भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनपूजा
-अथ स्थापना-(नरेन्द्र छंद)-

श्री मुनिसुव्रत तीर्थंकर के, चरण कमल शिर नाऊं।
व्रत संयम गुण शील प्राप्त हों, यही भावना भाऊं।।
मुनिगण महाव्रतों को पाकर, मुक्तिरमा को परणें।
हम भी आह्वानन कर पूजें, पाप नशें इक क्षण में।।1।।

ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अथ अष्टक (वसंततिलका छंद)-

सरयू नदी जल भरा कनकाभ झारी।
धारा करूं त्रय जिनेश्वर पाद में मैं।।
वंदूं सदैव मुनिसुव्रत को रूची से।
संपूर्ण चारित्र मिले भव दुःख नाशे।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

कर्पूर संग घिस चंदन गंध लाया।
पादारविंद प्रभु के चचूं अभी मैं।।
वंदूं सदैव मुनिसुव्रत को रूची से।
संपूर्ण चारित्र मिले भव दुःख नाशे।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती समान धवलाक्षत पुंज धारूं।
मेरा अखंड पद नाथ! मुझे दिला दो।।
वंदूं सदैव मुनिसुव्रत को रूची से।
संपूर्ण चारित्र मिले भव दुःख नाशे।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

बेला गुलाब सुरभी करते दशों दिक्।
पादारविंद प्रभु के अर्पण करूं मैं।।
वंदूं सदैव मुनिसुव्रत को रूची से।
संपूर्ण चारित्र मिले भव दुःख नाशे।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

फेनी सुहाल गुझिया बरफी बनाके।
हे नाथ! अर्पण करूं क्षुध रोग नाशे।।
वंदूं सदैव मुनिसुव्रत को रूची से।
संपूर्ण चारित्र मिले भव दुःख नाशे।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

कर्पूर ज्योति जलती हरती अंधेरा।
हे नाथ! आरति करूं निज ज्ञान चमके।।
वंदूं सदैव मुनिसुव्रत को रूची से।
संपूर्ण चारित्र मिले भव दुःख नाशे।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

खेऊं सुगंध वर धूप सु अग्नि में मैं।
संपूर्ण कर्म झट भस्म बने न दुःख दें।।
वंदूं सदैव मुनिसुव्रत को रूची से।
संपूर्ण चारित्र मिले भव दुःख नाशे।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

केला अनार वर द्राक्ष बदाम लेके।
अर्पूं तुम्हें सब मनोरथ पूर्ण कीजे।।
वंदूं सदैव मुनिसुव्रत को रूची से।
संपूर्ण चारित्र मिले भव दुःख नाशे।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

नीरादि अघ्र्य भर थाल चढ़ाय देऊं।
कैवल्य ज्ञानमति नाथ! मुझे दिला दो।।
वंदूं सदैव मुनिसुव्रत को रूची से।
संपूर्ण चारित्र मिले भव दुःख नाशे।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-सोरठा-

श्री जिनवर पादाब्ज, शांतीधारा मैं करूं।
मिले निजातम राज्य, त्रिभुवन में भी शांति हो।।10।।
शांतये शांतिधारा।

बेला हरसिंगार, जिनपद पुष्पांजलि करूं।
मिले सर्व सुखसार, त्रिभुवन की सुख संपदा।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।

पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल पर पांच अघ्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-रोला छंद-

पिता सुमित्र नरेश, राजगृही के शास्ता।
सोमावती के गर्भ, बसें जगत शिर नाता।
श्रावण कृष्ण दूज, इन्द्र जजें पितु मां को।
जजूं गर्भ कल्याण, मिले आत्मनिधि मुझको।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रावणकृष्णाद्वितीयायां श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनगर्भकल्याणकाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

जन्म लिया प्रभु आप, वदि वैशाख दुवादश।
इन्द्र लिया शिशु गोद, पहुंचे पांडुशिला तक।।
एक हजार सुआठ, कलशों से नहलाया।
जजत जन्म कल्याण, पुनि पुनि जन्म नशाया।।2।।
ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णाद्वादश्यां श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनजन्मकल्याणकाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

जातिस्मरण निमित्त, वदि वैशाख सुदशमी।
अपराजिता पालक्कि, नीलबाग में प्रभुजी।।
सिद्धंनमः उचार, स्वयं ग्रही प्रभु दीक्षा।
नमूं नमूं शत बार, मिले महाव्रत दीक्षा।।3।।
ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णादशम्यां श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

चंपक तरू तल नाथ, वदि वैशाख नवमि के।
केवलज्ञान विकास, समवसरण में तिष्ठे।।
श्रीविहार में चरण तले, प्रभु स्वर्ण कमल थे।
नमूं नमूं नतमाथ, ज्ञान कल्याणक रूचि से।।4।।
ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णानवम्यां श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

श्री सम्मेद सुशैल, फाल्गुन वदि बारस में।
किया मृत्यु को दूर, मुक्तिरमा ली क्षण में।।
नमूं मोक्ष कल्याण, कर्म कलंक नशाऊं।
मुनिसुव्रत भगवान, चरणों शीश झुकाऊं।।5।।
ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाद्वादश्यां श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-

मुनिसुव्रत जिनराज हैं, उत्तम व्रत दातार।
पूजूं अघ्र्यं चढ़ाय के, भरूं सुगुण भण्डार।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ पंकल्याणकाय पूर्णाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्रू पुष्पांजलिः।

जाप्य - ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय नमः।

जयमाला

-सोरठा-

श्रीमुनिसुव्रत देव, अखिल अमंगल को हरें।
नित्य करूं मैं सेव, मेरे कर्मांजन हरें।।1।।

-सखी छंद-

जय जय जिनदेव हमारे, जय जय भविजन बहुतारे।
जय समवरण के देवा, शत इन्द्र करें तुम सेवा।।2।।

जय मल्लि प्रमुख गणधरजी, सब अठरह गणधर गुरू जी।
जय तीस हजार मुनीश्वर, रत्नत्रय भूषित ऋषिवर।।3।।

जय गणिनी सुपुष्पदंता, पच्चस, सहस संयतिका।
श्रावक इक लाख वहां पर, त्रय लाख श्राविका शुभ कर।।4।।

तनु अस्सी हाथ कहाओ, प्रभु तीस सहस वर्षायू।
कच्छप है चिन्ह प्रभू का, तनु नीलवर्ण सुंदर था।।5।।

मुनिवृंद तुम्हें चित धारें, भविवृंद सुयश विस्तारें।
सुरनर किन्नर गुण गावें, किन्नरियां बीन बजावें।।6।।

भक्तिवश नृत्य कर हैं, गुण पाकर पाप हरे हैं।
विद्याधर गण बहु आवें, दर्शन कर पुण्य कमावें।।7।।

भव भव के त्रास मिटावें, यम का अस्तित्व हटावें।
जो जिनगुण में मन पागें, तिन देख् मोहरिपु भागें।।8।।

जो प्रभु की पूज रचावें, इस जग में पूजा पावें।
जो प्रभु का ध्यान धरे हैं, उनका सब ध्यान करे हैं।।9।।

जो करते भक्ति तुम्हारी, वे भव भव में सुखियारी।
इस हेतु प्रभु! तुम पासे, मन के उद्गार निकासे।।10।।

जब तक मुझ मुक्ति न होवे, तब तक सम्यक्त्व न खोवे।
तब तक जिनगुण उच्चारूं, तब तक मैं संयम धारूं।।11।।

तब तक हो श्रेष्ठ समाधी, नाशे जन्मादिक व्याधी।
तब तक रत्नत्रय पाऊं, तब तक निज ध्यान लागाऊ।।12।।

तब तक तुमही मुझ स्वामी, भव भव में हो निष्कामी।
ये भाव हमारे पूरो, मुझ मोह शत्रु को चूरो।।13।।

-घत्ता-

जय जय तीर्थंकर, विश्व हितंकर, जय जय जिनवर वृष चक्री।
जय ’’ज्ञानमी’’ धर, शिव लक्ष्मीवर, भविजन पावें सिद्धश्री।।14।।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेंद्राय जयमाला पूर्णाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।

-गीता छंद-

मुनिसुव्रत जिनराज, मुनिगण व्रतिगण से नमित।
मिले स्वात्म साम्राज्य, भक्तिभाव से पूजते।।1।।

।।इत्याशीर्वादः।।