उत्तम संयम धर्म

मंगलाचरण

नमो वृषभसेनादिगोतमान्त्य गणेशिने।
मूलोत्तर गुणाढ्याय सर्वस्मै मुनये नमः।।1।।

अर्थ- वृषभसेन को प्रमुख करके अंतिम गणधार श्रीगौतमस्वामी पर्यन्त चैदह सौ बावन गणधर देवों को मेरा नमस्कार हो एवं मूल और उत्तरगुणों से सहित सभी मुनियों को मेरा नमस्कार हो।

यो निःश्रेयस शर्मदान कुशलं, संत्यज्य रत्नत्रयं,
भीमं दुर्गमवेदनोदयकरं, भोगं मिथः सेवते।
मन्ये प्राणविपर्ययादिजनकं, हालाहलं वल्भते,
सद्यो जन्म जरान्तकक्षय करं पीयूषमत्यस्य सः।।2।।

अर्थ- जो प्राणी मोक्ष्ज्ञ सुख कोदेने में समर्थ रत्नत्रय को छोड़कर भयंकर दुःखदायी वेदना करने वाले भोगों को भोगता है। मैं मानता हूं कि वह शीघ्र ही जन्म, बुढापा, मरण का क्षय करने वाले अमृत को छोडकर प्राणी हारी जहर को पीता है।

संयम का लक्षण

कषायेन्द्रिय दण्डानां, विजयो व्रत धारणं।
संयमः संयतैः प्रोक्तः श्रेयः श्रयितुमिच्छताम्।।3।।

अर्थ- मुमुक्षु जीवों का कषाय, इन्द्रिय, और योग पर विजय प्राप्त करना व्रतों का धारण करना संयतों द्वारा संयम कहा जाता है।

षडगिंनं दयां कृत्वा, निग्रहं चाक्षचेतसां।
सयमो धर्म सिद्धयर्थ-मनुष्ठेयो न चेतर।।4।।

अर्थ- ख्याति पूजा तथा इंद्रिय विषयों की चाह से रहित पांच स्थावन और त्रस जीवों पर दया करके संयम धर्म की सिद्धि के लिए पांच इंद्रिय और मन को वश में करना चाहिए।

शर्दूल विक्रीडितम्

मानुष्यं किल दुर्लभं भवभृत, स्तत्रापि जात्यादयः,
तेष्वेवाप्तवचः श्रुति स्थितिरत, स्तस्याश्च दृग्बोधने।
प्राप्ते ते अतिनिर्मले अपि परं, स्यातां न येनोज्झिते,
स्वर्गमोक्षफलप्रदे स च कथं, न श्लाघते संयमः।।5।।

अर्थ- प्राणियों को मनुष्य पर्याय दुर्लभ है उसमें भी उत्तम कुल उसमें भी जिनवाणी का श्रवण, धारण उसमें भी सम्यग्दर्शन ज्ञान पूर्वक स्वर्ग मोक्ष को देने वाला संयम है वह प्रशंसनीय क्यों नहीं होगा?

प्राणिनां रक्षणं त्रेधा, तथाक्ष्प्रसराहतिः
एकोद्देश्मिति प्राहुः, संयमं गृहमेधिनाम्।।6।।

अर्थ- त्रस जीवों की मन, वचन, काय से रक्षा करना इन्द्रियों पर विचार प्राप्त करना गृहस्थों का एक देश संयम कहलाता है।

असिमषिकृषिविद्या, शिल्पवाणिज्योगैः,
तनुधनसुतहेतोः कर्म यादृक् करोषि।
सकृदपि यदि तादृक्, संयमार्थं विधत्से,
सुखममलमनन्तं किं तदा नाश्नुषेऽलम्।।7।।

अर्थ- असि, मषि, कृषि, विद्या, शिल्प व्यापार के द्वारा प्राणी शरीर, धन, पुत्र के लिए जितनी मेहनत करताहै,उतना पुरूषार्थ यदि एक बार में संयम के लिए करे तो निर्मल अनन्त सुख को क्या नहीं प्राप्त करेगा? अर्थात् अवश्य प्राप्त करेगा।

चित्तत्वभावनासक्त-मतयो यतयो यमं।
यतन्ते यातनाशील-यमनाशन कारणम्।।8।।

अर्थ- अत्म तत्व की भावना में आसक्त है बुद्धि जिनकी ऐसे यति यातना देने वाले यम (मृत्यु) का नाश करने के लिए यंयम में यत्न करते हैं।

संयमं द्विविधं लोके, कथितं मुनिपुंगवैः।
पालनीयं पुनश्चित्ते, भव्य जीवेन सर्वदा।।9।।

अर्थ- गणधर देवों ने लोक में संयम दो प्रकार का कहा है उसका भव्य जीवों को हृदय से नित्य पालन करना चाहिए।

मन, वचन, काय की शद्धि पर्वू चेतन-अचेतन या अंतरंग बहिरंग परिग्रह का त्याग करना संयम कहलाता है।

1. संयम- सं सम्यक् प्रकार से पाप क्रियाओं से यम-विरक्त होना संयम कहलाता है पाप क्रिया- अशुभ मन, वचन, काय को पाप क्रिया कहा है वह सब ओर से पाप आश्रव का कारण है उसका रूकना संयम कहलाता है। पांच महाव्रत पांच समिति तीन गुप्ति इन तेरह प्रकार के चारित्र में हमेशा पूर्ण प्रयत्न करना संयम कहलाता है अथवा प्राणी हिंसा और इंन्द्रिय विषयों में अशुभ प्रवृत्ति का रूकना संयम कहलाता हे।

2. प्राणी रक्षण और इन्द्रिय जय विषय का त्याग है लक्षण जिसका वह संयम कहलाता है, प्राणी संयम सत्तरह प्रकार का है। पृथ्वी काय, जल काय, अग्नि काय, वयु काय, तथा वनस्पति काय का यत्न से रक्षण करना पांच प्रकार का काय संयम है। द्वीन्द्रिय, तीन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवों की जो रक्षा की जाती है वह चार प्रकार का त्रस संयम है। ज्ञान के उपकरण आदि का नेत्रों से ेदखकर मार्जन करना चाहिए। धर्म के उपकरणों के मार्जंन करने में दुष्प्रवृत्ति छोड़ना चाहिए। नित्य उपयोगी उपकरणों को व्यवस्थित करके प्रतिदिन देखना चाहिए, क्योंकि उनमें सम्मूच्र्छन जीवों की उत्पत्ति संभव है। मन, वचन, काय को अपने वश में करना तीन प्रकार का संयम है। चैदह प्रकार के जीव समासों का यत्न पूर्वक रक्षण करना प्राणी संयम है।

अन्य प्रकार से सत्तरह प्रकार का संयम -
पंचासवेहि विस्मणं, पंचिदिय णिग्गहो कसाय जओ य।
तिहिं दंडहि य विरदी सत्तरस संजमा भणिया।।10।।

पांच पापों का त्याग, पांच इन्द्रियों का निग्रह, कषायों पर विजय, मन, वचन काय की चंचलता का त्याग ये सत्तरह प्रकार का संयम कहा गया है।

मनो जय उपाय

संचिन्तन्ननुप्रेक्षाः स्वाध्याये नित्यमुद्यतः।
जयत्येव मनः साधु-रिन्द्रियार्थपराड्.मुखः।।11।।

अर्थ- अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करने वाला इन्द्रिय विषयों से पराड्.मुख साधु स्वाध्याय में रत रहकर मन को सहज में जीत लेता है।

यमादिषु कृताभ्यासो, निसंको निर्ममो मुनिः।
रागादिक्लेशनिर्मुक्तं, करोति स्ववशं मनः।।12।।

अर्थ- यम आदि में जिन्होंने अभ्यास किया है ऐसे परिग्रह रहित निमर्म साधु रागादि क्लेंशो से रहित होकर मन को वश में करते हैं।

क्षान्तियोषिति यः सक्तः सम्यग्ज्ञानातिथिप्रियः।
स गृहस्थो भवेन् नूनं मनो मर्कटसाधकः।।13।।

अर्थ- सम्यग्ज्ञान ही जिसका प्रिय अतिथि है एवं क्षमा रूपी स्त्री में आसक्त गृहस्थ भी निश्चय से अपने मन रूपी बन्दर को वश में कर सकता है।

संयमोत्तमपीयूषं सर्वाभिमत सिद्धिदं।
कषाय विष सेकोऽयं निःसारी कुरूते क्षणात्।।14।।

अर्थ- समस्त सिद्धियों को देने वाला उत्तम संयम अमृत तुल्य माना गया है। किंतु कषाय रूपी विष का कण क्षण भर में उसे व्यर्थ कर देता है।

प्राणी संयम

दक्षैः समितयः पंच, यत्र संवरमातृकाः।
यत्नेन प्रतिपाल्यन्ते, ऽपहृताख्यः स संयमः।।15।।

अर्थ- बुद्धिमानों के द्वारा जो संवर की माता स्वरूप पांच समितियों का यत्न पूर्वक पालन किया जाता है। वह अपहृत संयम कहलाता है।

संयमः स जिनैः प्रोक्तः, साक्षान्मुक्तिनिबन्धनः।
तपो दृग्रज्ञानधर्मादि, - गुणानां शुद्धिकारकरः ।।16।।

अर्थ- उपेक्षा और अपहृत के भेद से संयम दो प्रकार का कहा गया है। उपेक्षा संयम उत्कृष्ट संहनन वालो के होता है और अपहृत संयम अन्य संहनन वालों के होत है।

उत्कृष्टांग बलाढ्यस्य विदस्त्रिगुप्ति - धारिणः।
राग द्वेषाद्यभावो यः, उपेक्ष संयमोऽत्र सः ।।18।।

अर्थ- उत्तम संहनन से युक्त तीन गुप्ति के धारक ज्ञानी जीव काजो राग, द्वेष आदि का अभाव है वह उपेक्षा संयम कहलाता है।

अपहृयत संयम तीन प्रकार है: - प्रासुग वसतिका और भोजन आदि है बाहृ साधन जिनके तथा स्वाधीन ज्ञान और चारित्र रूप समभाव वाले मुनि के जंतु आ जाने पर उस स्थानसे स्वयं दूर होना उत्कृष्ट अपहृत प्राणी संयम है। मृदु मयूर पिच्छी से मार्जन कर जीवों की रक्षा करने वाले के मध्यम प्राणी संयम है। और उपकरण के बिना जीवों का परिहार करने वाले के निकृष्ट प्राणी संयम होता है।

उपेक्षा समय: - देश और काल के विधान के ज्ञाता स्वाभाविक रूप से शरीर से विरक्त और तीन गुप्तियों के धारक साधु के राग और द्वेष रूप चित्त वृत्ति का न होना उपेक्षा संयम है।

तावदेव पुरूषः सचेतनः, तावदाकलयति क्षमां परां।
तावदुद्वहति मानमुत्तमं, यावदिन्द्रियवशं न गच्छति।।19।।

अर्थ- प्राणी तभी तक सचेतन है, जब तक क्षमा का मूल्यांकन करता है। तभी तक उत्तम मान को धारण करता है, जब तक इंन्द्रियों के वशीभूत नहीं होता है।

विषयोरागदष्टस्य, कषायविषमोहिनः।
संयमो हि महामंत्रः, त्राता सर्वत्र देहिनाम्।।20।।

अर्थ- इन्द्रिय विषय रूपी सर्प से काटे गयेएवं कषाय रूपी विष से मूर्छित प्राणियों को सर्वत्र संयम रूपी महामंत्र ही रक्षक है।

वर्धते गृद्धिरश्रान्तं, सन्तोषश्चापसर्पति।
विवेको विलयं याति, विषयैर्वंचितात्मनाम्।।21।।

अर्थ- विषयों से ठगाई गई है आत्मा जिनकी ऐसे प्राणियों की तृष्णा निरंतर बढ़ती रहती है, संतोष दूर भाग जाता है और विवके विलीन हो जाता है।

अविचारित रम्याणि, शासनान्यसतां जनैः।
अधमान्यपि सेव्यन्ते, जिह्वो-परस्थादिदण्डितैः।।22।।

अर्थ- रसना और काम इन्द्रिय से पीडि़त मनुष्य, अविचारितरम्य नकिृष्ट अनुशासन का भी पालन करते हैं।

विषयेषु यथा चित्तं, जन्तो र्मग्नमनाकुलं।
तथा यद्यात्मनस्तत्वे, सद्यः को न शिवीभवेत्।।23।।

अर्थ- जिस प्रकार प्राणी का मन विषयों में लगता है उसी प्रकार यदि आकुला रहित आत्म तत्व में लगे तो कौन शीघ्र ही मुक्त नहीं होगा?

आपदां कथितः पन्था, इन्द्रियाणमसंयमः।
तज्जयः सम्पदां मार्गों, येनेष्टं तेन गम्यताम्।।24।।

अर्थ- इन्द्रिय जन्य असंयम आपत्तियों का मार्ग है और इन्द्रियों पर विजय सुख सम्पत्ति का मार्ग है आपको जो इष्ट हो उस मार्ग पर गमन करो।

संवृणोत्यक्षसैन्यं यः, कूर्मोऽगानीव संयमी।
स लोके दोषपकाढ्ये, चरन्न्नपि न लिप्यते।।25।।

अर्थ- जो संयमी कछुये की तरह इन्द्रिय रूपी सेना को वश में करता है वह दोष रूपी कीचड़ से युक्त लोक में विचरण करता हुआ भी लिप्त नहीं होता है।

यथा यथा हृषीकाणि, स्ववशं यान्ति देहिनो।
तथा तथा स्फुरत्युच्चै र्हृदि विज्ञानभास्कर: ।।26।।

अर्थ- जैसे-जैसे प्राणी की इन्द्रियां वश में होती है वैसे-वैसे हृदय में ज्ञान रूपी सूर्य प्रकट होने लगता है।

शौर्य गाम्भीर्य मौदार्यम् - ध्यानमध्ययनं तपः।
सकलं सफलं पुंसां, स्याच्चेन्द्रियनिग्रहः।।27।।

अर्थ- यदि मनुष्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है तो शूरवीतरता, गम्भीरता, उदारता, ध्यान, अध्ययन, तप सभी सफल है।

रूणद्धि नैवात्मानं, इन्द्रियार्थेषु यः पुमान्।
सर्वत्रापत्पदं स स्यात्, पतंग इप दुर्गतौ।।28।।

अर्थ- जैसे पतंग, चक्षु इन्द्रिय के विषय दीपक की शिक्षा से जलकर दुर्गति का पात्र होता है इसी तरह जो पुरूष इन्द्रिय विषयों से आत्मा की रक्षा नहीं करता वह सर्वत्र आपत्ति को प्राप्त होता है।

इन्द्रिय विजय प्रशंसा

दुर्जयान् नरनिलिम्पभर्तृभिः, पंच यो विजयतेऽक्षविद्विषः।
तस्य सन्ति सकलाः करस्थिताः, सम्पदो भुवननाथपूजिताः।।29।।

अर्थ- चक्रवर्ती इन्द्रों द्वारा भी बड़ी कठिनाई से जीतने योग्य पंच इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को जो जीत लेता है, उसे इन्द्रों से पूजित सम्पत्तियां प्राप्त होती है।

अजिताक्षः कषायाग्निं, विनेतुं न प्रभु र्भवेत्।
अतः क्रोधादिकं जेतुं, अक्षरोधः प्रशस्यते।।30।।

अर्थ- इन्द्रियों को जीते बिना कोई भी कषाय रूपी अग्नि को बुझाने में समर्थ नहीं हो सकता, अतः क्रोधादिक को जीतने के लिए इन्द्रिय विजय प्रशंसनीय है।

अनिषिद्धाक्षसन्दोहं, यः साक्षान् मोक्षमिच्छति।
विदारयति दुर्बुद्धिः, शिरसा स महीधरम्।।31।।

अर्थ- जो पुरूष इन्द्रिय समूह को रोके बिना साक्षात मोक्ष को चाहता है, वह दुर्बुद्धि मस्तक से पर्वत का विदारण करना चाहता है।

शिवं दूरं भवेन्नात्र, जिताक्षस्य स्वसंदिः।
नरनाथ सुरेन्द्राणां, पदं जीर्णतृणं यथा।।32।।

अर्थ- इन्दिय विजेता! आत्म ज्ञानीपुरूष को चक्रवर्ती, धरणेन्द्र, इन्द्र आदि के पद जीर्ण तृण की भांति प्राप्त हो जाते हैं और निकट भविष्य में मोक्ष भी प्राप्त होता है।

निरूध्य बोधपाशेन, क्षिप्ता वैराग्यपंचजरे।
हृषीकहरयो येन, स मुनिनां महेश्वरः ।।33।।

अर्थ- जिन्होंने इन्द्रिय रूपी घोड़ों को ज्ञानरूपी रस्सी से बांधकर वैराग्य रूपी पिजड़े में डाल दिया है वही योगीश्वर है।

दन्तीद्रदन्तदलनैविधौ समर्थाः, सन्त्यत्र रूद्रमृगराजवधे प्रवीणाः।
आशीर्विषस्य च वशीकरणेऽपि दक्षाः पंचाक्षनिर्जयपरास्तु न सन्ति मत्र्या।।34।।

अर्थ- इस जगत में हाथी के दांत तोड़ने में, भयंकर सिंह का वध करने में, और आशीर्विष सर्प को वश में करने में समर्थ लोग है किंतु इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने में तत्पर लोग नहीं है।

तप के परिकर केा संयम करते हैं- उपवास बढाने से, अवमौदर्य करने से, रस परित्याग करने से, व्रतपरिसंख्यान करने से, ध्यान अध्ययन करने से, एकान्त में शयन आसन करने से, गुरू कायक्लेश् करने से, संयम होताहै। पंच इन्द्रियों को वश में करने से, त्रस और स्थावर जीवों की रक्षा करने से, मन के प्रसार कोरोकने से, बहुत गमन-आगमन का त्याग करनेसे, सूत्र के अर्थ का विचार करने से काय के व्यापार को रोकने से, कषाय का दमन करनेसे आत्मा के गुणों का चिंतन करने से, ग्रहण किये हुए यम नियम का पालन करने से संयम होता है। संयम के बना जीव संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है औरसंयम के बिना सारा मनुष्य जीवन व्यर्थ है। समस्त जीवों को इस लोक और परलोक में संयम ही शरण है। जीवों की रक्षा के लिए ही साधु पिच्छिका ग्रहण करते हैं।

रजसेदाणमगहणं, मद्दव सुकुमालदा लहुत्तं च।
जत्येथेदे पंच गुणा, तं पणिलिहणं पसंसंति।।35।।

अर्थ- मयूर पिच्छिका धूल, पसीना को ग्रहण नहीं करती, कोयमल, सुकुमार और वजल में हल्की होती है स्वयं मोर के द्वारा पंख छोड़े जाते हैं इसलिए अहिंसक होने से पशंसनीय होती है।

अपहृत संयम की वृद्धि के लिए शुद्धयष्टक

मन शुद्धि- (भाव शुद्धि) कर्म के क्षयोपशम से मोक्ष मार्ग में रूचि होती है और रागादि के उपद्रव से रहित विशुद्धि के होने पर आचार शुद्धि होती है जैसे परिशुद्ध दीवान पर सुन्दर चित्र बनता है।

वाक् शुद्धि - पृथ्वी कायिक आदि जीवों के आरंभ की प्रेरणा से रहित, युद्ध, काम, कर्कश, परस्पर भेद करने वाले वचन, चुगली, कठोर वचन पर पीड़ा के प्रयोग से रहित, स्त्री कथा, भोजन कथा, राष्ट्र कथा, राज कथा से रहित, व्रत शील के उपदेश से सहित अपने और दूसरों के लिए हितकारी, थोड़ा, मुधर मनोहर परम वैराग्य का कारण पर निंदा आत्म प्रशंसा से रहित वचन संयत के योगय होते हैं वाक्शुद्धि से सभी सम्पदाओं की प्राप्ति होती है।

काय शुद्धि - वस्त्र आभरण शरीर संस्कार से रहित, यथाजात मल युक्त, अंक विकार रहित यत्नाचार पर्वूक प्रवृत्ति रूप है मूर्तिमान प्रशम सुख की तरह शान्त होने के कारण अपने से अन्य को भय उत्पन्न नहीं होता है।

मिक्षा शुद्धि- जिसमें भिक्षा को जाते समय दोनों ओर दृष्टि रखी जाती है। पीछी से शरीर का मार्जन करने वाले, आचार सूत्र में कहे गये काल देश, प्रकृति के जानने में कुशल, लाभ, अलाभ मान, अपमान में सम मनोवृत्ति वाले मुनि गीत, नृत्य, वाद्य से आजीविका करने वाले प्रसूतिका, मृतक, सुरा, वैश्या, पाप कर्म करने वाले तथा दीन, अनाथ दान शाला, पूजन, विवाह आदि मांगलिक घरों को छोड़कर चन्द्रमा की गति की तरह गरीब धनवान का भोदभाव न करते हुए लोक-निन्दित घरों को छोड़कर, सिंह वृत्ति पूर्वक, प्रासुक आहार की गवेषणा में सावधान आगम में कहीं गई विधि पूर्वक प्रासूक आहार लेकर जीवन चलाने के अभिलाषी मुनि के भिक्षा शुद्धि होती है। जैसे साधु जनों की सेवा से गुण सम्पत्ति मिलती है उसी तरह भिक्षा शुद्धि से चारित्र सम्पत्ति की प्रपित होती है।

ईर्या पथ शुद्धि - अनेक प्रकार के जीवस्थान जीव योनि जीवाश्रय आदि के विशिष्ट ज्ञान पूर्वक प्रयत्न के द्वारा जिसमें जन्तु पीडा का बचाव किया जाता है। जिसमें ज्ञान, सूर्यप्रकाश और इन्द्रिय प्रकाश से अच्छी तरह देखकर गमन किय जाता है तथा जो शीघ्र विलम्बित सम्भ्रानत विस्मित लीला विकार अन्य दिशाओं की ओर देखना आदि गमन के दोषाों से रहित गतिवाली है वह ईर्यापथ शुद्धि है इसके होने परसंयम उसी तरह प्रतिष्ठित होता है जैसे कि सुनीति से विभव स्थिर रहता है।

व्युत्सर्ग शुद्धि: - (प्रतिष्ठापन शुद्धि) प्रतिष्ठापन शुद्धि में तत्पर साधु संयम देश और काल को जानकर नख रोम नाक थूक वीर्य मन मूत्र या देह परित्याग में जन्तु बाधा का परिहार करके प्रवृत्ति करता है।

शयनासन शुद्धि - शय्या और आसन की शुद्धि में तत्पर संयत को स्त्री चोर मद्यपान, जुआ, शराबी और पक्षियों को पकडने वाले आदि के स्थानों में नहीं बसना चाहिए ओर श्रृंगार विकार आभूषण उज्ज्वल वेष, वेश्या क्रीडा, मनोहर गीत, नृत्य वादित्र आदि से परिपूर्ण शाला आदि में रहने का त्याग करना चाहिए। उन्हें तो प्राकृतिक गिरिगुफा वृक्ष की खोह तथा शून्य मकान या छोड़े हुए ऐसे मकानों में बसना चाहिये जो उद्देश्य से नहीं बनाये गये हों औन न जिसमें उनके लिए कोई आरम्भ ही किया गया हो।

विनय शुद्धि - अर्हन्त आदि परम गुरूओं में यथायोग्य पूजा-भक्ति आदि तथ दान आदि में यथाविधि भक्ति से युक्त गुरूओं में सर्वत्र अनुकूल रखने वाली, प्रश्न स्वाध्याय वाचना कथा और विज्ञप्ति आदि में कुशल, देश, काल और भाव के स्वरूप को समझने में तत्पर तथा आचार्य के मत का आचरण करने वाली विनय शुद्धि है। समस्त सम्पदायें विनय मूलक हैं। विनय पुरूष का भूषण है तथा संसार-समुद्र से पार उतारने के लिए नौका के समान है।  

उत्तम संयम धर्म - कथानक

1. तप कल्याणक के अवसर पर एक मनोरम दृश्य सभ में उपस्थित किया जाता है। वह यह है कि जब तीर्थंकर ऋषभ कुमार वैराग्य को प्राप्त होते हैं। तब लौकांतिक देव आकर सम्बोधन करते हैं। ऋषभ कुमार वन गमन हेतु जब पालकी पर आढ होते हैं तब देगण पालकी उठाने को उद्यत होते हैं और मनुष्य भी पालकी उठाने में तत्पर होते हैं। तब सवाल उठता है कि पालकी पहले कौन उठाये यह निर्णय नाभिराय देते हैं कि जो भगवान के साथ संयम धारण करने की योग्यता रखता है वह पालकी पहले उठावेगा। तब इन्द्र कहता है-हे मानवों! हमारी स्वर्ग की विभूति आप ले लो और उसके बदले में मनुष्य पर्याय हमको दे दो। इस प्रसंग को देखकर प्रत्येक प्राणी को संयम के प्रति बहुमान होा है। यह संयम बहुत दुर्लभ है जैसे दशलक्षण पूजा में कहा है। -

’’सुरग नरक पशुगति में नाहिं’’ अर्थात् यह संयम मनुष्य पर्याय को छोड़कर अन्य पर्याय में प्राप्त नहीं होता है।

2. बज्रदन्त चक्रवर्ती पंचेन्द्रिय के विषयों में झंपापात कर रहे थे। एक दिन राज्य सिंहासन पर आरूढ थे उसी समय माली आता है और चक्रवर्ती के कर कमलों में एक सहस्रदल कमल भेंट करता है। तभी चक्रवर्ती ने कमल के अंदर एक मरा हुआ भौरा देखा और मन मेंविचार चलने लगे कि - ओ हो घ्राण इन्द्रिय का दास यह भौरा इसमें अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुका है अरे! मैं भी तो इन्द्रियों का दास बना हुआ हूं ये भौरा तो बेचारा अज्ञानी जीव है मैं तो सब कुछ जानता हूं ’’ये भोग सम्पदा नियम से मुझे नरक रूपी गढ्ढे में डाल देगी’’ ’’भोग बुरे भव रोग बढावे बैरी है जग जीके’’ इस प्रकार चिंतन कहते हुये। अपने बेटों को बुलाया ओर कहा बेटे अब इस राज्य को सम्भालो मैं संय को स्वीकार करूंगा। बड़े बेटे ने पूछा पिताजी यह राज्य अच्छा है कि बुरा? यदि अच्छा है तो आप क्यों छोड़ रहे हों, यदि राज्य बुरा है तो अपने प्यारे बेटे को क्यों दे रहे हैं। निरूत्तर होकर चक्रवर्ती ने गर्भस्य शिशु को राज्य का भार सौंपा ओर आपएक हजार पुत्रों केसाथ संयम लेकर मोक्ष लक्ष्मी को प्रापत हुये।

3. राजा की आज्ञा से यमपाल नामक चण्डाल प्रतिदिन अनेक जीवों को शूली पर चढाया करता था,, एक दिन यमपाल चण्डाल को दिगम्बर मुनि का दर्शन हो गया, उसने अपने जीवन में मुनि का दर्शन पहली बार किया था। अपने आपको धन्य मानता हुआ मुनिराज के निकट बैठ गया। मुनिराज ने ध्यान खोलकर चण्डाल की ओर दृष्टिपात किया और सोचा कि यह निकट भव्य है। ऐसा विचार कर धर्मोपदेश दिया उसके फल स्वरूप यमपाल चण्डाल ने नियम ले लिया कि मैं अष्टमी चतुर्दशी के दिन जीव हिंसा नहीं करूंगा। चर्तुर्दशी का दिन आया राजा के लड़के ने कुछ अपराध किया तो राजा ने उसे मृत्यु दण्ड दिया। यमपाल चण्डाल को बुलाया गया। यमपाल ने मना किया कि मैं चतुर्दशी के दिन जीव हिंसा नहीं करूंगा। यह सूचना राजा को दी गयी राजा ने सुनकर आदेश दिया कि राजकुमार और यमपाल को नदी में फेंक दो सिपाहियोंने ऐसा ही किया किंतु यमपाल ने प्रतिज्ञा को भंग नहीं किया। नदी में डालते ही यमपाल की देवो ंने रक्षा की और पानी में ही सिंहासन की रचना कर दी। राजकुमार को नदी में डलते ही जलजन्तु निगल गये। राजा ने यह आश्चर्यकारी घटना को सुना तो यमपाल के पास आकर क्षमा मांगी। यह संयम का प्रभाव था।

4. पांच इन्द्रिय और मन को वश में करना इन्द्रिय संयम कहलाता है। इसलिये पांचों इन्द्रियों को वश में किये बिना संयम धर्म नहीं होता।

स्पर्शन-इन्द्रिय के वश में विशालकाय हाथी को भी अंकुश की मार खानी पड़ती है।

रसना- इन्द्रिय के वश में रहने वाली मछली जो हमेशा पानी में रहती है किंतु वह भी कांटे को कंठ से फंसा कर प्राणों को गमा देती है। सुभौम चक्रवर्ती भी रसना इन्द्रिय के वश होकर नरक गति का पात्र हुआ।

घ्राण- इन्द्रिय के अधीन रहने वाला भ्रमर सन्ध्या के समय यह सोचकर कमल में बन्द हो जाता है कि रात भर तो मकरन्त का रसास्वादन करूंगा। प्रातः काल होगा कमल खिलेगा तब मैं निकल जाउंगा। प्रातः काल होने के पहले ही जलपान के लिए तालाब में प्रवेश कर एक हाथी भ्रमर सहित उस कमल को खा जाता है। भ्रमर के विचार उसके जीवन के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। जिस प्रकार सुगन्ध की आसक्ति से भ्रमर अपने प्राणों को गवांता है उसी प्रकार घ्राण इन्द्रिय के वश संसारी प्राणी भी अपने प्राणों को गमा देता है।

चक्षु - इन्द्रिय के वश होकर प्राणी रागद्वेष रूप परिणमन करत है। हे आत्मन! जानना देखना तो जीव का स्वभाव है किंतु रागद्वेष करना विभाव है। संसार के सभी पदार्थों में इष्ट अनिष्ट की कल्पना का त्याग करना चाहिए, क्योंकि छद्मस जीव बहिज्ञेंय को चक्षु इन्द्रिय का विषय बनाकर दुखी होता है। चक्षु इन्द्रिय के वश हुआ पतंगा दीपक के मध्य में अपने स्वयं के शरीर को जलाता हे और दुखी होता है। इसलिये चक्षु इन्द्रिय को वश में करना चाहिए।

कर्ण- इन्द्रिय के वशी भूत होकर हिरण वीणा के मधुर स्वर में तल्लीन हो जाता है और शिकारी के बारण से मारा जाता है। विचारणीय बात यह है कि एक एक इन्द्रिय के वशी भूत होकर प्राणी को अपने प्राणों का विसर्जन कर दुर्गति में गमन करना पड़ता है तब पांचों इन्द्रियों के वशीभूत प्राणी की क्या दशा होगी।

स्पर्शनेन्द्रिय के वशीभूत, परपुरूष में आसक्तनागदत्ता की कथा -

नासिक नगर में सागरदत्त सेठ की सेठानी नागदत्ता थी। उसके दो संताने थी - श्री कुमार और श्रीषेणा। सेठानी अपनी गायें चराने वाले नन्द नाम के युवा ग्वाले पर आसक्त थी। उसने प्रथम तो सेठ को मरवा डाला, पुनः पुत्र को मारने में उद्यत हुई। पुत्र पहले से अपनी माता के कुकृत्य से अत्यंत दुखी था। उसने माता को बहुत कुछ समझाया भी किंतु उस पापिनी ने उल्टे उसे मारने का दृढ निश्चयकरही लिया। किसी दिन वह अपने प्रेमी नन्द से कह रही थी कि तुम श्री कुमार को मार डालो। इस रहस्य को पुत्री श्रीषेणा ने सुना। उसने अपने भाई को सावधान किया। गाय चराने को एक दिन माता ने ग्वाले को न भेजकर पुत्र को भेजा, पुत्र समझ गय कि आज धोखा है। वह जंगल में गया। वहां उसने अपने वस्त्र एक ठूंठ को पहना दिये और स्वयं छिप गया। पीछे से ग्वाला आया। ठूंठ को कुमार समझकर उस पर भाले का प्रहार किया। तभी कुमाने ने निकल कर उसी भाले से उस ग्वाले को मौत के घाट उतारदिया। पुत्र के घर आने पर नागदत्ता ने पूछा कि नन्द कहां है? पुत्र ने उत्तर दिय कि इस बात को तो यह भाला जानता है। नागदत्ता समझ गई कि कुमार ने नन्द को मार डाला है। क्रोध में आकर वह पापिली मूसल से श्री कुमार का मस्तक फोडने लगती है तभी पुत्री श्री षेणा आकरउसी मूसल से माता नागदत्ता को मार देती है। इस प्रकार वह पापिनी पर पुरूष आसक्त नागदत्ता स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में आसक्त होकर सारे कुटुम्ब का नाश कर नरकगामिनी होती है।

रसनेनिद्रय के वशीभूत भीम राजा की कथा

काम्पिल्य नगर का राजा भीत था। वह दुबफद्धि मांसभक्षी हो गया था। नन्दीश्वर पर्व मेंउसे मांस का भोजन नहीं मिला तो उसने रसोइये से कहा कि कहीं से मांस लाओ। रसोइया को इधर-उधर खोजने पर भी जब मांस नहीं प्राप्त हो सका तो वह श्मसान से एक मरे बालक को ले आया और उसने उसका मांस पका कर राजा को खिला दिया। राजा तब से नरमांस का लोलुपी हो गया। रसोइया उसके लिए गली-गली में घूमकर छोटे-छोटे बच्चों को कुछ मिठाई आदि का लालच देकर इकट्ठा करता और अंतिम बालक को पकड़ कर मार देता था और मांस राजा को खिलाता था। नगर में चंद दिनों बाद इस कृकृत्य का भंडाफोड हुआ और नगर वासियों ने राजा तथा रसोइये को देश से निकाल दिया। दोनों पापी जंगल में घूमने लगे। राजा ने भूख से पीडित हो रसाइये को मारकर खा लिया। अंत में वह नरभक्षक पापी, वसुदेव द्वारा मारा गया और अपने पाप का फल भोगने के लिए नरक में पहुंचा।

घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत गंधमित्र की कथा

अयोध्या के नरेश विजय सेन के दो पुत्र थे, जय सेन और गंधमित्र। एक दिन राजा ने बड़े पुत्र जयसेन को राजपद एवं छोटे पुत्र को युवराज का पद दिय और स्वयं मुनि दीक्षा लेकर वन में चले गये। गंध मित्र विविध प्रकार के फूलों को सूंघने में ही आसक्त रहता था। एक दिन रानियों के साथ वह सरयू नदी में जलक्रीड़ा कर रहा था। जय सेन ने मौका पाकर नदी के प्रवाहन कर दिये। गंध मित्र ने उन फूलों को सूंघा उससे वह प्राणारहित हो गया और घ्राणेन्द्रिय के विषय सुगंध की आसक्ति के कारण नरकगति में उत्पन्न हुआ।

चक्षुइन्द्रिय के वशीभूत सुवेग चोर की कथा

मद्दिल नाम के नगर में भतृमित्र नाम का एक सेठ पुत्र रहता था। उसकी पत्नि का नाम देवदत्ता था। वसंत ऋतु का समय था। सेठ भतृ्रमित्र अपने अनेक मित्रों के साथ् वसन्तोत्सव के लिए वन में गया। वहां पर वसंतसेन नाम के मित्र ने बाण द्वारा अम्रमंजरी को तोड़कर अपनी पत्नी को कर्णाभूषण पहनाये। उसे देखकर देवदत्ता ने पति भर्तृमित्र से कहा - ’’हे प्राणनाथ! आप भी बाण द्वारा मंजरी तोडकर मुझे दीजिये।’’ भर्तृमित्र को बाणाविद्या नहीं आती थी अतः वह उसे मंजरी नहीं दे सका, उसे बहुत लज्जा आयी भर्तृमित्र ने मन में निश्चयकिया कि मुझे भी बाण विद्या अवश्य सीखनी है। मेघपरु नाम के नगर में धनुर्विद्या का ज्ञाता एक पंडित था। उसके पास जाकर भर्तृमित्र ने बहुत से रत्नदेकर तथाउसकी सेवा करके बाण विद्या में अत्यन्त निपुणता प्राप्त की। पुनश्चय उस नगर के राजा की कन्या मेघमाला को चंद्रकवेध प्रण में जीतकर उसके साथ विवाह किया। दोनों सुखपूर्वक रहने लगे। एक दिन भर्तृमित्र के घर से समाचार आया वह जाने के लिए उत्सुक हो गया और राजा से आज्ञा लेकर घर की ओर प्रस्थान किया। राज-वैभव के साथ रथ में सवार हो मेघमाला एवं भर्तृमित्र मद्दिल नगर की ओर जा रहे थे। रास्ते में वन में भीलों की पल्ली आई। वन में आगत पथिकों को लूटना ही उन भीलों का काम था। उनका सुवेग नामक सरदार था। सुवेग मेघमाल का मनोहर रूप देखकर मोहित हुआ और उसका अपहरण करने के लिए वह भर्तृमित्र से लड़ने लगा। मेघमाला उसका मन युद्ध से विचलित करने के लिए उसकी तरफ जाने लगी। सुवेग उसके रूप को देखने लगा। इतनेमें भर्तृमित्र ने बाण द्वारा उसके दोनों नेत्र नष्ट कर दिये,’ सुवेग घायल हो गया और मृत्यु को प्राप्त हुआ। भर्तृमित्र मेघमाला के साथ निर्विघ्न रूप से अपने नगर में पहुंच गया।

इस प्रकार सुवेग नेत्रेन्द्रिय के विषय में आसक्त होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ।

कर्णेन्द्रिय के वशीभूत गन्धर्वदत्ता की कथा

पाटली पुत्र नरेश की गन्धर्वदत्ता नाम की अनिद्य सुन्दरी नाम की राजकन्या थी। वह गान-विद्या में महानिपुण थी। उसने यह प्रतीज्ञा की कि जो मुझे गायन कला में जीतेगा, मैं उसे वरूंगी। बहुत से राजकुमार उसकी सुन्दरता से आकृष्ट होकर अये, किन्तु कोई उस कन्या को जीत नहीं सका। एक दिन बहुत दूर देश से गान विद्या का एक पण्डित पंचाल नाम का संगीताचार्य अपने पांच सौ शिष्यों के साथ्उस नगरी में आया। राजकुमारी की प्रतिज्ञासे वह परिचित हुआ। उसने राजा से कहा कि आपकी कन्या गान-विद्या में चतुर है, मैं भी इस विद्या से परिचित हूं। मैं अपनी पुत्री का गीत-संगीत सुनने का इच्छुक हूं। इस तरह की युक्ति से उसने गन्धर्वदत्ता के महल के पास अपना निवास-स्थान प्राप्त किया। मध्य रात्रि के अनन्तर शान्त वातावरण में वीणा की झंकार के साािउसने सुमुधुर गान प्रारम्भ किया। गन्धर्वदत्ता गहरी नींद में सो रही थी, धीरे-धीरे उसके कर्ण - प्रदेश में संगीत की लहरियां पहुंची, वह सहसा उठी। संगीत की ध्वनि ने उसको ऐसा आकृष्ट किया कि वह बेभान हो, जिधर से वह मधुर शब्द आ रहा था, उधर दौड़कर जाने लगी। उसका पैर चूक जाने से महल से गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुई कर्ण इन्द्रिय के वश होकर उसने अपने प्राण गवां दिये।

मृग सेन धीवर

अवन्ति देश के अन्तर्गत शिरीष नामक गांव में मृगसेन नाक का धीवर रहता था। वह शिप्रा नदी में मछली मारने जाता था, एक बार रास्ते में यशोधर मुनिराज के दर्शन किये और महाराज से नियम ले लिया कि जान में आयी हुई पहली मछली को नहीं मारूंगा। एक बडी 3छली उसके जाल में पांच बार आयीं किंतु उसनेउसे नहीं पकडा, तथा खाली हाथ् वापस आ गया। उसे खाली हाथ आते देख उसकी पत्नी घंटा ने नाराज होकर दरवजा बंद कर लिया वह घर के बाहर भूखा ही पुराने काष्टपर णमोकार मंत्र पढकर सो गया। रात में सांप के काटने से मर गया। पत्नी भी अगले जन्म में ये ही मेरे पति हो ऐसा निदान करके चिता में पति के साथ जल कर मर गयी।

विशाला नगरी में राजा विश्वंभर राज्य करते थे, उनकी रानी का नाम विश्वगुण था। उसी नगरी में गुणपाल सेठ रहता था, उसकी धनश्री नाम की भार्या और गुणमाला नाम की एक पुत्री थी। धनश्री के गर्भ में मृगसेन का जीव आया, राजा से नर्मभर्म मंत्री ने अपने पुत्र नर्मधर्म के लिए गुणपल की पुत्री से विवाह करवाने को कहा, सेठ उसके साथ अनी पुत्री की शादाी नहीं करना चाहता था, इसलिए अपनी स्त्री को श्रीदत्त मित्र केक पास छोडकर पुत्री व कुछ धन लेकर कौशाम्बी में रहने लगा। एक दिन आहार को आये शिगुप्त, मुनिगुप्त मुनिराज में से छोटे मुनि ने धनश्री को देखकर शिगुप्त मुनि से काह शायद इसके गर्भ में कोई अभागा आया है। शिवगुप्त बोले तुम्हारा अनुमान गलत है, इसके गर्भ में कोई धर्मात्मा पुत्र आया है। उसकी शादी राजपुत्री के साथ होगी। श्रीदत्त ने ईष्र्या वश पुत्र को मारने का विचार किया, प्रसव के समय माता मूर्छित हो गयी। श्रदत्त ने सुना औरबालक चण्डाल को सौंप कर मारने को कहा किंतु वह सुरक्षित स्थान पर छोडकर चला गया। कुछ देर बाद श्रीदत्त का बहनोई इन्द्रदत्त माल बेचने आ रहा था, उसने ग्वालों से पुत्र े बारे में सुनातसे वह उसे उठाकर ले गया। श्री दत्त को पता चला त बवह मायाचारी से बहिन व भांजे को ले आया और पुनः चाण्डाल को लोभ देकर मारने के लिए दे दिया। उसने भी दश वश नदी के किनारे गुफा में छोड़ दिया। वहां से भी ग्वालों का मुखिया गोविंद उठा ले गया। एक दिन श्रीदत्त घी खरीदने गया और उस पुत्र को देख करसंदेश देने के बहाने घर भेजा पत्र में उसको मारने की बात लिखी थी। पुत्र धनकीर्ति गले में पत्र बांधकर चला रास्ते में थकान दूर करने के लिए वृक्ष के नीचे सो गया। उसी समय एक वेश्य फूल तोडने के लिएउसी स्थान परआयी उसने गले में बंधे हुये पत्र को पढ़ा और आंख के काजल से स्याही बना कर पत्र के शब्दों को बदल दिया, कि प्रिये! तुम अपना स्वामी समझती हो व पु महाबल तुम अपना पिता समझते हो तो पत्र वाहक के साथ पुत्री की शादी कर देना ऐसा लिखकर वेश्या चली गयी। पुत्र की नींद खुलते ही जाकरउसने पत्र दिया। शुभ मुहुर्त में श्रीमती के साथ उसका विवाह हो गया। श्रीदत्त को विवाह का पता चला तो उसने गांव के बाहर पार्वत का मंदिर था, वहां धनकीर्ति को मारने के लिये एक व्यक्ति नियुक्त किया। और आकर पूजा की सामग्री दे कर भेजा। रास्ते में साले महाबल ने वह सामग्री ले ली और मंदिर गया तो वह मारा गया। तब श्रीदत्त ने हताश होकर पत्नि से कहा कि अब इसको मारने का काम तुम्हारा है तो पत्नि ने साफ लड्डू विष मिश्रित व मैले लड्डू सादे बनाए और पुत्री से दामाद को साफ लड्डू और पिता को मैले लड्डू परोसने को कह कर नदी नहाने चली गयी। पुत्री ने लज्जा वश मैले लड्डू पात को औरसाफ लड्डू पिता को परोस दिये। पिता लड्डू खाने से मरण को प्राप्त हो गया। जब स्त्री नदी से वापस आयी ओर पित को मरा देखकर स्वयं विषैले लड्डू खा कर मर गयी। एक बारराजा ने धकीत्रि के गुण और शील की प्रशंसा सुनकर अपनी पी की शादी कर दी और बहुत सारा दहेज देकर राजश्रेष्ठी पद पर नियुक्त कर दिय। पिता गुणपाल पुत्र के भाग्योदय को सुनकर पुत्र से मिलने आया। एक बार परिवार सहित यशोध्वज मुनि की वंदना करने गये। उन्होंने मुनिराज के मुखार बिन्द से धनकीर्ति के पूर्वभव की कथा सुनी। धन कीत्रि पूर्वभव में धीवर था उसकी घण्टा नामक स्त्री थी। इस भव में वह इसकी पत्नि सुलक्षण श्रीमति हुई है और मछली का जीव अनंगसेना वेश्या हुई। धीवर ने पांच बार मछली को अभय दान दिया था इसलिये उसकी भी पांच बार मृत्यु से रक्षा हुई। मुनिराज का उपदेश सुनकर धनकीर्ति ने और उसकी पत्नि ने तथा अनंगसेना ने भी दीक्षा ले ली। धकीर्ति सन्यास पूर्वक प्राण त्याग कर सर्वार्थसिद्धि में देव हुआ। आगे चलकर केवली होकर मोक्ष प्राप्त करेगा। श्रीमती और अनंगसेना स्वर्ग गयी। इस प्रकार धर्म की महिमा को जानकर भव्य जीवों को प्राणियों की रक्षा करना चाहिये क्योंकि धर्म रूपी कल्पवृक्ष मनोवांछित फल को देने वाला है।  

उत्तम संयम धर्म - अमृत बिन्दु

1. जो यम (मृत्यु) पर विजय प्राप्त कर दे उसका नाम है संयम।

2. चरणों की पूजा होती है, मस्तक की नहीं, क्योंकि आचरण प्रधान है।

3. जिस प्रकार गाडी में ब्रेक, घोड़े में लगाम, हाथी को अंकुश ऊंट को नकील की जरूरत होती है, उसी प्रकार मनुष्य के जीवन में संयम की जरूरत होती है।

3. एक बार खाये सो योगी, दो बार खाये सो भोगी, तीन बार खाये सो रोगी और चार बार खाये सो जल्दी मृत्यु होगी।

4. तीन गति 83 लाख 99 हजार 999 योनियों में संयम दुर्लभ है।

5. लोग गणन्त वस्तुएं तो छोड़ते हैं लेकिन मनगणन्त नहीं छोडते।

6. संयम का बंधन भव-भव के बंधन को काटने वाला है, इसलिए अभिनन्दन के योग्य है।

7. असंयत जीवन की वस तो ऐसी है, जिसमें हार्न को छोड़कर सब कुछ बजता है और ब्रेक को छोड़कर सब कुछ लगता है।

8. 28 इन्द्रिय विषयों के विरोधी 28 मूलगुण संसार बंधन छेद मुक्ति प्राप्त कराने वाले हैं।

9. पर्व के दिन हरी भक्षण के नहीं हरि भजन के दिन है।

10. जैसे जलेबी की मिठास कृत्रिम और अंगूर की मिठास अकृत्रिम होती है, उसी प्रकार विषयों का सुख कृत्रिम और आत्मीक सुख अकृत्रिम (स्वाभाविक) होता है।

11. क्रम उद्देश्य में नहीं चलने में है।

12. मोक्ष मार्ग शरीर में नहीं आत्मा में है।

13. पर को छोड़कर भी स्थिरता नहीं आ पाती क्योंकि उसका विकल्प नहीं छूट पाता है।

14. मारना है तो, क्रोधादि विकारों को मारो जीवों को नहीं।

15. आलम्बन बदला दिशा नहीं, इसलिए जहां के तहां है।

16. जैसे ककडत्री काजहर निकल जाने पर मीठा स्वाद आता है, उसी प्रकार आत्मा से क्रोध आदि विकार निकल जाने पर असीम आनन्द आता है।

17. सम्यग्दर्शन का कोई एड्रेस नहीं किंतु मुनि दीक्षा मनुष्य को ही संभव है।

18. पर को छोड़ना व्यवहार चारित्र स्व में रमना निश्चय चारित्र है।

19. परिणामों की निर्मलता ही चारित्र है।

20. कषायों को छोड़े विना जहां जाओगे वही घर बस जायेगा।

21. जितनी तीव्र कषाय होगी व्यक्ति उतने जल्दी विचलित होगा।

22. सत्पुरूष प्राणों के जाने पर भी प्रतिज्ञा नहीं छोड़़ते।

23. आयु और शरीर की निर्जरा नहीं कर्म निर्जरा का लक्ष्य होना चाहिए।

24. सांसारिक सुख पर पदार्थ के अवलम्बन से होता है, आनन्द स्वाधीनता में है।

25. इन्द्रियां धोके बाज हैं, साधना के मार्ग में साधक को सदा सावधान रहना चाहिए।

26. शिर मुण्डल से मन का मुण्डल कठिन है।

27. संसार की सर्वावस्थायें आशश्वत हैं।

28. दूसरों को हमारे माध्यम से व्यवधान न हो यह भावना भी अहिंसा है।

29. संयम की वृद्धि ज्ञान और वैराग्य से होती है।

30. वचपन में मुनिपना चल सकता है किंतु मुनि पने से बचपना नहीं चल सकता।

31. जिह्वा किसी को ग्रहण नहीं करती सरस हो तो अन्दर और नीरस हो तो बारह कर देती है।

32. विषय वासना का चक्कर सबके लिए अहितकारी है।

33. सौभाग्य को ठुकरा देना भी दुर्भाग्य है।

34. गम्भीरता के बिना संयम का आनन्द नहीं आता।

35. संकल्प में बहुत शक्ति होती है।

36. सांसारिक सुख तीन प्रकार का

1. विषय सुख शहद लपेटीतलवार की तरह

2. देवों का सुख दग्ध चन्दन की तरह

3. चक्रवर्ती का सुख विष मिश्रित अन्न की तरह तथा सिद्धों का सुख आकुलता रहित है।

37. साधारण व्यक्ति से राजा, राजा से व्यन्तर, व्यन्तर से ज्योतिषि, ज्योतिषि से वैमानिक से ग्रैवेयक, ग्रैवेयक से अनुत्तर विमान तथा इन सबसे अनन्तगुणा सुख सिद्धों के होता है।

38. आज का पुरूषार्थ ही कल का भाग्य बनता है।

39. जो स्वयं पर अनुशासन नहीं रख सकता वह दूसरों पर क्या अनुशासन रखेगा।

40. अहिंसक इस बात का ध्यान अवश्य रखता है कि मेरी खुशी में किसी की आंखों में आंसू तो नहीं।

41. संसारी प्राणी जहां आज तक सुख नहीं मिला वही खोज रहा है, यह आश्चर्य की बात है।

42. तम्बाखू के सेवन से प्रति वर्ष 60 लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है।

43. एक बूंद बिना छने पानी में 36 हजार 450 जीव होते हैं। (वैज्ञानिक शोध)

44. विषय की आसक्ति से रूद्र मुनि ग्यारहवें गुण स्थान को छूकर भी एकेन्द्रियों तक में भटक जाते हैं।

45. जिसका वर्तमान आचरण शुद्ध है, उसका भविष्य नियम से उज्ज्वल होगा।

46. गृहस्थ की निर्जरा गज स्नान अथवा मथानी की रस्सी के समान है।

47. गृहस्थ की निर्जरा शयन करते साधु से भी कम है।

48. जिसकी दृष्टि कर्म निर्जरा पर होती है वह हर प्रसंग हंस कर टाल देता है।

49. जिस प्रकार ठंड में आग अच्छी लगती है किंतु छूने पर जलाती है, उसी प्रकार विषय भोग है।

50. विषयासक्ति से देव भी एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो जाते हैं, किंतु नारकियों को वहां की सामग्री में राग न होने से पंचेन्द्रियो में ही उत्पन्न होते है।

अमृत दोहावली

कथनी बिन करनी करें, ज्ञानी जन दिन रात।
निजी बढाई के बिना, जैसे मुंह में दांत।।1।।

विषय बढा विष है सुनो, विष सेवन से मौत।
विषय कषाय विसार दे, आत्म सिद्धि का योग्य।।2।।

ज्यो मति हीन विवके विना नर, पाय मतगंज ईधन ढोवे।
कंचन भाजन धूल भरे शठ, मूढ़ सुधारस सो जग धोवे।।3।।

वाहत काग उडाव कारा, डार महामणि मूरख रोवे।
त्यौ यह दुर्लभ देह बनारस, पाय अज्ञानी अकारण खोवे।।4।।

मनुज जन्म दुर्लभ यहे, होय न दूजी वार।
पक्का फल जो गिर गया, फेर न लागे डाल।।5।।

नीचे देखे तीन गुण, पड़ी वस्तु मिल जाय।
ठोकर भी लागें नहिं, जीव जन्तु बच जाय।।6।।

तिल तैल मेवमिष्टं येन न दृष्ट घृतं क्वापि।
अविदित परमानंदो, वदति स विषय एव रमणीय।।7।।

बीतने वाली घडी को, कौन लौटा पायेगा।
इस धरा का इस धरा पर, बस धरा रह जायेगा।।8।।

जिन्दगी भर का कमाया, साथ में क्या जायेगा।
यह सुअवसर खो दिया तो, अंत में पछतायेगा।।9।।

अन्तर विषय वासना वर्ते, बाहर लोक लाज भयकारी।
ताते परम दिगम्बर मुद्रा, धर न सके दीन संसारी।।10।।

।।ऊँ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगय नमः।।
इति उत्तम संयम धर्म