मेरूपंक्ति व्रत विधि

जम्बूद्वीप का एक, धातकीखण्ड पूर्व दिशा का एक, धातकीखण्ड पश्चिम दिशा का एक, पुष्करार्ध पूर्व दिशा का एक और पुष्करार्ध पश्चिम दिशा का एक इस प्रकार कुल पांच मेरूपर्वत हैं। प्रत्ये कमेरूपर्वत पर भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक ये चार वन हैं। एक-एक वन में चार-चार चैत्यालय हैं। मेरूपंक्ति व्रत में वनों को लक्ष्य कर बला और चैत्यालयों को लक्ष्य कर उपवास करने पड़ते हैं। इस प्रकार इस व्रत में पांचों मेरू संबंधी अस्सी चैत्यालयों के अस्सी उपवास और बीस वन सम्बन्धी बीस बेला करने पड़ते हैं। तथा सौ स्थानों की सौ पारणाएं होती हैं। इसमें दो सौ बीस दिन लगते हैं। व्रत, जम्बूद्वीप के मेरू से शुरू होता है। इसमें प्रथम ही भद्रशाल वन के चार चैत्यालयों के चार उपवास, चार पारणायें और वन सम्बन्धी एक बेला, एक पारणा होती है। फिरसौमनस वन के चार चैत्यालयों के चार उपवास, चार पारणाएं ओरवन सम्बन्धी एक बेला, एक पारणा होी हैं। इसी क्रम से धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व और पश्चिम मेरू तथा पुष्करार्धद्वीप के पूर्व और पश्चिम मेरू सम्बन्धी उपवास, बेला और पारणाएं होनी चाहिए। यह मेरूपंक्ति व्रत मेरूपर्वत पर महाभिषेक को प्राप्त कराता है अर्थात् इस व्रत का पालन करने वाला पुरूष तीर्थंकर होता है।

मेरूपंक्तिव्रत की समुच्चय जाप्य-

ऊँ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-अशीतिजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्या नमः।

नोट-
कोई-कोई एक-एक चैत्यालय सम्बंधी एक-एक उपवास ऐसे अस्सी उपवास भी करते हैं। उसमें एकांतर और बेला का नियम नहीं रखते हैं। शक्ति होने से पूर्वोक्त विधि से करना चाहिए अन्यथा शक्ति अनुसार भी कर सकते हैं।