भगवान श्री कुंथुनाथ जिनपूजा
-दोहा-

परमपुरूष परमातमा, परमानन्द स्वरूप।
आह्वानन कर मैं जजूं, कुंथुनाथ शिवभूप।।1।

ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

- अष्टक बसंततिलका -

मंगानदी जल लिये त्रय धार देऊं।
स्वात्मैक शुद्ध करना बस एक हेतु।।
श्री कुंथुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशानाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

कर्पूर केशर घिसा कर शुद्ध लाया।
संसार ताप शमहेतु तुम्हें चढ़ाऊं।।
श्री कुंथुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

शाली अखंड सित धौत सुथाल भरके।
अक्षय अखंड पद हेतु तुम्हें चढ़ाऊं।।
श्री कुंथुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

बेला गुलाब अरविंद सुचंपकादी।
कामारिजित पद सरोरूह में चढ़ाऊं।।
श्री कुंथुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

लड्डू पुआ अंदरसा पकवान नाना।
क्षूध रोग नाश हित नेवज को चढ़ाऊं।।
श्री कुंथुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

कर्पूर दीप लव ज्योति करें दशोंदिक्।
मैं आरती कर प्रभो निज मोह नाशूं।।
श्री कुंथुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

कृष्णागरू सुरभि धूप जले अगनि में।
संपूर्ण पाप कर भस्म उड़े गगन में।।
श्री कुंथुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

अंगूर आम फल अमृतसम मंगाके।
अर्पूं तुम्हें सुफल हेतु अभीष्ट पूरो।।
श्री कुंथुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

नीरादि अष्ट शुीाद्रव्य सुथाल भरके।
पूजूं तुम्हें सकल ’’ज्ञानमती’’ सदा हो।।
श्री कुंथुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-सोरठा-

कनकभृंग में नीर, सुरभित कमलपराग से।
मिले भवोदविधतीर, शांतीधारा मैं करूं।।10।।
शांतये शांतिधारा।

वकुल गुलाब सुपुष्प, सुरभित करते दश दिशा।
पुष्पांजलि से पूज, पाऊं आतम निधि अमल।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।

-दोहा-
पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल पर पांच अघ्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-दोहा-

श्रावण वदि दशमी तिथी, गर्भ बसे भगवान।
इंद्र गर्भ मंगल किया, मैं पूजूं इत आन।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रावणकृष्णादशम्यां श्रीकुंथुनाथजिनगर्भकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

एकम सित वैशाख की, जन्में कुंथुजिनेश।
किया इंद्र वैभव सहित, सुरगिरि पर अभिषेक।।2।।
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथै श्रीकुंथुनाथजिनजन्मकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सित एकम वैशाख की, दीक्षा ली जिनदेव।
इन्द्र सभी मिल आयके, किया कुंथु पद सेव।।3।।
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथौ श्रीकुंथुनाथजिनजिनदीक्षाकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

चैत्र शुक्ल तिथि तीज में, प्रगटा केवलज्ञान।
समवसरण में कुंथुजिन, करें भव्य कल्याण।।4।।
ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्लातृतीयायां श्रीकुंथुनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सित एकम वैशाख की, तिथि निर्वाण पवित्र।
कुंथुनाथ के पदकमल, जजतें बनूं पवित्र।।5।।
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथौ श्रीकुंथुनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-

श्री तीर्थंकर कुंथु जिन, करूणा के अवतार।
पूर्ण अघ्र्य से जजत ही, मिले सौख्य भंडार।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथ पंचकल्याणकाय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य - ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला

-दोहा-

हस्तिनागपुर में हुए, गर्भ जन्म तप ज्ञान।
सम्मेदाचल मोक्षथल, नमूं कुंथु भगवान।।1।।

-त्रिभंगी छंद-

पैंतिस गणधर मुनि साठ सहस, भाविता आर्यिका गणिनी थीं।
सब साठ सहस त्रय शतपचास, संयतिकायें अघ हरणी थीं।।
श्रावक दो लाख श्राविकाएं, त्रय लाख चिन्ह बकरा शोभे।
आयू पंचानवे सहस वर्ष, पैंतिस धनु तनु स्वर्णिम दीपे।।2।।

-शिखारिणी छंद-

जयो कुंथूदेवा, नमन करता हूं चरण में।
करें भक्ती सेवा, सुरपपि सभी भक्तिवश तें।।
तुम्हीं हो हे स्वामिन्! सकल जग के त्राणकर्ता।
तुम्हीं हो हे स्वामिन्! सकल जग के एक भर्ता।।3।।

घुमाता मोहारी, चतुर्गति में सर्व जन को।
रूलाता ये बैरी, भुवनत्रय में एक सबको।।
तुम्हारे बिन स्वामिन्! शरण नहिं कोई जगत में।
अतः कीजै रक्षा, सकल दुख से नाथ! क्षण में।।4।।

प्रभो! मैं एकाकी, स्वजन नहिं कोई भुवन में।
स्वयं हूं शुद्धात्मा, अमल अविकारी अकल मैं।।
सदा निश्चयनय से, करमरज से शून्य रहता।
नहीं पाके निज को, स्वयं भव के दुःख सहता।।5।।

प्रभो! ऐसी शक्ति, मिले मुझको भक्ति वश से।
निजात्मा को कर लूं, प्रगट जिनकी युक्तिवश से।।
मिले निजकी संपत, रत्नत्रयमय नाथ मुझको।
यही है अभिलाषा, कृपा करके पूर्ण कर दो।।6।।

-दोहा-

सूरसेन नृप के तनय, श्रीकांता के लाल।
जजें तुम्हें जो वे स्वयं, होते मालामाल।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा दिव्य पुष्पांजलिः।

-दोहा-

कामदेव चक्रीश प्रभु, सत्रहवें तीर्थेंश।
केवल ’’ज्ञानमती’’ मुझे, दो त्रिभुवन परमेश।।1।।

।।इत्याशीर्वाद।।