भगवान श्री अजितनाथ जिनपूजा
-अथ स्थापन - गीता छंद-

इस प्रथम जम्बूद्वीप में, है भरतक्षेत्र सुहावना।
इस मध्य आरजखं डमें, जब काल चैथा शोभना।।
साकेतपुर में इन्द्र वंदित, तीर्थकर जन्में जभी।
उन अजितनाथ जिनेश को, आह्वान कर पूजूं अभी।।1।।

ऊँ ह्रीं अजितनाथ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं अजितनाथ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं अजितनाथ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अथ अष्टक- तोटकछंद-

चिन्मूरति कल्पतरू जिनजी, जल लाय जजूं तुम पद जिनजी।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूं, सब कर्मकषायकलंक वमूं।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

मलयागिरि चंदन गंामयी, जिन पूजत ताप नशे सबही।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूं, सब कर्म कषायकलंक वमूं।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

सित अक्षत धौत कर में, जिन आगे पुंज धरूं शुचि मैं।।
अजितेश जिनेक्ष्वर नित्य नमूं, सब कर्मकषायकलंक वमूं।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

मचकुंद गुलाब जुही सुमना, जिनपाद सरोज जजूं सुमना।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूं, सब कर्मकषायकलंक वमूं।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

घृतयुक्त मधुर पकवान भरे, जिन पूजत भूख पिशाचि हरे।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूं, सब कर्मकषायकलंक वमूं।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

करपूर प्रदीप उद्योत करे, जिनपाद जजत अज्ञान हरे।।
अजितेश जिनेक्ष्वर नित्य नमूं, सब कर्मकषायकलंक वमूं।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

दशगंध सुधूप जले रूचि से, सब कर्मकलंक भगें झट से।।
अजितेश जिनेक्ष्वर नित्य नमूं, सब कर्मकषायकलंक वमूं।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

फल सेव बादाम लिये कर में, जिन अर्चत श्रेष्ठ लहूं वर मैं।।
अजितेश जिनेक्ष्वर नित्य नमूं, सब कर्मकषायकलंक वमूं।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

जल गंध प्रभृति वसु द्रव्य लिया, निज ’ज्ञानमती’ हित अध्र्य दिया।।
अजितेश जिनेक्ष्वर नित्य नमूं, सब कर्मकषायकलंक वमूं।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अनघ्र्यपदप्राप्तये अध्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-दोहा-

तीर्थंकर पद कमल में, शांतीधार करंत।
त्रिभुवन में सुख शांति हो, मिले भवोदधि अंत।।10।।
शांतये शांतिधारा।

कमल वकुल बेला जुही, सुरभित पुष्प चुनाय।
पुष्पांजलि अर्पत मिले, आतमनिधि सुखदाय।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।।
v
-अथ स्थापन - गीता छंद-
पंचकल्याणक अघ्र्य

(मण्डल पर पांच अघ्र्य)

अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-गीता छंद-

साकेतनगरी में पिता, जितशत्रु विजया मात के।
उर में बसे नक्षत्र रोहिणि, ज्येष्ठ कृष्ण अमावसे।।
श्री अजितनाथ विजय अनुत्तर, से उतर आये यहां।
प्रभु गर्भकल्याणक मनाते, इंद्र मैं पूजं यहां।।1।।
ऊँ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णामावस्यायां श्रीअजितनाथजिनगर्भकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्री आदि देवी मात की, सेवा करें अति भक्ति से।
अतिगूढ़ करतीं प्रश्न वे, उत्तर दिया मां युक्ति से।।
सुदि माघ दशमी तिथि सुखद, अजितेश जिन जन्में यहां।
सौधर्म सुरपति ने सुमेरू, पर न्हवन विधिवत् किया।।2।।
ऊँ ह्रीं माघशुक्लादशम्यां श्रीअजितनाथजिनजन्मकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

वैराग्य उल्कापात से, देवर्षि सुरगण आ गये।
सुप्रभा पालकि में बिठा, वन सहेतुक में ले गये।।
सुदि माघ नवमी शाम को, नृप सहस सह दीक्षा लिया।
मनपर्ययी ज्ञानी हुए, ध्यानस्थ हो बेला किया।।3।।
ऊँ ह्रीं माघशुक्लानवम्यां श्रीअजितनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

साकेत में नृप ब्रह्म खीर, अहार दे हर्षित हुए।
छद्मस्थ बारहवर्ष नंतर, अजितप्रभु केवलि हुए।।
सुदि पौष ग्यारस नखत रोहिणि, में सुरासुर आ गये।
जिन समवसृति में सिंहसेन, गणीन्द्र मुनिगण शिर नये।।4।।
ऊँ ह्रीं पौषशुक्लाएकादश्यां श्रीअजितनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

वर पंचमी तिथि चैत्रशुक्ला, समय था पूर्वाण्ह जब।
सम्मेदगिरि पर योग को, रोका प्रभू ध्यानस्थ तब।।
रोहिणि नखत में सब अघाती, घात शिवलक्ष्मी वरी।
मैं पूजूं श्री अजित को, इस तिथी को भी इस घड़ी।।5।।
ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्लापंचम्यां श्रीअजितनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-

सर्वकर्म विजयी प्रभो! अजितनाथ तीर्थेश।
पूर्ण अघ्र्य अर्पण करूं, छूटें भव दुःख क्लेश।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथ पंचकल्याणकाय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य - ऊँ ह्री श्री अजितनाथजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला

-सोरठा-

नित्य निरंजन देव, अखिल अमंगल को हरें।
नित्य करूं मैं सेव, मेरे कर्मांजन हरें।।1।।

-शुंभु छंद-

जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, जय समवसरण लक्ष्मी भर्ता।
जय जय अनंत दर्शन सुज्ञान, सुख वीर्य चतुष्टय के धर्ता।।
इन्द्रिय विषयों को जीत ’’अजित’’ प्रभु ख्यात हुए कर्मारिजयी।
इक्ष्वाकुवंश के भास्कर हो, फिर भी त्रिभुवन के सूर्य तुम्हीं।।2।।

अठरह सौ हाथ देह स्वर्णिम, बाहत्तर लक्ष पूर्व आयू।
घर में भी देवों के लाये, भोजन वसनादि भोग्य वस्तु।।
तुमने न यहां के वस्त्र धरे, नहिं भोजन कभी किया घर में।
नित सुर बालक खेलें तुम संग, अरू इंद्र सदा ही भक्ती में।।3।।

गृह त्याग तपक्ष्वर्या करते, शुद्धात्म ध्यान में लीन हुए।
तब ध्यान अग्नि के द्वारा ही, चउ कर्मवनी को दग्धकिये।।
प्रभु समवसरण में बारह गण, तिष्ठे दिव्य ध्वनि सुनते थे।
सम्यग्दर्शन निधि को पाकर, परमानंदामृत चखते थे।।4।।

श्रीसिंहसेन गणधर प्रधान, सब नब्बे गणधर वहां रहें।
मुनिराज तपस्वी एक लाख, जो सात भेद में कहे गये।।
त्रय सहस सात सौ पचास मुनि, चैदह पूर्वों के धारी थे।
इक्कीस सहस छह सौ शिक्षक, मुनि शिक्षा के अधिकारी थे।।5।।

नौ सहस चार सौ अवधिज्ञानि, विंशति हजार केवलज्ञानी।
मुनि बीस हजार चार सौ विक्रिय-ऋद्धीधर थे निजज्ञानी।।
बारह हजार अरू चार शतक, पच्चास मनःपर्ययज्ञानी।
मुनि बारह सहस चार सौ मान्य, अनुत्तरवादी शुभ ध्यानी।।6।।

आर्यिका प्रकुब्जा गणिनी सह, त्रय लाख विंाति सहस मात।
श्रावक त्रय लाख श्राविकाएं, पण लाख चतुःसंघ सहित नाथ।।
सब देव देवियां असंख्यात, नरगण पशु भी वहां बैठे थे।
सब जात विरोधी वैर छोड़, प्रभु से धर्मामृत पीते थे।।7।।

गजचिन्ह से तुमको जग जाने, सब रोग शोक दुःख दूर करो।
हे अजितनाथ! बाधा विरहित, मुझको शिव सौख्य प्रदान करो।।
हे नाथ! तुम्हें शत शत वंदन, हे अजित! अजय पद को दीजे।
मुझ ’ज्ञानमती’ केवल करके, भगवान्! जिन गुण संपति दीजे।।8।।

-छत्ता-

जय जय चिन्मूरति, गुणमणि पूरित, जय जिनवर वृषचक्रपती।
जय पूर्णज्ञानधर, शिवलक्ष्मीवर, भविजन पावें सिद्धगती।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्दाय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।

-सोरठा-

अजितनाथ चरणब्ज, जो पूजें श्रद्धा सहित।
मिले स्वात्म साम्राज्य, चतुर्गति दुःख दूर हो।।1।।

।।इत्याशीर्वादः।।