।। पंचम परिच्छेद ।।

९१. शिक्षाव्रत

देशावकाशिकं वा, सामायिवं प्रोष्ज्ञधोपवासो वा।
वैय्यावृत्यं शिक्षा-व्रतानि चत्वारि शिष्टानि।।९१।।
शिक्षाव्रत के हैं चार भेद पहला देशावकाशिक व्रत है।
सामायिक अरू प्रोषधोपवास चौथा वैयावृत्त व्रत है।।
इन पाँच अणुव्रत त्रय गुणव्रत अरू चार व्रतों के मिलने से।
मानव श्रावक कहलाता है इन बारह व्रत के धरने से।।

जो मुनिव्रत की शिक्षा देते हैं वे शिक्षाव्रत हैं। इनमें चार भेद होते हैं : देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य। इन व्रत को पालन करने वाले श्रावक बारह व्रतों के धारक हो जाते हैं।।९१।।

९२. देशावकाशिक शिक्षाव्रत

देशावकाशिवं स्यात्, कालपरिच्छेदनेन देशस्य।
प्रत्यहमणुव्रतानां, प्रतिसंहारो विशालस्य।।९२।।
दिग्व्रत में जो लम्बी चौड़ी है कही क्षेत्र की मर्यादा।
जो कालविभागो के द्वारा प्रातिदिन भी त्याग करे उनका।।
अणुव्रत पालक श्रावक जन का वह त्याग देशव्रत कहलाता।
इससे वह प्रतिदिन सूक्ष्मपाप के बंधन से है बच जाता।।

दिग्व्रत में जो दशों दिशाओं की लम्बी चौड़ी मर्यादा की थी उसके अन्दर प्रातिदिन भी कुछ काल की अवधि पूर्वक नियम करते रहना देशावकाशिक व्रत है। अणुव्रती धारकों का यह व्रत देशों की मर्यादा करने में सार्थक नाम वाला है।।९२।।

९३. देशव्रत में मर्यादा की विधि

गृहहारिग्रामाणं, क्षेत्रनदीदावयोजनानां च।
देशावकाशिकस्य, स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धा:।।९३।।
वह देशव्रती इन क्षेत्रों की मर्यादा वैâसे करता है।
जो है प्रसिद्ध घर गली गांव उनकी वह सीमा करता है।।
मै अमुक खेत जंगल अथवा नदियों के पार न जाऊँगा।
गणधर द्वारा यह कही हुई मर्यादा नहीं भुलाऊँगा।।

घर, गली, ग्राम आदि से, खेत नदी बगीचों से, योजन या कोश आदि की अवधि से सीमा करके संयम की इच्छा से आगे जाने का नियम कर लेना और यथाशक्ति इसको पालन करना सो पहला देशावकाशिक शिक्षाव्रत है। तप में प्रसिद्ध गणधरदेवों ने इसे संसार से पार कराने वाला कहा है।।९३।।

९४. देशव्रत में काल मर्यादा

सम्वत्सरमृतुरयनं, मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च।
देशावकाशिकस्य, प्राहु: कालावधिं प्राज्ञा:।।९४।।
अब उसी देशव्रत के अन्तर्गत कहें काल मर्यादा को।
वह एक वर्ष दो मास और छह मास तथा पन्द्रह दिन को।।
जो यथाशक्ति करता रहता मर्यादा एक मास की भी।
अथवा चौमासे की करता होती नक्षत्र मात्र की भी।।

वर्ष, छह महीने, चार महीने, दो महीने, एक महीना, पन्द्रह दिन दश दिन, एक दिन आदि से काल की अवधि कर लेना, जैसे ‘‘मैं आज अमुक घर या वन तक ही जाऊंगा उसके बाहर नहीं जाऊंगा’’ आचार्य ने इसे ही देशावकाशिक व्रत कहा है।।९४।।

९५. यह व्रत भी उपचार से महाव्रत है

सीमान्तानां परत: स्थूलेतरपञ्चपापसन्त्यागात्।
देशावकाशिकेन च, महाव्रतानि प्रसाध्यन्ते।।९५।।
सीमा के बाहर सूक्ष्म और स्थूल पाप का त्याग करे।
पापों की पूर्ण विरतता से वह महाव्रती के सदृश रहे।।
इस तरह देशव्रत धारी के उपचार महाव्रत होता है।
निश्चय से रहता अणुव्रती क्योंकि वस्त्रों को धरता है।।

इसकी मर्यादा के बाहर स्थूल और सूक्ष्म ऐसे पाँचों ही पापों का त्याग हो जाता है। इसलिए इस देशव्राती के इस सीमा के बाहर में अणुव्रत भी महाव्रत रूप हो जाते हैं, औपचारिक कथन है ऐसा समझो।।९५।।

९६. देशावकाशिक व्रत के अतिचार

प्रेषण-शब्दा-नयनं, रूपाभिव्यक्ति-पुद्गलक्षेपौ।
देशावकाशिकस्य, व्यपदिश्यन्तेऽत्यया: पञ्च।।९६।।
वह रहे स्वयं मर्यादा में लेकिन आवश्यक कारण से।
पर को मर्यादा के बाहर भेजे अरू शब्द करे मुख से।।
कुछ वस्तु मंगावें बाहर से अथवा शरीर को दिखला कर।
ये पाँचों व्रत के अतिचार जो पुद्गल क्षेप करे बाहर।।

इस देशावकाशिक व्रत की मर्यादा के बाहर किसी मनुष्य को भेज देना, मर्यादा के बाहर काम करने वाले के प्रति ताली, चुटकी, हुंकार आदि शब्द से संकेत करना, मर्यादा के बाहर से कोई वस्तु मंगाना, मर्यादा के बाहर वाले को अपना शरीर आदि दिखाना और मर्यादा के बाहर काम करने वाले का इशारा करने हेतु वंâकड़ आदि पेंâकना इस प्रकार से प्रेषण, शब्द, आनयन, रूपाभिव्यक्ति और पुद्गलक्षेप ये पाँच अतिचार देशावकाशिक व्रत के हैं।।९६।।

९७. सामायिक शिक्षाव्रत

आसमयमुक्ति मुत्तं, पञ्चाघानामशेष-भावेन।
सर्वत्र च सामायिका:, सामयिवं नाम शंसन्ति।।९७।।
पापों का जो मन वचन काय कृतकारित अरू अनुमोदन से।
निश्चित समयों तक सामायिक के लिए त्याग करता रुचि से।।
गणधर प्रभु ने सामायिक व्रत का यह लक्षण बतलाया है।
जो प्रतिदिन सामायिक करता उसने निज पाप नशाया है।।

सामायिक के लिए समय निश्चित करके पाँचों ही पापों का मन वचन काय और कृतकारित अनुमोदना से त्याग कर देने से उसी काल में श्रावक को सामायिक शिक्षाव्रती होता है, ऐसा श्री गणधर ने कहा है।।९७।।

९८. समय शब्द की व्युत्पत्ति

मूर्धरुहमुष्टि-वासो-बन्धं, पय्र्यज्र्-बन्धनं चापि।
स्थानमुपवेशनं वा, समयं जानन्ति समयज्ञा:।।९८।।
जब तक चोटी में गाँठ तथा मुट्ठी वस्त्रादिक बंधा रहे।
पर्यंकासन से बैठ सके अथवा खड्गासन खड़ा रहे।।
सामान्यासन के समयों को सामायिक काल बताया है।
ज्ञानीजन ने इन समयों में ही अपना ध्यान लगाया है।।

जब तक चोटी में गांठ लगी रहे, मुट्ठी बँधी रहे या वस्त्र बंधा रहे, या पर्यंकासन से बैठा रहूं या खड़गासन से खड़ा रहूँ या अन्य किसी सुखासन आदि से बैठा रहूं। जब तक ऐसी क्रिया हो तब तक का वह काल सामायिक कहलाता है। अर्थात् उपर्युक्त प्रकार से कुछ बंधन करके सामायिक का काल निर्धारित करना ऐसा अभिप्राय समझ में आता है।।९८।।

९९. सामायिक योग्य स्थान

एकान्ते सामयिवं, निव्र्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु च।
चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया।।९९।।
बाधा विरहित एकांत जगह अटवी अरू अतिथिशाला में।
जो प्राणीगण से शून्य रहे ऐसे गृह तथा जिनालय में।।
अपिशब्द बोध यह करवाता गिरिगुफा आदि में ध्यान करे।
होकर प्रसन्नमन सामायिक को करे तथा नितवृद्धि करे।।

आकुलता—उत्पादक रहित शुद्ध एकांत स्थान में या वन में, घर में, चैत्यालय में या पर्वत पर गुफा में, श्मशान में जहाँ कहीं भी चित्त को प्रसन्न करके नित्य ही सामायिक करना चाहिये। इसमें चैत्य पंचगुरु भक्ति पाठ सहित कृतिकर्म विधिपूर्वक विधिवत् क्रिया करनी चाहिए।।९९।।

१००. व्रत के दिन सामायिक का उपदेश

व्यापार-वैमनस्या-द्विनिवृत्त्यामन्तरात्मविनिवृत्त्या।
सामयिव बध्नीया-दुपवासे चैकभुत्ते वा।।१००।।
मन वचन काय की चेष्टा अरू मन की तीव्र कलुषता से।
निवृत्त होकर वह ही प्राणी जब छूटे सब संकल्पों से।।
उपवास और एकाशन के दिन वृद्धि करे सामायिक में।
इससे मन की शुद्धी होती अरू पाप दूर भगता सच में।।

वचन और काय की क्रिया तथा मन की कलुषता को दूर करके, सभी संकल्प—ाqवकल्पों को भी रोक करके उपवास के दिन अथवा एकाशन के दिन सामायिक अवश्य करना चाहिये।।१००।।

१०१. प्रातिदिन सामायिक का उपदेश

सामयिवं प्रतिदिवसं-यथावदप्यनलसेन चेतव्यं।
व्रतपञ्चकपरिपूरण-कारणमवधान-युत्तेâन।।१०१।।
पांचों व्रत की पूर्ती हेतु एकाग्रचित श्रावक द्वारा।
प्रातिदिन भी सामायिक करना चाहिए शास्त्रोक्त विधि द्वारा।
आलस्य रहित जो प्राणीजन प्रतिदिन सामायिक करते हैं।
उनके अणुव्रत भी महाव्रतों में उसी समय परिणमते हैं।।

प्रतिदिन भी आलस्य छोड़कर एकाग्रचित होकर शास्त्र कथित विधि के अनुसार रुचिपूर्वक सामायिक करना चाहिये। पाँचों महाव्रतों को पूर्ण करने के लिए ही सामायिक व्रत माना गया है। जो इस व्रत का पालन करते हैं वे अपनी आत्मा को पहचान लेते हैं।

१०२. सामायिक के समय मुनितुल्यता

सामयिके सारम्भा:, परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि।
चेलोपसृष्टमुनिरिव, गृही तदा याति यतिभावम्।।१०२।।
सामायिक में आरम्भ सहित श्रावक भी सकल परिग्रह का।
त्यागी होता है इसीलिए उस समय मुनी सम मन उसका।।
उपसर्ग आदि आ जाने से जैसे सच्चा मुनि वस्त्रों से।
ढक जाता है बस उसी तरह दिखता सामायिक करने से।।

जो श्रावक सामायिक के समय दो वस्त्र मात्र रखकर शेष सभी आरम्भ परिग्रह छोड़कर सामायिक करते हैं, वे जैसे मुनि के ऊपर उपसर्ग करते हुए कोई वस्त्र छोड़ दें उनके समान हैं। यद्यपि वे गृहस्थ हैं तो भी उस समय मुनि के तुल्य माने जाते हैं।।१०२।।

१०३. परीषह—उपसग सहन का उपदेश

शीतोष्णदंशमशक-परीषहमुपसर्गमपि च मौनधरा:।
सामयिवं प्रतिपन्ना, अधिकुर्वीरन्नचलयोगा:।।१०३।।
सामायिक को धरने वाले मौनी अरू अचलयोगियों का ।
सहना चहिए शीतोष्ण दंशमशकादि बाईस परिषहो को।।
अरू देवमनुजकृत उपसर्गों को भी वह प्राणी सहन करे।
नहिं मनको विचलित होने दे नहिं रागद्वेष के भाव करे।।

श्रावक जब मौनपूर्वक निश्चल होकर सामायिक करते हैं उस समय उन्हें शीत, उष्ण, डांस, मच्छर आदि की परीषह भी सहन करना चाहिए। यदि देव, मनुष्य या तिर्यंचकृत उपसर्ग आ जावे जो उसे भी सहन करना चाहिये और मन वचन काय को वश में रखना चाहिए।।१०३।।

१०४. सामायिक के समय चतन

अशरणमाश्भमनित्यं दु:खमनात्मानमावसामि भवम्।
मोक्षस्तद्विपरीता-त्मेति ध्यायन्तु सामयिके।।१०४।।
वह महापुरुष सामायिक के समयों में निम्न विचार करे।
मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वह अशरण अशुभ अनित्य कहे।।
हैं दुखरूप अरू आत्मा से नहिं कुछ सम्बन्ध अत: परहै।
ह मोक्ष मार्ग इससे उल्टा अतएव वहीं अपना घर है।।

यह संसार अशरण, अशुभ, क्षणभंगुर और दु:खरूप है, पर है, आत्मरूप नहीं है। मैं ऐसे संसार में निवास कर रहा हूँ। मोक्ष इससे विपरीत शरणभूत, शुभ, शाश्वत, सुखरूप और स्वात्मरूप है। सामायिक में ऐसा ध्यान करना चाहिए। क्योंकि शुद्ध नय से यह आत्मा शुद्ध स्वरूप है।।१०४।।

१०५. सामायिक के अतिचार

चाक्कायमानसानां, दु:प्रणिधानान्यनादरास्मरणे।
सामयिकस्यातिगमा, व्यज्यन्ते पञ्च भावेन।।१०५।।
सामायिक व्रत के अतिचार है पांच कहे जाते जग में।
जो वचन काय मन को चंचल करता खोटे दुध्र्यानों में।।
सामायिक में नहिं विनय करे अरू पाठ विस्मरण कर देता।
सम्यग्दृष्टी इन दोषों को नहिं निकट कभी अपने देता।।

मन को चंचल करना, वचन को अशुभ या चंचल करना, काय को अस्थिर रखना, सामायिक में अनादर करना, प्रमाद से पाठ को भूल जाना ये पांच अतिचार सामायिक व्रत के हैं। इनको छोड़ने से आत्मतत्त्व का ज्ञान होता है।।१०५।।

१०६. प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत

पर्वण्यष्टम्यां च, ज्ञातव्य: प्रोषधोपवासस्तु।
चतुरभ्यवहाय्र्याणां, प्रत्याख्यानं सदेच्छामि:।।१०६।।
शिक्षाव्रत का तीसरा भेद प्रोषध उपवास कहा प्रभु ने।
अष्टमी और चौदस के दिन जो सदा आन्तरिक इच्छा से।।
है त्याग करे सोलह प्रहरों तक चतुर प्रकार आहारों का।
व्रत प्रतिमाधारी हो अशक्त हो एकाशन भी कर सकता।

प्रत्येक मास की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी को अपनी इच्छा से आगम के अनुसार चारों प्रकार के आहार का त्याग करना प्रोषधोपवास नामक शिक्षाव्रत है। यह तप करना सिखाता है। इस व्रत के धारी शरीर से निर्मम बन जाते हैं।।१०६।।

१०७. उपवास के दिन व्याज्या कार्य

पञ्चानां पापाना-मलङ्क्रिया-रम्भगन्धपुष्पाणाम्।
स्नानाञ्जननस्याना-मुपवासे परिहृतिं कुय्र्यात्।।१०७।।
इस दिन वह पांचों पापों को आरम्भ और श्रंगारों का।
है त्याग करे वह तेल इत्र अंजनमाला स्नानों का।।
विषयानुराग कम करने को सुंघनी आदी का त्याग करे।
उपवास दिवस इन कार्यों को जो त्यागे वह शिवनारी वरे।।

जिस दिन उपवास हो उस दिन पाँचों पापों का त्याग करके आरम्भ, गंध, माला, अलंकार, स्नान, अंजन, मंजन, नस्य आदि क्रियाओं का त्याग कर देना चाहिये। उस दिन शरीर से ममत्व दूर करने हेतु वैराग्य भाव को धारण करना चाहिए।

१०८. उपवास के दिन कत्र्तव्य

धर्मामृतं सतृष्ण:, श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान्।
ज्ञानध्यानपरो वा, भवतूपवसन्नतन्द्रालु:।।१०८।।
जिस दिन उपवास करे प्राणी उस दिन आलस्यरहित होके।
अरू उत्वंठित हो धर्मरूप अमृत निज कानों से पीवे।।
वह पान करावे पर को भी अरू धर्मध्यान लवलीन रहे।
स्वाध्याय और अध्ययन करके उस दिन का समय व्यतीत करे।।

उपवास दिवस आलस्य रहित होकर शास्त्रों का पठन करे। अति उत्वंठा से धर्मरूपी अमृत को पीवे अर्थात् कानों से श्रवण करे और अन्यों को भी धर्म श्रवण करावे। ज्ञान और ध्यान में तत्पर होता हुआ उपवास को सफल कर लेवे।।१०८।।

१०९. प्रोषध और उपवास का लक्षण

चतुराहारविसर्जन-मुपवास: प्रोषध: सकृद्भुक्ति:।
स प्रोषधोपवासो, यदुपोष्यारम्भमाचरति।।१०९।।
आहारों का सर्वथा त्याग करना उपवास कहा जाता।
अरू एक बार भोजन करना है प्रोषध मात्र कहा जाता।।
जो आदि अन्त में एकाशन अरू मध्यदिवस उपवास करें।
वह प्रोषधोपवास व्रत का धारी ऐसी शुभ क्रिया करें।।

अशन, खाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना ‘उपवास’ है और एक बार भोजन करना ‘प्रोषध’ है। तेरस को एकाशन करके चौदस को उपवास, पुन: पूनो को एकाशन करना प्रोषधोपवास है, ऐसे ही अष्टमी के लिए समझना।।१०९।।

११०. प्रोषधोपवासव्रत के अतिचार

ग्रहणविसर्गास्तरणा-न्यदृष्टमृष्टान्यनादरास्मरणे।
यत्प्रोषधोपवास-व्यतिलङ्घनपञ्चवंâ तदिदम्।।११०।।
बिन देखे शोधे पूजा के उपकरणों को जो ग्रहण करे।
मलमूत्रादिक का त्याग करे अरू संस्तर को भी ग्रहण करे।।
आवश्यक में नहिं विनय करे नहिं योग्यक्रिया स्मरण रखे।
प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत के ये पाँचों ही अतिक्रमण कहे।।

बिना देखे बिना शोधे पूजा के उपकरण ग्रहण करना, बिना देखी बिना सोधी जमीन पर मलमूत्रादि त्याग करना, बिना देखे बिना सोधे बिस्तर बिछाना, आवश्यक आदि क्रियाओं में अनादर करना और योग्य क्रियाओं को भूल जाना प्रोषधोपवास व्रत के ये पाँच अतिचार होते हैं।।११०।।

१११. वैयावृत्य का लक्षण

दानं वैयावृत्यं, धर्माय तपोधनाय गुणनिधये।
अनपेक्षितोपचारो-पक्रियमगृहाय विभवेन।।१११।।
गृहत्यागी अरू सम्यक्त्व आदि गुण के निधान उस ऋषियों को।
जो मानव धर्मवृद्धि हेतु दे यथाशक्ति चउदानों को।।
बदले में मंत्रदान अथवा यश की इच्छा नहिं रखता हो।
वैयावृत्ति व्रत है उसके अनपेक्षभाव जो रखता हो।।

गुणों के निधान और तपरूपी धन को धारण करने वाले ऐसे मुनियों को धर्म के लिए जो दान देना वह वैयावृत्य है। यश, मंत्र आदि प्रत्युपकार की अपेक्षा के बिना अपने वैभव के अनुसार जो गृहत्यागी मुनियों की भक्ति और उनको दान आदि देना वही वैयावृत्य नामक शिक्षाव्रत है।।१११।।

११२. वैयावृत्य का दूसरा लक्षण

व्यापत्तिव्यपनोद:, पदयो: सम्वाहनं च गुणरागात्।
वैयावृत्यं यावा-नुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम्।।११२।।
यतियों के गुण का अनुरागी उनके दु:खों को दूर करे।
अपना कत्र्तव्य समझ करके पैरों का मर्दन नित्य करे।।
अथवा जैसे भी संभव हो उस रीति से उपकार करे।
वैयावृत्ति व्रत सर्वश्रेष्ठ इसलिए गुणीजन प्यार करे।।

मुनियों के गुणों में अनुराग करते हुए उनके दु:खों को दूर करना, उनके पैरों को दबाना, और भी यथायोग्य उपकार करना तथा र्आियका आदि संयमियों की भी भक्ति सेवा करना वह सब वैयावृत्य है जो कि सुख सम्पत्ति का दाता है।।११२।।

११३. दान का लक्षण

नवपुण्यै: प्रतिपत्ति:, सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन।
अपसूनारम्भाणा-मार्याणामिष्यते दानम्।।११३।।
जो सत्तगुणों से सहित शुद्ध सम्यग्दृष्टि श्रावकजन हैं।
वह ही नवधाभक्ति द्वारा आहारदान के योग्य कहे।।
मुनि का भोजन आरम्भ और पाँचों सूना से विरहित हो।
जो रूचिपूर्वक देता आहार उसको नहिं दु:ख कभी भी हो।।
१. श्रद्धा अरू सन्तोष भक्ति ज्ञान निर्लोभता।
क्षमासत्व गुण सात दाता के प्रभु ने कहे।।
२. कूटना पीसना चूल्हा आदि जलाना अथवा जलवाना।
जो करे बुहारी आदि पंचसूना नहिं मोक्ष उन्हें जाना।।

पड़गाहन, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजन, नमस्कार, मनशुद्धि, वचनशुद्धि कायशुद्धि और भोजनशुद्धि ये नवधाभक्ति कहलाती है। श्रद्धा भक्ति आदि सात गुणों से युक्त श्रावक मुनियों को नवधाभक्ति पूर्वक जो आहार देते हैं उसी का नाम दान है।।११३।।

श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, ज्ञान, निर्लोभता, क्षमा और सत्त्व ये सात दाता के गुण कहे हैं।।१।।
कूटना, पीसना आदि जो पंचसूना कार्य है वह जब तक करता है तब तक मोक्षमार्ग में पदार्पण नहीं कर सकता है।।२।।

११४. दान का फल

गृहकर्मणापि निचितं, कर्म विमाष्र्टि खलु गृहविमुक्तानाम्।
अतिथीनां प्रतिपूजा, रुधिरमलं धावते वारि।।११४।।
गृहत्यागी मुनि को यथायोग्य जो दान चतुर्विध देते हैं।
प्रतिदिन के संचित पापकर्म निश्चय से उनके झड़ते हैं।।
जैसे जल धोता रूधिर आदि वैसे ही दान कर्ममल को।
है अलग करे निज आत्मा से ऐसा तुम इसका फल समझो।।

अग्नि जलाना आदि गृहस्थी के कार्य रूप जो पांच सूना हैं उनके करने से रात—दिन पापों का संचय होता रहता है। वह सब पाप गृहत्यागी संयमी को आहार देने से नष्ट हो जाता है। जैसे कि रुधिर से गंदा हुआ वस्त्र जल से धुलकर स्वच्छ हो जाता है।।११४।।

११५. नवधा भक्ति का फल

उच्चै र्गोत्रं प्रणते-र्भोगो दानादुपासनात्पूजां।
भत्ते: सुन्दररूपं, स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु।।११५।।
मुनियों की चरण वन्दना से है उच्चगोत्र को प्राप्त करें।
अरू दान तथा सेवादिक से भोग और मान्यता प्राप्त करे।।
भक्ति से सुन्दर रूप तथा स्तुति करने से कीर्ति मिले।
इस तरह भव्य की जीवन बगिया में नित ही नवपुष्प खिले।।

तपोनिधि मुनियों को नमस्कार करने से उच्चगोत्र मिलता है, उनको दान देने से भोग मिलते हैं, उनकी उपासना करने से पूजा होती है, उनकी भक्ति करने से सुन्दर रूप मिलता है और उनकी स्तुति करने से कीर्ति बढ़ती है। इस तरह गुरु की उपासना से सब सुख सम्पत्तियाँ प्राप्त होती है।।११५।।

११६. अल्पदान से महाफल

क्षितिगतमिव वटबीजं, पात्रगतं दानमल्पमपि काले।
फलतिच्छायाविभवं, बहुफलमिष्टं शरीरभृताम्।।११६।।
जैसे सुभूमि में गया हुआ बटबीज बहुत फल फलता है।
अरू योग्यकाल के आने पर भारी छाया भी देता है।।
सत्पात्रों में है दिया गया थोड़ा भी दान प्राणियों को।
देता उत्तम ऐश्वर्य तथा इच्छित भोगादि सत्फलों को।।

अच्छी उपजाऊ भूमि में बोया गया छोटा भी बड़ का बीज बहुत बड़ा वृक्ष बन जाता है, समय पर बहुत बड़ी छाया देता है और मिष्ठ फल भी देता है। वैसे ही जो विधिवत् उत्तम पात्रों में यदि थोड़ा—सा भी दान देते हैं तो वह समय पर बहुत फल देता है, इच्छानुकूल सभी वैभव प्रदान करता है।।११६।।

११७. दान के भेद

आहारौषधयोर-प्युपकरणावासयोश्च दानेन।
वैयावृत्यं ब्रुवते, चतुरात्मत्वेन चतुरस्रा:।।११७।।
मतिश्रुत आदिक चउज्ञानों के धारक गणधर का कहना है।
आहारौषधि आवास उपकरण चारदान ये गहना है।
जो भव्यपुरुष इन चारों से, मुनियों की वैयावृत्ति करे।
वे इन्द्रादिक के भोग भोग क्रम से पंचमगति प्राप्त करे।।

आहारदान, औषधिदान, उपकरणदान और आवासदान इस वैयावृत्य के ये चार भेद कहे हैं। श्रावक मुनि को प्रासुक भोजन और शुद्ध औषधियों को देकर स्वस्थ करे तथा पिच्छी कमंडलु, शास्त्र आदि देकर व वसतिका देकर अपने जीवन को धन्य कर लेवे।।११७।।

११८. वैयावृत्य में अर्हंत पूजा

देवाधिदेवचरणे, परिचरणं सर्व-दु:खनिर्हरणम्।
कामदुहि कामदाहिनी, परिचिनुयादादृतो नित्यम्।।११८।।
देवों के देव कहें जाते ऐसे अर्हंत के चरणों में।
जो भक्त जीव नित ही पूजा करते सब दु:ख नशे क्षण में।।
यह पूजा इच्छित फल देपव अरू विषयवासना नष्ट करे।
योगीजन वैयावृत्ति में ही इसको समाविष्ट करे।।

देवाधिदेव अर्हंत देव के चरणों की पूजा करने से सम्पूर्ण दु:ख नष्ट हो जाते हैं। और इच्छित फल स्वयं प्राप्त हो जाते हैं। तथा यह पूजा सम्पूर्ण विषय वासनाओं की इच्छा भी नष्ट कर देने वाली है। इसलिए आदरपूर्वक नित्य ही जिन पूजा करना चाहिए क्योंकि इसके सदृश अन्य दूसरा उत्तम कार्य नहीं है।।११८।।

११९. दानों में प्रसिद्ध नाम

श्रीषेण-वृषभसेने, कौण्डेश: शूकरश्च दृष्टान्ता:।
वैयावृत्यस्यैते, चतुर्विकल्पस्य मन्तव्या:।।११९।।
आहारदान में श्रीषेण औषधी दान में श्रेष्ठिसुता।
जग में प्रसिद्धि को पाया था है नाम वृषभसेना जिसका।
अरू शास्त्र अभय दो दानों में क्रम से कौण्डेश और शूकर।
ये चारों ही दृष्टान्त बन गये वैयावृत्ति के बल पर।।

श्रीषेण राजा आहार दान के फल से श्री शांतिनाथ तीर्थंकर हुये हैं। वृषभसेना ने औषधिदान के प्रभाव से अपने शरीर के स्पर्शित जल से बहुतों के दु:ख दूर किये हैं। कोंडेश ने मुनि को शास्त्रदान देकर अपने श्रुतज्ञान को पूर्ण कर प्रसिद्धि पाई है और सूकर ने मुनि को अभयदान देने के पुण्य से देवगति को प्राप्त किया है।।११९।।

१२०. पूजा का माहात्म्य

अर्हच्चरणसपर्या - महानुभावं महात्मनामवदत्।
भेक: प्रमोदमत्त:, कुसुमेनैकेन राजगृहे।।१२०।।
अरहन्त चरण की पूजा का माहात्म्य बढ़ाया मेढ़क ने।
आनन्दमग्न हो चला कमल ले महावीर पूजा करने।।
पर नहीं भावना पूर्ण हुई श्रेणिक गज नीचे कुचल गया।
पूजा का फल देखो भव्यो। जाकर के स्वर्ग में देव भया।।

राजगृही में मेढ़क प्रमोद से र्हिषत हुआ एक पुष्प लेकर जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए चल पड़ता है। मार्ग में हाथी के पैर के नीचे दबकर मरकर तत्क्षण ही देव हो जाता है और इस तरह अर्हंत पूजा के महात्म्य को सभी को प्रगट रूप से दिखला देता है।।१२०।।

१२१. वैयावृत्य के अतिचार

हरितपिधाननिधाने, ह्यनादरास्मरणमत्सरत्वानि।
वैयावृत्यस्यैते, व्यतिक्रमा: पञ्च कथ्यन्ते।।१२१।।
वैयावृत्ती के अतिचार है पाँच कहे ऋषिमुनियों ने।
जो हरितपत्र से ढके वस्तु औ रखे हरे ही पत्तों में।।
आहार अनादर पूर्वक दे, नवधाभक्ति विस्मरण करे।
दाता से ईष्र्याभाव रखे नहिं दानगुणों को सहन करें।।

कमल पत्र आदि हरी वस्तु से भोजन को ढक देना, हरित पत्ते आदि पर रख देना, देते हुए पात्रों का अनादर करना, नवधा भक्ति आदि भूल जाना और अन्य दाताओं से मत्सर ईष्र्याभाव रखना ये वैयावृत्य के पाँच अतिचार होते हैं।।१२१।।

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