उत्तम तप धर्म

मंगलाचरण

तन्नमाभि परं ज्योति-रवाड् - मनस् गोचरम्।
उन्मूलयत्य विद्यांयद् विद्यामुन्मीलयत्यपि।।

अर्थ- मैं उस उत्कृष्ट ज्योति स्वरूप केवलज्ञान को नमस्कार करता हूं, जो वचन और मन के अगोचर है, अज्ञान को नष्ट करता है, और ज्ञान को प्रकाशित करता है।

तपो नमोऽक्षकायानां, तपनात् सन्निरोधनात्।
निरूचयते दृगाद्यावि -र्भावयेच्छानिरोधनम्।।1।।

अर्थ- मन और इन्द्रियों के निरोध को और शरीर के तापने को तप कहा जाता है एवं दर्शन आदि की अभिव्यक्ति के लिए इच्छाओं का निरोध करना तप हे।

यद्वा मार्गऽविरोधेन, कर्मोच्छेदाय तप्यते।
अर्जयत्यक्षमनसो, - स्तत्तपो नियमक्रिया।।2।।

अर्थ- अथवा जिन मार्ग के अविरोध पूर्वक कर्मों का उच्छेद करने के लएि जो इन्द्रिय और मन को वश में करता है, वह तप कहलाता है।

अन्तर्बहिर्मलप्लोषा - दात्मनः शुद्धिकारणं।
शारीरंमानसं कर्म, तपः, प्राहुस्तपोधनाः।।3।।

अर्थ- अन्तरंग और बहिरंग मल को जलाकर आत्मा की शुद्धि का कारण जो शारीरिक और मानसिक कर्म है उसे तपोधन तप कहते हैं।

धु्रवं च सिद्धिश्चतुज्र्ञान, स्तीर्थकृत् त्रिदशार्चितः।
अनिगूहितबलंवीर्य - मुद्यतः कुरूते तपः ।।4।।

अर्थ- इन्द्रों द्वारा पूजनीय चार ज्ञान के धारक तीर्थंकरों को मुक्ति निश्चित है फिर भी वे बिल को न छुपाकर शक्ति को बढ़ाकर तप करते हैं।

त्यजतु तपसे चक्रं, चक्री यतस्तपसः फलं,
सुखमनुपमं स्वोत्थं, नित्यं ततो न तदद्भुतम्।
इदमिह महच् चित्रं, यत्तद् विषं विषयात्मकं,
पुनरपि सुधी स्त्यक्तं, भोक्तुं जहाति महत्तपः।।5।।

अर्थ- चक्रवर्ती तपश्चरण के लिए चक्रवर्तीपने को छोड़ता है तो छोड़ो क्योंकि तपस्या का फल अनुपम आत्मा जनित शाश्वत सुख होता है। अतः यह कार्य तो आश्चर्य जनक नहीं है परंतु इस लोक में यह बड़ा आश्चर्य है कि लोग सुबुद्धिपूर्वक छोड़े हुए विषय रूप विष को पुनः भोगने के लिए बड़ी तपस्या को भी छोड़ बैठते हैं।

आत्मनस्तपसा तुल्यं, न हितं विद्यते परं।
तस्मात् सर्वात्मन भव्यैस्तस्मिन् यत्नो विधीयताम्।।6।।

अर्थ- तप के समान आत्मा का हितकारी दूसरा नहीं है इसलिए भव्यों को शक्ति के साथ तप में प्रयत्न करना चाहिए।

आत्मशुद्धिरियं प्रोक्ता, तपसैव विचक्षणैंः।
किमग्निना विना शुद्धि, रस्ति कांचनशोधने।।7।।

अर्थ- बुद्धिमानों के द्वारा तप से ही आत्म शुद्धि कही गयी है, क्या अग्नि के बिना स्वर्ण शुद्ध होताहै? अर्थात नहीं।

वरिसहस्सेण पुरा, जं कम्मं खवइ तेण काएण।
तं संपहि वरिसेण हु, णिज्जरई हीणसंहणणे।।8।।

अर्थ- पहले जिन कर्मो की उत्तम संहनन के द्वारा हजार वर्षों में निर्जरा होती थी। वर्तमान में हीन संहनन के द्वारा वे कर्म एक वर्ष की तपस्या में निर्जरा को प्राप्त हो जाते हैं।

दानेन पूजया साधुः शोभते गृहिणां तपः।
ज्ञानेन क्षमया राग-द्वेषत्यागेन योगिनाम्।।9।।

अर्थ- दान-पूजा से गृहस्थों का तप सुशोभित होता है एवं ज्ञान, क्षमा तथा राग-द्वेष के त्याग से साधुओं का तप सुशोभित होता है।

यावत् स्वास्थ्यं शरीररस्य, यावच्चेन्द्रियसम्पदः।
तावद् युक्तं तपः कुर्तुम्, वार्धक्ये केवलं श्रमः।।10।।

अर्थ- जब तक शरीर स्वस्थ है और इन्द्रियां समर्थ है तब तक तप करना योग्य है वृद्धावस्था में तप करना केवल परिश्रम के लिए होता है।

बाह्यं तपः षड्विधमात्मशक्त्या, तथाऽन्तरंग सकलंविभाक्त्या।
कर्मेन्ध दाहोध्र्वगतिप्रकाशकं, विधीयतां पावकसन्निकाशम्।।11।।

अर्थ- कर्म रूपी ईन्धन को जालने के लिए अग्नि के समान एवं उध्र्वगति का प्रकाशक छह प्रकार का अंतरंग एवं छह प्रकार का बहिरंग तप शक्ति के अुनसार करना चाहिए।

तत्तपोऽमिभतं बाह्य, येन चेतो न दुष्यति।
जायते येन च श्रद्धा, येन योगक्षति र्च न।।12।।

अर्थ- जिससे मन दूषित न हो, श्रद्धा उत्पन्न हो, ध्यान में बाधा न आये, वह बाह्य तप माना गया है।

बाह्यैस्तपोभिः कायस्य कर्शनादक्षमर्दने।
छिन्नबाहु र्भट इव, विक्रामति कियन्मनः।।13।।

अर्थ- बाह्य तपो के द्वारा शरीर के कृश तथा इन्द्रियों का दमन हो जाने पर बाहु कटे योद्धा की तरह मन कितना पुरूषार्थ करता है अर्थात शरीर के कृश और इन्द्रियों के दमन हो जाने पर मन शान्त हो जाता है।

वशे यथा स्युरक्षाणि, नैव धावन्ति चोत्पथं।
तथा प्रयतितव्यं स्याद् वृतिमाश्रित्य माध्यमाम्।।14।।

अर्थ- उस प्रकार की मध्यम वृत्ति का आश्रयम करके प्रयत्न करना चाहिए। जिससे इन्द्रियां वश में हो जाय एवं खोटे मार्ग न दौडे।

अहर्निशं जागरणोद्यतो जनः श्रमं विधत्ते विषयेच्छया यथा।
तपः श्रमं चेत् कुरूते तथा क्षणं किमश्नुतेऽनन्तसुखं न पावनम्।।15।।

अर्थ- जैसे मनुष्य विषय प्राप्ति की इच्छा से दिन-रात जागृत रहकर श्रम करता है। उस प्रकार यदि तपश्चरण में एक क्षण भी परिश्रम करें तो क्या पवित्र अनन्त सुख को प्राप्त नहीं होगा? अर्थात् अवश्य होगा।

यद्यन्तर्निहितानि खानि, तपसा बाह्योन किं फल्गुना,
नैवान्तर्निहितानि खानि, तपसा बाह्येन किं फल्गुना।
यद्यन्तर्बहिरन्यवस्तु, तपसा बाह्येन किं फल्गुना,
नैवान्तर्वहिरन्यवस्तु, तपसा बाह्येन किं फल्गुना।।16।।

अर्थ- यदि इन्द्रियां वश् में हैं तो बाह्य तप से क्या प्रयोजन है, यदि इन्द्रियां वशमें नहीं है तो बाह्यतप से क्या प्रयोजन। यदि अंतरंग में बाह्य वस्तु से राग है तो बाह्य तप से क्या प्रयोजन है? यदि अंतरंग में बाह्य वस्तु से राग नहीं है तो बाह्य तप से क्या प्रयोजन है?

आगम सम्मत आहार ग्रहण करने का फल
दोषहरणायेष्टाः हि, उपवासाद्युपक्रमाः।
प्राणसंधारणायाऽयं, आहारः सूत्रदर्शितः।।17।।

अर्थ- दोषों का नाश करने के लिए उपवास आदि कहे गये हैं और प्राणों की स्थिति के लिए आगम में आहार ग्रहण कहा गया है।

सिद्ध्यै संयमयात्राया स्तत्तनुस्थितिमिच्छुभिः।
ग्राह्योनिर्दोष आहारो, रसासंगाद् विनर्षिभिः।।18।।

अर्थ- संयम की यात्रा की सिद्धि के लिए शरीर की स्थिति के इच्छुक साधुओं को रस आदि गरिष्ठ पदार्थों के बिना निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए।

संयमादिप्रसिद्धयर्थं, रागविच्छेदनाय च।
कर्मनिर्मूलनायाहु, राद्यं त्वनशनं तपः।।19।।

अर्थ- संयम की प्रसिद्धि के लिए, राग का उच्छेद करने के लिए तथा कर्मों का नाश करने के लिए पहना अनशन तप कहा गया है।

यदज्ञानेन जीवने, कृतं पापं सुदारूणम्।
उपवासने तत्सर्व, दहत्याग्निरिवेन्धनम्।।20।।

अर्थ- जीव ने अज्ञानता पूर्वक जो भयंकर पाप किये थे वे सभी पाप उपवास से उस प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार अग्नि से ईन्धन जल जाता है।

जीवेन यानि पापानि समुपात्तानि संसृत्तौ।
संहरेत् प्रोषधस्तानि, हिमवत् पद्मसंचयम्।।21।।

अर्थ- जीव ने संसार में जो पापों का संचय किया है उन सभी पापों को प्रोषधो पवास उस तरह नष्ट कर देता है जिस प्रकार तुषार कम लवन को नष्ट कर देता है।

उपेत्यक्षाणि सर्वाणि, निवृत्तानि स्वकार्यतः।
वसन्ति यत्र स प्राज्ञै, रूपवासोऽभिधीयते।।22।।

अर्थ- समस्त इन्द्रियों जहां पर अपने विषयों से विमुख होकर आत्मा में वास करती है वह बुद्धिमानों के द्वारा उपवास कहा जाता है।

विषयाहारकषायाणां, त्यागो यत्र विधीयते।
उपवासः स विज्ञेयः, शेषं लड्. घनकं विदुः।।23।।

अर्थ- जहां पर पांचों इन्द्रियों के विषयों का चारों प्रकार के आहार का और चारों कषायों का त्याग किया जाता है वह उपवास कहलाता है शेष को लंघन जानना चाहिए। दाल, चांवल, रोटी आदि के खाद्य, पान इलायची आदि को स्वाद्य, चटनी, रबडी आदि को लेह्या और दूध पानी आदि को पेय कहते हैं, ये चार प्रकार के आहार कहलाते हैं।

एक्कं पि णिरारंभो उपवासं जो करेदि उपसंतो।
बहुभवसंचिय कम्मं, सो णाणी खवदि लीलाए।।24।।

अर्थ- जो शांत आत्मा आरम्भ रहित एक भी उपवास करता है। वह ज्ञानी अनेक भावों के संचित कर्मों को अनायास ही नष्ट कर देता है।

उववासं कुव्वंतो आरंभं जो करेदि मोहादो।
सो णियदेहं सोसदि, ण झाडए कम्मलेसं पि।।25।।

अर्थ- जो व्यक्ति उपवास के दिन मोह के कारण आरंभ करता है। वह अपने शरीर का शोषण करता है, कर्मों की जरा भी निर्जरा नहीं करता है।

शक्ति के बिना उपवास का फल

प्रसिद्धमन्नं वै प्राणा, नृणां तत् त्याजितो हठात्।
नरो न रमते ज्ञाने, दुध्र्यानार्तो न संयमे।। 26।।

अर्थ- अन्न मुनष्यों के प्राण के रूप में प्रसिद्ध है, उसका हट पूर्वक त्याग कराने पर मनुष्य आर्त ध्यान से पीडित होकर ज्ञान संयम में लीन नहीं होता है। जो स्वयं भोजन नहीं करता, अन्य को कराता है और दूसरे के भोजन की मन-वचन-काय से अनुमोदना करता है वह स्वयं भूख से पीडित होता हुआ मन से आहार की इच्छा करने लगता है कि मुझे आहार कौन करायेगा? सरस आहार कहां प्राप्त होगा अथवा सरस आहार के बिना परिश्रम नहीं होगा? मैंने यह संताप करके व्यर्थ का अनुष्ठान किया आगे नहीं करूंगा ऐसा मन में संकल्प करना अनशन तपक अतिचार है।

दोषप्रशमसंतोष, स्वाधयायायदिप्रसिद्धये।
द्वितीयमवमोदर्यं, तपः सद्रिभः प्रशस्यते।।27।।

अर्थ- दोषों के शमन के लिए, संतोष की प्रप्ति के लिए, स्वाध्याय आदि की प्रसिद्धि के लिए दूसरा अवमैदर्य तप विद्वानों ने माना है। आहार सम्बन्धी गृद्धता को कम करने के लिए अपने आहार से कम खाना अवमौदर्य कहलाता है। एक ग्रास कम खाना जघन्य तथा एक ग्रास मात्र खाना उत्कृष्ट अवमौदर्य कहलाा है। इसतप से निद्रा विजय, आसन की स्थिरता, ग्लानि की हानि, ध्यान, श्रुत अध्ययन, अनशन सम्बंधी श्रम का अभाव होता है।

एकागारादिविषयः, संकल्पश्चित्तरोधकः।
तद्वृत्तिपरिसंख्यानं, तृतीय कथ्यते तपः।।28।।

अर्थ- एक घर, मुहल्ला, चैराहा आदि नाना प्रकार का मन को वश में करने वाला नियम लेना तीसरा वृत्ति परिसंख्यान नामक तप कहलाता है। इस तप से साधुओं का धैर्य दिखाई देता है, लोलुपता आशा आदि दोष नष्ट होते हैं। नियम लेकर बदल लेना वृत्तिपरिसंख्यान तप का अतिचार है।

रसत्यागो भवेत्तैल-क्षीरेक्षु दधि सर्पिषाम्।
स्वाध्याय सुख सिध्यर्थ, - मक्ष दर्प प्रशान्तये।।29।।

अर्थ- तैल, दूध, मीठा दधि, घी, नमक इन रसों का त्याग सुखपूर्वक स्वाधय की सिद्धि तथा इन्द्रियों को वश में करने के लिए किया जाता है। इस तप से इन्द्रिय मद का निग्रह, निद्राविजय स्वाध्याय आदि की सुख पूर्वक सिद्धि होती है ऐसा जानकर शक्ति अनुसार एक, दो, तीन आदि रसों का त्याग करना चाहिए। रस त्याग करके भी उसकी अभिलाषा रखना दूसरों को सरस आहार कराना उसकी अनुमोदना करना रस परित्याग तप का अतीचार है।

शून्यागारादिषु ज्ञेयं, साधु शय्यासनादिकम्।
पंचमं तत्तपः साधो र्विविक्त शयनासनम्।।30।।

अर्थ- एकान्त तथा जीवरहित गृहादिक में शयन आसन स्वाध्याय आदि करना साधु का पांचवां विविक्त शय्यासन नाम का तप है इस तप से बाधा रहित ध्यान अध्यययन ब्रह्मचर्य आदि की सिद्धि होती है। ध्यान अध्ययन में बाधक असंयम कारक स्थान में निवास करना विविक्त शय्यासन तप का अतिचार है।

योगैस्त्रैकालिकै र्नित्य-मुपवासादिषूद्यमः।
साधेः साधुभिरित्युक्तं, तपः षष्ठमनन्दितम्।।31।।

अर्थ- मन, वचन, काय से ग्रीष्म, वर्षा और शीत ऋतु में उपवासादि तप में उद्यम रखना मुनियों के द्वारा साधुओं का षष्ठम् कायक्लेश नाम का तप कहा गया है।

गर्भात् प्रभृत्यसौ देवो, ज्ञानत्रयमुद्वहन्।
दीक्षानन्तरमेवाप्त, मनःपर्ययबोधनः।।32।।

अर्थ- तीर्थंकर गर्भ में ही तीन ज्ञान लेकर आते हैं किंतु मनःपर्यय ज्ञान संयम लेने के बाद ही प्राप्त होता है।

तथाप्युग्रं तपोऽतप्त, सिद्धत्वे धु्रव भाविनि।
सज्ज्ञानलोचनो धीरः सहस्रं वार्षिक परम्।
तेनाऽभीष्टं मुनीन्द्राणां, कयक्लेशाह्वयं तपः।
तपोऽगंषु प्रधानांग-मुत्तामांगमिवांगीनाम्।।33।।

अर्थ- जिन्हें मुक्ति प्राप्त होना निश्चित थी ऐसेसम्यग्ज्ञानी धीर वरी आदिनाथ भगवान ने भी एक हजार वर्ष तक उग्र तपश्चरण कियाथ इसलिए मुनियों ने कायक्लेश को तप का प्रधान अंग मानाहै। जैसे मस्तक प्राणियों का उत्तम अंग माना जाता है।

ग्रीष्म ऋतु में धूप में, वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे, शीतऋतु में निरावण चैराहे नदी के किनारे आदि में नाना आसन से बैठना कायक्लेश तप है। इस तप से शरीर में दुःख सहने की क्षमता, शरीर सुख का त्याग और जिन धर्म की प्रभावना होती है। परीषह और तप मुनियों द्वारा कर्म नाश के लिए स्वयं किये जाते हैं। गर्मी से पीडित होकर पूर्व अनुभूत शीतल वस्तु की इच्छा करना, कठोर तप से द्वेष करना, शीतल प्रदेश से शरीर मार्जन किये बिना धूप में प्रवेश करना, धूप से संतप्त शरीर का मार्जन किये बिना छाया में प्रवेश करना काय क्लेश तपक ा अतिचार है। शुभ ध्यान के लिए, दुःख सहने के लिए, तथा विषयों में आसक्ति नष्ट करने के लिएकाय क्लेश तप किया जाता है।

इहपरलोय सुहाणं, णिरवेक्खो जो करेदि समभावो।
विविसं काय किलेहं तव धम्मो णिम्मलो तस्य।।34।।

अर्थ- जो इस लोक परलोक के सुखों की इच्छा के बिना समता पूर्वक नाना प्रकार से कायाक्लेश तप करता है उसके निर्मल धर्म होता है।

अष्टमी पर्व का माहात्म्य

अष्टम्यामुपवासं हि, ये कुर्वन्ति नरोत्तमाः।
हत्वा कर्माष्टकं तेऽपि, यान्ति मुक्तिं सुदृष्टयः ।।35।।

अर्थ- जो सम्यग्दृष्टि उत्तम पुरूष अष्टमी को उपवास करते हैं, वे आठों कर्मों को नष्ट कर मोक्ष को प्राप्त होते हैं।

यः पर्वण्युपवासं हि, विधत्ते भावपूर्वकं।
नाकराज्यं च संप्राप्य, मुक्तिनारीं वरिष्यति।।36।।

अर्थ- जो मनुष्य पर्व के दिनों में भाव पूर्वक उपवास करते हैं, वे स्वर्ग साम्राज्य को प्राप्त कर मुक्ति स्त्री का वरण करेंगे।

चतुर्दशी पर्व का माहात्म्य

चतुर्दश्यां समं पर्व, नास्ति कालत्रये वरम्।
धर्मयोग्यं महापूत-मुपवासादिगोचरम्।।37।।

अर्थ- उपवास आदि पवित्र धार्मिक कार्यों के लिए तीनों कालों में चतुर्दशी के समानदूसरा श्रेष्ठ पर्व नहीं है।

प्राणान्तेऽपि न मोक्तव्यश्चतुर्दश्यां हि धीधनैः।
उपवासोऽतिधर्मार्थकाममोक्षफल-प्रदः।।38।।

अर्थ- बद्धिमानों को प्राणों का अंत होने पर भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला चतुर्दशी का उपवास नहीं छोड़ना चाहिए।

एवं यः प्रोषधं कुर्यात् सर्वंहिंसादिवर्जितम्,
क्षिपेद् वैराग्यमापन्नः, एनः संख्या विविर्जितम्।
तपसाऽलंकृतो जीवो यद् यद् वस्तु समीहते,
तत् तदेव समायाति भुवनतृतीये धु्रवम्।।39।।

अर्थ- इस प्रकार जो समस्त हिसां से रहि वैराग्य को प्राप्त होकर प्रोषध करता है वह असंख्यात कर्मों की निर्जरा करता है। तप से अलंकृत जीव तीन लोक में जिस वस्तु की इच्छा करता है वह उसे प्राप्त हो जाती है।

इच्छा से सहित तप का फल

पूजा लाभ प्रसिद्धयर्थं तपस्तप्येत योऽल्पधीः।
शोधः एवं शरीरस्य न तस्य तपसः फलम्।।40।।

अर्थ- जो अज्ञानी खयाति, पूजा, लाभ के लिए तपश्चरण करता है। वह मात्र शरीर को सुखाता है उस तप काफल नहीं मिलताहै। विवके के बिना जो तप तपा जाता है वह शरीर को संताप करने वाला है। तपक ा प्रभाव अचिन्त्य होता है केवल ज्ञानकी प्राप्ति तप का फल है। प्रमाद, निद्रा काम परविजय पाने के लिए साधुओं के द्वारा तप किया जाता है। अनेक प्रकार की ऋद्धियां और मनः पर्ययज्ञान निर्दोष उग्र तप से उत्पन्न होता है। स्वर्ग मोक्ष का सुख तप का फल है। जिनेन्द्र भगवान ने तप निर्जरा के लिए कहा है। तप वर्तमान में आने वाले कर्मों का संवर भी करता है।

तपः फलति कल्याणं, कृतमल्पमपि स्फटं।
बहुशाखोपशाखाढ्यं, बटीबीजं यथा वटम्।।41।।

अर्थ- जैसेवट का बीज अनेक शाखा उपशाखा से सहित विशाल वटवृक्ष्ज्ञ बनता है उसी प्रकार थोड़ा भी तप बहुत कल्याण को फलता है।

प्रायश्चित का लक्षण

प्रायः प्राणी करोत्येव, यत्र चित्तं सुनिर्मलं।
तदाहुः शब्दसूत्रज्ञाः, प्रायश्चित्तं यतीश्वराः।।42।।

अर्थ- जिससे प्राणी मन की शुद्धि करता है उसे सूत्र के ज्ञाता मुनि प्रायश्चित कहते हैं।

आलोचना- प्रसन्न चित्त एकान्त में स्थित देश काल में ज्ञाता गुरू से सरल बुद्धि बालक की तरह सविनय शिष्य के द्वारा जो प्रमाद से हुए दोष का दश दोष रहित निवेदन किया जाता है उसे आलोचना कहते हैं। आलोचना के बिना बहुत भारी तप भी भंवर के साथ होने वाली निर्जरा को नहीं करता है। जैसे पूर्व मन का विरेचन किये बिना औषधि पेट के लिए गुणकारी नहीं होती है।

यथा दोषं यथाम्नायं, दत्तं सद्गुरूणा वहन्।
रहस्यमन्तर्भात्युच्चैः, शुद्धादर्श इवाननम्।।43।।

अर्थ- दोष एवं आम्नाय के अनुसार सद्गुरू के द्वारा दिए हुए प्रायश्चित्त को करने वाले साधक का चारित्र निर्मल दर्पण में चेहरे की भांति सुशोभित होता है।

प्रतिक्रमण- ’’मेरे पाप मिथ्या हो’’ इस तरह उच्चारण कर अपराध प्रकट करना प्रतिक्रमण कहलाता है।

तदुभय- कुछ दुःस्वप्न आदि कृत दोष आलोचना से शुद्ध होते हैं, कुछ प्रतिक्रमण से तथा कुछ दोनों से शुद्ध होते हैं। यह तदुभय नामक तप कहलाता है।

विवेक- अन्नपान और उपकरण आदि का त्याग करना विवके है।

व्युत्सर्ग- काल का नियम करके कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग है।

तप- अनशन और अवमोदर्य आदि तप है।

छेद- चिरप्रव्रजित साधु की अमुक दिन पक्ष और माह आदि की दीक्षा का कम करना छेद कहलाता हे।

परिहार- पक्ष, माह आदि तक घर से बाहर रखना परिहार है।

उपस्थापना- महाव्रतों का मूलच्छेद करके दीक्षा देना उपस्थापना है।

विनय का लक्षण

स्यात् कषाय हृषीकाणां विनीतेर्विनयोऽथवा।
रत्नत्रये तद्वति च, यथा योग्यमनुग्रहः।।44।।

अर्थ- कषाय और इन्द्रियो पर विजय प्राप्त करना, रत्नत्रय का निर्दोष पालन करना तथा रत्नत्रय के धारक साधु साधकों का यथायोग्य उपचार आदर करना विनय तप कहलाता है।

विनय रहित शिक्षा की विफलता

शिक्षा हीनस्य नटवल, लिंगामात्म विडम्बनम्।
अविनीतस्य शिक्षापि खलमैत्रीव किंफला।।45।।

अर्थ- श्ज्ञिक्ष से रहित चारित्र नट की तरह आत्म विडम्बना मात्र है एवं विनय रहित शिष्य की मित्रता भी खल की मित्रता की तरह खोटे फल को देने वाली है।

लोकानुवर्तना हेतुस्तथा कामार्थ हेतुकः।
विनयो भयहेतुश्च, पंचमो मोक्षसाधनः।।46।।

अर्थ- विनय लोकाचार का हेु है काम, अर्थ का निमित्त है, भय का कारण है एवं विनय ही मोक्ष का साधन है। विनय के 5 भेद है।

दर्शन विनयः

शंकादि दोषों से रहित, निःशंकित आदि अंगों से सहित, भक्ति आदि में उद्यम करना दर्शन विनय है।

दोषों के उच्चछेद और गुणों के ग्रहण में प्रयत्न करना दर्शन विनय है। तत्वार्थ की रूचि एवं मलों के अभाव में यत्न करना दर्शनाचार है।

ग्रन्थार्थोंभय पूर्ण काले विनयेन सोपधानं च।
बहुमानेन समन्विमनिह्वं ज्ञानमाराध्यम्।।47।।

अर्थ- शब्दाचार, अर्थाचार, उभयाचर, कालाचर, विनयाचार, उपधानाचार बहुमानाचार, अनिहनवाचार इन आठ अंगों का पालन करते हुए ज्ञान की आराधना करना ज्ञान विनय है।

निर्दोष चारित्र का पालन करना चारित्रवान के प्रति बहुमान होना चारित्र विनय है। उपचार विनय-मन, वचन, काय के भेद से तीन प्रकार की है तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष की अपेक्षा दो भेद है।

विनय का फल

समस्ताः सम्पदः सद्यो विधाय वशवर्तिनीः।
चिन्तामणि रिवाभीष्टं, निवनयः कुरूते न किम्।।48।।

अर्थ- विनय समस्त सम्पत्ति को शीघ्र ही वश में कर देती है। विनय चिन्तामणि के समान कौन से इच्दित फल को नहीं देती अर्थात सब कुछ देती है।

विनयं न विना ज्ञानं, दर्शनं चारित्रं तपः।
कारणेन विना कार्य, जायते कुत्र क थ्यताम्।।49।।

अर्थ- विनय के बिना ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप नहीं होता। क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता ? अर्थात् विनय कारण है दर्शन ज्ञान चारित्र तप की प्राप्ति कार्य है।

वैय्यावृत्ती का लक्षण

क्लेशसंक्लेशनाशायाचार्यादि दशकस्य यः।
व्यावृत्तस्तस्य यत्कर्म, तद् वैयावृत्यमाचरेत्।।50।।

अर्थ- आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु, मनोज्ञ इन दस प्रकार के साधुओं के शारीरकि क्लेश तथा मानसिक संक्लेशों के निराकरण के लिए जो मन, वचन, काय की प्रवृत्ति की जाती है। यह वैय्यावृत्ति कहलाती है।

गृहस्थों को संयमी साधुओं की शारीरिक ज्वर, कोढ़, भूख, प्यास आदि तथा क्रोध मान आदि मानसिक व्याधि का प्रतीकार करना चाहिए।

स्वाध्याय का लक्षण

नित्यं स्वाध्यायमभ्यस्येत् कर्म निर्मूलनोद्यतः।
सः हि स्वस्मै हितोऽध्यायः, सम्यग्ध्ययनं श्रुतेः।।51।।

अर्थ- जो आत्मा का हितकारी अध्ययन है अथवा श्रुत का जो समीचीन अध्ययन है ऐसा कर्मों को जड से उखाड़ने में समर्थ स्वाध्याय निरंतर करना चाहिए। उसके पांच भेद है।

वाचना- पाप क्रिया से विरत गुरू शास्त्र और उसके अर्थ का जो व्याख्यात करते हैं उसे ’वाचना’ कहते हैं। उसके भी चार भेद है।

1. पूर्वापर विरोधरहित शास्त्र का कथन करना ’जया’ नाम की वाचना कहलाती है।

2. पूर्व का पक्ष बनाकर पर दर्शनों का निराकरण कर स्व पक्ष का स्थापन करने वाली व्याख्या ’नंदा’ कहलाती है।

3. पूर्वापर वरोध रहित आगम और युक्ति के द्वारा, आगमानुकूल सम्पूर्ण व्याख्या करना भद्रा नाम की वचना कलाी है।

(घ) कहीं -कहीं स्खलित वृत्ति से व्ख्याख्या करना ’सौम्य’ वाचना कहलाती है

पृच्छना - शास्त्र अर्थ का एकाग्र मन से पुनःपुनः अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है।

अम्नाय - तालु आदि उच्चारण के स्थान विशेष से शब्द का शुद्ध उच्चारण करना ’आम्नाय’ है।

धर्मोपदेश- एक लोक-पर लोक के स्वकीय प्रयोजन बिना खोटे मार्ग का सन्देह दूर कर केवल आत्म कल्याण के लिए महापुराण आदि धर्म कथा का व्याख्यान करना धर्मोपदेश कहलाता है धर्म कथा के चार भेद है।

आक्षेपणीं स्वमतसंग्रहणीं समेक्षी, विक्षेपणीं कुमतनिग्रहणीं यथार्हम्।
संवेजनीं प्रथयितुं सुकृतानुभावं, निर्वेदनीं वदतु, धर्मकथां विरक्त्यै।।52।।

अर्थ- स्वमत का स्थापना करने वाली ’आक्षेपणी’ खोटे मत का निराकरण करने वाली ’विक्षेपणी’ पुण्य के प्रभाव को बताने वाली ’निर्वेदनी तथा संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति दिलाने वाली ’निर्वेदनी’ कथा कहना चाहिए।

सर्वेभ्योऽपि व्रतेभ्योऽयं, स्वाध्याय$ परमं तपः।
यतः सर्वव्रतानां हि, स्वाध्यायो, मूलमादितः ।।53।।

अर्थ- समस्त व्रतों में स्वाध्याय परम तप है, क्योंकि स्वाध्याय समस्त व्रतो की जड़ माना गया है।

स्वाध्याय का फल

स्वाध्याय से ज्ञान होता है, ज्ञानसे तत्वार्थ का संग्रह होता है, तत्वार्थ के संग्रह से तत्व विषयक श्रद्धान होता है तथा निर्मल चारित्र होता है अतः स्वाध्याय रत्नत्रय का मूल माना गया है। स्वाध्याय प्रशस्त अध्यवसय की वृद्धि का कारण है उससे प्राणियों के निन्द्रयनीय संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। स्वाध्याय से संवेग उत्पन्न होता है। मोह रूपी अन्धकार नष्ट होता है। तथा मोह रहित जीव को संसार के दुःख कैसे प्राप्त हो सकते हैं, अर्थात् नहीं हो सकते, स्वाध्याय के समान कोई दूसरा कर्मों के क्षपण में समर्थ नहीं है, जिसके संयोग मात्र से मनुष्य कर्म से छूट जाता है।

व्युत्सर्ग का लक्षण

उत्सृज्य कायकर्माणि, भावं च भकारणं।
स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते।।54।।

अर्थ- संसार के कारण शारीरिक चेष्ट तथा भावों को छोड़कर एकाग्रता पूर्वक शरीर से विरक्त तीन गुप्ति के धारक शरीर भिन्न आत्मा का ध्यान करने वाले मुनि व्युत्सर्ग तप के धारक होते हैं।

व्युत्सर्ग तप का फल

व्युत्सर्ग तप से निषंगता, जीवन की आशा का अंत, निर्भयता, दोषों का अभाव, मोक्ष प्राप्ति की भावना उत्पन्न होती है।

ध्यान के भेद

1. अनिष्ट पदार्थ का संयोग होने परउसेदूर करने के लिए बार-बार विचार करना प्रथम अनिष्ट संयोगज नाम आर्तध्यान है।

2. स्त्री पुत्र आदि इष्टजनों का वियोग होने पर उनके संयोग के लिए बार-बार चिन्ता करना द्वितीय इष्ट वियोगज नामक आर्तध्यान ह।

3. वात-पत आदि विकारों के हाने पर उसके नाश का चिंतन करना अथवा स्वप्न में भी थोड़ा भी रोग न हो ऐसी चिंता करना तृतीय वेदना जन्य नामक आर्तध्यान है।

4. इष्ट भोग की सिद्धि अथवा शत्रु घात के लिए संकल्प करना, तप, चारित्र, दान, पूजा, धम्र्य ध्यान आदि करके इस लोक में स्त्री पुत्र आदि सम्पत्ति तथा पर लोक में स्वर्ग राज्यादि की इच्छा करना चतुर्थ निदान नामक आत्र्तध्यान है।

आर्तध्यान के हाह्य चिन्ह

शंका, शोक, भय, प्रमाद, कलह, चित्त, भ्रम, उन्माद, विषय उत्सुकता, अनेक बार निद्रा, अंग जड़ता, श्रम, मूर्छा आदि ये आर्त ध्यान से बाह्य चिन्ह हैं।

रौद्र ध्यान का स्वरूप

हिंसानंद- जीवों के पीडित, ध्वस्त, दुःखी होने पर हर्ष मानना, हिंसा कर्म मे निपुणता पापोपदेश में दक्षता, निर्दय लोगों की संगति, स्वाभाविक क्रूरता, हिंसा के उपकरण का दान, क्रूर प्राणियों पर दया, बदले की भावना का होना हिंसानंद रौद्र ध्यान है।

अनेक असत्य संकल्पै र्यंः, प्रमोद प्रजायते।
मृषानन्दत्मकं रौद्रं, तत्प्रणीतं पुरातनैः।।55।।

अर्थ- अनेक असत्य संकल्पों से जो हर्ष होता है। वह मृषानंद नाम का रौद्र ध्यान ज्ञानियों ने बतलाया है।

मृषानंद- निर्दयी मार्ग का उद्देश्य करके खोटे शास्त्र बनाकर लोगों को कष्ट में डालकर मैं सुखी हो जाऊंगा एवं असत्य की सामथ्र्य से शत्रु राजाओं को अथवा अन्य को मारूंगा हो जाऊंगा एवं असत्य सामथ्र्य से शत्रु राजओं को अथवा अनरू को मारूंगा तथा निर्दोष लोगों को दोष लगाना इत्यादि मृषानन्द रौद्र ध्यान है।

चैयानंद - चोरी का उपदेश देना चोरी करने में चतुर होना, मात्र चोरी में ही मन लगाना चोरी करके हर्षित होना चोर के द्वारा लाये हुये धन में संभ्रम होना मृषानंद रौद्रध्यान है।

गन्धरू परसस्पर्श - शब्द संरक्षणाय।
क्रूरभावे मनोरोधश्चतुर्थरौद्रमुच्यते।।56।।
मदीयया वस्तु सद्राज्यं-रामासेनादि संपदः।
यो हरेत् तं दुरात्मानं, हन्मि पौरूष योगतः।।57।।

अर्थ- परिग्रहानंद गन्ध रूप रस स्पर्श शब्द आदि के संरक्षण के लिए क्रूर भाव से मन का एकाग्र होना परिग्रहानंद रौद्र ध्यान है।

मेरी वस्तु, राज्य, स्त्री, सेना आदि संपत्ति को जो चुरायेगा उसे मैं पुरूषार्थ पूर्वके मारूंगा इत्यादि वस्तुओं के संरक्षण के लिए मन में संकल्प करना रौद्र ध्यान है।

रौद्र ध्यान के बाह्य चिन्ह

अंकार की तरह नेत्र होना, भृकुटी का टेडा होना, मुख की भयंकर आकृति होना, शरीर कांपने लगना, पसीना आ जाना कठोर दंड देना, कठोर वंचना करना आदि रौद्र ध्यान के बाह्य चिन्ह है।

रौद्र ध्यान के अंतरंग चिन्ह

दूसरे का अत्यंत अपकार चाहना, दूसरे को कष्ट में पड़े देखकर सन्तुष्ट होना, गुणवानों से द्वेष करना, दूसरे की विभूति देखकर सशल्य होना रौद्र ध्यान के अंतरंग चिन्ह है।

धर्मध्यान के चिन्ह

शास्त्राभ्यासो भवेन्नित्यं, देवार्चा गुरूवन्दनं।
इत्थं प्रवर्तते यत्र, धर्मध्यानं तदुच्यते।।58।।

अर्थ- जहां नित्य शास्त्रों का अभ्यास होता है, देव की पूजा गुरू की वन्दना की जाती है वहां धम्र्यध्यान होता है।

धर्म ध्यान से मनुष्य क्रमशः स्वर्ग और मोक्ष के सुखों को प्राप्त होते हैं।

गुप्तेन्द्रिय मना ध्याना, ध्येयं वस्तु यथास्थितं।
एकाग्र चिन्तनं ध्यानं, निर्जरासंवरौ फलम्।।59।।

अर्थ- इन्द्रिय और मन को वश में करने वाला ध्यान कहलाता है यथा वस्थित वस्तु ध्येय कहलाती है एकाग्र मन से चिन्तव करना ध्यान कहलाता है तथा संवर और निर्जरा ध्यान के फल हैं।

शुभ ध्यान का फल

शुभध्यानफलोद्भूतां, श्रियं त्रिदशसंभवाम्।
निर्विशन्ति नरा लोके, क्रमाद् यान्ति परं पदम्।।60।।

अर्थ- इस लोक में मनुष्य शुभ ध्यान के फल से स्वर्ग में विभूति को प्राप्त होता है और क्रमशः मोक्ष सुख को प्राप्त होता है।

शुभ ध्यान की प्रशंसा

नास्ति ध्यान समो बन्धु नास्ति ध्यान समो गुरूः।
नास्ति ध्यानसमं मित्रं नास्ति ध्यानसमं तपः।।61।।

अर्थ- ध्यान के समान कोई बन्धु नहीं है ध्यान के समान कोई गुरू नहीं है ध्यान के समान कोई मित्र नहीं है और ध्यान के समान कोई तप नहीं हे।

ध्यानकल्पतरूलोके ज्ञानपुष्पैः सुपुष्पितः।
मोक्षामृतफलै र्नित्यं, फलितोऽयं सुखप्रदः।।62।।

अर्थ- इस लोक में ज्ञान रूपी पुष्पों से पुष्पित हुआ ध्यान रूपी कल्पवृक्ष हमेशा सुख देने वाले मोक्ष रूपी फल को फलता है।

जन्मलक्षार्जितं कर्म ध्यानाभ्यासेन योगिनः।
तमः सूर्योदयेनैव सर्वं नश्यति तत्क्षणात्।।63।।

अर्थ- लाखों जन्मों में अर्जित किये कर्म रूपी अन्धकार को योगी ध्यान रूपी सूर्य से क्षण भर में नष्ट कर देते हैं।

ध्याता का लक्षण

विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहां।
यस्य चित्तं स्थिरी भूतं स हि ध्याता प्रशस्यते।।64।।

अर्थ- पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त शरीर में ममत्व रहित जिसका मन स्थिर होता है वह ध्याता प्रशंसनीय होता है।

आत्म ध्यान का प्रभाव

भूमौ जन्मेति रत्नानां, यथा सर्वत्र नोद्भवः।
तथाऽऽत्मजमिति ध्यानं सर्वत्रांगिनि नोद्भवेत्।।65।।

अर्थ- जैसे पृथ्वी पर सर्वत्र रत्नों की उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार आत्मा से उत्पन्न होने वाला ध्यान समस्त प्राणियों को नहीं होता है।

यथा वन्हिलवेनापि, दह्यन्ते दारूसंचयः।
कर्मेन्धनानि दह्यन्ते तथा ध्यानलवेन तु।।66।।

अर्थ- जैसे अग्नि की कणिका से भी ईन्धन का समूह जल जाताहै वैसे ही ध्यान से भी कर्म रूपी ईन्धन जल जाता है।

बुभुक्षामत्सरानंग मानमायाभय क्रुधाम्।
निद्रा लोभादिकानां च, नाशः स्यादात्म चिन्तनात्।।67।।

अर्थ- आत्मा का चिन्तन करने से भूख, मात्सर्य, काम, माना माया, भय, क्रोध, निद्रा, लोभ आदि का नाश हो जाता है।

ध्यान की प्रेरणा

एषाऽस्ति रीति र्भुवने प्रसिद्धा सन्तापशान्त्यै च जलस्य संग।
शीतोत्थ पीडा परिहार हेतो- रूष्णोपचारः क्रियते यथा हि।।68।।

रोगोपशान्त्यै ह्यगदोपचारो, द्वारप्रयोगो गृह रक्षाणार्थम्।
विद्यादि सिद्धयै विदुषां सुसंगः त्यागः कुबुद्धे परलोक सिद्धयै।69।।

बल प्रयोगो रिपुरोधनार्थं जगदवशार्थं प्रियसत्य भाषा।
विराग हेता र्जिननाथ सेवा, चित्तोपशान्त्यै निज तत्व चर्या।।70।।
तथैव भव्येन त्वया सदा हि, स्वानन्द सिद्धयै निज ध्यान योगः।

अर्थ- यह रीति जगत में प्रसिद्ध है, कि जिस प्रकार ताप की शांति के लिए जल का प्रयोग, शीत के उपचार के लिए अग्नि का प्रयोग, घर के रक्षा के लिए द्वारा का प्रयोग, विद्या की सिद्धि के लिए विद्वानों की संगति, परलोक की सिद्धि के लिए कुबुद्धि का त्याग, शत्रु के निरोध के लिए बन का प्रयोग, जगत को वश में करने के लिए प्रिय और सत्य भाषा का प्रयोग, वैराग्य के लिए जिनेन्द्र भगवान की सेवा तथा मन की शांति के लिए आत्म तत्व की चर्चा की जाती है उसी प्रकार हे भव्य! तुम्हें निजी आनन्द की प्राप्ति के लिए आत्मा का ध्यान करना चाहिए।  

उत्तम तप धर्म - कथानक

1. माटी का कुंभ जब अग्नि में पक गय तो लोग उसके मंगल कलश के रूप में मान सम्मान देने लगे तो एक दिन माटी ईष्र्या से जल उइी जमीन में पड़ी मिट्टी सोचती है कि मैं कहां पददलित अंचिन सी बनी हूं और यह कलश कहां मान सम्मान पूर्वक शिरमौर बना हुआ है। कुंभ को इतना मान सम्मान क्यों? जबकि अंश एक सा, वंश एक सा, फिर ऐसा पक्षपात क्यों? तब कुंभ बोला - मैंने साधना के मार्ग को चुना है, तपन को सहा है। साधना की उन्नति ही, सिद्धि का मार्ग है। मेरी कहानी सुनो- पहले कुम्भकार आया और उसने मुझ पर कुदाली चलाना शुरू कर दिया। मैंने उस पीडा को चुपचाप सहन कर लिया फिर उसने मुझे कूटा, दाना और ठंड के दिनों में पानी में गला दिया। मेरा सारा शरीर फूल गया। तब मेरा लौंदा (पिंड) बनाया गया मेरी पीडा का पारावार नहीं था। चुपचाप समर्पण के साथ उस पीडा को सहता रहा। कुम्भकार ने मुझेचाक पर चढाया और जारे से घुमाया, मेरा सिर चकराने लगा और उसी चक्कर की दशा में मैंने कुंभ काआकार ले लिया। मुझे प्रखर धूप में तपाया, मेरे अन्दर के जलीय अंश को सुखा दिया। इतने परभी जब संतोष नहीं हुआ तब धधकती हुई आग में रख दिया गया अग्नि की तपन से मेरा सारा शरीर जल गया। मेरे रंग में निखर आ गया। मैं काले रंग से लाल हो गया। इतना कष्ट सहने के बाद मैं कीमती बन पाया हूं। इस प्रकार एक मिट्टी के मुंभ को इतने कष्टों को सहन करने के बाद मंगल कलश नाम प्राप्त हुआ तो हे आत्मन्! विना तप धर्म को स्वीकार किये संसार की तपन कैसे शांत हो सकती है अर्थात नहीं हो सकती।

2. एक बार अकबर ने बीरबल से कहा कि तुम्हें काला कोयला सफेद करके दिखाना है। यह आदेश सुनकर बीरबल कुछ चिन्तित हुये और सोचने लगे ये काला कोयला सफेद कैसे होगा मगर आदेश है बीरबल भी बीरबल को एक सप्ताह के खजाने, उन्होंने कहा हुजूर कुछ दिन का समय दिया जय बीरबल को एक सप्ताह का समय मिला। लोक सोचते थे कि बीरबल नदी में बैठ कर अच्छी-अच्छी साबुनों से कोयले को सफेद करेगा लेकिन बीरबल ने पानी का सहारा लिया न साबुन का सब अपनी युक्ति के साथ बीरबल दरबार में पहुंचे। बीरबल की चतुराई देखने के लिए दरबार में भीड़ लग गयी थी। बीरबल ने काले कोयले को सबके सामने रखा औरउसमें आग लगा दी। जलकर अंगार बन गया जब बुझा तो सफेदी के अलावा कुछ नहीं था। अकबर देखकर आश्चर्य चकित हो गये। जैसे कोयला को सफेद करने का उपाय सिर्फ अग्नि संस्कार है इसके अलावा कुछ नहीं। इसी प्रकार यदि आत्मा को शुद्ध स्फटिक के समान बनाना है तो कर्म रूपी कालिमा को तप को अग्नि में जलाना ही होगा।

3. आचार्य शांति सागर जी के पास एक तार्किक व्यक्ति पहुंच और बोला महाराज! यह पंचम काल है इसमें मोख्ज्ञ तो है नही तो फिर तपस्या करने की क्या आवश्यकता है जो तपस्या मोक्ष न दिला सके। उसे मैं तपस्या कैसे मानू? शांति सागर जी महाराज ने मुस्कारते हुए उत्तर दिया भैया! यह जो सामने वृक्ष लगा है वह कहो का है? उसने देखा और कहा महाराज! यह तो आम का वृक्ष है। महाराज बोले - आम का पेड कैसे है इसमें तो आम लगे ही नहीं? वह बोला महराजा! है तो-आम का ही वृक्ष किंतु अभी अकाल है इसलिए उमसें आम फल नहीं है जब मौसम आयेगा इसमें फल लगेंगे। महाराज बोले - बस भैया! मैं भी यही कहता हूं कि आज की यह तपस्या अकाल की है इस पंचम काल में न सही किंतु जब भी मोक्ष का फल लगेगा तो वह इसी मुनि मुद्रा में ही लगेगा। आम का फल आम के वृक्ष में ही लग सकता है, अन्य किसी में नहीं। इसी तरह मुक्ति मुनि मुद्रा से ही मिल सकती है अन्य किसी मार्ग से नहीं। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने दिगम्बरत्व के अलावा शेष सभी मार्गों को मुक्ति के अयोग्य कहा है।

4. वृत्तिपरिसंख्यान तप - एक बार की बात है आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज का कटनी नगर में चर्तुमास हो रहा था। उस समय आचार्य श्री घडी पहने हुये व्यक्ति से आहार नहीं लेते थेे। इसलिये चैके वाले घड़ी अंगूठी आदि पहले से ही उतार कर रख देते थे एक बार आचार्य श्री ने नियम ले लिया कि जो घडी के द्वारा पडगाहन करेगा उसके यहां आहार लेंगे अन्यथा नहीं इस प्रतिज्ञा को लिये हुए आचार्य श्री को तीन दिन व्यतीत हो गये पूरे नगर में आचार्य श्री की विधि कहीं भी नहीं बनी चैथे दिन आचार्य श्री पुनः चर्या के लिए निकले नगर के दो चक्कर लग चुके थे अभी भी विधी नहीं बन रही थी पंडित जगमोहन लाल जी शास्त्री का भी चैंका लगा हुआ था उस दिन पंडित जी मंदिर से आये। और चैके में पडगाहन को खडे हो गये अपने हाथ की घड़ी उतार कर दुकान पर रख दी जब तीसरे चक्कर में आचार्य श्री के आने की खबर मिली तो क्या हुआ कि जब महाराज दो बार लोट गये अब नहीं आयेंगे ऐसा सोचकर दुकान पर रखी हई घड़ी उठा कर हाथ् में ले ली कि इतने में पुनः आचाय्र श्री आ गये इसलिए पड़गाहने खड़े हो गये। आचार्य श्रीने पंडिज जी के हाथ में घड़ी देखी और खड़े हो गये, विधिपूर्वक पड़गाहन किया। आहार के बाद पंडित जी ने महाराज जी से पूछा महाराज आपकी किसी चीज की विधि थी जो तीन दिन तक विधि नहीं मिली तब आचार्य श्री ने कहा कि जो हाथ में घड़ी लेकर पड़गाहेगा उसके यहां आहार करेंगे। पंडित जी को आश्चर्य हुआ कि घड़ी तो मेरी दूकान पर थी, हाथ में घड़ी कहां से आ गई? जब आचार्य श्रीने कहा कि घड़ी के पड़गायेगा से ही आया हूं, भैया! ये है कठोर तप कि कई दिन तक आहार आदि के न होने पर भी अपनी तपस्या से साधु विचलित नहीं होते हैं।

उत्तम तप अमृत बिन्दु

कर्मो का क्षय करने के लिए जो तपा जाय वह तप है।

1. तप की सारी प्रक्रिया में इच्छाओं का निरोध परम प्रयोजन है।

2. बिना बर्तन तपे दूध गरम नहीं होता उसी प्रकार बिना बाह्य तप के अंतरंग शुद्धि नहीं होती।

3. संयम की सिद्धि, राग का उद्देश्य, कर्मों का नाश, ध्यान और आगम की प्राप्ति के लिए तप धारण किया जाता है।

4. संसार में भूख से मरने वालों की संख्या कम है और खाकर मरने वालों की संख्या ज्यादा है।

5. (सन 1998 सितम्बर का समाचार) हैदराबाद के डॉ. गुप्ता ने अपने गहन अध्ययन के आधार पर सिद्ध कियाकि सप्ताह में यदि एक बार उपवा किया जाय तो कभी केंसर की बीमारी नहीं हो सकती।

6. आहार त्याग का नाम उपवास नहीं किंतु आहार सम्बंधी आशा का त्याग ही उपवास है।

7. जिन्हें मोक्ष की उत्कृष्ट भावना है वे उग्र काय क्लेश करें।

8. उपवास तीव्र व जीर्ण रोगों में अत्यंत प्रभावशाली प्रक्रिया है, ऐसी दशा में जल उपवास प्रशंसनीय है।

9. उत्तम परिणाम की प्राप्ति हेतु दस दिन का जल उपवास रोग मुक्ति के लिए ’’त्रेलोक्य चिन्तामणि’’ के समान है।

10. मनुष्य भव की सबसे बड़ी विशेषता तपह । यह तप अन्य गति में नहीं हो सकता।

11. इच्छओं का रोकना तप है।

12. तप के द्वारा संवर और निर्जरा दोनों होते हैं।

13. जिस प्रकार अग्नि से तपाया गया स्वर्ण पाषाण शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार कर्ममल से मलिन आत्मा तप रूपी अग्नि से शुद्ध हो जाता है।

14. जैसे जल से मलिन वस्त्र स्वच्द हो जाता है वैसे तप रूपी जल से मलिन आत्मा शुद्ध हो जाती है।

15. जन्म जरा-मृत्यु रूपीरोग से युक्त संसारी आत्मा तप रूपी उत्तम औषधि के सेवन से निरोग हो जाती है।

16. जैसे वज्र के प्रहार से पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं, वैसे ही तप रूपी व्रज के प्रहार से कर्म पर्वत नष्ट हो जाते है।

17. तप के प्रभाव से उध्र्वलोक के इन्द अहमिन्द्र पद मध्य लोक के राजा, अधिराज, मण्डलीक, महामण्डलीक, चक्रवर्ती और तीर्थंकर पद प्राप्त होते हैं।

अमृत दोहावली

तन मिला तुम तप करो, करो कर्म का नाश।
रवि राशि से भी अधिक है, तुममे दिव्य प्रकाश।।1।।

तप करते यौवन गयो, द्रव्य गयो मुनि दान।
प्राण गये सन्यास में, तीनों गये न जान।।2।।

माला तो कर में फिरे मंत्र फिरे मुख मांहि।
मनुआ फिरे बाजार में ऐसो सुमरन नाहिं।।3।।

माला फेरत जुग गया, गया न ’’मनका’’ फेर।
कर का ’’मनका’’ डारि दे, ’’मन’’ का ’’मनका’’ फेर।।4।।

तप चाहे सुर राय, करम शिखर को वज्र है।
द्वादश विध सुखदाय, क्यों न करे निज शक्ति सम।।5।।

पुण्य प्रभाव नरभव मिल्यो, उत्तम कुल अवतार।
तप कर शिव को साधना, तब मनुष्य भव सार।।6।।

तप को तो तीर्थंकर ध्यावै, तप बिन मोक्ष कभी नहीं पावै।
तप शिव महल तनौ मग जानो, तप ही तैं सब कर्म हरानौ।।7।।

होय न तुप्त रतै, यह अनादि की जीत।
जो अनशन तप आदरै, रहै क्षुधा दुःख जीत।।8।।

सर्व कामना-सिद्धि में, रहता तप का योग।
इसलिए तप को सदा, करते सब उद्योग।।9।।

।।ऊँ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांल्य नमः।।
इति उत्तम तप धर्म