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चौबीस तीर्थंकर विधान
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भगवान श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा
चौबीस तीर्थंकर विधान
भगवान श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा
-अथ स्थापन-नरेन्द्र छंद-
अर्धचन्द्र सम सिद्ध शिला पर, श्रीचन्द्रप्रभ राजें।
चन्द्रकिरण सम देव कांति को, देख चन्द्र भी लाजे।।
अतः आपके श्री चरणों में, हुआ समर्पित चंदा।
आह्वानन कर चन्द्रप्रभू का, मेरा मन आनंदा।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-नरेन्द्रछंद-
गंगा सरिता का निर्मल जल, रजत कलश भर लाऊं।
श्री चन्द्रप्रभ चरण कमल में, धारा तीन कराऊं।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभु को पूजूं।
निज समरस सुख सुधा पान कर, भव भव दुःख से छूटूं।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन केशर घिस, गंध सुगंधित लाऊं।
जिनवर चरण कमल में चचूं, निजानंद सुख पाऊ।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभु को पूजूं।
निज समरस सुख सुधा पान कर, भव भव दुःख से छूटूं।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र संसारतापविनाशनाय चंदन निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्रकिरणसम उज्जवल तंदुल, लेकर पुंज रचाऊं।
अमल अखंडित सुख से मंडित, निजआतम पद पाऊं।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभु को पूजूं।
निज समरस सुख सुधा पान कर, भव भव दुःख से छूटूं।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्ली बेला कमल केवड़ा, पुष्प सुगंधित लाऊं।
जिनवर चरण कमल में अर्पूं, निजगुण यश विकसाऊं
मरस सुख सुधा पान कर, भव भव दुःख से छूटूं।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतपिउ स्दृश चरू ताजे, घेवर मोदक लाऊं।
जिनवर आगे अर्पण करते, सब दुःख नशाऊं।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभु को पूजूं।
निज समरस सुख सुधा पान कर, भव भव दुःख से छूटूं।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक में ज्योति जलाकर, करूं आरती भगवान।
निज घट का अज्ञान दूर हो, ज्ञानज्योति उद्योतन।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभु को पूजूं।
निज समरस सुख सुधा पान कर, भव भव दुःख से छूटूं।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर तगर चंदन से मिश्रित, धूप सुगंधित लाऊं।
अशुभ कर्म के दग्ध हेतु मैं, अग्नी संग जलाऊं।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभु को पूजूं।
निज समरस सुख सुधा पान कर, भव भव दुःख से छूटूं।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव आम अंगूर सरस फल, लाके थाल भराऊं।
जिनवर सन्निध अर्पण करते, परमनंद सुख पाऊं।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभु को पूजूं।
निज समरस सुख सुधा पान कर, भव भव दुःख से छूटूं।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत कुसुमावलि, आदिक अर्घ बनाऊं।
उसमें रत्न मिलाकर अपूं, ’ज्ञानमती’ निधि पाऊं।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभु को पूजूं।
निज समरस सुख सुधा पान कर, भव भव दुःख से छूटूं।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
पद्मसरोवर नीर से, चन्द्रप्रभ चरणाब्ज।
त्रयधारा विधि से करूं, मिले शांति साम्राज्य।।0।।
शांतये शांतिधारा।
जुही गुलाब सुगंधितयुत, वर्ण वर्ण के फूल।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य अनुकूल।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
-अथ स्थापन-नरेन्द्र छंद-
पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल पर पांच अघ्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-गीताछंद-
जिनचंद्र विजयंते अनुत्तर, से बचे आये यहां।
महासेन पितु मां लक्ष्णमा के, गर्भ में तिष्ठे यहां।।
शुभ चंद्रपुरि में चैत्रवदि, पंचमि तिथी थी शर्मदा।
इंद्रादि मिल उत्सव किया, मैं पूजहूं गुणमालिका।।1।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णापंचम्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनगर्भकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चन्द्र जिनवर पौष कृष्णा, ग्यारसी शुभयोग में।
जन्में उसी क्षण सर्व बाजे, बस उठे सुरलोक में।।
तिहुंलोक में भी हर्ष छाया, तीर्थकर महिमा महा।
सुरशैल पर जन्माभिषत को, देखते ऋषि भी वहां।।2।
ऊँ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनजन्मकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आदर्श में मुख देकर, वैराग्य उपजा नाथ को।
वदि पौष एकादशि दिवस, इंद्रादि सुर आये प्रभो।।
पालकी विमला में बिठा, सर्वर्तुवन में ले गये।
स्वयमेव दीक्षा ली किया, बेला जगत वंदित हुए।।3।।
ऊँ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनदीक्षाकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदी सप्तमि तिथी, सर्वर्तुवन में आ गये।
तरू नाग नीचे ज्ञान केवल, हुआ सुरगण आ गये।।
धनपति समवसृति को रचा, श्रीचंद्रप्रभ राजें वहां।
द्वादशगणों के भव्य जिनवनि, सुनें अति प्रमुदित वहां।।4।।
ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णासप्तम्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनज्ञानकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चंद्रजिन फाल्गुन सुदी, सप्तमि निरोधा योग को।
सम्मेदगिरि से मुक्ति पायी, जजें सुरपति भक्ति सों।।
हम भक्ति से श्रीचंद्रप्रभ, सम्मेदगिरि को भी जजें।
निज आत्म संपति दीजिए, इस हेतु ही प्रभु को भजें।।5।।
ऊँ ह्रीं फाल्गुनशुक्लासप्तम्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनमोक्षकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
’पूर्णाघ्र्य (दोहा)-
चंद्रप्रभू की कीर्ति है, चंद्रकिरण सम श्वेत।
पूजूं पूरण अघ्र्य ले, मिले भवोदधि सेतु।।6।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णापंचम्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनगर्भकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्या- ऊँ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला
-दोहा-
परम हंस परमात्मा, परमानंद स्वरूप।
गाऊं तुम गुण मालिका, अजर अमर पद रूप।।1।।
-शुभु छंद-
जय जय श्री चन्द्रप्रभो जिनवर, जय जय तीर्थंकर शिव भर्ता।
जय जय अष्टम तीर्थेश्वर तु, जय जय क्षेमंकर सुख कर्ता।।
काशी में चन्द्रपुरी संदर, रत्नों की वृष्टी खूब हुई।
भू धन्य हुई जन धन्य हुए, त्रिभुवन में हर्ष की वृद्धि हुई।।2।।
प्रभु जन्म लिया जब धरती पर, इन्द्रों के आसन कंप हुए।
प्रभु के पुण्योदय का प्रभाव, तत्क्षण सुर के शिर नमित हुए।।
जिस वन में ध्यान धरा प्रभु ने, उस वन की शोभा क्या कहिए।
जहां शीतल मंद पवन बहती, षट् ऋतु के कुसुम खिले लहिये।।3।।
सब जात विरोधी गरूड़, सर्प, मृग, सिंह खुशी से झूम रहे।
सुर खेचर नरपति आ आकर, मुकुटों से जिनपद चूम रहे।।
दश लाख वर्ष पूर्वायू थी, छह सौ कर तुंग देह माना।
चिंतित फल दाता चिंतामणि, अरू कल्पतरू भी सुखदाना।।4।।
श्री दत्त आदि त्रयानवे गणधर, मनपर्यय ज्ञानी माने थे।
मुनि ढाई लाख आत्मज्ञानी, परिग्रह विरहित शिवगामी थे।।
वरूण गणिनी सह आर्यिकाएं, त्रय लाख सहस अस्सी मानीं।
श्रावक त्रय लाख श्राविकाएं, पण लाख भक्तिरस शुभध्यानी।।5।।
भव वन में घूम रहा अब तक किंचित् भी सुख नहीं पाया हूं।
प्रभु तुम सब जग के त्राता हो, अतएवं शरा में आया हूं।।
गणपति सुरपति नरपति नमते, तुम गुणमणि की बहु भक्ति लिए।
मैं भी नत हूं तव चरणों में, अब मेरी भी रक्षा करिये।।6।।
-दोहा-
हे चन्द्रप्रभ! आपके, हुए पंच कल्याण।
मैं भी मांगू आपसे, बस एकहि कल्याण।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेंद्राय जयमाला पर्णांघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुंष्पांजलिः।
-दोहा-
तीर्थंकर प्रकृति कहीं, महापुण्य फलराशि।
केवल ’’ज्ञानमती’’ सहित, मिले सर्वसुखराशि।।1।।
।।इत्याशीर्वादः।।