।। वीर वन्दना ।।

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रचयित्री-आर्यिका चन्दनामतिः

बसन्ततिलका छनद-

(1) तीर्थंकरस्य वृषभस्य परम्परायां,
वीर! त्वमेव चरमो जिनशासनेशः।
वीरातिवीर! गुणसागर! सन्मते! में,
हे वर्धमान! जिनदेव! नमोऽस्तु तुभ्यम्।।

(2) धन्यास्ति कुण्डलपुरी तव जन्मभूमिः,
सिद्धार्थभूपजनकस्त्रिशला च माता।
इन्द्रोऽपि गर्भसमये कृतवान् सुपूजाम्,
हे वर्धमान! जिनदेव! नमोऽस्तु तुभ्यम्।।

(3) ते जनमना प्रमुदितं नगरं समस्तम्,
जन्माभिषेकमकरोच्च सुधर्मशक्रः।
राज्यादिभोगनिचये लुलुभे न चित्तम्
हे वर्धमान! जिनदेव! नमोऽस्तु तुभ्यम्।।

(4) ज्ञानं चतुर्विधमजायत ते तपोभिः,
कैवल्यबोधलसितं च ननाम लोकः।
दिव्यों ध्वनिस्तव बभूव जनोपकारी,
हे वर्धमान! जिनदेव! नमोऽस्तु तुभ्यम्।।

(5) द्रव्यस्वभावमवलोक्य निरूद्धयोगाः,
ध्यानं च शुक्लमवलम्ब्य निजात्मलीनः।
पावापुरे सरसि मोक्षपदाधिकारी,
हे वर्धमान! जिनदेव! नमोऽस्तु तुभ्यम्।।

(6) वीरस्य जन्मसमयस्य मोहत्सवेऽस्मिन्,
त्याक्त्वा विरोधमखिलं जिनधर्मनिष्ठाः।
धर्मप्रचारविरताः हि वयं भवेम,
हे वर्धमान! जिनदेव! नमोऽस्तु तुभ्यम्।।

(7) जैनत्व-मण्डित समाज नमोंऽशुमालिन्!
सम्पूर्णविश्वजनतात्रयतापहारितन्!
जैनेन्द्र-धर्म-रथ-चक्रगतिप्रदायिन्!
हे वर्धमान! जिनदेव! नमोऽस्तु तुभ्यम्।।

अनुष्टुप् छंद-

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इदं वीराष्टकं स्तोत्रं, भक्त्या चन्दनया कृतम्
हार्दिकी कामला चैषा जीयात् वीरस्य शासनम्।।

भगवन महावीर चालीसा

दोहा

सिद्धिप्रिया के नाथ है, महावीर भगवान।
सिद्धारथ सुत वीर को, मेरा कोटि प्रणाम।।1।।
वर्धमान अतिवीर प्रभु, सन्मति हैं सुखकार।
पांच नाम युत वीर को, वन्दन बारम्बार।।2।।
चालीसा महावीर का, पढ़ो भव्य मन लाय।
रोग शोक संकट टलें, सुख सम्पति मिल जाय।।3।।

चैपाई

जय जय श्री महावीर हितंकर। जय हो चैबिसवें तीर्थकर।।1।।
जय प्रभु तुम जग में क्षेमंकर। जय जय नाथ तुम्हीं शिवशंकर।।2।।
जन्म लिया प्रभु कुण्डलपुर में।चैत्र सुदी तेरस शुभ तिथि में।।3।।
त्रिशला माता धन्य हो गई। अपने सुत में मग्न हो गई।।4।।
राजा सिद्धारथ हरषाये। पुत्र जन्म पद दान बंटाये।।5।।
स्वर्गों में खुशियां छाई। इन्दों की टोली वहां आई।।6।।
नंद्यावर्त महल में जाकर। सिद्धारथ से आाज्ञा पाकर।।7।।
पहुंची शची प्रसूती गृह में। माता की त्रय प्रदक्षिणा दे।।8।।
त्रिशला मां का वन्दन करके। उनको निद्रा सम्मुख करके।।9।।
मायामय बालक को सुलाया। गोद में जिनबालक को उठाया।।10।।
तत्क्षण स्त्रीलिंग विनाशा। शिवपद की मन में अभिलाषा।।11।।
जिन शिशु को बाहर लाकर के। दिया इन्द्र के करकमलों में।।12।।
इन्द्र प्रभू को ले अति हरषा। हर्षाश्रू ेी हो गई वर्षा।।13।।
दो नेत्रों से देख न पाया। नेत्र सहस्र तब उसने बनाया।।14।।
निरखा अंग अंग जिनवर का। फिर भी उसका मन नहिं भतर।।15।।
मेरू सुदर्शन पर ले जाकर। किया जन्म अभिषेक प्रभू पर।।16।।
उस जनमोत्सव का क्या कहना। तीन लोक में उसकी महिमा।।17।।
इन्द्र ने नामकरण किया प्रभु का। वीर व वर्धमान पद उनका।।18।।
जन्म न्हवन के बाद शची ने। प्रभु को किया सुसज्जित उसने।।19।।
फिर कुण्डलपुर नगरी आकर। मात-पिता को सौंपा बालक।।20।।
वहां पुनः जन्मोत्सव करके। नृत्य किया था कुण्डलपुर में।।21।।
पलना खूब झुलाया प्रभु का। नंद्यावर्त महल परिसर था।।22।।
एक बाद दो मुनिवर आयें। जिनशिशु को लख अति हर्षाय।।23।।
दूर हुई उनकी मनशंका। ‘‘सन्मति’’ नाम उन्होंने रक्खा।।24।।
बालपने में क्रीड़ा करते। मात-पिता के मन को हरते।।25।।
संगमदेव एक दिन आया। उसने सर्प का वेष बनाया। 26।।
वर्धमान तब खेल रहे थे। देवबालकों के संग वन में।।27।।
उनके बल की हुई परीक्षा। सर्प देव की थी यह इच्छा।।28।।
चढ़े सर्प के फण पर वे तो। मानो मां की गोदी में हों।।29।।
सर्प ने देवरूप प्रगटाया। ‘‘महावीर’’ कह शीश झुकाया।।30।।
बालपने से यौवन पाया। लेकिन ब्याह नहीं रचवाया।।31।।

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