उत्तम आकिंचन्य धर्म

मंगलाचरण

चतुर्निकायामरवन्दिताय, घातिक्षयावाप्तचतुष्टयाय।
कुतीर्थतर्काऽजितशासनाय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय।।1।।

अर्थ- चतुर निकाय के देवों द्वारा वन्दनीय, घातिया कर्मों के क्षय करने से जिन्हें अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हुई है तथा मिथ्यावादियों के तर्कों से जिनका शासन अजेय है, ऐसे दवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार हो।

आकिंचन्य का लक्षण

शारीररादिकमात्मीय - मनपेक्ष्य प्रवर्तनं।
निर्ममत्वं मुनः सम्य - गाकिंचन्यमुदाहृतम्।।2।।

अर्थ- शरीा आद पर पदार्थों को अपना नहीं मानना निर्ममत्व भाव से प्रवर्तन करनेवाले मुनि के आकिंचन्य धर्म कहा गया है।

उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारादित्यागात्, ममेदमित्यभिसन्धि-निवृत्तिः आकिंचन्यमिष्यते। यत्र जीवाऽबद्धास्तथ जीवनिबद्धा बाह्याम्भ्यंतरभेदभिन्नाः परिग्रहा मनोवाक्कार्यः कृतकरिताऽनुमतैः त्यज्यनते बुधैस्तदाऽकिंचिन्यधर्मों भवति।

अर्थ- गृही शरीर आदि में संस्कार कात्याग तथा यह मेरा है ऐसे अभिप्राय का त्याग आकिंचन्य माना गया है। जहां पर ज्ञानियों द्वारा बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का मन-वचन-काय कृत कारित अनुमोदना से त्याग किया जाता है, वहां आकिंचन्य धर्म होता है। यह आकिंचन् धर्म तीनों लोकां में पूज्य है लोभ, तृष्णा आदि पर्वत कोभेदने के लए वज्र के तुलय है। पाप रूपी अंधकार के नाश केलिए सर्यू के समान है। श्री जिनेश् गणधर आदि के द्वारासेवनीय है, मोक्ष का मार्ग है, सुख की खान है। अपनी शक्ति कोन छिपाकर मन, वचन काय से परिग्रह का त्याग करने वाल पुयष शुद्धि को प्राप्त होत ह। ज्यादा कहने से क्या लाभ बाल से अग्र भाग मात्र परिग्रह मुनि के अयोग्य है अतः कभी भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। परिग्रह के गहण करने से उसकी रक्षा की चिन्ता होती है। उसके नाश होने पर शोक क्रोध आदि उत्पन्न होते है, उन शोक आदि से घोर पाप का बंध होता है, पाप से दुर्गति की प्राप्ति होती है दुर्गतियों में तीव्र दुःख प्राप्त होते है ऐसा मानकर परिग्रह का पूर्ण रूप से हमेशा के लिए त्याग करना चाहिए।

शक्तिहीन प्राणियों को कठिनाई से छोड़ने योग्य समस्त देष कारक अंतरंग परिग्रह प्रयत्न पूर्वक छोड़ने योग् है। सभी प्राणी अंतरंग पिग्रह की मूर्छा के कारण ही पाप, दुध्र्यान, दुःखों की खान बाह्यपरिग्रह रूपी कीचड में डूबते हे। अंतरंग परिग्रह से युक्त प्रााी का वस्त्रों कात्याग करना, दीक्षा ग्रहण करना, व्रतों का धारण करना, तपश्चरण करना आदि सभी व्यर्थ है, जैसे काला सांप कांचनी छोडता है किंतु विष नही छोडता। उसी प्रकार कोई दुर्बुद्धि वस्त्र आदि का त्याग करताहै किंतु अंतरंग परिग्रह नहीं छोडता है। इसलए जो मिथ्यात्व तीन वेद, हास्य आदि कषायों को छोडने में असमर्थ हैउनका वस्त्र आदि का त्याग सांप के कंचली छोडने के समान होताहै। ऐसा मानकर मुनि को अंतरंग परिग्रह नष्ट करना चाहिए। अंतरंग बहिरंग परिग्रह के त्याग से मन की शुद्धि होती है, जिसमें कर्म रूपी जंगल को जलानेवाला ध्यान होता है। जोव्यक्ति द्रव्य आदि बाह्य पिरग्रह छोउ़ने के लिए असमर्थ है। वह अंतरंग कषाय आदि शत्रुओं को कैसे छोडेगा। जो शरीर आदि में विरक्त मोक्ष के इच्छुक है, वे थोड़ा भी परिग्रह तथा इन्दिय जन्य सुख आद नही चाहते है, वे ही धन्य है, पूज् है ऐसा मानकर विषय सुख् के साथ कषाय रूपी शत्रुओं को नष्ट कर मोक्षार्थी मुनि दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करें।

परिग्रह संज्ञा का कारण

उवयरण दंसणेण य, तस्सुवजोगेण मुछिदाय य।
लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जायदे सण्णा।।3।।

अर्थ- उपकरणों के देखने से उस पर उपयोग लगाने से उनमें मूर्छाभाव रखने से तभा लोभ कर्म की उदीरणा होने से परीग्रह संज्ञा उत्पन्न होती है।

मूच्र्छामोह वशान् ममेदम हम-स्येत्येवमोशनम्,
तो दृष्टग्रहवन्न में किमपि नो, कस्याष्यहं खल्विति।।4।।

आकिंचन्यसुप्रसिद्धमन्त्रसतता - भ्यासेन धुन्वन्ति ये,
शश्वत् ते प्रतपन्ति विश्वपतयश्चित्रं हि वृत्तं सतां।।5।।

अर्थ- मेह के वश में यह मेरा है मैं इसका हूं इस प्रकार की जो मूर्छा है उसको दुष्ट गृह की तरह मेरा कुछ नहीं है इस आंकिच्नय रूपी प्रसिद्ध मंत्र के सतत अभ्यास से जोनष्श्ट करते हैं वे विश्व के स्वामी सज्जनें के आश्चर्यकारी चारित्र का निरंतर आचारण करते हैं।

आकिंचनोऽहमित्यास्व, त्रैलोक्यादि पतिर्भवेः
योगिगम्यं तवप्रोक्तं, रहस्यं परमात्मनः।।6।।

अर्थ- हे भव्य! मैं अकिंचन हूं कुछभी मेरा नहीं है, ऐसी भावना करने से तू शीघ्र ही तीन लेक का स्वामी होगा। योगीश्वरों को गम्य परमात्मा बनने का रहस्य मैंने तुझको कहा है।

’’संग एव मतः सूत्रे, निःशेषानर्थमन्दिरम्’’

अर्थ- आगम में परिग्रह को ही समस्त अनर्थों का स्थान कहा है।

साम्राज्य कथामप्वाप्य सुचिरात्, संसारसारं पुनः,
तत्यवक्त्वैव यदि क्षितीवरवराः, प्राप्ता श्रियं शाश्वतीं।।7।।

त्वं प्रागेव परिग्रहान् परिहर, त्याज्यान् गृहीत्वा ऽपि ते,
माऽभूभैतिकमोदकव्यतिकरं, संपाद्य हास्यास्पदम्।।8।।

अर्थ- हे भव्य! जैसे पूर्व काल में बड़े-बडे राजा पुण्योदय से संसार में सारभूत चक्रवर्ती का पद पकर, बहुत काल तक उसका भोग कर फिर त्याग कर शाश्वत निर्वाण सम्पदा को प्राप्त हुए क्योंकि निर्वाण पद का कारण परिग्रह का त्याग ही है इसलिए तू पले ही परिग्रह कात्याग कर क्येांकि कुमारावस्था में ही मुनिपद धारण कर बाल-ब्रह्चर्य के समान और कुछ नहीं है। यह परिग्रह तो त्यागने योग्य ही है। जिन्होंने चक्रवर्ती के ऐश्वय्र को भोगा, उन्होंने भी त्यागा तभी मुक्त हुए इसलिए जो राज्य नहीं करते और विवाह नहीं करते, उनके समान और कोई नहीं है। अतः यदि तेरे यह अभिलाषा है कि जो परिग्रहो को पहले ग्रहण कर लू और बाद में छोड़ दूंगा ऐसी कामना से तो तू भेषधरी के लड्डू की सी कहावत करा के लोक में अपनी हंसी मत करावें।

मालिनी छनद

व्रजति भृशमधस्ताद् गृह्यमाणेऽर्थजाते,
गतभरमुपरिष्टात् तत्र संत्यज्यमाने।।9।।

हतकहृदय् तद्वद् येन यद्वत् तुलाग्रं,
जहीहि दुरितहेतुं येन संग त्रिधापि।।10।।

अर्थ- जिस प्रकार तुला में एक ओर पदार्थ के रख् देने पर पलड़ा नीचे की ओर चला जाता है और पदार्थ निकाल लेने पर पुनः ऊपर की ओर चला जाता है, सो प्रकार पर पदार्थों के ग्रहण से प्राणी अधोगति में जाता है औरत्याग करने से ऊध्र्व गति में जाता है इसलिए हे दुष्ट प्राणी! पाप के कारण परिग्रह को तू मन-वचन-काय से छोड़ दें।

रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्, निवृत्तिस्तन्निषे्धनम्।
तौ च बाह्यार्थ सम्बद्धों तस्मात् तान् सुपरित्यजेत्।।11।।

अर्थ- राग, द्वेष को प्रवृत्ति कहते हैं और उनके अभाव को निवृत्ति कहेत हैं तथा वे राग द्वेष बाह्य पदार्थ से सम्बद्ध है इसलिए उनका अच्दी तरह त्याग करना चाहिए।

बाह्यग्रन्थविहीना दरिद्रमनुजा स्वपापतः सन्ति।
पुनरभ्यन्तर संग - त्यागी, लोकेऽति दुर्लभो जीवः।।12।।

अर्थ- पाप के उदय से दरिद्र मनुष्य बाह्य परिग्रह से रहित होते है, किंतु अंतरंग परिग्रह के त्यागी जवी लोक में दुर्लभ हैं।

अंतरंग परिग्रह के भेद

मिथ्यात्व वेद रागास्तथैव हास्यादयश्च षड् भेदाः।
चत्वारश्च कषयाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्था।।13।।

मिथ्यात्व स्त्री, पुरूष और नपुंसकर वेद का राग, इसी तरह हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह दोष और चार कषाय क्रोध मान माया लोभ अथवा अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संजूवलन ये चार कषाय इस प्रकार अंतरंग परिग्रह के चैदह भेद हैं।

बहिरंग परिग्रह के भेद

क्षेत्रं गृहं धनं धान्य, द्विपदं च चतुष्पदं।
आसनं शयनं वस्त्रं भाण्डं स्याद् गृहमेधिनां।।14।।

अर्थ-

1. खेत

2. मकान

3. सोना, चांदी

4. धान्य (अनाज)

5. दासी, दास

6. गाय बैल आदि

7. आसन (बर्तन)

8. शयन (वस्त्र)

पाप और अरंभ की हानि के लिए गृहस्थाों को इनद स प्रकार के परिग्रहों का परिमाण करना चाहिए।

’’त्यागः परिग्रहाणा - मवश्यमजरामरं कुरूते।’’

अर्थ- परिग्रह का त्याग अवश्य ही अजर-अमर बनाता है।

सर्वसंगविनिर्मुक्तः, संवृताक्षः स्थिराशयः।
धत्ते ध्यान धरां धीरः, संयमी वीरवर्णिताम्।।15।।

अर्थ- समस्त परिग्रह से रहित जितेन्द्रिय निश्चय मन वाला धरी वीर संयमी ही भगवान के द्वरा बताये हुये ध्यान की धुरा को धारकण करता है।

विजने जन संकीर्ण, सुस्थिते दुःस्थितेऽपि व।
सर्वत्राप्रतिबद्धः स्यात्, संयमी संगवर्जित।।16।।

अर्थ- एकान्त हो या जन समूह, अच्दी तरह स्थित हो या न हो परिग्रह से रहित संयमी सर्वत्र स्वतंत्र होता है।

नाणवोऽपि गुणा लोके, दोषाः शैलेन्द्र सन्निभाः।
भवन्त्यत्र न सन्देहः, संगमासाद्य देहिनाम्।।17।।

अर्थ- लोक में प्राणियों के परिगग्रह के कारण अणु मात्र भी गुण नहीं होेते हैं और दोष सुमेरूपर्वत के बराबर होते हैं, इसमें संदेह नहीं है।

यस्यदान विहीनस्य, धनानयान्ति यान्ति च।
अरण्यकुसुमानीव, निरर्थास्तस्य सम्पदः।।18।।

अर्थ- दान रहत जिस व्यक्ति का धन आता जाता है उस व्यक्ति का धन जंगल के फलों की भांति निरर्थक है।

नृणां वरं न दारिद्रयं, दानहीनं महद्धनं।
मोहशोकाद बींज च, पापं दुर्गति कारणम्।।19।।

अर्थ- मनुष्यों की दरिद्रता ठीक है, किंतु दान से हीन बहुत धन व्यर्थ है। क्योंकि धन मोह, शोक आदि का बीज है एवं दुर्गति का कारण है।

योऽर्थः समज्र्यते दुःखाद् रक्ष्यते चातिदुःखतः,
अनेन त्रिवर्ग पुरूषार्थ सद्भि, दानाद् भोगाच्च नित्यशः।।20।।

परं त्रिवर्गपुरूषार्थहेतोः प्रधानमर्थों ननु साधनीयः।
अनेन कृत्वा भुवि धर्म कामौ, सुखेन यातः स्वयमेव सिद्धिम्।।21।।

अर्थ- जो धन दुःखसे अर्जित किया जाता है एवं दुखः से जिसकी रक्षा की जाती है, उसका फल सज्जनों द्वारा नित्य ही दान औरभोग से ग्रहण किया जाता है। धर्म, काम और मोक्ष पुरूषार्थ के लिए अर्थ पुरूषार्थ कासाधन करना चाहिए। इस प्रकार पृथ्वी परधर्म और काम स्वयमेव सुख से सिद्ध हो जाते हैं।

यौन मौखादि सम्बन्ध द्वारेणऽऽविश्य मानसम्।
यथा परिग्रहश्चिद्वान् मथ्नाति न तथेतरः।।22।।

अर्थ- जैसे स्पर्शन और रसना इन्द्रिय के माध्यम से मन को वश में करके चेतन परिग्रह दुःखी करताहै, वैसे अचेतन परिग्रह दुःखी नहीं करता है।

शरणमशरणं वो बन्धवो बंधमूलम्,
चिरपरिचित द्वारा द्वारमापदगृहाणाम्।।23।।

विपरिमृशत पुत्रः शत्रवः सव्रमेतत्
त्यजत भजत धर्मं निर्मलं शर्म कामाः।।24।।

अर्थ- घर शरण रहित है, हां तुझे कोई बचानेवाला नहीं है, बन्धु बान्धव सब बंध के मूल है जिससे तेरा अति परिचय है ऐसी जो स्त्री वह भी आपदा रूप घर के द्वार है येपुत्र तेरे शत्रु हैं। सर परिवर ही दुःख का कारण है। ऐसा विचार कर तू इन सबको छोड़ दे और यदि सुख चाहता है तो धर्म की शरण ले।

वपुर्गृहं धनं द्वाराः पुत्राः मित्राणि शत्रवः।
सर्वथान्यस्वभाविानि मूढः स्वानि प्रपद्यते।।25।।

अर्थ- यह शरीर धन, घर, स्त्रियां, पुत्र, शत्रु, बैरी, बस तरह से आत्मा से अनय स्वभाव वाले हैं परंतु मोही आत्मा उनको अपने मानता है।

शिष्य के अनुशासन में भी क्रोध

यः शिष्यते हितं शश्व-दन्तेवासी सुपुत्रवत्।
सोऽप्यन्तेवसिनं कोपं, छोपयत्यन्तरान्तरा।।26।।

अर्थ- जब शिष्य को पुत्र की तरह अनुशासित किया जाता है, तब शिष्य पर क्रोध करना पड़ता है वह क्रोध भी बीच-बीच में मन को क्षुभित करता है।

परिग्रह की निंदा

आरम्भो जन्तु घातश्चय कषायाश्च परिग्रहात्।
जायन्तेऽत्र ततः पातः प्राणिनां श्वभ्रसागरे।।27।।

अर्थ- परिगह से आरम्भहोता है आरंभ से जुन्तुओें का घात होता है और जुन्तुओं के घात में कषाय होती है, जिससे प्राणियों का नरक रूपी समुद्र में पतन होता है।

संगात् कामस्ततः क्रोधः, तस्मात् हिंसा तयाऽशुभां।
तेन श्वाभ्री गतिस्तस्यां, दुःख वाचामगोचरम्।।28।।

अर्थ- परिग्रह से काम की उत्पत्ति होती है, काम से क्रोध से हिंसा होती है हिंसा से अशुभ कर्म क बंध होता है। जिससे नरक गति की प्राप्ति होती है। नरक गति में वचनातीत दुःख प्राप्त होते हैं।

अनित्येऽत्रैव संसारे, यावन्मात्रः परिग्रहः।
तावन्मात्रस्तु सन्तापस्तस्मात् त्याज्यः परिग्रहः।।29।।

अर्थ- इस अन्नित्य संसार में जितना परिग्रह है उतना संताप है, इसलिए परिग्रह छोड़ने योग्य है।

अप्रत्ययतमोरात्रिः लोभाग्नि समिधाहुतिः।
सावद्य ग्रहा वारिराशिस् तथापीष्टः परिग्रहः।।30।।

अर्थ- परिग्रह अविश्वस के लिए अन्धकार युक्त रात्रि के समान है लोभ रूपी अग्नि को बढाने के लिए लकडी की आहुति के समान है पाप रूपी मगरचच्छ के निवास के लिए समुद्र के समान है तो भी लोगों को परिग्रह इष्ट है। यह आश्चर्य की बात है।

अणुमात्रादपि ग्रन्थान् मोह ग्रन्थी दृढ़ी भवेत्।
विसर्पति ततस्तृष्णा, यस्यां विश्वं न शान्तये।।31।।

अर्थ- अणु मात्र भी परिग्रह से मोह रूपी गांठ दृढ होती है उससे तृष्णा बढती है, जिस तृष्णा की शान्ति के लिए पूरा विश्व भी समर्थ नहीं है।

यः संगपंग निर्मग्नो ऽप्यपवर्गाय चेष्टते।
समूढः पुष्प नाराचै, र्विभिन्द्यात् त्रिदशाचलम्।।32।।

अर्थ- जो परिग्रह रूपी कीचड़ में निमग्न होकर भी मोक्ष के लिए चेष्ट करता है, वह मूर्ख पुष्पों के बाण से सुमेरू पर्व को भेदना चाहता है जो कि असम्भव है।

अथ हिंसाकरं क्षेत्रं, त्यज त्वं धर्महेतवे।
यदि त्यक्तुं समर्थो न, संख्यां कुरू हलादिके ।।33।।

अर्थ- धर्म के लिए हिंसाकारक खेत का त्याग करो, यदि त्याग करने में असमर्थता हो तो खेत हल आदि का प्रमाण करो।

ममत्वजनकेऽसरे, स्थावर?सधातके।
संतोषधनसिद्धयर्थं, भज संया गृहादिके।।34।।

अर्थ- संतोष रूपी धन की सिद्धि के लिए ममत्व केा उत्पन्न करनेवाले एवं स्थावर और त्रस जीवेम की हिसां के कारण गृह आदि का परिमाण करो।

द्रव्यरूप्यसुवर्णादौ, स्तोकां संख्यां विधेहि भी!
लोभां पापकरं त्यक्त्वा, पीत्वा संतोषजामृतम्।।35।

अर्थ- संतोषरूपी अमृत को पीकर पाप को करने वाले लोभ को छोड़कर हे भव्य जीव! थोड़ी सोने चांदी आदि की मर्यादा कर।

शाल्यादि सर्व धान्यानां, प्रमाणां भज सर्वथा।
कीटाद्युत्पत्ति हेतूनां, ह्यस्व व्रत विशुद्धये।।36।।

अर्थ- अणु व्रतों की विशुद्धि के लिए कीट आदि की उत्पत्ति के कारण शाली आदि समस्त अनाजों की परिमाणा करो।

भृत्यानां दास दासनां, भार्याणां च शुभाय वै।
परिमाणं प्रकर्तव्यं, श्रावकैः गुरू सन्निधौ।।37।।

अर्थ- श्रावकों को कल्याण के लिए गुरूके समीप दासीस दास और स्त्रियों का भी परिमाण करना चाहिए।

अश्ववृषभगोसर्व- चतुष्पद कदम्बके।
त्रासादि हिंसके स्तोकां, कुरू संख्यां प्रमापदे।।38।।

अर्थ- त्रस आदि जीवों की हिंसा के कारण घोड़ा, बैल, गाय आदि समस्त पशुओं का प्रमाण करो।

याने सिंहासने चैव, शकटादौ तथा भज।
प्रमाणं मित्र! धर्माय, खट्वादि शयने वरे।।39।।

अर्थ- हे मित्र! धर्म के लिएवहन सिंहासन, गाड़ी, खाट और कोमल शय्या आदि का प्रमाण करो।

क्षौमादिके सुवस्त्रे च, भज संख्यां व्रताय भी!।
मंजिष्ठादै च सद् भाण्डे, महाघ्र्ये भाजने तथा।।40।।

अर्थ- हे भव्य व्रतों की रक्षा के लिए (क्षोभ) रेशम ऊन आदि के वस्त्र तथा मंजिष्ट आदि वस्तुओं का और सोना-चांदी के कीमती वर्तनों का परिमाण करो।

बाह्य संगरते पुंसि, कुतश्चित्त विशुद्धता।
सतुषे हि बहि र्धान्ये, दुर्लभाऽन्तर्विशुद्धता।।41।।

अर्थ- बाह्य परिग्रह में लीन पुरूष के मन की शुद्धि कैसे हो सकती है, जैसे बाह्य में धान्य का छिलका होने पर अंतरंग की लालामी दूर कैसे हो सकती है? अर्थात नहीं हो सकती है।

कादाचित्को बन्धः क्रोधादे कर्मणः सदा संगात्।
नातः क्वापिकदाचित् परिग्रहवतां जायते सिद्धिः ।।42।।

अर्थ- क्रोध आदि विकारी भावों से कदाचित बंध होता है किंतु परिग्रह से निरंतर बंध होता है इसलिएपरिग्रही जीवों को कभी भी मोक्ष नहीं हो सकता है।

सत्यं परित्यजति मुंचति बन्धु वर्गं,
शीघ्रं विहाय जननीमपि जन्मभूमिं।।43।।
सन्त्यज्य गच्छति विदेशमपीष्टलोकं,
वित्ताकुलीकृत्तमति, पुरूषोऽत्र लोके।।44।।

अर्थ- इस लोक में धन से आकुलित है बुद्धि जिसकी ऐसा पुरूष सत्य को छोड़ देता है बन्धु वर्ग को, माता को, जन्मभूमि को और इष्ट देश को भी छोडकर कमाने के लिए विदेश चला जाता है।

अकिंचन्यधर्म - कथानक

1. एक अफीमची पड़े थे नदी के किनारे वृक्ष के नीचे। अरे! अब कहां जाऊंगा, चाले भूखे ही सही, रात तो बीत जी जायेगी यहा। प्रातः की प्रातः देखी जायेगभ्। इतने में एक राजा का लश्कर आया। शाम हो रही थी, नदी के किनारे डेरे लगा दिये। टेन्ट, तम्बू तनने लगे।यह सब देखकर अफीमची मनमें काफी प्रसन्न हुआ और सोचताहै कि कितना सुंदर नगर बसा गया, कितने दयालु हैं प्रभु।अपने इस भक्त परदया करके यहां ही नगर बसा दिया? वाह, वाह कितना अच्छा हुआ अब कहीं भी नहीं जाना पड़ेगा। बस इस नगर में ही अब मौज से जिंदगी कटेगी। इन्हीं विचारों में खोय उसकी नींद लग गई। प्रातः होने परदेखा तो नजारा ही बदल गया। तम्बू उखडने लगे, कूच का बिगुल बज गया, चारो ओर चलने-चलने की मच गई। फिर क्या था? इसके तो मानो प्राण् ही नकल गये। एक व्यक्ति को रोककर पूछा कि भई! किधर जा रहे हो? उसने कह कोन हो तुम? अफीमची ने कुछ निराशाभरी आवाज में काह, मेरे लिए ही तो भेजा था प्रभु ने यह सब। ’’अरे चल चल!’’ कौन तू और कौन है तेरा प्रभु? अपनी मंर्जी से आये थे और अपनी मर्जी से जाते हैं। न तुझसे पूछकर अये थे, और न तुझसे पूछकर जाते हैं। तू कौन होता है हमसे बात करने वाला? और निराश रोता का रोता रह गया बेचारा यह अफीमची। जो वस्तुत वस्तुतः हमारी है ही नहीं उसके आने पर हम हर्षित होते हैं अैर जाने पर विषाद करते हैं। यह दाा किसी अफीमची अज्ञानी की हो सकती है, ज्ञानी की नहीं। और ऐसे ही व्यर्थ के विकल्प कुछ ऐसे हैं जो हमें हमेशा परेशानी में डालते हैं

2. सेठ जी का नैक्र काफी पुराना था। सेठ जी के घर का काम वह काफी जिम्मेदारीसे करता था।साफ सफाई, सामान के रख रखाव का पूराध्यान रखता था। उसकी सेवा से सेठ जीप्रसन्न हरते थें एक दिन शाम को जब सेठ जी घर आये तो देखा कि घड़ी फूटी पड़ी है। सेठ जी ने नौकर से घड़ी फूटने की बात पूछी तो नौकर ने कहा, मालिक सफाई करते समय घड़ी जमीन पर गिरी और फूट गयी। गलती तो मुझेस हुई किंतु क्षमा चाहता हूं। घडी काफी पुरानी और कीमती थी। उससे कमरे की बहुत शोभा थी, सेठ जी को इस नुकसान से मन में काफी दुःख हुआ। सेठ जी नेनौकार को थोडा डाटा भी, पर नौकर से ज्यादा कहते भी क्या? नौकर तो नौकर था, अनुभवी और समझदार था। सो सेठ जी से विनम्रता पूर्वक क्षमा याचना की, सेठ जी को क्षमा भी करना पड़ा और निश्चितंत होकर नौकर अपने घर चला गया। इस नुकसान के बावजदू भी नौकर रात्रि में निश्चिंता से सोया क्योंकि नुकसान तो सेठ का हुआ है। अपना नीं। जबकि अपनी घड़ी फूट जाने के कारण सेठ रात भ आकुल व्यााकुल रहा। सेठ का मन उस घडी में ही लगा रहा, क्येंकि घडी सेठ जी के पास वर्षों से थी। सेठ जी का स्वामित्व भाव जुडा हुआ था, इसलिए सेठ को घडी के फूट जाने से विकल्प हुए किन्तु नौकर का उसमें अपनेपन का भाव नहीं जुडा था, इसलिये नाकर घड़ी फूट जाने के बाद भी निश्चिंत रहा। इस तरह सेठ भी अनी आकुलता और नौकर निराकुलात समझ रहा था, तो उसने दूसरे दिन एक प्रयोग किया, नौकर डयूटी पर आया है। दिन भर काम किया, शाम को जब घर जाने लगा तो सेठ जी ने बड़े स्नेह भाव सेनौकर के कंधे पर हाथ रखा और कहा- नुकसान हो जाने से कल मेरा मन जरा खिन्न स हो गया था, उसी कारण मैंने तुम्हें डांट सा भी दिया, परवो बात, कल की बात थी। आज मन प्रसन्न है, मैं क्या बताऊ? जब भी तुम्हारे बारे में मैंने कुछ अच्छा सोचा है, आपकी तरफ से कुछ न कुछ गडबड हो गया। मैं कल सोच रहा था कि इतने दिन हो गये सेवा करते करते कुछ पुरस्कार भी दे देना चाहिए और कलम न बनाया था कि क्येां न हो यही घड़ी तुम्हें पुरस्कार में देदी जाये। पर क्या करें? वह तो तुम्हारे से ही फूट गयी, यदि नहीं फूटती तो तुम्हें जरूर दे देते। इतना कहकर सेठ जी ने नौकर को घर जाने के लिए कह दिया। नौकर चला गया। अब आज की रता सेठ जी निर्विकल्प होकर सोये हैं लेकिन.................. नौकर सारी रात विकल्प करता रहा। यदि घड़ी नहीं फूटी होती तो मुझे मिल जाती, बस यही बात आकिंचन्य के सन्दर्भ में समझना है। घड़ी फूटी पड़ी है, अ बवह न सेठ के पास है और न नौकर के पास, किंतु एक रात अपने स्वामित्व, ममताभाव के कारण सेठ जी विकल्प में रहे और दूसरी रात नौकर। वस्तु के प्रति अपना ममत्व भाव ही हमें आकुल व्याकुल करता है।

3. एक शहर के बीचों बीच एक बहुत बडा मकान था। मकान बड़ा सुन्दर, कीमती था, मालक उसे बेचना चाहता था, ग्राहक भी पूंछताद करने आते रहते थे। एक दिन अचानक देखा कि लाखों की कीमत वाला वह मकान धू-धू कर जल रहा है। आसपास के सभी लोक इकट्ठे हो गये। मकान मालिक को जैसे ही जानकारी मिली वह दौडा-दौडा आया और स्थिति कोदेखकर छाती पीट-पीटकररोने लगा। हाय मैं तो बर्बाद हो गया, लाखों की कीमत वाला मकान, कितनी मेहनत से बनाया था। यही तो एकमात्र मेरी सम्पत्ति थी, बस इसे बेचना ही तो था। इतने में बैटा भागत-भागता आया और बोला पिता जी! मकान जलने पर आप रोते क्यों हो? इस मकान का तो सौदा हो चुका है। यहतो बिक गया, कल ही तो उसकी बातचीत हुई। बस इतना सुनना था कि उसका रोना बंद हो गया,उसने राहत की सांस ली और कहा- सच, मकान बिक चुका। हाँ! पिताजी मकान बिक चुका है। मैंने और छोटे भाई ने कल ही सौदा किया था। चिंता करने की जरूरत नहीं है। मकान अब भी जल रहा है पर अब जलने का दुःख नहीं, क्योंकि मकान भले ही जल रहा है पर अपना मकान नहीं जल रहा। वह आदमी नार्मल हो गया और सामान्य व्यक्तियों की तरह दर्शक बनकर देखने लगा। पर इतने में ही छोटा भाई दौड़ा-दौडा अया और बोला मकान जला जा रहा है और आप सब शांत खड़े हैं, क्या बता है? बुझाओ आग।वह बोले- अरे तू पागल हो गय है क्या ? मकान तो बिक चुका, अब चिंता की क्या बात। त बवह तुरंत बोला पिताजी ! बिक तो गया था कल लेकिन आज सुबह ही खरीददार ने सौदा कैन्सिनल कर दिया था। इतना सुनना था िकवह आदमी छाती पीट-पीट कर फिर रोने लगा। यह है अपने और परायेपन की भावदशा और उसके प्रति जुडे हुए विकल्प अध्यवसाय भाव। अपना मकान जलात है तो कष्ट ज्यादा होता है लगताहै जैसे हम ही जल रह हों और दूरे का जलता है तो क्या लेना देना अपने का। अब सामन्य बात है। किंतु वस्तु स्थिति का चिंतन किया जाए तो मकान तो जड़ है, वह हमारा कैसे हो सकता है। फिर भी मोह वश उसे अपना मानकर हम तरह-तरह के विकल्प करते हैं और यही विकल्प एक जान बनकर हम सबको उलझाते रहते हैं। इन समस्त विकल्प जालों को छोड़कर एकाकी आत्म-तत्व को ध्याने की प्रेरणा आज के धर्म में दी गयी है।

4. मगध सम्राटा बिम्बसार राजा श्रेणिक के जीवन से जुडा संदर्भ है- सम्राट श्रेणिक वन विहार के लये निकले हैं एक जगह उन्होंने देखा कि स्वच्द शिलातल पर, वृक्ष के नीचे एक सुकुमार योगी, रूप सौन्दर्य का धनी विराजमान है। ध्यानस्थ मुद्रा है। बिम्बसार सम्राट श्रेणिक आगे बढते हैं,उसकी सुकुमार वय ओर तेजस्वितः को देखकर सम्राट हतप्रभ है। उनके मन में हलचल हुई। ये कौन हैं? जो इस सुकुमार वय में योग को धारण किये है। वैभव और विलासिता को भोगने की इस उम्र में तप त्याग में लीन यह कौन है? क्या स्वर्ग से कोई रतिराज धरा पर उतर आया है या कोई वन देवता स्वयं ध्यानमूर्ति बनकर बैठ गया है या कोई अपने जीवन से विरक्त होकर इस नीरव निर्जन में आ गय है। कुछ समझ में नहीं आ रहा। विचारों में अन्तद्र्वन्द चल रहा है। लगता है कि जीवन से निराश/टूटे हुये दि से कसी ने इस नीरसता के मार्ग को अपना लिया है। सम्राट श्रेणिक ने जिज्ञासा प्रकट की - कि मैं ये क्या देख रहा हूं, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मैं यह देखकर विस्मित हूं और विमुग्ध भी। आपने इस सुकुमार वय में यह भेष धारण कैसे कर लिया? जानने की जिज्ञासा बहुत है। भोग भोगने कायह तुम्हारा समय है, महलों में निवास करने का तुम्हारा यौवन है। तब ऐसी स्थिति में नीरतसा का यह कठोर रास्ता कैसे चुन लिया आपने? क्या किसी ने तुम्हें अपनाया नहीं? संरक्षण नहीं किया? क्या तुम अकेले, अनाथ हो? क्या तुम्हरा इस धरती पर कोई नहीं? और यदि यही सच है तो फिर आओ तुम्हें राजगृही का सम्राट शरण देता है। मेरे रहते, मेरे राज्य में कोई अनाथ कैसे रह सकता है? चलो इस कंटकाकीर्ण मार्ग को छोड़ो ओर राजगृही महलों में सुखचैन से रहो। तुम्हारा भाग्य विधाता नरनाथ तुम्हारे सामने है। पर इसके पहले इस अनाथत्व की स्थिति में आने की अपनी कथा कहो। कहो............. बेझिझक कहो। जिज्ञासा और गर्मसंयुक्त सम्राट का कथन सुनकर योगिराज श्रमण के चेहरे पर मुस्कान बिखर गयी। उसी स्मित मुस्कान के साथ योगिराज ने कहा - हां राजन्! मैं अनाथ था। मेरे लिये कोई शरण नहीं खिाी, इसलिये मैंने यहरास्ता चुना लिया। मेरेनाथ होने की कहानी जाननाचाहते हो राजन्! तो ध्यान से सुनो। राजन्! राजन् राजके ही रारज्य में मैं ही एक सम्पन्न घराने में जन्मा हुआ था। जिसके खुशी में मेरे माता पिता ने बडा भारीउत्सव मनाया। अपारधन वैभव था। समस्त सुख-सुविधाओं में पलकर मैं बडा हुआ। सुयोग्य सुन्दर कन्या के साथ मेरा विवाह किया गया। अहस्य पीडा से मैं बेचैन हो उठा। राजवैद्य बुलायो गये, सभी ने देखा, औषधियां दी गई किंतु आराम नहीं मिला। किसी का औष्ण/ उपचार काम नहीं आया। दिन बीतते जा रहे थें राजवैद्य परेशान, माता पिता परेशान, भगिनी भ्राता परेशा, पत्नी परेशान और मैं स्वयं परेशान था। एक रात मैं ज्यादा चिन्तित हो गया कि वह भयंकर पीडा कैसे दूर होगी? दूर हो पायेगी कि नहीं? मेरे वेदना के कारण परेशा तो सब थे, पर वेदना-मुक्ति की उपय कोर्ठ कुछ भीनहीं कर पा रहा था। मैंने देखा कि उन सभी के बीच मैं असहाय, अनाथ हूं। उस समय मुझे आराम दिलाने वाला कोई नहीं दिख रहा था, चाहकर भी किसी का वश नहीं चल रहा था। ऐसी स्थिति में मैंने म नही मन विचार किया कि सब कुछ होते हुए भी आज मेरे दुख को दूर करनेवलाल कोई नहीं है। फिरयह कैसा अपनो का संसार है1 और राजन्! जीवन में कुछ क्षण ऐसे भी आते हैं जब व्यक्ति गहराई में चला जाता हे त बवह समाधान भी पा जाता है। जैसे जैसे मेरा चिन्तन गहराता गयामैं स्वयं ही अन्तर्मुखी होता गया। मुझे लगा कि जीवन का क्या भरोसा, शायद यह रात ही अंतिम रात हो। उसी क्षण मैंने संकल्प कर लिया कि यदि यहरात सही सलामत बीत जाती है तो प्रभात होते ही मैं जीवन की नईराह पकड लूंगा। विचार करते-करते मुझे नींद आ गई। बहुत दिन के बादउस दिन पहली बार मुझेनींद आयी। फिर मुझे कुछ भी ख्याल नहीं। सेवा में तत्पर पत्नी के जगाने पर जब मेरी नींद खुली तो देखा आंखों में अब आराम है। मैं एकदम स्वस्थ्य हो गया हूं। सूरज उग रहा था, सभी के चेहरे मेरी आराम की स्थिति को देखकर प्रसन्न हो उठे। पर मैं सबको देखकर गंभीर होता जा रहा था। मुझे लग रहा था कि प्रकृति में ही नहीं मुझमें भी एक सूर्योदय हो रहा है। झटपट मैं तैयार हुआ और रात्रि में किया गया संकल्प सबको बताया। ’अप्पा शरणं गच्छामि’ और

’’अप अकेला अवतरे मरे अकेला गच्छामि’ होय। यूं कबहु इस जीव को साथी सगा न कोय।। एगो में सस्सदो आदा णाण दंसण लक्खणो। सेसा में बाहिराभाव सव्वे संयोग लक्खणा।’’

भवधारा मानस में मंत्र बनकर तैर रही थी सो सूरज की पहली किरण के साथ ही मैंने भवन को छोड दिया। मुझ भवनवासी ने विराग साधना के लिए वन की राह पकड ली। स्वतंत्र, स्वाधीन अपना ही नाथ बनने मैंने योगी का रूप धारण कर लिया। राजन्! पहले मैं सचमुच अनाथ था, पर आज सनाथ हूं। अपना स्वामी, अपना नाथ, स्वयंनाथ हूं। अब सम्राट! स्वयं विचारो, क्या तुम मेरे नाथ बनने तेयार हे? भला जो स्वयं में असहाय अनाथ हो वह पर का नाथ् कैसे बन सकता है? पर को कैसे शरण दे सकता है? सम्राट को पहली बार अपने अनाथपने का बोध हुआ। सम्राट के ज्ञान-चक्षु खु गये। सत्ता, साम्राज्य और शरणदाता बनने का उसका सारा अहं पिघल गया। नून जागृत चेतना के साथ मगध के सम्राट ने योगिराज मुनि के चरणों में विनम्रता पूर्वक प्रणाम किया और कहा कि सब कुछ होते हुए भी मैं अकिंचन अनाथ हूं। और सर्वस्व त्यागी एकाकी आत्म-साधक आप सनाथ हैं, जगन्नाथ है। मुझे अनाथ के यिे भी हे योगिराज! अपनी शरण प्रदान करे। पर योगिराज थे कि मुस्कुराते हुए आकिंचन्य अभय/आनन्द की मुद्रा में लीन हो गये।

उत्तम आकिंचन्य के अमृत बिन्दु

1. सीता रूप पर द्रव्य के संयोग से राज भी दुखी हुये और रावण की भी दुर्गति हुयी।

2. ज्योतिष मेंनव ग्रह बतलाये हैं उनमें कुछ ग्रह खतरनाक है किंतु उनसे भी खतरनाक दसवां ग्रह परिग्रह है।

3. एक लंगोटी कापरिग्रह भी ऐलक जी को सोलहवें स्वर्ग के ऊपर नहीं जाने देता है।

4. मुनि अपने आत्मा रूपी घर में रहते हैं किंतु गृहस्थ अपने आत्मा रूपी घर से बाहर भटकते हैं।

5. आकिंचन्य धर्म आत्मा की उस दशा का नाम है जहां पर बाहरी तो सब कुछ छूट ही जाता है, किंतु आंतरिक संकल्प विकल्प भी शांत हो जाते हैं

6. बाहरी परिग्रह के त्याग के बादभी जिन के मन में ’’मैं’’ और ’’मेरे पन’’ का भाव निरंतर चलता रहता है उन्हीं भी उध्र्व गति नहीं हो पाती है।

7. जैसे पहाड़ की चोटी पर चढ़ने के लिए हल्का होना पड़ता है उसी प्रकार मोक्ष प्राप्ति के लिए अंतरंग बहिरंग से खाली होना अनिवार्य है।

8. जो आत्मा को सब ओर से पकड़कर रखे वह परिग्रह है।

9. मूच्र्छा के रहते हुए पास में कुछ भी न हो, तब भी जीव परिग्रही कहलाता है।

अमृत दोहावली

उत्तमा स्वात्म चिंता स्यात्, देह चिंता च मध्यमा।
अधमा काम चिंता स्यात्, पर चिंता धमाधमा।।1।।

धरती पर सोता हूं, आसमान ओढता हूं।
देह की माटी से, अमृत निचोडता हूं।
इसलिए वैभव से नहीं, विराग सेनाता जोडता हूं।।2।।

मैं हूं कौन कहां से आया, किस दर पै है जाना।
इस दुनियां में क्या है मेर, किसे साथ ले जाना।।3।।

क्या खोया क्या पाया अब तक, क्या है मुझको पाना।
कैसा है मम रूप सलोना, कब शिवपुर को जाना।।4।।

छाया माया एक सी, घटत बढ़त दिन रैन।
जो य का शरण गहे, सो न पावे चैन।।5।।

सिकंदर जब चला धरती से सभी हाली बहाली थे।
पड़ी थी पास में माया मगर दो हाथ खाली थे।।।6।।

परिग्रह चैबीस भेद, त्याग करें मुनिराज जी।
तिसना भाव उछेद घटती जान घटाइये।।7।।

।।ऊँ ह्री उत्तम आकिंचन्य धर्मांगय नमः।।
इति उत्तम आकिंचन्य धर्म