उत्तम आर्जव धर्म

मंगलाचरण

जयति शान्तरसामृतवारिधिः, प्रतिदिनोदयाचारूहिमद्युति।
अतुलबोधदिवाकरदीधिति, प्रहतमोहतनः समितिर्जिनः।।1।।

अर्थ- जो शान्त रस रूपी समुद्र की वृद्धि के लिये चन्द्रमा के समान एवं अनन्तज्ञान रूपी सूर्य की किरणों से नष्ट कर दिय है मोह रूपी अन्धकार के समूह को जिन्होंने ऐसे जिनेन्द्र भगवान जयवन्त होवें। ऋजोर्भाव आर्जवं सरल भाव आर्जव कहलाता है।

जो चिंतेई ण वंकं, ण कुणदि वंकं ण जंपदे वंकं।
ण य गोवदि णियदोसं, अज्जवधम्मो हवे तस्स।।2।।

अर्थ- जो न कुटिल चिंतन करता है, न शरीर से कुटिलता करता है। न कुटिल बोलना है और ना ही अपने दोषों को छुपाता है उसके आर्जव धर्म होता है। जो भव्य निज कृत अतिचार आदि दोषों को नहीं छुपाते है तथा किये हुये दोषाों की निंदा गर्हां प्रायश्चित् आदि करते हैं उनके आर्जव धर्म होता है। आर्जव धर्म का यह लक्षण सर्वज्ञ भगवान ने कहाहै। इसे निकट भव्य सरल बुद्धि से धारण करते हैं।

धर्मांगमार्जवं धार्य-मवक्रे र्योगकर्मभिः।
न वक्रता विधेयाऽत्र, क्वचिद् धर्मविनाशिनी।।3।।

अर्थ- धर्म का अंग आर्जव धर्म सरल मन, वचन, काय से धारण करना चाहिए तथा धर्म का नाश करने वाला मायाचारी कभी नहीं करना चाहिए।

यो वाचा स्वमपि स्वान्तं, वाचं वंचयतेऽनिशं।
चेष्टया च स विश्वास्यों, मायावी कास्य धीमतः।।4।।

अर्थ- जो मन-वचन-काय से निरन्तर मायाचारी करता है वह किस बुद्धिमान के द्वारा विश्वास करने योग्य होता है अर्थात किसी के द्वारा नहीं।

दोषो निगुह्यमानोऽपि, स्पष्टतां याति कालतः।
निक्षिप्तं हि जले वर्चों, न चिरं व्यवतिष्ठते।।5।।

अर्थ- छुपाया हुआ दोष भी काल पाकर प्रकट हो जाता है। जिस प्रकार जल में फैंका हुआ मल दीर्घ काल तकनीचे स्थित नहीं रहता अर्थात् प्रकट हो ही जाताहै।

चित्तमन्वेति वाचा, येषां वाचामन्वेति च क्रिया।
स्वपरानुग्रहपराः, सन्तस्ते विरला कलौ।।6।।

अर्थ- जिनके वचन-मन का एवं क्रिया का अनुसरण करते हुए अपने और प के उपकार करने वाले होते हैं वे सज्जन इस कलि काल में दुर्लभ है।

लक्ष्मण! पश्य पम्पायां वकोऽयं परमधार्मिकः,
शनैः शनैः पदं धत्ते, जीवानां वधशंकाया।
वकः कि स्तूयते राम! ये नाह निष्कुली कृतः,
सहवासी हि जानाति, सहवासी विचेष्टितं।।7।।

अर्थ- वनवास के समय राम ने लक्ष्मण से कहा, हे लक्ष्मण! सरोवर में देखो बगुला कितना धार्मिक है, जीवों की हिंसा न हो जाय इसलिए धीरे-धीरे पैर रख रहा है। राम के वचन सुनकर मछली कहते है कि, हे राम! तुम बगुले की स्तुति क्यों कर रहे हो, इस बगुले ने हमें वंश विहीन कर दिया, क्योंकि सहवासी की चेष्टा को सहवासी ही जानता है।

स्त्रैणषण्ढत्वं तैरश्चय, नीचगोत्रपराभवाः।
मायादोषेण लभ्यन्ते, पुंसा जन्मनि जन्मनि।।8।।

अर्थ- प्राणियों को मायाचारी के कारण स्त्री वेद, नपुंसक वेद, नियंच गति एवं नीच गोत्र में प्राप्त हाने वाले अपमान को अनेक जन्मों में भोगना पड़ता है।

माया पांच प्रकार की होती है -

निकृति-धन अथवा अपने कार्य की सिद्धि के लिए दूसरों को ठगने में अत्यनत तत्पर होना।

उपधि- सज्जनता को ढककर धर्म के बहाने चोरी आदि दोषों में प्रवृत्ति करना।

सति प्रयोग- धनादि के लिए विवाद करना, धरोहर मेटना, दूसरों को दोष देना और अपनी प्रशंसा करना।

प्रणिधि- महंगी वस्तु में सस्ती वस्तु मिलाना, नापने-तोलने के तराजू आदि हीन-अधिक रखना, वस्तु का रंग बदलना आदि।

प्रतिकुंचनः - आलोचना करते हुए दोषों को छुपाना।

हृदि यत् तद्वाचि बहिः, फलति तदेवार्जवं भवत्येतत्।
धर्मों निकृतिरर्धों, द्वाविह सुरसद्भनरकपथो।।9।।

अर्थ- जो हृदय में होता है वही वाणी में होताहै, यह आर्जव धर्म कहलाताहै और इसका फल स्वर्ग है और मायाचारी अधर्म है इसका फल नरक है।

कुटुम्बपरिवारादि - कायगृहधनादिषु।
विनश्वरेषु भोगेषु, मायां का कुरूते सुधीकः।।10।।

अर्थ- कुटुम्ब, परिवार, शरीर, घर धनादि नश्वर भोगों के लिये कौन बुद्धिमान मायाचारी करता है अर्थात कोई बुद्धिमान नहीं।

पिता प्रियश्चैव सखादिबनुः, माताऽपि मान्या भगिनी सुशीला।
भार्या मनोज्ञा स्वजनोऽपि बन्धु, दासी च दासः सचिवोऽसि भव्य।।11।।

अर्थ- हे भव्य पिता, मित्र, बन्धु माता, बहिन, सुशील, भार्या, प्रिय सहयोगी, दास, मंत्री, हाथी, घोड़ा, घर, तुम्हारे साथ नहीं जाते हैं। ऐसा जानकर उनके विषय में मायाचारी छोड़कर परिणामों की शुद्धि करो जिससे आत्मा की सिद्धि हो।

मायां करोति या मूढ - इन्द्रियादि सेवने।
गुप्तं पापं स्वयं तस्य, व्यक्तं भवति कुष्ठवत्।।12।।

अर्थ- जो अज्ञानी जीव विषय सेवन आदि के लिए मायाचारी करता है, उसका गुप्त पाप कुष्ठ रोग की तरह स्वयं प्रकट हो जाता है।

अर्गलेवापसर्गस्य, पदवी श्वभ्रवेश्मनः।
शीलशालवने वन्हिः, मायेयमवगम्यताम्।।13।।

अर्थ- मोक्ष मार्ग को रोकने के लएि फाटक (बेड़ा) के समान नरक रूपी घर में प्रवेश करने के लिए द्वारो के समान, शील रूपी सागोन के वन के जलाने के लिए अग्नि के समान मायाचारी को जानना चाहिए।

यः पुमान् वंचनासक्तः, तस्य न स्यात् परिग्रहः।
न चिरं जीवितं तस्मात्, सिद्भिस्त्याज्यं हि वंचनम्।।14।।

अर्थ- जो पुरूष दूसरों को ठगने में आसक्त रहता है। उसके परिग्रह एवं दीर्घ जीवन नहीं रहता। इसलिये सज्जनों को वंचना छो़ देना चाहिए।

जन्मभूमिरविद्यानां, अकीर्तेर्वासमन्दिरम्।
पापपंकमहागर्तों, निकृतिः कीर्तिता बुधैः।।15।।

अर्थ- विद्वानों ने माया को अविद्या की जन्मभूमि, अकीर्ति का निवास स्थान एवं पाप रूपी कीचड़ का गड्ढा कहा है।

लोक द्वयहितं केचित् तपोभिः कर्तुमुद्यताः।
निकृत्या वर्तमानस्ते, हन्त हीना न लज्जितः।।16।।

अर्थ- जो तप के द्वारा देानों लोकों में हितकरने के लिए तत्पर हुये है किंतु कपट युक्त प्रवृत्ति वाले है, खेद है कि वे लज्जित क्यों नहीं होते हैं?

मायायुक्तं वचस्त्याज्यं, माया संसारवर्धिनी।
यदि संगपरित्यागः, कृत किं मायया तव।।17।।

अर्थ- माया से युक्त वचनों का त्याग करनाचाहिये, माया संसार को बढ़ाने वाली है, अतः यदि परीग्रह का त्याग कर दिया है, तो तुम्हें माया से क्या प्रयोजन हैं?

विद्यादम्भः क्षणस्थायी, ज्ञानदम्भो दिनत्रयम्।
मन्त्रदम्भस्तु षड्मासान् मौनदम्भो हि दुस्तर।।18।।

अर्थ- दम्भ युक्त विद्या क्षणस्थायी होती है, दम्भ युक्त ज्ञान तीन दिन रहता है, दम्भ युक्त मंत्र छह महीने रहता हैं एवं मौन युक्त दम्भ को जानना बहुत कठिन होता है।

कुशलजननबन्ध्यां-सत्यसूर्यास्तसन्ध्यां, कुगतियुवतिमालां-मोहमातगंशालां।
शमकमलहिमानीं-दुर्यशोराजधानीं, व्यसनशतसहायां-दूरतो मुंच मायाम्।।19।।

अर्थ- कल्याण को उत्पन्न करने के लिए वन्ध्या स्त्री के समान, सत्य रूपी सूर्य को अस्त करने के लिए सन्ध्या के समान, खोटी गति रूपी युवति को वरने के लिए माला के समान मोह रूपी चाण्डाल की शाला के समान, संतोष रूपी कमल को नष्ट करने के लिए तुषार के समान, अपयश की राजधानी स्वरूप, सैकड़ो कष्टों को प्राप्त कराने में सहायीभूत मायचारी को दूर से छोड़ देना चाहिए।

मायामविश्वासविलासमन्दिरं, दुराशयो यः कुरूते धनाशया।
सोऽनर्थसार्थं न पतन्तमीक्षते, यथाविडालो लगुडं पयः पिबन्।।20।।

अर्थ- जो दुष्ट अभिप्रायवाला पुरूष धन की इच्छा से अविश्वास के स्थान स्वरूप माया को करता है वह जैसे दूध पीता हुआ बिलाव पीछ पर पड़ने वाले डण्डे की परवाह नहीं करता उसी प्रकार वह पुरूष होने वाले अनर्थों की परवाह नहीं करता है।

मायाविनः प्रपंचाढ्या वंचयन्ति जगत्त्रयम्।
तस्यात्मवंचनमात्रं, दोषं किं निगदाम्यहम्।।21।।

अर्थ- वंचनायुक्त मायावी लोग तीनो लोकों को ढगते हैं, किंतु उनकी आत्मा वंचना के दोषों को मैं क्या कहूं?

हिंसाऽसत्यमशौचं च, तस्य चैर्य निरन्तरं।
पापीयान् सोऽस्ति सायस्य, प्रपंचबहुला स्थितिः।।22।।

अर्थ- जिसके प्रपंच बहुल स्थिती है वह हिंसा, झूठ, चोरी असंतोष से युक्त महा पापी है।

दौर्भाग्यजननी माया, माया दुर्गतिवर्धिनी।
नृणां स्त्रीवप्रदा माया, ज्ञानिभिः त्यज्यते ततः।।23।।

अर्थ- माया दुर्भाग्य को उत्पन्न करने के लिएमाता के समान है, दुर्गति को बढ़ाने वाली है, मनुष्यों को स्त्री पर्याय प्राप्त कराने वाली हैं। इसलिए ज्ञानियों द्वारा माया छोड़ दी जाती है।

भेयं मायामहागर्तान् विथ्याघनतमोमयात्।
यस्मिन् लीना न लक्ष्यन्ते, क्रोधादिविषमाहयः।।24।।

अर्थ- मिथ्यात्व रूपी अंधकार से युक्त जिसमें छुपे हुये क्रोध आदि भयंकर सर्प दिखाई नहीं देते हैं। ऐसे माया रूपी गहरे गड्ढे से डरना चाहिए।

इहाकीर्ति समादत्ते, मृतो यात्येव दुर्गतिं।
मायाप्रपंचदोषेण, जनोऽयं जिह्मिताशयः।।25।।

अर्थ- माया युक्त प्रपंच के कारण कुटिल हृदयवाला यह व्यक्ति इस लोक में अपयश को प्राप्त होता है एवं मरकर दुर्गति को प्राप्त होता है।

परं च वंचयमीति, यो हि मायां प्रयुज्यते।
इहामुत्र च लोके वै, तैरात्मा वंचितः सदा।।26।।

अर्थ- मै। दूसरें को ठगूं ऐसा सोचकर जो मायाचारी करते हैं, उन्होंने हमेशा दोनों लोकों में अपनी आत्मा को ठगा है।

विधाय मायां विविधैरूपायैः परस्य ये वंचनमाचरन्ति।
ते वंचयन्ति त्रिदिवापवर्ग, सुखाद् महामोहसखाः स्वमेव।।27।।

अर्थ- जो मायाचारी करके अनेक उपायों द्वारा दूसरों को ठगते हैं, वे महामोही स्वर्ग और मोक्ष के सुख से अपने आप को वचित रखते हैं।

मायावल्लीमशेषां, मोहमहातरूसमारूढां।
विषयविषपुष्पसहितां, लुनन्ति मुनयो ज्ञानशस्त्रेण।।28।।

अर्थ- विषय रूपी विषेले पुष्पों से सहित महान् मोह रूप वृक्ष पर चढ़ी हुयी सम्पूर्ण माया रूपी लता को मुनि जन रूपी शस्त्र से काटते हैं।

उध्र्वगति ऋतु भावेन, कौटिल्येन चतुर्गति।
यत्ते रोचेत उत्कुर्याः, किमन्यै बहु जल्पनैः।।29।।

अर्थ- सरल परिणामों से उध्र्वगति की प्राप्ति होती है, कुटिल परिणमों से चर्तुगति रूप संसार की प्राप्ति होती है। अब तुम्हें जो अच्दा लगे वह करो, ज्यादा कहने से क्या प्रयोजन है?

जो भव्यात्मा अपने किये हुए दोषों की निंदा, गर्हा एवं प्रायश्चित करता है, उसके आर्जव धर्म होता है। आर्जव धर्म का यह लक्षण धर्म तीर्थ के कत्र्ता श्री सर्वज्ञ देव ने कहा है, अतः निकट भव्यों के द्वारासरल बुद्धि से धारण किया जाता है। इस आर्जव धर्म के द्वारा अनेक गुणों की प्राप्ति होती है, तीर्थंकर, इन्द्र, धर्णेन्द्र, चक्रवर्ती अदि की विभूतियां प्राप्त होती है। सरल चित्त मनुष्यों के भव का अन्त करने वाला समस्त पुरूषार्थों का साधक संसार में होने वाले जन्म, जरा, मरण, रूपी रोगों को दूर करने वाला धर्म होता है।

मायावी मनुष्यों का दया धर्म, व्रत संयम, नियम, जाप आदि समस्त शुभ क्रियायें स्वप्न में प्रापत हुए राज्य की तरह निष्फल है, माया से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं ऐसा जानकर मायाचाी को दूर से ही छोड़ देना चाहए और सरल योग से आर्जव धर्म स्वीकार करना चाहिये। आर्जव धर्म से अशुभ आश्रव का निरोध होता है जिससे नरक गति के छेदन, भेदन, ताडन, मारण, तपाना, शूली अरोहण, वैतरागी मज्जन, कोल्हू निष्पीडन, घडे के अंदर मुंह बंद करके पकाना, त्वचा उखाडना आदि दुःख की परम्परा का अभाव होता ह। इस आर्जव धर्म से अवग्रती भोग भूमियां जीव मरकर केक स्वर्गों में देव होते हैं। आर्जव धर्म का पालन न करने से जीव बिल्ली , घोउत्रा, शेर, बाघ, नेवला, सर्प, भेडिया, बगुला, बिच्दूा आदि की योनि को प्राप्त होते हैं। वहां भूख, प्यास, बध-बंधन, नासिका, छेदन, ठंडी, गर्मी, वर्षा, मच्छर, भारत वहन आदि के दुःखों को प्राप्त होते हैं। तथा मनुष्य गति की बात, पित्त, कफल, दस्त, भगन्दर, टी.बी., श्वांस, खांसी, बवासीर, कान, आंख, मस्तक, उदर, कुष्ट आदि शारीरिक रोगों की प्रचुरता तथा निर्धनता, पराधीनता, कुरूपता, अंग उपांगों की हीनता, स्त्री आदि की अकाल मृत्यु प्रिय का वियोग, अप्रिय का संयोग इत्यादि अनेक दुःख प्राप्त होते है। तथा देव गति में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी आभियोग, किल्विष आदि देवों में उत्पत्ति, दूसरें देवों की हीनाधिक सम्पति होने का दुख प्राप्त होता है। आर्जव धर्म के समय होने वाले शुभाश्रव से इन्द्र, अहमिन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, कामदेव तीर्थंकर के पद प्राप्त हो हैं। इसलिये माया के दोषों को और आर्जव धर्म के गुणों को जानकर यथा शक्ति आर्जव धर्म का पालन करो।

आर्जव धर्म - कथानक

1. माया कषाय के सद्भाव में स्व-स्वभाव की प्राप्ति कदापि संभव नहीं हैं। जैसे सर्प भले ही भूमि पर कुटिलता से गमन करता हो किंतु बिल में प्रवेश करते समय सीधा होकर ही प्रवेश करता है। इसीप्रकार भव्य जीवों को भी कुटिल परिणामों क त्याग करने से एवं सरल परिणामों को धारण करनेसे स्व-स्वभाव की प्राप्ति होती है।

2. मायाचारी पुरूष का स्वभाव प्रायः बगुले के समान होता है। जैसे बगुला पानी में एक पांव से खड़ा रहता है, नासाग्रदृष्टि रखता है, जब मछली साधु समझकर उसके पास आती है तब छद्मवेषी बगुला उसको तत्क्षण चट कर जाता है। मायावी पुरूष का व्यवहार भी ऐसा ही होात ह। एक दिन पम्पा सरोवर में एकपांव पर खडे हुये बगुले को देखकर रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण को कहा कि हे लक्ष्मण! यह बगुला बडा धर्मिक है यह अपने पैरों को धीरे धीरे रख रहा है ताकि जलचर जीवों की हिंसा न हो जाय। तब लक्ष्मणराजचन्द्र जी से कहते है हे स्वामिन्! ये उछली हुई मदयिों क्या कर रही हैं - हे पुरूषोत्तम राम्! आप इस मायाचारी बगुले की क्या प्रशंसा कर रहो हो, इसने तो हमारे वंश को नष्ट करदिया है आप इसके व्यवाहर से परिचित न होने के कारण ही इसकी प्रशंसा कर रहे हैं। क्योंकि सहवासी के व्यवहार को सहवासी ही जानता है, दूरवर्ती नहीं।

3. बंग देश में एक सेठ रहता था, वह प्रकृति से दयालु और दानवीर थाउसका नियम था कि रोज गरीब, दीन, अनाथ लोगों को भोजन कराना और उसके बाद स्वयं भोजन करना। एक दिन सेठ जी को किसीदूसरे गांव जाना पड़ा तब सेठ जी ने सेठानी को समझाया कि आज मैं दूसरे गांव जा रहा हूं आप गरीबों को भोजन करा देना। सेठ प्रस्थान कर गये। सेठानी ने सोचा रोज रोज इतना सारा भोजन बनना पडत है मैं रोज परेशा होती हूं, सैठ जी तो बनी हुई रसोइ्र को दे देते हैं। आज में इन सब भिखारियों का काम तमाम किये देती हूं। रोज के झंझट समाप्त हो जायेगी। भाग्य से उस दिन सिफ एक ही भिखारी आया, उसको भोजन दिया और कहा कि आज मैं आपको अन्य दिन की अपेक्षा अधिक भोजन देती हूं ताकि तुम्हारे परिवार का भी पेट भर सके, बेचारा भिखारी, सेठानी के छल को समझनहीं पाया, भोजन घर ले जा रहा था रास्ते में सेठ जी मिल गये वे भूख् से पीडित थे एक पग भी नहीं चल पा रहे थे, भिखारी ने निवेदन दिय कि सेठ जी, मैं ये भोजन आपके घर से लाया हूं, आप इसकेा खाकर अपनी भूख शांत कर लीजिए, मैं आपके साथ चर कर पुनः भोजन ले आंऊगा। सेठ जी ने उस भोजन को स्वीकार कर लिय और खाते ही चिर निद्रा में सो गये। सेठानी को पता चला कि सेठ जी मेरे द्वारा निर्मित भोजन को खाकर स्वर्ग सिधार गये त बवह दुखी हुई। जो दूसरों के लिए गड्डा खोदता है उसके लिए पहले खाई खुद जाती है, ऐसी कहावत चरितार्थ हुई जो मयाचारी करता है उसका फल उसे स्वयं को भोगना पड़ता है।

4. सेठ जी संकल्प करके बैठे थे कि जब तक इस दीपक का तेल समाप्त नही ंहोगा तब तक मैंसामायिक से नहीं उठूंगा, जब तेल समाप्त होने को हुआ तो सेठानी ने सोचा अनुष्ठान में विघ्न न हो जाय इसलिए दीपक में तेल डाल दिया, सेठ जी प्यास से आकुलित हुये परिणामों में माचायार का परिणाम चल रहा था उसके फल स्वयप् सेठ जी आत्र्तध्यान से मरकर मेंढक हुये। इसलिये मन वचन और काय को सरल करना चाहिए।

5. एक इंजीनियर साहब अपने सर्विस पूर्ण करके अपने देश जा रहे थे। उसके स्थान पर नया इंजीनियर आया उसने र्पू इंजीनियर का जाते वक्तस सम्मान किया और पूछा कि आपको चालीस वर्ष का अनुभव है कुछ हमें सिखाकर जाओ जो कि हमारे भविष्य में काम आये। उन महानुभाव ने बताया- जिस पुल का आप निर्माण करें उस पर अपना स्वयं का वाहन न चलाये, ओर जिस छत का निर्माण आपने यिक हो उसके नीचे न सोये। ये अंदर की कुटिलता का परिणाम है।

6. एक सेठ जी रोज मंदिर जाते और भगवान के कान में कहते थे, कि हे भगवन्! मुझे मोक्ष मिल जाये। एक दिन किशनलाल नामक व्यक्ति ने यह बात सुन ली। कुछ दिन बाद किशनलाल आया, और सेठ जी से बोला कि मैं भगवान के दरबार से आया हूं। भगवान ने कहा कि सेठ जी को बता देा कि आपको आज से ग्यारहवें दिन एक व्यक्ति आयेगा और मोक्ष ले जायेगा। इस बात को सुनकर सेठजी ने कुछ प्रसन्नता का अनुभव किया किंतु सेठ ने पूछा कि इतने दिन क्यों? आज ही ले चाले। तब किशनलाल ने उत्तर दिया- सेठ जी भगवान ने कहा कि आपका एक दिन में एक कारखाना और एक बेटा समाप्त होगा, अर्थात् दस दिन में दस कारखाने समाप्त होंगे, ग्यारहवें दिन आपको पूर्ण परिग्रह और दसों कारखाने समाप्त हो जायेंगे तब आपको मोक्ष ले जायेंगे। इस बात को सुनकर सेठ जी के पैरो के नीचे से जमीन खिसकने लगी और बोले किशन भैया! भगवान् से कह देना कि ये टेडी खरी है हमारे गले से उतरने वाली नहीं है यदि कोई दूसरी क्वालिटी का मोक्ष हो तो बता देना। अर्थात् परिग्रह और बेटों के बिना मैं मोक्ष में नहीं रह पाऊंगा। इस प्रकार मन में कुछ वचन में कुछ और क्रिया में कुछ होना इसी का नाम छल है इस कुमार्ग से चलने पर आत्मा तिर्यंचगति को प्राप्त होती है। इसलिए इस मायाचार का त्याग ही आर्जवधर्म है।

उत्तम आर्जव धर्म - अमृत बिन्दु

1. जहां वचन अलग हो और मन अलग हो वह छल कहलाता है।

2. हम समझते हैं कि हमारे कपट को किसी ने नहीं देखा, किन्तु सामने वाला व्यक्ति जान लेता है।

3.3. मायावी का चेहरा धर्माता का लगता है पर हृदय पापी का होता है।

4.मायावी मंदरि में कुछ और बाहर कुछकरते है और करते हैं। देखने वालों को मायावियों का आचार अच्छा लगता है। किंतु उनके विचार भगवान जाने।

5. क्रोधी सुधर सकता है, मानी भी, पर मायावी का चेहरा धर्मात्मा का दिखता है किंतु कार्य पापी के समान होता है।

6. छल करना पाप है छला जाना पाप नहीं है।

7. जो छल कपट करता है वह हमेशा चिन्तिन रहता है।

माया के कार्य

8. मित्र अधिक पढ़कर नम्बर ज्यादा न लाये, इसलिय पिक्चर के लिए निमंत्रण देता है।

9. अपना कार्य सिद्ध करने के लिए घर पर आये मित्र के पुत्र को खिलोना अैर मिठाई देना जिससे कि उसके माता-पिता समझे कि मुझ पर इनका बड़ा स्नेह है।

10. मालिक की दुकान पर मेहनत इसलिये हरना क मेरे चाीर पकडत्र में न आये।

11. भोगोपभोग में रस लेते हुये भी ऊपरसे विरक्ति दिखाना, मुझे तो शांति चाहिये शरीर आदि मुझसे भिन्न है इत्यादि।

12. पुत्र का नाता बड़े घर में हो जाय लोग धर्मात्मा समझे, इसलिये स्वर ताल से भक्ति करना।

13. मंदिर में प्रतिमा स्थापना करना, मंदिर बनवाना इसलिये कि व्यापार में अधिक धन का लाभ हो।

14. दान देना इसलिये कि प्रतिष्ठा प्राप्त हो, लोग धनिक समझे, आशीर्वाद प्राप्त हो जाय अथवा भोग भूमि में चला जाऊँ।

15. सत्य बोलना इसलिण् क लोग सत्यवादी समझकर सम्मान करें।

16. दुर्बलता बताते हुये प्रायश्चित लेना।

17. किसी दोष का प्रायश्चित पूंछकर चुपचाप ग्रहण कर देना।

18. प्रतिष्ठा के लोभ से प्रकट दोषों का प्रायश्चित्त ग्रहण कर देना।

19. हलुआ पुड़ी के लोभ से अन्न का त्याग कर देना।

20. फल मेवा के लोभ से रसों क त्याग कर देना।

21. कपट के साथ अपनाये गये क्षमा मार्दव आदि वास्तविक नहीं है।

22. दूसरेां को छलने से स्वयं की आत्मा में छाले पड़ते हैं।

23. अपने दोषों को छुपाना मायाचारी के बिना संभव नहीं है।

24. न हि लहे लक्ष्मी अधिक छल कर कर्म बंध विशेषता।

25. आर्जव से यश, धर्म, प्रीति की प्राप्ति तथा उभय लोक की सफल्ता होती है।

26. मन वचन काय की सरलता से पुण्य बंध होता है।

27. मायाचारी ज्ञात होने पर स्नेह भंग हो जाता है।

28. सरल व्यक्ति की बैरी भी प्रशंसा करते हैं।

अमृत दोहावली

कपट छुपाये न छिपे, छिपे न मोटा भाग।
दावी दूवी न रहे, रूई लपेटी आग।।1।।

नमन नमन में फेर है, अधिक नमें बेईमान।
दगाबाज दूना नमें, चीता चोर कमान।।2।।

मन मैला तन ऊजला, या बगुला की टेक।
याते तो कौआ भला, भीतर बाहर एक।।3।।

लाख छुपाओ छुप न सकेगा, राज ये कितना गहरा।
दिल की बात बतादेता है असली नकली चेहरा।।4।।

आर्जव भाव अमर पद लावैं, आर्जव में औगुन नाहिं पावै।
कुटिल भाव विष जिन नाहिं पीवा, आर्जव भाव धरे जे जीवा।।5।।

धूर्त नहीं है त्यागता, मन से कोई पाप।
पर निष्ठुर रचना बड़ा, त्यागाडम्बर आप।।6।।

धर्मात्मा का रूप रख, जो नर करता पाप।
झाड़ी भीतर व्याध सा, बैठा वह ले चाप।।7।।

आर्जव जग में इष्ट है, आर्जव सुख करतार।
आर्जव बिन या जीव को कोइ न उधारन हार।।8।।

सरल भाव धारे सरस, सुर-नर पूज्य महान्।
तातै तजनी कुटिलता, आर्जव भाव लहान।।9।।

।।ऊँ ह्रीं उत्तमआर्जव धर्मांगाय नमः।।
इति उत्तम आर्जव धर्म