

—नभोयान—चामरादि—वभूतय:।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान्।।।

—(आचार्य समन्तभद्र, आप्तमीमांसा)

अर्थ— (हे वीर जिन!) देवों के आगमन के कारण, आकाश में गमन के कारण और चामरादि विभूतियों के कारण आप हमारे गुरु—पूज्य अथवा आप्त पुरुष नहीं हैं, क्योंकि ये अतिशय मायावियों में भी देखे जाते हैं। आप तो दोषों से रहित वीतराग और सर्वज्ञ हैं, अत: प्रणम्य हैं।

गुणानां विस्तरं वक्ष्ये, स्वभावानां तथैव च।
पर्यायाणां विशेषेण, नत्वा वीरं जिनेश्वरम्।।।

—(आचार्य देवसेन, आलाप—पद्धति)

अर्थ — महावीर भगवान को नमस्कार करके मैं गुणों और स्वभावों के तथा विशेषरूप से पर्यायों के विस्तार को कहूँगा।

प्रणम्य सर्वविज्ञानमहास्पदमुरुश्रियम्।
निर्धूतकल्मषं वीरं, वक्ष्ये तत्त्वार्थर्वातकम्।।।

—आचार्य अकलंकदेव, तत्त्वार्थर्वातक)

अर्थ — सर्वविज्ञानमय, बाह्य—अभ्यंतर लक्ष्मी के स्वामी और परम—वीतराग श्री महावीर को प्रमाण करके तत्त्वार्थर्वाितक ग्रन्थ को कहता हूँ।

श्रीवर्धमानमाध्याय, घातिसंघातघातनम्।
विद्यास्पदं प्रवक्ष्याति, तत्त्वार्थश्लोकर्वातकम्।।

—(आचार्य विद्यानन्दि, तत्त्वार्थश्लोकर्वाितकालंकार)

अर्थ — अनन्त चतुष्टयरूप अन्तरंगलक्ष्मी और समवसरण आदि बाह्यलक्ष्मी से सहित हो रहे इष्टदेव श्री वर्धमान स्वामी चौबीसवें तीर्थंकर को, जिन्होंने चारों घातिकर्मों की सैंतालीस प्रकृतियों तथा इनकी उत्तरोत्तर अनेक प्रकृतियों का क्षायिक रत्नत्रय से समूल—चूल क्षय कर दिया है, और जो मेरे अवलम्ब हैं, उनका मन, वचन, काय से ध्यान करके तत्त्वार्थश्लोकर्वाितक नामक ग्रंथ को कहूँगा।

दव्वा विस्ससहावा, लोगागासे सुसंठिया जेह।
दिट्ठा तिलायविसया, वंदेहं ते जिणे सिद्धे।।

—(माइल्लधवल, द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र (णयचक्को)

अर्थ - में सम्यव्रूप से स्थित विश्वस्वरूप त्रिकाल—वर्ती द्रव्यों को देखा उन जिनों और सिद्धों को मैं नमस्कार करता हूँ।

श्रीवद्र्धमानमर्हन्तं, नत्वा बालप्रबुद्धये।
विरच्यते मित—स्पष्ट—सन्दर्भ—न्यायदीपिका।।

—(श्रीमदभिनव—धर्मभूषण यति, न्यायदीपिका)

अर्थ — श्री वद्र्धमान स्वामी को अथवा ‘अन्तरंग’ और ‘बहिरंग’ विभूति से प्रकर्ष को प्राप्त समस्त जिन—समूह को नमस्कार करके मैं जिज्ञासु बालकों (मन्द जनों) के बोधार्थ विशद् संक्षिप्त और सुबोध ‘न्यायदीपिका’ को बनाता हूँ।

पंचाध्यायावयवं मम कर्तुग्र्रन्थराजमात्मवशात्।
अर्थालोकनिदानं यस्य वचस्तं स्तुवे महावीरम्।।।

—(कविवर पं. राजमल्ल, पंचाध्यायी)

अर्थ — अवयवरूप से ५ अध्यायों में विभक्त ग्रन्थराज को आत्मवश होकर बनाने वाले मेरे लिए जिनके वचन पदार्थों का प्रतिभास कराने में मूल कारण हुए, उन महावीर स्वामी की मैं (ग्रन्प्थकार) स्तुति करता हूँ।

श्रीवद्र्धमानमानुत्य, स्याद्धादन्यायनायकम्।
प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थ, पत्रवाक्यं विचार्यते।।

—(आचार्य विद्यानन्दि, पत्रपरीक्षा)

अर्थ — स्याद्वाद न्याय के नायक, समस्त पदार्थों को जानने वाले, श्री वद्र्धमान भगवान को नमस्कार करके ‘पत्रवाक्य’ का विचार करता हूँ।

प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्धिपर्यय:।
इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म, सिद्धमल्पं लघीयस:।।

—(आचार्य माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख)

अर्थ - से पदार्थों का निर्णय होता है और प्रमाणाभास से पदार्थों का निर्णय नहीं होता। इसलिए मन्दबुद्धि बालकों के हितार्थ उन दोनों के संक्षिप्त और पूर्वाचार्य प्रसिद्ध लक्षण कहता हूँ।

जयन्ति र्निजताशेष—सर्वथैकान्तनीतय:।
सत्यवाक्याधिया: शश्वद्विद्यानन्दा जिनेश्वरा:।।

—(आचार्य विद्यानन्दि, प्रमाणपरीक्षा)

अर्थ — जिन्होंने सम्पूर्ण सर्वथा एकान्त नयों को जीत लिया है, जो सत्यवाक् (अनवद्य/हितकारी वचन) के स्वामी हैं तथा जो सदा केवलज्ञानरूपी विद्या से आनन्दित हैं—ऐसे जिनराज जयवन्त हैं।

श्रीवर्धमानं सुरराजपूज्यं, साक्षात्कृताशेषपदार्थतत्त्वम्।
सौख्याकरं मुक्तिपिंत प्रणम्य, प्रमाप्रमेयं प्रकटं प्रवक्ष्ये।।।

—(आचार्य भावसेन त्रैविद्यदेव, प्रमाप्रमेय)

अर्थ — देवों के राजा, इन्द्र द्वारा पूजित, सुख के आकर (भण्डार) श्रेष्ठ निधि, मुक्ति के स्वामी तथा समस्त पदार्थों के स्वरूप को जिन्होंने साक्षात्—प्रत्यक्ष जाना है, उन श्री वर्धमान महावीर जिन को प्रणाम करके मैं प्रमाप्रमेय तथा उसके विषयों का स्पष्ट वर्णन करूँगा।

सिद्धेर्धाम महारिमोहहननं कीत्र्ते: परं मन्दिरम्,
मिथ्यात्वप्रतिपक्षमक्षयसुखं संशीतिविध्वंसनम्।
सर्वप्राणिहितं प्रभुन्दुभवनं सिद्धं प्रमालक्षणम्,
संतश्चेतसि चिन्तयन्तु सुधिय: श्रीवद्र्धमानं जिनम्।।।

—(आचार्य प्रभाचन्द्र, प्रमेयकमलमात्र्तण्ड)

अर्थ — जो सिद्धि मोक्ष के स्थान स्वरूप हैं, मोहरूपी महाशत्रु का नाश करने वाले हैं, र्कीित देवी देवी के निवास/मंदिर हैं अर्थात् र्कीित—संयुक्त हैं, मिथ्यात्व के प्रतिपक्षी हैं, अक्षय सुख के भोक्ता हैं, संशय का नाश करने वाले हैं, सभी जीवों के लिए हितकारक हैं, कान्ति के स्थान हैं, अष्ट कर्मों का नाश करने से सिद्ध हैं तथा ज्ञान ही जिनका लक्षण है अर्थात् केवलज्ञान के धारक हैं—ऐसे श्री वद्र्धमान भगवान का बुद्धिमान सज्जन निज मन में ध्यान करें—चिन्तवन करें।

नतामरशिरोरत्नप्रभाप्रोतनखत्विषे।
नमो जिनाय दुर्वारमारवीरमदच्छिदे।।।

—(श्रीमल्लघु अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला)

अर्थ — नम्रीभूत चर्तुिनकाय देवों के मुकुटों में लगे हुए मणियों की प्रभा से जिनके चरण—कमलों के नखों की कान्ति दैदीप्यमान हो रही है और जो र्दुनवार पराक्रम वाले कामदेव के मद को छेदने वाले हैं, ऐसे श्री जिनदेव को हमारा नमस्कार है।

कीत्र्या महत्या भुवि वद्र्धमानं, त्वां वद्र्धमानं स्तुतिगोचरत्वम्।
निनीषव: स्मो वयमद्य वीरं, विशीर्णदोषाऽऽशयपाशबन्धम्।।।

—(आचार्य समन्तभद्र, युक्त्यनुशासन)

अर्थ — हे वीरजिन! आप दोषों और दोषाशयों के पाशबन्धन से विमुक्त हुए हैं, आप निश्चित रूप से ऋद्धमान हैं और आप महती र्कीित से भूमण्डल पर वद्र्धमान हैं। अब आपको स्तुतिगोचर मानकर हम आपको अपनी स्तुति का विषय बनाना चाहते हैं।

धर्मतीर्थकरेभ्योस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नम:।
वृषभादि—महावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये।।।

—(आचार्य अकलंदेव, लघीयस्त्रय)

अर्थ — स्याद्वादी धर्मतीर्थंकर वृषभनाथ से लेकर अन्तिम महावीर तीर्थंकर के लिए स्वात्म उपलब्धि हेतु बारंबार नमस्कार हो।

विद्यानन्दाधिप: स्वामी, विद्वद्देवो जिनेश्वर:।
यो लोवैâकहितस्तरमै, नमस्तात् स्वात्मलब्धये।।।

—(आचार्य विद्यानन्दि, सत्यशासनपरीक्षा)

अर्थ — केवलज्ञानरूपी विद्या के आनन्द में अग्रणी, स्वामी, विद्वान, देव, जिनेश्वर जो लोक के अनन्य हितैषी हैं, उनको अपने आत्मस्वरूप की उपलब्धि के लिए नमस्कार होवे।

वन्दिता सुरसन्दोहवन्दितांघ्रिसरोरुहम्।
श्रीवीरं कुतकात्कुर्वे सप्तभंगीतरंगिणीम्।।।

—(पं. विमलदास, सप्तभंगी तरंगिणी)

अर्थ — मै (विमलदास) सम्पूर्ण देवसमूहों से जिनके चरण—कमल नमस्कृत हैं ऐसे तथा अष्ट महाप्रातिहार्यादि लक्ष्मी और गर्भकल्याणकादि पंच मंगल समयों में इन्द्रों के आसनों की कम्पन आदि श्रीयुक्त महावीर स्वामी को नमस्कार करके कुतूहल में अर्थात् अनायास ही (बिना परिश्रम के) इस ‘सप्तभंगीतरंगिणी’ नामक ग्रंथ को रचता हूँ।

अनन्तविज्ञानमतीतदोषमबाध्यसिद्धान्तममत्र्यपूज्यम्।
श्रीवर्धमानं जिनमाप्तमुख्यं, स्वयम्भुवे स्तोतुमहं यतिष्ये।।।

—(मल्लिषेणसूरि, स्याद्वादमंजरी)

अर्थ — अनन्त ज्ञान के धारक, दोषों से रहित, अबाध्य सिद्धान्त से युक्त, देवों द्वारा पूजनीय, यथार्थ वक्ताओं में (आप्तों में) प्रधान और स्वयंभू ऐसे श्री वर्धमान जिनेन्द्र की स्तुति करने के लिए मैं प्रयत्न करूँगा।