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चौबीस तीर्थंकर विधान
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भगवान श्री नमिनाथ जिनपूजा
चौबीस तीर्थंकर विधान
भगवान श्री नमिनाथ जिनपूजा
-अथ स्थापना-गीता छंद-
नमिनाथ के गुणगान से, भविजन भवोदधि से तिरें।
मुनिगण तपोनिधि भी हृदय में, आपकी भक्ती धरें।।
हम भी करें आह्वान प्रभु का, भक्ति श्रद्धा से यहां।
सम्यक्त्व निधि मिल जाय स्वामिन्! एक ही वांछा यहां।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक -स्रग्विणी छंद-
स्वात्म का साम्यरस नाथ! दीजे मुझे। नीर से पाद में तीन धारा करूं।
मैं नमीनाथ के पाद को पूजहूं। स्वात्म सिद्धी मिले एक ही याचना।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वात्म सौरभ मिले चित्त उसमें रमे। गंध से आपके चर्ण चर्चन करूं।।
मैं नमीनाथ के पाद को पूजहूं। स्वात्म सिद्धी मिले एक ही याचना।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान अक्षय बने नाथ! कीजे कृपा। शालि के पुंज से पूजहूं भक्ति से।।
मैं नमीनाथ के पाद को पूजहूं। स्वात्म सिद्धी मिले एक ही याचना।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सौख्य पीयूष पीऊं सुतृप्ती मिले। पुष्प मंदारमाला चढ़ाऊं तुम्हें।।
मैं नमीनाथ के पाद को पूजहूं। स्वात्म सिद्धी मिले एक ही याचना।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
भूख व्याधी मिटा दो प्रभो! मूल से। मैं चढ़ाऊं तुम्हें खीर लाडू अबे।।
मैं नमीनाथ के पाद को पूजहूं। स्वात्म सिद्धी मिले एक ही याचना।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोह अंधेर में आत्मनिधि ना मिले। आरती मैं करूं ज्ञान ज्योती भरो।।
मैं नमीनाथ के पाद को पूजहूं। स्वात्म सिद्धी मिले एक ही याचना।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप खेऊं सुगंधी उड़े लोक में। स्वात्म गुण गंध फैले प्रभो! शक्ति दो।
मैं नमीनाथ के पाद को पूजहूं। स्वात्म सिद्धी मिले एक ही याचना।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वात्म की संपदा दीजिए हे प्रभो! आम अंगूर फल को चढ़ाऊं तुम्हें।
मैं नमीनाथ के पाद को पूजहूं। स्वात्म सिद्धी मिले एक ही याचना।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अघ्र्य अर्पण करूं स्वात्म पद के लिए। ’’ज्ञानमति’’ पूर्ण हो बस यही कामना।।
मैं नमीनाथ के पाद को पूजहूं। स्वात्म सिद्धी मिले एक ही याचना।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
नमिजिनवर पादब्ज, शांतीधारा मैं करू।
मिले स्वात्म साम्राज्य, त्रिभुवन में भी शांति हो।।10।।
शांतये शांतिधारा।
बेला हरसिंगार, जिनपद कुसुमांजलि करूं।
मिले स्वात्म सुखसार, त्रिभुवन की सुख संपदा।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
-अथ स्थापना-गीता छंद-
पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल पर पांच अघ्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-चैपाई छंद-
मिथिलापुरी में विजय पिता थे, मात वप्पिला गर्भ बसे थे।।
वदि आसोज दुतिय हम पूजें। गर्भ कल्याण जजत अघ छूटें।।1।।
ऊँ ह्रीं आश्विनकृष्णाद्वितीयायां श्रीनमिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
वदि आषाढ़ दशमि नमि जन्में। न्हवन किया सुरगण इन्द्रों ने।।
जन्म कल्याणक मैं नित वंदूं। जन्म मरण के दुःख को खंडूं।।2।।
ऊँ ह्रीं आषाढ़कृष्णादशम्यां श्रीनमिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जाति स्मृति से हुई विरक्ती। तिथि आषाढ़ वदी दशमी थी।।
उत्तरकुरू पालकि से जाके। दीक्षा ली थी चैत्रवनी में।।3।।
ऊँ ह्रीं आषाढ़कृष्णादशम्यां श्रीनमिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर सुदि ग्यारस सांय के, वकुल वृक्ष के नीचे तिष्ठे।।
घट में केवलज्ञान प्रकाशा। जजूं प्रभो! भविकमल विकासा।।4।।
ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाएकादश्यां श्रीनमिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
वदि चैदस वैशाख निशांते। गिरि सम्मेद ध्यान में तिष्ठे।।
मुक्तिरमा को वरण किया था। इन्द्रों ने बहु भक्ति किया था।।5।।
ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीनमिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-
श्री नमिनाथ जिनेश हैं, सर्वसौख्य दातार।
अघ्र्य चढ़ाकर जजत ही, भरें रत्न भंडार।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथ पंचकल्याणकाय पूर्णांघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य - ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला
-सोरठा-
तीर्थंकर नमिनाथ, अतुल गुणों के तुम धनी।
नमूं नमकार माथ, गाऊं गुणमणिमालिका।।1।।
-नरेन्द्र छंद-
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, गणधर मुनिगण वंदे।
जय जय समवसरण परमेश्वर, वंदत मन आनंदे।।
प्रभु तुम समवसरण अतिशायी, धनपति रचना करते।
बीस हजार सीढि़यों ऊपर, शिला नीलमणि धरते।।2।।
धूलिसाल परकोटा सुंदर, पंचवर्ण रत्नों के।
मानस्तंभ चार दिश सुंदर, अतिशय ऊंचे चमकें।।
उनके चारों दिशी बावड़ी, जल अति स्वच्छ भरा है।
आसपास के कुंड नीर में, जग धोती जनता है।।3।।
प्रथम चैत्यप्रासाद भूमि में, जिनगृह अतिशय ऊंचे।
खाई लताभूमि उपवन में, पुष्प खिलें अति नीके।।
वनभूमि के चारों दिश में, चैत्यवृक्ष में प्रतिमा।
कल्पभूमि सिद्धार्थ वृक्ष को, नमूं नमूं अतिमहिमा।।4।।
ध्वजा भूमि की उच्च ध्वजाएं, लहर लहर लहरायें।
भवनभूमि के जिनबिम्बों को, हम नित शीश झुकायें।।
श्रीमंडप में बारह कोठे, मुनिगण सुरनर बैठे।
पशुगण भी उपदेश श्रवण कर, शांतचित्त वहां बैठे।।5।।
सुप्रभमुनि आदिक गुरू गणधर, सत्रह समवसरण में।
मुनिगण बीस हजार वहां पे, मगन हुए जिनगुण में।।
गणिनी वहां मंगिनी माता, पिच्छी कमण्डलु धारी।
पैंतालीस हजार आर्यिका, श्वेत शाटिकाधारी।।6।।
एक लाख श्रावक व श्राविका, तीन लाख भक्तीरत।
असंख्यात थे देव देवियां, सिंहादिक बहु तिर्यंक्।
साठ हाथ तनु दश हजार, वर्षायु देह स्वर्णिम था।
नीलकमल नमिचिन्ह कहाया, भक्ति भवोदधि नौका।।7।।
गंधकुटी के मध्य सिंहासन, जिनवर अधर विराजें।
प्रतिहार्य की शोभा अनुपम, कोटि सूर्य शशि लाजें।।
सौ इन्द्रों से पूजित जिनवर, त्रिभुवन के गुरू मानें।
नमूं नमूं मैं हाथ जोड़कर, मेरे भवदुःख हानें।।8।।
-दोहा-
चिन्मय चिंतामणि प्रभो! चिंतित फल दातार।
ज्ञानमती सुख संपदा, दीजे निजगुण सार।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथ्जिनेन्द्राय जयमाला पूर्णांघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
-दोहा-
शरणागत के सर्वथा, तुम रक्षक भगवान।
त्रिभुवन की अविचल निधी, दे मुझे करो महान।।10।।
।।इत्याशीर्वादः।।