|| वात्सल्य ||
jain temple278

जिस प्रकार संसारी जीव की संसार के कार्यों में अटूट प्रीति होती है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव की देव, गुरु, शास्त्र में अटूट भक्ति व प्रीति होती है। इसमें जीव का सम्यक्त्व गुण ही कारण है। सम्यग्दृष्टि की प्रीति जो धर्म में होती है वह अन्य वस्तु में नहीं होती, कारण वह असली बात को समझता है। मिथ्यादृष्टि जीव केा बारम्बार समझाने पर भी धर्म में रूचि नहीं होती, मिथ्यात्व मोहनी बड़ी बलवान् है। सम्यग्दृष्टि जीव व्रती धर्मात्मा तथा महाव्रती को देख्कार अधिक से अधिक प्रसन्न होता है परंतु जिसके मिथ्यात्व का उदय होता है वह धर्मात्मा व्रती जीव को देखकर चित्त में दुःखी होता है और महाव्रती को आया देखकर तो परम दुःखी हो जाता है और कहने लगता है कि यह नंगा कहाँ से आ गया। यह बड़ा निर्लज्ज है इसके दर्शन अकल्याणकारी हैं ऐसा मिथ्यात्व के उदय सेक कहने लग जाता है।

यह षोडश कारण भावना सम्यग्दृष्टि जीव ही धारता है अतः यह प्रवचन वात्सल्य भी सम्यक्त्वी जीव ही उत्तम रीति से धारण करता है। परंतु यह उपदेश प्राणी मात्र के लिये है यथाशक्ति सभी जीव धारण करें। जितनी प्रीति यह जीव संसार के पदार्थांे में धारता है उसका शताश भाग भी अगर यह धर्म से प्रीति करे तो मोह कर्म को स्वल्प काल में ही नाश कर केवल ज्ञान लक्ष्मी केा प्राप्त कर सकता है।

इस तरह प्रवचन वात्सल्य के स्वरूप को समझकर इसको धारण करना चाहिए और इसकी भावना भावनी चाहिए तथा ॐ ह्रीं प्रवचन वात्सल्याय नम‘‘ इस मंत्र का जाप्य करना चाहिये। अष्ट द्रव्य से पूजा करना चाहिये। सतवन गुण गाान करना चाहिये। जो भी प्राणी इस भावना को भावेंगे वे अवश्य निर्वाण के पात्र होवेंगे।

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