भगवान श्री सुमतिनाथ जिनपूजा
-अथस्थापन-गीता छंद-

श्रीसुमति तीर्थंकर जगत में, शुद्धमति दाता कहे।
निज आततमा को शुद्ध करके, लोक मस्तक पर रहें।।
मुनि चार ज्ञानी भी सतत, वंदन करें संस्तवन करें।
हम भक्ति से थापें यहां, प्रभु पद कमल अर्चन करें।।1।।

ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अथ अष्टक-गीता छंद-

प्रभु चार गतियों में बहुत ही, घूमकर अब थक चुका।
इस हेतु तुम पद शरण लेकर, नीर से पूजूं मुदा।।
हे सुमति जिन! तुम पाद पंकज, की करूं मैं अर्चना।
सद्बुद्धि पाऊं नाथ! अब मैं, करूं यम की तर्जना।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

एकेन्द्रियादिक देह में, दुःख दाव से संतप्त हो।
प्रभु गंध से पद चर्चते, तुम पाद छाया सुलभ हो।।
हे सुमति जिन! तुम पाद पंकज, की करूं मैं अर्चना।
सद्बुद्धि पाऊं नाथ! अब मैं, करूं यम की तर्जना।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

अहमिन्द्र से भि निगोद तक, सुख दुःखमयी सब पद धरे।
अक्षय सुपद के हेतु भगवान! पुंज अक्षत के धरे।।
हे सुमति जिन! तुम पाद पंकज, की करूं मैं अर्चना।
सद्बुद्धि पाऊं नाथ! अब मैं, करूं यम की तर्जना।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

बहुविध अयश से खिन्न हो, नहिं स्वात्मगुण यश पा सका।
बहुविध महकते पुष्प सुंदर, अतः चरणों में रखा।।
हे सुमति जिन! तुम पाद पंकज, की करूं मैं अर्चना।
सद्बुद्धि पाऊं नाथ! अब मैं, करूं यम की तर्जना।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र कामवाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

लड्डू इमरती पूरियां, फेनी मलाई खीर से।
नहिं तृप्ति पाई इसलिए, नेवज चढ़ाऊं प्रीति से।।
हे सुमति जिन! तुम पाद पंकज, की करूं मैं अर्चना।
सद्बुद्धि पाऊं नाथ! अब मैं, करूं यम की तर्जना।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

दीपक अंधेरा दूर करता , एक कोइै का अरे।
तुम आरती करते सकल, अज्ञानतम हरता खरे।।
हे सुमति जिन! तुम पाद पंकज, की करूं मैं अर्चना।
सद्बुद्धि पाऊं नाथ! अब मैं, करूं यम की तर्जना।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

वरधूप खेते अग्नि में, सब कर्म भस्मीभूत हों।
निज आत्म समरस प्राप्त हो, फिर मोह बैरी दूर हों।।
हे सुमति जिन! तुम पाद पंकज, की करूं मैं अर्चना।
सद्बुद्धि पाऊं नाथ! अब मैं, करूं यम की तर्जना।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

बादाम पिस्ता सेव केला, आम दाडि़म फल लिया।
बस मोक्षफल की आश लेकर, आपको अर्पण किया।।
हे सुमति जिन! तुम पाद पंकज, की करूं मैं अर्चना।
सद्बुद्धि पाऊं नाथ! अब मैं, करूं यम की तर्जना।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

जल गंध अक्षत पुष्प में, बहुरत्न आदि मिलाय के।
मैं अर्घ अर्पण करूं प्रभु को, ’ज्ञानमति’ हर्षाय के।।
हे सुमति जिन! तुम पाद पंकज, की करूं मैं अर्चना।
सद्बुद्धि पाऊं नाथ! अब मैं, करूं यम की तर्जना।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-सोरठा-

श्री जिनवर पदपद्म, शांतीधारा में करूं।
मिले शांति सुखसद्म, त्रिभुवन में सुख शांति हो।।10।।
शांतये शांतिधारा।

बेला कमल गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूं।
परमानंद सुख लाभ, मिले सर्वसुख सम्पदा।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।

-अथस्थापन-गीता छंद-
पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल पर पांच अघ्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।

-नरेन्द्र छंद-
पुरी अयोध्या पिता मेघरथ, सती मंगला माता।
श्रावण शुक्ल द्वितीया तिथि में, गभ बसे जग त्राता।।
इन्द्र स्वयं सुरगण सह आये, मात पिता को पूजें।
पुनर्जन्म के नाश हेतु हम, गर्भकल्याणक पूजें।।1।।
हे सुमति जिन! तुम पाद पंकज, की करूं मैं अर्चना।
सद्बुद्धि पाऊं नाथ! अब मैं, करूं यम की तर्जना।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रवणशुक्लाद्वितीयायां श्रीसुमतिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

चैत्र शुक्ल एकादशि तिथि में, जन्म लिया तीर्थंश्वर।
सुरपति जिन बालक को लेकर, बैठे ऐरावत पर।।
सुरगिरि पहुंचे जन्म महोत्सव, किया इन्द्रगण मिलकर।
जन्म कल्याणक मैं नित पूजूं, मिले जन्म अविनश्वर।।2।।
ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्लाएकादश्यां श्रीसुमतिनाथजिनजन्मकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जातिस्मरण पाय विरती हो, इन्द्र सभी मिल आये।
सुदि नवमी वैशाख तिथी, अभयंकरि पालकि लाये।।
प्रभू सहेतुक वन में पहुंचे, बेला कर दीक्षा ली।
दीक्षा कल्याणक जजते ही, मिले स्वात्मगुणशैली।।3।।
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लानवम्यां श्रीसुमतिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

चैत्र सुदी ग्यारस उद्यान, सहेतुक में प्रभु पहुंचे।
तरू प्रियंगु के नीचे तिष्ठे, केवल रवि बन चमके।।
धनपति समवसरण रच करके, ज्ञानकल्याणक पूजें।
गंधकुटी में सुमति जिनेश्वर, पूजत भव से छूटें।।4।।
ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्लाएकादश्यां श्रीसुमतिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

चैत्र शुक्ल ग्यारस अपराण्हे, सम्मेदाचल से ही।
मृत्युनाश मृत्युंजय होकर, स्वात्मा में तिष्ठे ही।।
सुमतिनाथ का मोक्षकल्याणक, इन्द्र जजें भक्ति से।
मैं पूजूं इस कल्याणक को, नशें कर्म युक्ती से।।5।।
ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्लाएकादश्यां श्रीसुमतिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-

सुमति सुमतिदाता प्रभो! तीर्थंकर परमेश!
जजूं मोक्षपद हेतु मैं, जहां न दुख लवलेश।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ पंचकल्याणकाय पूर्णांघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य - ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला

-दोहा-

चिन्मूरति परमात्मा, चिदानंद चिद्रूप।
गाऊं गुणमाला अबे, स्वल्पज्ञान अनुरूप।।1।।

-नाराचछंद-

नमो नमो जिनेन्द्रदेव! आपको सुभक्ति से।
मुनीन्द्रवृंद आप ध्याय कर्मशत्रु से छुटें।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।2।।

अनंतदर्श ज्ञान वीर्य सौख्य से सनाथ हो।
अनादि हो अनंत हो जिनेश सिद्धिनाथ हो।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।3।।

अनादिमोह वृक्ष मूल को उखाड़ आपने।
प्रधान राग द्वेष शत्रु को हना सु आपने।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।4।।

महान रोग शोक कष्ट हेतु औषधी कहे।
अनिष्ट योग इष्ट का वियोग दुःख को दहे।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।5।।

अपूर्व चालिसे हि लाख पूर्व वर्ष आयु है।
सुतीन सौ धनुष प्रमाण तुंग देह आप हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।6।।

सुचक्रवाक चिन्ह देह स्वर्ण के समान है।
तनू विहीन ज्ञानदेह सिद्ध शक्तिमान हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।7।।

शतेन्द्र वृंद आपको सदैव शीश नावते।
गणीन्द्र वृंद आप को निजात्मा में ध्यावते।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।8।।

गणेश चामरादि एक सौ सुसोलहों सभी।
समस्त ऋद्धियों समेत आप भक्ति लीन ही।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।9।।

समस्त साधु तीन लाख बीस सहस संयमी।
निजात्म सौख्य हेतु नित्य स्वात्मध्यान लीन ही।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।10।।

प्रधान आर्यिका अनंतमत्ति नाम धारती।
सुतीन लाख तीस सहस आर्यिका महाव्रती।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।11।।

जिनेश भक्त तीन लाख श्रावकों कि भीड़ है।
सुपांच लाख श्राविका मिथ्यात्व से विहीन हैं।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।12।।

असंख्य देव देवियां जिनेन्द्र अर्चना करें।
वहां तिर्यंच संख्य सर्व वैरभाव को हरें।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।13।।

सुनी सुकीर्ति आपकी अतेव संस्तुती करूं।
अनंत जन्म के अनंत पापपुंज को हरूं।।
अनाथ नाथ! भक्त् पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भावाधि से निकाल सौख्य दीजिए।।14।।

जिनेन्द्र आप भक्ति से सदैव साम्य भावना।
सदैव स्वात्म ब्रह्म तत्व की करूं उपासना।।
अनाथ नाथ! भक्त पे दया की दृष्टि कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से निकाल सौख्य दीजिए।।15।।

-दोहा-

सुमतिनाथ! तुम भक्ति से, मिले निजातम शक्ति।
रत्नत्र युक्ती मिले, पुनः शीघ्र हो मुक्ति।।16।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।

-सोरठा-

जो जन करते सेव, हरें कुमति कुज्ञान को।
बनें देव के देव, पावें अविचल संपदा।।1।।

।।इत्याशीर्वाद।।