मंदर मेरू पूजा
--स्थापना-नरेन्द्र छंद--

पुष्करार्ध वर द्वीप पूर्व में मंदर मेरू सोहे।
उसके सोलह जिनमंदिर में जिनप्रतिमा मन मोहे।।
भक्ति भाव से आह्वानन कर पूजा पाठ रचाऊं।
भव भव के संताप नाश कर स्वातम सुख को पाऊं।।1।।

ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

--अथाष्टक-गीता छंद--

पयोराशि को नीर झारी भराऊं।
प्रभो के पदाम्भोज धारा कराऊं।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।1।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा।

मलय चंदनादि सुवासीत लाऊं।
प्रभो आपके पाद में नित चढ़ाऊं।।2।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।1।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धवल शालि तंदुल लिया थाल भरके।
चढ़ाऊं तुम्हें पुंज सद्भाव धर के।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।2।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

जुही केतकी पुष्पमाला बनाऊं।
महा काम शत्रुंजयी को चढ़ाऊं।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।4।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

कलाकंद लाडू इमरती बनाके।
क्षुधा व्याधि नाशूं प्रभू को चढ़ाके।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।5।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

शिखा दीप की लोक उद्योतकारी।
तुम्हें पूजते ज्ञान प्रद्योत भारी।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।6।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

अगनि पात्र मं धूप खेऊं सदा मैं।
करम की भसम को उड़ाऊं मुदा मैं।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।7।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

अनंनास अमरूद अमृत फलों से।
जजूं मैं बचूं कम्र अरि के छलों से।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।8।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा।

जलादी वसू द्रव्य से अर्घ करके।
चढ़ाऊं तुम्हें सर्वदा प्रीति धर के।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।9।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--सोरठा--

परम शांति के हेतु, शांतीधारा मैं करूं।
सकल विश्व में शांति, सकल संघ में हो सदा।।10।।
शांतये शांतिधारा।

चंपक हरसिंगार, पुष्प सुगंधित अर्पिते।
होवे निज सुखसार, दुख दारिद्र पलायते।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ प्रत्येक अघ्र्य

--दोहा--

मंदरमेरू जिनभवन, सर्वसौख्य भंडार।
पुष्पांजली चढ़ाय के, जजूं नित्य चित धार।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
--दोहा--

पुष्करार्धवर पूर्व में, मंदर मेरू महान।
भद्रसाल पूरवदिशी, जजूं जिनालय आन।।1।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

भद्रसाल दक्षिण दिशा, जिनगृह शाश्वत सिद्ध।
तिनमें जिनवर बिंब को, जजूं मिले सब सिद्ध।।2।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

भद्रसाल में अपरदिश, जिन मंदिर सुखकार।
जिन प्रतिमा को पूजहूं, मिले भवोदधि पार।।3।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

मंदरमेरू भूमि में, भद्रसाल वन जान।
उत्तर दिश जिन भवन को, जजूं मोक्ष हित मान।।4।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

--गीता छंद--

वर द्वीप पुष्कर अर्ध में मंदरगिरि कनकाभ है।
जिनवर न्हवन से पूज्य उत्तम, सुरगिरी विख्यात है।।
नंदन विपिन1 पूरब दिशी, जिनगेह अनुपम मणिमयी।
पूजूं सकल जिनबिंब को, जो वीतरागी छविमयी।।1।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

निज और पर का करें अंतर, जो निरंतर मुनिवरा।
विचरण करें जिनवंदना हित, वे सदैव दिगंबरा।।
नंदन विपिन दंिक्षण दिशी, जिनगेह अनुपम मणिमयी।
पूजूं सकल जिनबिंब को, जो वीतरागी छविमयी।।2।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

यमराज का भय नाशते, सब कामना पूरी करें।
शुद्धात्म रस प्यासे मुनी की, भावना पूरी करें।।
नंदन विपिन पश्चिम दिशी, जिनगेह अनुपम मणिमयी।
पूजूं सकल जिनबिंब को, जो वीतरागी छविमयी।।3।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

भव राग आग बुझावने, तुम भक्ति गंगा नीर है।
स्नाना जो इसमें करें, उनकी हरे सब पीर हैं।।
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1. वन

--------------- नंदन विपिन1 उत्तर दिशी, जिनगेह अनुपम मणिमयी।
पूजूं सकल जिनबिंब को, जो वीतरागी छविमयी।।4।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

--रोला छंद--

मंदरमेरू माहिं, वन सौमनस सुहावे।
पूरव दिा जिनगेह, पूजत सौख्य उपाये।।
राग द्वेष अर मोह, शत्रु महा दुःख देते।
तुम भक्ती परसाद, तुरत नशें त्रय एते।।1।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिसौमनसवनपूर्वदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

मेरू चतुर्थ महान, वन सौमनस बखाना।
दक्षिण दिश जिनधाम, मृत्युंजय परधाना।।
राग द्वेष अर मोह, शत्रु महा दुःख देते।
तुम भक्ती परसाद, तुरत नशें त्रय एते।।2।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिसौमनसवनदक्षिणदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

मंदरमेरू माहिं, वन सौमनस कहा है।
उत्तर दिश जिनधाम, शाश्वत शोभ रहा है।।
राग द्वेष अर मोह, शत्रु महा दुःख देते।
तुम भक्ती परसाद, तुरत नशें त्रय एते।।4।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिसौमनसवनउत्तरदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

--नाराच छन्द (चाल-पाश्र्वनाथ देव सेव.......)--
पुष्करार्ध पूर्व खंड द्वीप में सुमेरू है।
तास पांडुके वनी, सुपूर्व दिक्क में रहे।।
जैन वेश्म शासता जिनेश बिंब सोहने।
पूजहूं चढ़ाव अघ्र्य कर्म कीच धोवने।।1।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिपांडुकवनपूर्वदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

मंदराद्रि पांडुकेसु दक्षिणी दिशा तहां।
साधु वृंद वंदना जिनेश की करे वहां।।
जैन वेश्म शासता जिनेश बिंब सोहने।
पूजहूं चढ़ाव अघ्र्य कर्म कीच धोवने।।2।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिपांडुकवनदक्षिणदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

मेरू जो चतुर्थ है चतुर्थ रम्य जो वनी।
पश्चिम दिशी सुकल्प वृक्ष पंक्तियां घनी।।
जैन वेश्म शासता जिनेश बिंब सोहने।
पूजहूं चढ़ाव अघ्र्य कर्म कीच धोवने।।3।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिपांडुकवनपश्चिमदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

मंदराचले चतुर्थ, जो वनी प्रसिद्ध है।
उत्तरी दिशा तहां मनोज्ञता विशिष्ट है।।
जैन वेश्म शासता जिनेश बिंब सोहने।
पूजहूं चढ़ाव अघ्र्य कर्म कीच धोवने।।4।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिपांडुकवनउत्तरदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-- पूर्णाघ्र्य -सोरठा --

सोलह श्री जिनधाम, मंदर मेरू में कहे।
जिनवर बिंब महान, अर्चूं पूरण अघ्र्य ले।।1।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सत्रह सौ अठबीस, जिनवर प्रतिमा नित नमूं।
नित्य नमाऊं शीश, पूरण अर्घ चढ़ाय के।।2।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयमध्यविराजमानएकसहस्रसप्तशत-अष्टाविंशतिजिनप्रतिमाभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

मंदर मेरू विदिक्क, पांडुक आदि शिला कहीं।
नमूं नमूं प्रत्येक, जिन अभिषेक पवित्र है।।3।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूपांडुकवनविदिक्सिातपांडुकादिशिलाभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य-- ऊँ ह्रीं पंचमेरूसंबंधितअशीतिजिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
(लवंग या पुष्पों से 9 बार, 27 बार या 108 बार करें)
जयमाला

--दोहा--

जय जय मंदर मेरू नित, जय जय री जिनदेव।
गाऊं तुम जयमालिका, करो विघन घन छेय।।1।।

-शेर छंद-चाल-हे दीन बंधु-

जैवंत मूतिमंत मेरू मंदराचला।
जैवंत कीर्तिमान जैन बिंब अविचला।।
जैवंत ये अनंतकाल तक भि रहेंगे।
जैवंत मुझ अनंत सुख निमित्त बनेंगे।।1।।

जै भ्रदसाल आदि चार वन के आलया।
जै जैन जिनेंद्र मुर्तियों से वे शिववालया।।
जै नाममंत्र भी उन्हों का सारभूत है।
जो नित्य जपे वो लखे आतम स्वरूप हैं।।2।।

भव भव में दुःख सहे अनंत काल तक यहां।
ना जाने कितने काल मैं निगोद में रहा।।
तिर्यंचगति में असंख्य वेदना सही।
नरको के दुःख को कहें तो पार ही नहीं।।3।।

मानुष गति में आयके भी सौख्य न पाया।
नाना प्रकार व्याधियों ने खूब सताया।।
अनिष्ट योग इष्ट का वियेग सब हुआ।
तब आर्त रौद्र ध्यान बार बार कर मुआ।।4।।

संक्लेश से मर बार बार जन्म का धरा।
आनंत्य बार गर्भवास दुःख को भरा।।
मैं देव भी हुआ यदि सम्यक्त्व बिन रहा।
संक्लेश से मरा पुनः एकेंद्रि हो गया।।5।।

हे नाथ सभी दुःख से मैं ऊब चुका हूं।
अत्र आपकी शरणागती में आके रूक हूं।।
करके कृपा स्वहाथ का अवलंब दीजिये।
मुझ ’ज्ञानमती’ को प्रभो! अनत1 कीजिये।।6।।
-धत्ता छंद-

गुण गण मणिमाला, परम रसाला, जो भविजन निज कंठ धरें।
वे भव दावानल शीघ्र शमन कर, मुक्ति रमा को स्वयं वरें।।7।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिंबेभ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा दिव्य पुष्पांजलिः।

--गीता छंद--

जो भव्यजन श्रीपंचमेरू, व्रत करें नित चाव से।
फिर व्रतोद्योतन हित महा, पूजा करें बहुभाव से।।
वे पुण्यमय तीर्थेंश हो, अभिषेक सुरगिरि पर लहें।
त्रय ज्ञानमति चउज्ञान धर, फिर अंत में केवल लहें।।

।।इत्याशीर्वादः।। ----------
1. अंत रहित।

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