भगवान श्री विमलनाथ जिनपूजा
-अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद -

अमल विमल पद पाकर स्वामी, विमलनाथ कहलाये।
भाव-द्रव्य-नोकर्म मलों से, रहित शुद्ध कहलाये।।
आत्मा के संपूर्ण मलों को, धोने हेतु जजूं मैं।
आह्वानन स्थपन करके, पूजा, करूं भजूं मैं।।

ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अथ अष्टक - दोहा-

पद्मसरोवर नीर शुचि, जिनपद धार करंत।
जन्म जरा मृति नाश हो, आतम सुख विलसंत।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

मलयागिरि चंदन सुरभि, जिनपद में चर्चंत।
मिले आत्मसुख संपदा, निजगुण कीर्ति लसंत।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनें निर्वपामीति स्वाहा।

मोतीसम तंदुल धवल, पुंज चढ़ाऊं नित्य।
नव निधि अक्षय संपदा, मिले आत्मसुख नित्य।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

हरसिंगार प्रसून की, माल चढ़ाऊं आज।
सर्वभ्सौख्य आनंद हो, मिले स्वात्म साम्राज।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

पूरणमोली इमरती, चरू चढ़ाऊं भक्ति।
मिले आत्म पीयूष रस, मोक्ष प्राप्ति की शक्ति।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

घृत दीपक से आरती, करूं तिमिर परिहार।
जगे ज्ञान की भारती, भरें सुगुण भंडार।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

धूप खेवते हो सुरभि, आतम सुख विलसंत।
कर्म जलें शक्ति बढ़े, मले निजात्म अनंत।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

सेब आम अंगूर ले, फल से पूजूं आज।
मिले मोक्षफल आश्ज्ञयह, सफल करो मम काज।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

जल गंधादिक अघ्र्य ले, रजत पुष्प विलसंत।
अघर्् चढ़ाऊं भक्ति से, ’’ज्ञानमती’’ सुख कंद।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

शांतीधारा मैं करूं, जिनवर पद अरविंद।
त्रिभुवन में भी शांति हो, मिले निजात्म आनिंद।।10।।
शांतये शांतिधारा।

मौलसिरी बोला जुही, पुष्पांजलि विकिरंत।
सुख संतति संपति बढ़े, निज निधि मिले अनंत।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।

-अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद -
पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल और पांच अघ्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-रोला छंद-

पुरी कपिला नाम, पितु कृतवर्मा गृह में।
जयश्यामा वर माता, गर्भ बसे शुभ तिथि में।।
ज्येष्ठ वदी दश श्रेष्ठ, सुरपति नरपति पूजें।
नमूं आज शिर टेक, जजूं कर्म अरि धूजें।।1।।
ऊँ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णादशम्यां श्रीविमलनाथजिनगर्भकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जन्में त्रिभुवननाथ, चैथ माघ सुदि तिथि में।
सुरनर हुये सनाथ, शांति हुई तिहुंजग में।।
मेरू शिखर ले जाय, इन्द्र किया जन्मोत्सव।
पूजूं शीश झुकाय, जन्मकल्याण महोत्सव।।2।।
ऊँ ह्रीं माघशुक्लाचतुथ्यां श्रीविमलनाथजिनजन्मकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

बर्फ विनशती देख, चित वैराग्य समाया।
माघ चतुर्थी शुक्ल, सुरगण शीश नमाया।।
गये सहेतुक बाग, देवदत्त पालकि में।
नमूं नमूं नत माथ, तपकल्याणक प्रभु मैं।।3।।
ऊँ ह्रीं माघशुक्लाचतुथ्र्यां श्रीविमलनाथजिनजिनतपकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

माघ शुक्ल छठ श्रेष्ठ, जामुनतरू के नीचे।
नशा घाति का क्लेश, केवलज्ञान उदय से।।
समवसरण प्रभु आप, गगनांगण में शोभे।
ज्ञानकल्याणक नाथ, जजत भावश्रुत दीपे।।4।।
ऊँ ह्रीं माघशुक्लाषष्ठयां श्रीविमलनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

विमलनाथ जिनराज, श्रीसम्मेदशिखर से।
कर्म अघाति विनाश, मुक्तिधाम में पहुंचे।।
वदि अष्टमि आषाढ, मोक्षकल्याणक तिथि है।
मोहारि को पछाड़, जजत लहूं निज सुख है।।5।।
ऊँ ह्रीं आषाढ़कृष्णाअष्टम्यां श्रीविमलनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-

विमलनाथ त्रयमलरहित, अमल सौख्य दातार।
अघ्र्य चढ़ाकर नित जजूं, पाऊं निजसुख सार।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथ पंचकल्याणकाय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य - ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला

-दोहा-

पूरब भव में आपने सोलहकारण भाय।
तीर्थंकर पद पाय के, तीर्थ चलाया आय।।1।
-रोला छंद-

दर्श विशुद्धि प्रधान, नित्यप्रती प्रभु ध्याके।
अष्ट अंग से शुद्ध, दोष पच्चीस हटाके।।
मन वच काय समेत, विनय भावना भायी।
मुक्ति महल का द्वार, भविजन को सुखदायी।।2।।

व्रतशीलों में आप, नहिं अतिचार लगाया।
संतत ज्ञानाभ्यास, करके कर्म खपाया।।
भवतन भोग विरक्त, मन संवेग बढ़ाया।
शक्ति के अनुसार, चउविध दान रचाया।।3।।

बारहविध तपधार, आतम शक्ति बढ़ाई।
धर्मशुक्ल से सिद्ध, साधु समाधि कराई।।
दशविध मुनि की नित्य, वैयावृत्य किया था।
सर्व शक्ति से पूर्ण, बहु उपकार किया था।।4।।

श्री अर्हंत निजेन्द्र, भक्ति हृदय में धरके।
सूरि परम परमेश गुण संस्तवन उचरके।।
उपाध्याय गुरू देव, शिवपथ के उपदेष्टा।
प्रवचन भक्ति समेत, गुणगण भजा हमेशा।।5।।

षट् आवश्यक नित्य, करके दोष नशाया।
हानिरहित परिपूर्ण, निज कर्तव्य निभाया।।
मार्ग प्रभावन पाय, धर्म महत्व बढ़ाया।
प्रवचन में वात्सल्य, कर निज गुण प्रगटाया।।6।।

सोलहकारण भाय, पंचकल्याणक पाया।
दिव्यध्वनी से नित्य, धर्म सुतीर्थ चलाया।।
भव्य अंतानंत, जग से पार किया है।
सौ इंद्रों से वंद्य, निज सुख सार लिया है।।7।।

मंदर आदि गणीश, पचपन समवसरण में।
अड़सठ सहस मुनीश, गुणमणियुत तुम प्रणमें।।
गणिनी पद्मा आदि, तीन सहस इक लक्षा।
श्रमणी महाव्रतादि, गुणमणि भूषित दक्षा।।8।।

श्रावक थे दो लाख, धर्मध्यान में तत्पर।
कहीं श्राविका चार, लाख भक्ति में तत्पर।।
साठ धनुष तनु तुंग, साठ लाख वर्षायू।
घृष्टी चिन्त सुवर्ण, वर्ण देह गुण गाऊं।।9।।

चिच्चैतन्य स्वरूप, चिन्मय ज्योति जलाऊं।
पूर्ण ज्ञानमति रूप, परम ज्योति प्रगटाऊं।।
तुम प्रसाद जिन विमल! पूरी हो मम आशा।
इसीलिए पदकमल, नमूं नमूं धर आशा।।10।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा दिव्य पुष्पांजलिः।

-सोरठा-

विमलनाथ जिनदेव! तुम पद पंकज जो जजें।
लहें स्वपद स्वयमेव, नर सुर के सुख भोग के।।1।।

।।इत्याशीर्वादः।।