दूसरी ढाल

पद्धरि छन्द (15 मात्रा)

संसार (चतुर्गति) में परिभ्रमण का कारण

ऐसे मिथ्या दृग-ज्ञान-चर्णवश, भ्रमत भरत दुख जन्म-मर्ण।
तातैं इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूं बखान।।1।।

अन्वयार्थ:-{यह जी} (मिथ्या दृग-ज्ञान-चर्णवश) मियिादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के वश होकर (ऐसे)इसप्रकार (जन्म-मरण) जन्म और मरण के (दुख) दुःखों को (भरत) भोगता हुआ {चारो गतियो में} भलीभांति जानकर (तजिये) छोड़ देना चाहिए। {इसलिये} इन तीनों का (संक्षेप) संक्षेप से (कहूं बखान) वर्णनल करता हूं, उसे (सुन) सुनो।

भावार्थ:- इस चरण् में ऐसा समझना चाहिए कि मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र से ही जीव को दुःख होता है अर्थात् शुभाशुभ रागादि विकार तथा पर के साथ एकत्व की श्रद्धा, ज्ञान और मियिा आचरण् से ही जीवद ुःखी होता है; क्योंकि कोई संयोग सुख-दुःख का कारण नहीं हो सकता - ऐसा जानकर सुखार्थी को इन मिथ्याभावों का त्याग करना चाहिए। इसीलिए मैं यहां संक्षेप से उन तीनों का वर्णन करता हूं।।1।।

अगृहीत - मिथ्यादर्शन और जीवतत्व का लक्षण

जीवादि प्रयोजन तत्व, सरधैं तिनमाहिं विपर्ययत्व।
चेतन के उपयोग रूप, विन मूरत चिन्मूरत अनूप।।2।।

अन्वयार्थ:-(जीवादि) जीव, अजीव, आस्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष (प्रयोजनभूत) प्रयोजनभूत (तत्व) हैं, (तिनमाहिं) उनमें (विपर्ययत्व) विपरीत (सरधैं) श्रद्धा करना {सो अगृहीत मिथ्यादर्शन है} (चेतन को) आत्मा को (रूप) स्वरूप (उपयोग) देखना-जानना अथवा दर्शन-ज्ञान है {और वह} विन मूरत अमूर्तिक (चिन्तमूरत) चैतन्मय {तथा} (अनूप) उपमा रहित है।

भावार्थ:-यथार्थरूप से शुद्धात्मदृष्टि द्वारा जीव, अजीव, आस्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष - इन सात तत्वों की श्रद्धा करने से सम्यग्दर्शन होत है। इसलिए इन सात तत्वों को जानना आवश्यक है। सातों तत्वों का विपरीत श्रद्धान करना, उसे अगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं। जीव-ज्ञान-दर्शन उपयोगस्वरूप अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा है। अमूर्तिक, चैतन्मय तथ उपमारहित है।

जीवतत्व के विाय में मिथ्यात्व (विपरीत श्रद्धा)

पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतें न्यारी है जीव चाल।
ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देह में निज पिछान।।3।।

अन्वयार्थ:- (पुद्गल) पुद्गल (नभ) आकाश (धर्म) धर्म (अधर्म) अधर्म (काल) काल (इनतैं) इनसे (जीव चाल) जीव का स्वभाव अथवा परिणाम (न्यारी) भिन्न (हैं) है; {तथापि मिथ्यादृष्टि जीव} (ताकों) उस स्वभाव को (न जान) नहीं जानता और (विपरीत) विपरीत (मान करि) मानकर (देह में) शरीर में (निज) आत्मा की (पिछान) पहिचार (करे) करता है।

भावार्थ:-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये पांच अजीव द्रव्य हैं। जीव त्रिकाल ज्ञानस्वरूप तथा पुद्गलादि द्रव्यों से पृथक है, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव आत्मा के स्वभाव की यथार्थ श्रद्धा न करके अज्ञज्ञनवश विपरीत मानकर, शरीर ही मैं हूं, शरीर के कार्य मैं कर सकता हूं, मैं अपना इच्छानुसार शरीर की व्यवस्था रख सकता हैूं - ऐसा मानकर शरीर को ही आत्मा मानता है। (यह जीवतत्व की विपरीत श्राद्धा है।)।।3।।

मिथ्यादृष्टि का शरीर तथा परवस्तुओं सम्बन्धी विचार

मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गो-धन प्रभाव।
मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीण।।4।।

अन्वयार्थ:-{मथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादश्ज्र्ञन के कारण से मानता है कि} (मैं) मैं (सुखी) सुखी (दुखी) दुःखी, (रंक) निर्धन, (राव) राजा हूं, (मेरे) मेरे यहां (धन) रूपया-पैसा आदि (गृह) घर (गो-धन) गाय, भैंस आदि (प्रभाव) बड़प्पन {है; और} (मेरे सुत) मेरी संतान तथा (तिय) मेरी स्त्री है; (मैं) मैं (सबल) बलवान, (दीन) निर्बल, (बेरूप) कुरूप, (सुभग) सुन्दर, (मूरख) मूर्ख और (प्रवीण) चतुर हूं।

भावार्थ:-(1) जीवतत्व की भूल: जीव तो त्रिकाल ज्ञानस्वरूप है, उसे अज्ञानी जीव नहीं जानता और जो शरीर है; सो मैं ही हूं, शरीर के कार्य मैं कर सकता हूं, शरीर स्वस्थ हो तो मुझे लाभ हो, बाह्य अनुकूल संयोगों से मैं सुखी और प्रतिकूल संयोगों से मैं दुःखी, मैं निर्धन, मैं धनवान, मैं बलवान, मैं निर्बल, मैं मनुष्य, मैं कुरूप, मैं सुन्दर - ऐसा मानता है; शरीराश्रित उपदेश तथा उपवासादि क्रियाओं में अपनत्व मानता है - इत्यादि1 मथ्या अभिप्राय द्वारा जो अपने परिणाम नहीं है, उन्हें आत्मा का परिणाम मानता है, वह जीवतत्व की भूल है।

अजीव और आस्त्रवतत्व की विपरीत श्रद्धा

तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान।
रागादि प्रगट ये दुःख तिनही को सवेत गिनत चैन।।5।।

अन्वयार्थ:- {मिथ्यादृष्टि जीव} (तन) शरीर के (उपजत) उत्पन्न होने से (अपनी) अपना आत्मा (उपज) उत्पन्न हुआ (जान) ऐसा मानता है और

1. जो शरीरादि पदार्थ दिखाई देते हैं, वे आत्मा से भिन्न हैं; उनके ठीक रहने या बिगड़ने से आत्मा का कुछभी अच्छा-बुरा नहीं होता; किंतु मिथ्यादृष्टि जीव इससे विपरीत मानता है।

(तन) शरीर (नशत) नाश होने से (आपको ) आत्मा का (नाश) मरण हुआ - ऐसा (मान) मानता है। (रागादि) राग, द्वेष, मोहादि (ये) जो (प्रगट) स्पष्ट रूप से (दुःख् देन) दुःख देने वाले हैं (तिनहीं को) उनकी (सेवत) सेवा करता हुआ (चैन) सुख (गिनत) मानता है।

भावार्थ:-(1) अजीवतत् की भूल: मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा मानताहै कि शरीर की उत्पत्ति (संयोग) होने से मैं उत्पन्न हुआ और शरीर का नाश (वियोग) होने से मैं मर जाऊंगा, (आत्मा का मरण् मानता है;) धन,शरीरादि जड़ पदार्थों में परिवर्तन हाने से अपने में इष्ट-अनिष्ट परिवर्तन मानना, शरीर क्षुधा-तृषारूप अवस्था होने से मुझे क्षुधा-तृषादि होते हैं; शरीर कटने से मैं कट गया - इत्यादि जो अजीव की अवस्थाएं हैं, उन्हें अपनी मानता है - यह अजीवतत्व की भूल है1।

(2) आस्त्रवतत्व की भूल:- जीव अथवा अजीव कोई भी पदार्थ आत्मा को किंचित भी सुख-दुःख, सुधार-बिगाड़, इष्ट-अनिष्ट नहीं कर सकते, यद्यपि अज्ञानी ऐसा नहीं मानता। पर मैं कर्तृव्य, ममत्वरूप मिथ्यात्व तथा राग-द्वेषादि शुभाशुभ आस्त्रवभाव प्रत्यक्ष दुःख देनेवाले हैं, बंध के ही कारण हैं, तथापि अज्ञानी जीव उन्हें सुखकर जानकर सेवन करता है और शुभभाव भी बंध का ही कारण है - आस्त्रव है, उसे हितकर मानता है। परद्रव्य जीव को लाभ-हानि नहीं पहुंच सकते, तथापि उन्हें इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें प्रीति-अप्रीति करता है; मिथ्यात्व, राग-द्वेष का स्वरूप नही जानता; पर पदार्थ मुझे सुख-दुख देते हैं अथवा राग-द्वेष-मोह कराते हैं - ऐसा मानता है, वह आस्त्रवतत्व की भूल है।

बंध और संवरतत्व की विपरीत श्रद्धा

शुभ-अशुभ बंध के फल मंझार, रति-अरति करै निज पद विसार।
आतमहित हेतु विराग ज्ञान, ते लखै आपको कष्टदान।।6।।

अन्वयार्थ:- {मिथ्यादृष्टि जीव} (निज पद) आत्मा के स्वरूप को (विसार) भूलकर (बंध के) कर्मबंध के (शुभ) अच्छे (फल मंझार) फल में

1. आत्मा अमर है; वह विष, अग्नि, शस्त्र, अथवा अन्य किसी से नहीं मरता और न नवीन उत्पन्न होता है। मरण (वियोगर) तो मात्र शरीर का ही होता है।

(रति) प्रेम (करै) करता है और कर्मबंध के (अशुभ) बुरे फल से (अरति) द्वेष करता है; तथा जो (विराग) राग-द्वेष का अभाव {अर्थात्} अपने यथार्थ स्वभाव में स्थिरतारूप1 सम्यक्चारित्र} और (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान {और सम्यग्दर्शन} (आत्महित) आत्मा के हित के (हेतु) कारण हैं (ते) उन्हें (आपको) आत्मा को (कष्टदान) दुःख देनेवाले (लखै) मानता है।

भावार्थः- (1) बंधतत्व की भूल:- अघातिकर्म के फलानुसार पदार्थों की संयोग-विनयोगरूप अवस्थाएं होती हैं। मिथ्यादृष्टि जीव उन्हें अनुकूल-प्रतिकूल मानकर उनसे मैं सुखी-दुःखी हूं - ऐसी कल्पना द्वारा राग-द्वेष, आकुलता करता है। धन, योग्य, स्त्री, पुत्रादि का संयोग होने से रति करता है; रोग, निंदा, निर्धनता, पुत्र-वियोगादि होने से अरति करता है; पुण्य-पाप दोनों बंधनकर्ता हैं, किंतु ऐसा न मानकर पुण्य को हितकारी मानता है; तत्वदृष्टि से तो पुण्य-पाप दोनों अहितकार ही है; परंतु अज्ञानी ऐसा निर्धाररूप नहीं मानता - वह बन्धतत्व की विपरीत श्रद्ध है।

(2) संवरतत्व की भूल - निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही जीव को हितकारी है; स्वरूप में स्थिरता द्वारा गार का जितना अभाव वह वैराग्य है और वह सुग के कारणरूप है; तथापि अज्ञानी जीव उसे कष्टदाता मानता है - यह संवरतत्व की विपरीत श्रद्धा है।

निर्जरा और मोक्ष की विपरीत श्रद्धा तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान

रोके न चाह निजशक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय।
याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो सुखदायक अज्ञान जान।।7।।

1. अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख ओर अनंतवीर्य ही आत्मा का सच्च स्वरूप है।

अन्वयार्थ:- {मिथ्यादृष्टि जीव} (निजशक्ति) अपने आत्मा की शक्ति (खोय) खोकर (चाह) इच्छा को (न रोके) नहीं रोकता और (निराकुलता) आकुलता के अभाव को (शिवरूप) मोक्षका स्वरूप (न जोय) नहीं मानता। (याही) इस (प्रतीतिजुत) मिथ्या मान्यता सहित (कछुक ज्ञान) जो कुछ ज्ञान है (सो) वह (दुखदायक) कष्ट देनेवाला (अज्ञान) अगृहीत मिथ्याज्ञान है - ऐसा (जान) समझना चाहिये।

भावार्थ - (1) निर्जरातत्व की भूल :- आत्मा में आंशिक शुद्धि में वृद्धि तथा अशुद्धि की हानि होना, उसे संवरपूर्वक निर्जरा कहा जाता है; वह निश्चयसम्यग्दर्शन पूर्वक ही हो सकती है। ज्ञानानन्दस्वरूप में स्थिर होने से शुभ-अशुभ इच्छा का निरोध होता है वह तप है। त पदो प्रकार का है:- (1) बालतप (2) सम्यक्तपः अज्ञानदशा में जो तप किया जाता है, वह बालतप है, उससे कभी सच्ची निर्जरा नहीं होती; किंतु आत्मस्वरूप में सम्यक् प्रकार से स्थिरता-अनुसार जितना शुभ-अशुभ इच्छा का अभाव होता है, वह सच्ची निर्जरा है -सम्यक्तप है; किंतु मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा नहीं मानता। अपनी अनन्त ज्ञानादि शक्ति को भूलकर पराश्रय में सुख मानता है, शुभाशुभ इच्छा तथा पांच इन्द्रियों के विषयों की चाह को नहीं रोकता - यह निर्जरातत्व की विपरीत श्रद्धा हे।

(2) मोक्षतत्व की भूल:- पूर्ण निराकुल आत्मिक सुख की प्राप्ति अर्थात जीव की सम्पूर्ण शुद्धता व मोक्ष का स्वरूप है तथा वही सच्चा सुख है; किंतु अज्ञानी ऐसा नहीं मानत।

मोक्ष होने पर तेज में तेज जाता है अथवा वहां शरीर, इन्द्रियां तथा विषयों के बिना सुख कैसे हो सकता है? वहां से पुनः अवतार धारण करना पड़ता है - इत्यादि। इसप्रकार मोक्षदशा में निराकुलता नहीं मानता, वह मोक्षतत्व की विपरीत श्रद्धा है।

(3) अज्ञान: अगृहीत मिथ्यादर्शन के हरते हुए जो कुछ ज्ञान हो, उसे अगृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं; वह महान् दुःखदाता है। उपदेशादि बाह्य निमित्तों के आलम्बन द्वाराउसे नवीन ग्रहण नहीं किया है, किंतु अनादिकालीन है, इसलिए उसे अगृहीत (स्वाभावित-निसर्गज) मिथ्याज्ञान कहते हैं।।7।।

अगृहीत मिथ्याचारित्र (कुचारित्र) का लक्षण

इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्याचारित्त।
यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत, सुनिये सु तेह।।8।।

अन्वयार्थ:- (जो) जे (चिषयनि में) पांच इन्द्रियों के विषयों में (इन जुत) अगृहीत मिथ्यादर्शन तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान सहित (प्रवृत्त) प्रवृत्ति करता है (ताको) उसे (मिथ्याचारित्र) अगृहीत मिथ्याचारि (जानो) समझो। (यों) इसप्रकार (नसिर्ग) अगृहीत (मिथ्यात्वादि) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का {वर्णन किया गया} (अब) अब (जे) जो (गृहीत) गृहीत {मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र} है (तेह) उसे (सुनिये) सुनो।

भावार्थ:- अगृहीत मिथ्यादर्शन तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान सहित पांच इन्द्रियों के विषय में प्रवृत्ति, करना, उसे अगृहीत मिथ्याचारित्र कहा जाता है। इन तीनों को दुःख कारण जानकर तत्वज्ञान द्वारा उनका त्याग करना चाहिए।।8।।

गृहीत मिथ्यादर्शन और कुगुरू के लक्षण

जो कुगुरू कुदेव कुधर्म सेव, पोषैं चिर दर्शनमोह एव।
अंतर रागादिक धरैं जेह, बाहर धन अम्बरतैं सनेह।।9।।

गाथा 10 (पूर्वाद्ध)धारैं कुलिंग लहि महत भाव, ते कुगुरू जन्मजल उपलनाव;

अन्वयार्थ:- (जो) जो (कुगुरू) मिथ्या गुरू की (कुदेव) मिथ्यादेव की और (कुधर्म) मिथ्या धर्म की (सेव) सेवा करता है, वह (चिर) अति दीर्घकाल तक (दर्शनमोह) मिथ्यादर्शन (एव) ही (पोषैं) पोषता है। (जेह) जो (अंतर) अंतर में (रागादिक) मिथ्यात्व-राग-द्वेष आदि (धरैं) धारण करता है और (बाहर) बाह्य में (धन अम्बरतैं) धन तथा वस्त्रादि से (स्नेह) प्रेम रखता है तथा (महत भाव) महात्मापने का भाव (लाहि) ग्रहण करके (कुलिंग) मिथ्यावेषों को (धारैं) धारण करता है, वह (कुगुरू) कुगुरू कहलाता है और वह कुगुरू (जन्मजल) संसाररूपी समुद्र में (उपलनाव) पत्थर की नौका समान है।

भावार्थ:- कुगुरू, कुदेव और कुधर्म की सेवा करने से दीर्घकाल तक मिथ्यात्व काही पोषण होता है अर्थात् कुगुरू, कुदेव और कुधर्म का सेवन ही गृहीत मिथ्यादर्शन कहलाता है।

परिग्रह दो प्रकार का है - एक अंतरंग और दूसरा बहिरंग। मिथ्यात्व, राग-द्वेषदि अंतरंग परिग्रह हैं और वस्त्र, पात्र, धन, मकानादि बहिरंग परिग्रह हैं। वस्त्रादि सहित होने पर भी अपने को जिनलिंगाधारी मानते हैं, वे कुगुरू हैं। ’’जिनमार्ग में तीन लिंग तो श्रद्धापूर्वक हैं। एक तो जिनस्वरूप - निग्र्रंथ दिगंबर मुनिलिंग, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकरूप दसवीं - ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावकलिंग और तीसरा आर्यिकाओं का रूप- यह स्त्रियों का लिंग, इन तीन के अतिरिक्त कोई चैथा लिंग सम्यग्दर्शनस्वरूप नहीं है; इसलिये इन तीन के अतिरिक्त अन्य लिंगों को जो मानता है, उसे जिनमत की श्रद्धा नहीं है, किन्तु वह मिथ्यादृष्टि है। (दर्शनपाहुड गाथा 18)’’ इसलिये जो कुलिंग के धारक हैं मिथ्यात्वादि अंतरंग तथा वस्त्रादि बहिंरग परिग्रह सहित हैं, अपने को मुनि मानते हैं, मानते हैं, वे कुगुरू हैं। जिसप्रकार पत्थर की नौका डूब जाती है तथा उसमें बैठने वाले भी डूबते हैं; उसीप्रकार कुगुरू भी स्वयं संसार-समुद्र में डूबते हैं और उनकी वंदना तथा सेवा-भक्ति करनेवाले भी अनंत संसार में डूबते हैं अर्थात कुगुरू की श्रद्धा, भक्ति, पूजा, विनय तथा अनुमोदना करने से गृहीत मिथ्यात्व का सेवन होता है और उससे जीव अनंतकाल तक भव-भ्रमण करता है।।9।।

गाथा 10 (उत्तरार्द्ध) जो राग-द्वेष मलकरि मलीन, वनिता गदादिजुत चिन्ह चीन।।10।।

गाथा 11 (पूर्वार्द्ध) ते हैं कुदेव तिलकी जु सेव, शठ करत न तिन भवभ्रमण छेव

अन्वयार्थ:- (जे) जो (राग-द्वेष मलकरि मलीन) राग-द्वेषरूपी मैल से मलिन हैं और (वनिता) स्त्री (गदादि जुत) गदा आदि सहित (चिन्ह चीन) चिन्हों से पहिचाने जाते हैं (ते) वे (कुदेव) झूठे देव हैं, (तिनकी) उन कुदेवों की (जु) जेा (शठ) मूर्ख (सवे करत) सेवा करते हैं, (तिन) उनका (भवभ्रमण) संसार में भ्रमण करना (न छेव) नहीं मिटता।

भावार्थ:- जो राग और द्वेषरूपी मैल से मलिन (रागी-द्वेषी) हैं और स्त्री, गदा, आभूषण आदि चिन्हेां से जिनको पहिचाना जा सकता है, वे ’कुदेव’ृ कहे जाते हैं। जो अज्ञानी ऐसे कुदेवों की सेवा (पूजा, भक्ति और विनय) करते हैं, वे इस संसार का अंत नहीं कर सकते अर्थात् अनन्तकाल तक उनका भवभ्रमण नहीं मिटता।।10।।

गाथा 11 (उत्तरार्द्ध)

कुधर्म और गृहीत मिथ्यादर्शन का संक्षित लक्षण
रागादि भावहिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत।।11।।

जे क्रिया तिन्हैं जानहु कुधर्म, तिन सरधै जीव लहै अशर्म
याकूं गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान।।12।।

1. सुदेव - अरिहंत परमेष्ठी; देव - भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमनिव, कुदेव - हरि, हर शीतलादि; अदेव - पीपल, तुलसी, लकड़बाबा आदि कल्पित देव, जो कोई भी सारगी देव-देवी हैं, वे वन्दन-पूजन के योग्य नहीं है।

अन्वयार्थ:-(रागादि भावहिंसा) राग-द्वेष आदि भावहिंसा (समेत) सहित तथा (त्रस-थावर) त्रस और स्थावर (मरण खेत) मरण स्थान (द्रवित) द्रव्यहिंसा (समेत) सहित (जे) जो (क्रिया) क्रियाएं {हैं} उन्हें (कुधर्म) मिथ्याधर्म (जानहु) जानना चाहिए। (तिन) उनकी (सरधै) श्रद्धा करनेसे (जीव) आत्मा-प्राणी (लहै अशर्म) दुःख पाते हैं। (याकूं) इस कुगुरू, कुदेव और कुधर्म का श्रद्धान करने को (गृहीत मिथ्यात्व) गृहीत मिथ्यादर्शन जानना, (अब गृहीत) अब गृहीत (अज्ञान) मिथ्याज्ञान (जो है) जिसे कहा जाता है, उसका वर्णन (सुन) सुनो।

भावार्थ:- जिस धर्म में मिथ्याव्त तथा रागादिरूप भावहिंसा और त्रस तथा स्थावर जीवों के घातरूप द्रव्यहिंसा का धर्म माना जाता है, उसे कुधर्म कहते हैं। जो जीव उस कुधर्म की श्रद्धा करता है, वह दुःख प्राप्त करता है। ऐसे मिथ्या गुरू, देव औरधर्म की श्रद्धा करना, उसे ’गृहीत मिथ्यादर्शन’ कहते हैं। वह परोपदेश आदि बाह्य कारण के आश्रय से ग्रहण किया जाता है, इसलिये ’’गृहीत’’ कहलाता है। अब गृहीत मिथ्याज्ञान का वर्णन किया जाता है।

गृहीत मिथ्याज्ञान का लक्षण

एकान्तवाद-दूषित समस्त, विषयादि पोषक अप्रशस्त;
रागी कुमतनिकृत श्रुताभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास।।13।।

अन्वयार्थ:- (एकान्तवाद) एकान्तवाद कथन से (दूषि) मिथ्या {और} (विषयादिक) पांच इन्द्रियों के विषय आदि की (पोषक) पुष्टि करनेवाले (रागी कुमतनिकृत) रगाी कुमति आदि के चरचे हुए (अप्रशस्त) मिथ्या (समस्त) समस्त (श्रुत) शास्त्रों को (अभ्यास) पढ़ना-पढ़ाना, सुनना और सुनाना (सो) वह (कुबोध) मिथ्याज्ञान {है; वह} (बहु) बहुत (त्रास) दुःख को (देन) देने वाला है।

भावार्थ:- (1) वस्तु अनेक धर्मात्मक है; उसमें से किसी भी एक ही धर्म को पूर्ण वस्तु कहने के कारण से दूषित (मिथ्या) तथा विषय-कषायदि की पुष्टि करने वाले कुगुरूओं के रचे हुए सर्व प्रकार के मिथ्या शास्त्रों को धर्मबुद्धि से लिखना-लिखाना, पढ़ना-पढ़ाना, सुनना और सुनाना; उसे गृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं।

(2) जो शास्त्र जगत में सर्वथा नित्य, एक, उद्वैत और सर्वव्यापक ब्रह्ममात्र वस्तु है, अन्य काई पदार्थ नहीं है - ऐसा वर्णन करता हे, वह शास्त्र एकान्तवाद से दूषित होने के कारण कुशास्त्र है।

(3) वस्तु को सर्वथा क्षणिक-अनित्य बतालये, अथवा

(4) गुण-गुणी सर्वथा भिन्न है, किसी गुण के संयोग से वस्तु हैं - ऐसा वर्णन करें, अथवा

(5) जगत को कोई कर्ता-हर्ता तथा नियंता है - ऐसा वर्णन करें, अथवा

(6) दया, दान, महाव्रतादिक शुभ राग; जो कि पुण्यास्त्रव है, पराश्रय है, उससे तथा साधु को आहार देने के शुभभाव से परमार्थरूप धर्म होता है - इत्यादि अन्य धर्मियों के ग्रन्थों में जो विपरित कथन है, वे एकान्त और अप्रशस्त होने के कारण कुशास्त्र हैं; क्योंकि उनमें प्रयोजनभूत सात तत्वों की यथार्थता नहीं है। जहां एक तत्व की भूल हो, वहां सातों तत्व की भूल होती ही है - ऐसा समझना चाहिए।

गृहीत मिथ्याचारित्र का लक्षण

जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध विध देहदाह।
आतम अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनील तन करन छीन।।14।।

अन्वयार्थ:- (जो) जो (ख्याति) प्रसिद्धि (लाभ) लाभ तथा (पूजादि) मान्यता और आदर-सन्मान आदि की (चाह धरि) इच्छा करके (देहदाह) शरीर को कष्ट देनेवाली (अनात्म के) आत्मा और परवस्तुओं के (ज्ञानहीन) भेदज्ञान से रहित (तन) शरीर को (छीन) क्षीण (करन) करनेवाली (विविध विध) अनेक प्रकार की (जे जे करनी) जो-जो क्रियाएं हैं, वे सब (मिथ्याचारित्र) मिथ्याचारित्र हैं।

भावार्थ:- शरीर और आत्मा का भेदविज्ञान न होने से जो यश, धन-सम्पत्ति, आदर-सत्कार आदि की इच्छा से मानादि कषाय के वशीभूत होकर शरीर को क्षीण करनेवाली अनेक प्रकार की क्रियाएं करता है, उसे ’’गृहीत मिथ्याचारित्र’’ कहते हैं।

मिथ्याचारित्र के त्याग का तथा आत्महित में लगने का उपदेश

ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित पंथ लाग।
जागजाल-भ्रमण को देहुत्याग, अब दौलत! निज आतम सुपाग।।15।।

अन्वयार्थ:- (ते) उस (सब) समस्त (मिथ्याचारित्र) मिथ्याचारित्र को (त्याग) छोड़कर (अब) अब (आतम के) आत्म के (हित) कल्याण के (पंथ) मार्ग में (लाग) लग जाओ, (जगजाल) संसाररूपी जाल में (भ्रमण को) भटकना (देहु त्याग) छोड़ दो, (दौलत) हे दौलतराम! (निज आतम) अपने आत्मा में (अब) अब (सुपाग) भलीभांति लीन हो जाओ।

भावार्थ:- आत्महितैषी जीव को निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ग्रहण करके गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारि तथा अगृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारि का त्याग करके आत्मकल्याण के मार्ग में लगना चाहिए। श्री पण्डित दौलतरामजी अपनी आत्मा को सम्बोधन करके कहते हैं कि - हे आत्मन्! पराश्रयरूप संसार अर्थात पुण्य-पाप में भटकना छोड़कर सावधानी से आत्मस्वरूप में लीन हो।

दूसरी ढाल का सारांश

1. यह जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के वश होकर चार गतियों में परिभ्रमण करके प्रतिसमय अनन्त दुःख भोग रहा है। जब तक देहादिक से भिन्न अपने आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता।

2. आत्महित के लिए (सुखी होने के लिए) प्रथम (1) सच्चे देव, गुरू और धर्म की यथार्थ प्रतीति, (2 जीवादि सात तत्वों की याार्थ प्रतीति, (3) स्व-पर के स्वरूप की श्रद्धा, (4) निज शुद्धात्मा के प्रतिभासरूप आत्मा की श्रद्धा - इन चार लक्षणों के अविनाभाव सहित सत्य श्रद्धा (निश्चय सम्यग्दर्शन) जबतक जीव प्रकट न करे, तब तक जीव (आत्मा) का उद्धार नहीं हो सकता अर्थात् धर्म का प्रारम्भ भी नहीं हो सकता; और तब तक आत्मा को अंशमात्र भी सुख प्रकट नहीं होता।

3. सात तत्वों की मिथ्याश्रद्धा करना, उसे मिथ्यादर्शन कहते हैं। अपने स्वतंत्र स्वरूप की भूल का कारण आत्मस्वरूप में विपरीत श्रद्धा होने से ज्ञानावरणीयादि, शरीरादि नोकम्र तथा पुण्य-पाप-रागादि मलिन भावों में एकताबुद्धि-कर्तबुद्धि है और इसलिए शुभराग तथा पुण्य हितकर है, शरीरादि परपदार्थों की अवस्था (क्रिया) मैं कर सकता हूं, पर मुझ लाभ-हानि कर सकता है तथा मैं पर का कुछ कर सकता हूं - ऐसी मान्यता के कारण उसे सत्-असत् का विवके होता ही नहीं। सच्चा सुख तथा हितरूप श्रद्धा-ज्ञान-चारि0 अपने आत्मा के ही आश्रय से होते हैं, इस बात की भी उसे खबर नहीं होती।

4. पुनश्च, कुदेव-कुगुरू-कुशास्त्र और कुधर्म की श्रद्धा, पूजा, सेवा तथाविनय करने की जो-जो प्रवृत्ति है, वह अपने मिथ्यात्वादि महान दोषों को पोषण देनेवाली होनेसे दुःखदायक है, अनन्त संसार-भ्रमण का कारण है। जो जीव उसका सेवन करता है, उसे कर्तव्य समझता है, वह दुर्लभ मनुष्य-जीवन को नष्ट करता है।

5. अगृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र जीव को अनादिकाल से होते है, फिर वह मनुष्य होने के पश्चात् कुशास्त्र का अभ्यास करके अथवा कुगुरू का उपदेशस्वीकार करके गहीत मिथ्याज्ञान-मिथ्याश्रद्धा धारण करता है तथा कुमत का अनुसरण करके मिथ्याक्रिया करता है, वह गृहीत मिथ्याचारित्र है। इसलिये जीव को भलीभांति सावधान हाकर गृहीत तथा अगृहीत - दोनों प्रकार के मियिाभाव छोउ़ने योग्य हैं तािा उनका यथार्थ निर्णय करके निश्चय सम्यग्दर्शन प्रकट करना चाहिए। मिथ्याभावों का सेवन कर-करके, संसार में भटककर, अनन्त जन्म धारण करके अनन्तकाल गंवा दिया; इसलिए अब सावधान होकर आत्मोद्वार करना चाहिए।

दूसरी ढाल का भेद -संग्रह

इन्द्रियविषय : स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, और शब्द।

तत्व : जीव, अजीव, आस्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष।

द्रव्य : जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।

मिथ्यादर्शन : गृहीत (बाह्यकारण प्राप्त), अगृहीत (निसर्गज)।

मिथ्याचारित्र : गृहीत और अगृहीत।

महादुःख : स्वरूप सम्बन्धी अज्ञान, मिथ्यात्व।

दूसरी ढाल का लक्षण-संग्रह

अनेकान्त : प्रत्येक वस्तु में वस्तुपने को प्रमाणित-निश्चित करनेवाली अस्तित्व-नास्तित्व आदिपरस्पर-विरूद्ध दो शक्तियों का एक साथ प्रकाशित होना। (आत्मा सदैव स्व-रूप में है और पर-रूप से नहीं है - ऐसी जो दृष्टि, वह अनेकान्तदृष्टि है)।

अमूर्तिक : रूप, रस, गंध और स्पर्शरहित वस्तु।

आत्मा : जानने-देखने अथवा ज्ञान-दर्शन शक्तिवाली वस्तु को आत्मा कहा जाता है। जो सदा जाने और जानने रूप परिणामित हो, उसे जीव अथवा आत्मा कहते हैं।

उपयोग : जीव की ज्ञान-दर्शन अथवा जानने-देखने की शक्ति का व्यापार।

एकान्तवाद : अनेक धर्मों की सत्ता की अपेक्षा न रखकर वस्तु का एक ही रूप से निरूपण करना।

दर्शनमोह : आत्मा के स्वरूप की विपरीत श्रद्धा।

द्रव्यहिंसा : त्रस और स्थावर प्राणियों का घात करना।

भावहिंसा1 : मिथ्यात्व तथा राग-द्वेषादि विकारों की उत्पत्ति।

मिथ्यादर्शन : जीवादि तत्वों की विपरीत श्रद्धा।

मूर्तिक : रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसहित वस्तु।

1. अप्रदुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति।
तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।।44।। (पुरूषार्थ सिद्धयुपाय)

अर्थ:- वास्तव में रागादि भावों काप्रकट न होना, सो अहिंसा है और रागादि भावों की उत्पत्ति होना सो हिंसा है - ऐसा जिनागम शास्त्र का संक्षिप्त रहस्य हे।

अन्तर-प्रदर्शन

1. आत्मा और जीव में कोई अंतर नहीं है, पर्यायवाचक शब्द है।

2. अगृहीत (निसर्गज) तो उपदेशादिक के निमित्त बिना होता है, परंतु गृहीत में उपदेशादि निमित्त होते हैं।

3. मिथ्यात्व और मिथ्यादर्शन में कोई अन्तर नहीं है; मत्र दोनों पर्यायवाचनक शब्द हैं।

4. सुगुरू में मिथ्यात्वादि दोष नहीं होते, किंतु कुगुरू में होते हैं। विद्यागुरू तो सुगुरू और कुगुरू से भिन्न व्यक्ति हैं। मोक्षमार्ग के प्रसंग में तो मोक्षमार्ग के प्रदर्शक सुगुरू से तात्पर्य है।

दूसरी ढाल की प्रश्नावली

1. अगृहीत-मिथ्याचारित्र, अगृहीत-मिथ्याज्ञान, अगृहीत-मिथ्यादर्शन, कुदेव, कुगुरू, कुार्म, गृहीत-मिथ्यादर्शन, गृहीत-मिथ्याज्ञान, गृहीत-मिथ्याचारित्र, जीवादि छह द्रव्य - इन सबका लक्षण बतलाओ।

2. मिथ्यात्व और मिथ्यादर्शन में, अगृहीत और गृहीत में, आत्मा और जीव में तथा सुगुरू, कुगुरू और विद्या गुरू में क्या अंतर है? वह बतलाओ।

3. अगृहीत का नामान्तर, आत्महित का मार्ग, एकेन्द्रिय को ज्ञान न मानने से हानि, कुदेवादि की सेवा से हानि; दूसरी ढाल में कीं हुई वास्तविकता, मृतयुकाल में जीव निकलते हुए दिखाई नहीं देता, उसका कारण; मिथ्यादृष्टि की रूचि, मियिादृष्टि की अरूचि, मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र की सत्ता का काल; मिथ्यादृष्टि को दुःख देनेवाली वस्तु, मिथ्या-धार्मिक कार्य करने-कराने व उसमें सम्मत होने से हानि तथा सात तत्वों की विपरीत श्रद्धा के प्रकारादि का स्पष्ट वर्णन करो।

4. आत्महित, आत्मशक्ति का विस्मरण, गृहीत मिथ्यात्व, जीवतत्व की पहिचान न होने में किसका दोष है, तत्व काप्रयोजन, दुःख, मोक्षसुख की अप्राप्ति और संसार-परिभ््रमण के कारा दर्शाओ।

5. मिथ्यादृष्टि का आत्मा, जन्म और मरण, कष्टदायक वस्तु आदि सम्बन्धी विचार प्रकट करो।

6. कुगुरू, कुदेव और मिथ्याचारित्र आदि के दृष्टान्त दो। आत्महितरूप धर्म के लिए प्रथम व्यवहार या निश्चय?

7. कुगुरू तथा कुधर्म का सेवन और रागादिभाव आदि काफल बतलाओ। मिथ्यात्व पर एक लेख लिखो। अनेकान्त कया है? राग तो बाधक ही है, तथापि व्यवहार मोक्षमार्ग को (शुभराग का) निश्चयय का हेतु क्यों कहा है?

8. अमुक शब्द, चरण अथवा छनद का अर्थ और भावार्थ बतलाओ। दूसरी ढाल का सारांश समझाओ।

हे जिन तेरो सुजस उजागर गावत हैं मुनिजन ज्ञानी।।टेक।।
दुर्जय मोह महाभट जाने निज वस कीने हैं जग प्रानी।
सो तुम ध्यान कृपान पान गहिं तत् छिन ताकी थिति हानी।।1।।
सुप्त अनादि अविद्या निद्रा जिन जन निज सुधि बिसरानी।
ह्वै सचेत तिन निज निधि पाई श्रवण सुनी जब तुम वानी।।2।।
मंगलमय तू जग मं उत्तम, तू ही शरण शिवमग दानी।
तुम पद सेवा परम औषधि जन्म-जरा-मृत गद हानि।।3।।
तुमरे पंचकल्याणक माहीं त्रिभुवन मोह दशा हानी।
विष्णु विदाम्बर विष्णु दिगम्बर बुध शिव कहि ध्यावत ध्यानी।।4।।
सर्व दर्व गुण परिजय परिणति, तुम सुबोध में नाहिं छानी।
तातें ’दौल’ दास उर आशा प्रकट करी निज रस सानी।।5।।