।। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा ।।

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तप कल्याणकध्दीक्षा कल्याणक

अब तक के समस्त कार्य तो मनुष्य मात्र में कम-ज्यादा रूप में समान होते रहते हैं किन्तु संसार की विरक्ति का कोई कारण बने बिना मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। यह भी तभी संभव है जब मनुष्य के संस्कार चिंतन को सही दिशा में ले जाने की क्षमता रखते हों। भगवान के कर्मयोगी जीवन, जिनमें सांसारिक कार्य, राज्य संचालन, परिवार संचालन आदि सम्मिलित होते हैं के बीच एक दिन उन्हें ध्यान आता है भगवान चंद्रप्रभु के जीवन चरित्र के अनुसार आयु का इतना लंबा काल मैंने केवल सांसारिकता मंे ही खो दिया। अब तक मैंने संसार की सम्पदा का भोग किया ंिकन्तु अब मुझे आत्मिक सम्पदा का भोग करना हैं संसार का यह रूप, सम्पदाक्षणिक है, अस्थिर है, किन्तु आत्मा का रूप सम्पदा का भोग करना है। संसार का यह रूप, सम्पदाक्षणिक है, अस्थिर है, किन्तु आत्मा का रूप आलौकिक है, आत्मा की सम्पदा अनंत अक्षय है। मैं अब इसी के पुरूषार्थ जगाऊॅंगा।

इस प्रकार जब चंद्रप्रभु अपनी आत्मा को जागृत कर रहे थे, तभी लोकान्तिक देव आए और भगवान की स्तुति करके उनके विचारों की सराहना की। जरा देखें कि यहाॅं आत्मोन्नित के विचार को कोई है जो ठीक कह रहा है। उसे आचार्यों ने लोकान्तिक देव कहा और उसके हम ऐसा भी कह सकते हैं किसी गुणवान-विद्वान ने चन्द्रप्रभु महाराज को प्रेरक उद्बोधन दिया। यह तो बिल्कुल सम्भव है - इसे काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। आज भी प्रेरणा देने वालों और मैनेजमेंट गुरूओं की मान्यता है और बनी रहेगी।

चन्द्रप्रभु राजा थे - उन्होंने राज्य अपने पुत्र वरचन्द्र को सौंपा और पालकी में बैठकर जिसे बडे़-बडे़ लोगांे ने उठाया सर्वतुर्क वन में चल गए। वहाॅं उन्होंने दो दिन के उपवास का नियम लेकर जैनेन्द्री दीक्षा धारण कर ली। उन्होंने केशलुंचन किया और दिगम्बर मुद्रा में ध्यान मग्न हो गए। दो दिन के पश्चात वे नलिन नामक नगर में आहार के निमित्त पधारे। वहाॅं सोमदत्त राजा ने उन्हें नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया। त्याग की यह प्रक्रिया स्वाभाविक है। आज भी सब कुछ त्याग कर समाजसेवी लोगांे की परंपरा है। क्यों वह त्यागी हुए? इसके भिन्न-भिन्न कारण हो सकते हैं, पर ऐसा होता है।

इसके बाद चन्द्रप्रभु मुनि की तपस्या प्रारम्भ होती है। समस्त घातिया कर्मों को निर्मूल करने में चन्द्रप्रभु मुनि जैसी उच्च आत्मा को तीन माह लगे। वे पंचमहाव्रत, पंचसमिति, पंचोद्रिय निग्रह, दशधर्म आदि में सावधान रहते हुए कर्मशत्रुओं से युद्ध करने में संलग्न रहने लगे। अन्त में वे दीक्षा वन मे नागवृक्ष के तीचे बेला का नियम लेकर ध्यान लीन हो गए और क्रमशः शुक्ल ध्यान के बल से मोहनीय कर्म का नाश करने में सफल हो गए। फिर बारहवें गुणस्थान के अन्त मंे द्वितीय शुक्ल ध्यान के प्रभाव में शेष तीन घातिया कर्मों का भी क्षय कर दिया। इसके साथ ही वे संयोग केवली हो गए। उनकी आत्मा अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान अनन्त सुख, अनन्त वीर्य से संपन्न हो गई। उन्हें पाॅंचोंलब्ध्यिों की उपलब्धि हो गई। अब वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गए। इंद्रों और देवों ने भगवान के केवल ज्ञान की पूजा की । उन्होंने समवशरण की रचना की और उसमें भगवान की प्रथम दिव्य ध्वनि खिरी।

भगवान समस्त देश में विहार करते हुए सम्मेद शिखर पर पहुॅंचे और वहाॅं 1 हजार मुनियों के साथ एक माह तक प्रतिमायोग धारण करके आरूढ हो गए। यह मोक्ष प्राप्ति के पूर्व की परमोच्च देह स्थिति है। यह तप की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है।

यहाॅं यह कहना ठीक होगा कि समवशरण में दिव्य ध्वनि का गुंजन हो ंिकन्तु एक नज्जारा और होना चाहिए-वह है धर्मचक्र प्रवर्तन का। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण व महापुराण में इसका बड़ा सुन्दर वर्णन है। उसका सारांश इस प्रकार है - भगवान का विहार बड़ी धूमधाम से होता है। याचकों को किमिच्छक दान दिया जाता है। भगवान के चरणों के नीचे देवलोग सहस्त्रदल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं। और भगवान इनको स्पर्श न कर अधर आकाश में ही चलते हैं। आगे-आगे धर्मचक्र चलता है। बाजे-नगाड़े बजते हैं। पृथ्वी इति-भोति रहित हो जाती है। इन्द्र राजाओं के साथ आगे-आगे जयकार करते चलते हैं। आगे धर्मचक्र चलता है। मार्ग मंे सुन्दर क्रीडा स्थान बनाए जाते है। मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से शोभित रहता है। भामंडल, छत्र, चंवर स्वतः साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं। इन्द्र प्रतिहार बनता है। अनेकों निधियाॅं साथ-साथ चलती है। विरोधी जीव वैर विरोध भूल जाते हैं। अन्धे, बहरों को भी दिखने-सुनने लग जाते हैं। यह दृश्य जनसमूह देखकर भाव-विहल हो सकता है। यह भगवान के जननायक होने का सन्देश देता है।

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मोक्ष कल्याणक

हम अक्सर एक त्रुटि करते हैं कि मोक्ष कल्याणक को अन्तिम कल्याणक कहते हैं। एक तरह से चन्द्रप्रभु की आत्मा के लिए मोक्षगमन के साथ यह अन्तिम पड़ाव हो, ंिकन्तु तीर्थंकरत्व की यात्रा जो एक दर्शन को समग्र रूप देती है, अन्तिम कहना विचारणीय है। वास्तव में मोक्षगमन जैन दर्शन के चिन्तन की चरमोत्कृष्ठ आस्था है जो प्रत्येक हृदय में फलित होना चाहिए।

समस्त कल्याणक महोत्सव का यह सरताज है। मोक्षगमन को देखना इस निश्चय को दोहराना है कि जीवन के सभी कार्य तब तक सफल नहंी कहे जा सकते जब तक उसका अन्तिम लक्ष्य मोक्षगमन न हो।

पंचकल्याणक महोत्सव के क्षण

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गर्भकल्याणक ;पूर्वरूपद्ध

ध्वजारोहण एवं घट यात्रा

प्रातः 7.30 पात्रशुद्धि, सकलीकरण, इन्द्र प्रतिष्ठा, नांदी विधान, मंगल कलश स्थापना, शांतिकलश स्थापना, शांतिकलश स्थापना, अखण्ड दीप स्थापना, अभिषेक, शांतिधारा, पूजन, तत्पश्चात् आचार्य श्री को दिव्यदेशना

मध्यान्ह 12.30 नित्यमह अभिषेक, शांतिधारा पूजन, ‘‘याज्ञमंडल विधान‘‘ तत्पश्चात आचार्य श्री की दिव्यदेशना

सायंकाल 7.00 आरती, शास्त्रसभा

रात्रि 8.00 गर्भकल्याणक ;पूर्वरूपद्ध सौधर्म इन्द्र सभा ;इन्द्र दरबारद्ध तत्वचर्चा, धनपति कुबेर द्वारा रत्नवृष्टि, अष्ट कुमारियों द्वारा माता की सेवा, सोलह स्वप्न दर्शन, गीत, नृत्य, तत्पश्चात् गर्भकल्याणक की आंतरिक क्रियाएॅं

गर्भकल्याणक ;उत्तर रूपद्ध

प्रातः 6.30 नित्यमह अभिषेक, शांतिधारा पूजन, गर्भकल्याणक पूजन, शांतिहवन तत्पश्चात् आशीर्वचन

मध्याहंः 12.30 सीमंतनी क्रियाएॅं ;महिला संगीतद्ध तत्पश्चात् घटयात्रा अयोध्या नगरी से प्रारम्भ होकर नवीनजिन मन्दिर की मंगल शुद्धि, वेदि शुद्धि, शिखर शुद्धि एवं वेदी-शिखर संस्कार आदि पश्चात्, अयोध्यानगरी में आशीर्वचन तत्पश्चात् आचार्य श्री की दिव्य देशना

सायंकाल 7 मंगलमय आरती, शास्त्रसभा

रात्रि 8 गर्भकल्याणक ;उत्तर रूपद्ध महाराजा नाभिराय का राजदरबार माता मरूदेवी द्वारा महाराजा नाभिराय से सोलह स्वप्नदर्शन का फलादेश, गीत, नृत्य, माता की सेवा, तत्पश्चात् छप्पन कुमारियों द्वारा माता मरूदेवी को भेंट समर्पण व प्रश्नोत्तर

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