जिनगुण सम्पत्ति विधान प्रशस्ति:

सिद्धारथ नृप के तनुज, महावीर भगवान।
नमूँ नमूँ उनको सतत, जिनका तीर्थ प्रधान।।१।।

मूल संघ के अग्रणी, वुंâदवुंâद आचार्य।
गच्छ सरस्वति नाम औ, बलात्कार गण धार्य।।२।।

परंपरा में उन्हीं के, शांतिसागराचार्य।
उनके पट्टाधीश थे, वीरसागराचार्य।।३।।

श्रमणी दीक्षा के गुरू, श्रमण मान्य जग वंद्य।
जिनके पाद प्रसाद से, ज्ञानमती हुई धन्य।।४।।

जिन भक्ती से प्रेरिता, पूजा रची महान।
नाम इंद्रध्वज विश्व में, ख्यात अपूरब जान।।५।।

वीर अब्द पच्चीस सौ, तीन मास वैशाख।
तिथी पूर्णिमा शुभ दिवस, मंगलमय सित पाख।।६।।

हस्तिनागपुर क्षेत्र में, श्रद्धा भक्ति समेत।
जिनगुण की पूजा पुन:, रची स्वात्मगुण हेत।।७।।

श्री जिनगुण संपति महा, उद्यापन सुविधान।
ज्ञानमती मैं आर्यिका, पूरण की रुचि ठान।।८।।

जो जन जिन गुणसंपदा, व्रत करते रुचिधार।
उद्यापन कर अंत में, पूर्ण लहें व्रतसार।।९।।

यावत् जिनगुण विश्व में, उदित रहें सुखकार।
तावत् यह पूजा विधी, जयो जगत् हितकार।।१०।।

जिनगुण संपति व्रत विधि एवं कथा

धातकी द्वीप के अन्तर्गत पूर्वमेरु संबंधी पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधिल नामक देश है। उसमें एक पाटलिपुत्र नाम का नगर है। उस नगर में एक नागदत्त सेठ रहते थे, उनकी भार्या का नाम सुमति था। वे दंपत्ति धनहीन होने से अत्यंत दु:खी थे। दोनों ही जंगल से लकड़ी आदि लाकर उसे बेचकर अपना पेट पालन करते थे। एक दिन बेचारी सुमति भूख-प्यास से घबराकर एक वृक्ष की छाया में बैठी थी, इतने में बहुत से नर-नारियों को उत्साह के साथ जाते हुए देखकर पूछा-बंधु और बहनों! आप लोग आज कहाँ जा रहे हैं? तब किसी ने कहा-बहन! इस अंबरतिलक पर्वत पर पिहितास्रव नाम के महामुनि आये हुए हैं, उनके दर्शनपूजन के लिए हम लोग जा रहे हैं। सुमति१ भी उन लोगों के साथ गुरु के दर्शनार्थ वहाँ चली गई। मुनिराज से षट्कर्म और बाहर व्रतों का उपदेश सुनकर अवसर पाकर उसने प्रश्न किया-हे भगवन्! किस पाप के उदय से मैं महान् दरिद्र हुई हूँ? मुनिराज ने कहा-पुत्री! पलासवूâट ग्राम में दिविलह राजा की सुमति रानी से तू धनश्री नाम की कन्या हुई थी। एक दिन सखियों के साथ वन में क्रीड़ा करते हुए वृक्ष के नीचे ध्यान में मग्न समाधिगुप्त मुनिराज को देखा, रूप- यौवन के गर्व से उन्मत्त होकर तूने उनके ऊपर कुत्ते के द्वारा उपसर्ग कर दिया किन्तु मुनिराज ने शांत भाव से उपसर्ग सहन कर लिया। मुनि-उपसर्ग के पाप के कारण आयु पूर्णकर मरकर तू सिंहनी हुई। वहाँ से आकर तू धनहीन घर में उत्पन्न हुई है। पुन: सुमति बोली-हे भगवन्! कोई ऐसा व्रत बतलाइये कि जिससे इस पाप से छुटकारा मिले। मुनि ने कहा-पुत्री! तुम सम्यग्दर्शनपूर्वक जिनगुणसम्पत्ति व्रत करो, जिससे तुम्हारे मनवांछित कार्यों की सिद्धि होगी।

इस व्रत की विधि इस प्रकार है-सोलह कारण भावनाओं के १६ उपवास, पंचकल्याणक के ५, अष्ट प्रातिहार्य के ८ और चौंतीस अतिशयों के ३४, इस प्रकार कुल मिलाकर ६३ उपवास या प्रोषध (एक भुक्ति) करें। १व्रतविधि निर्णय में ‘‘प्रतिपदा के १६, पंचमी के ५, अष्टमी के ८, दशमी के २० और चौदस के १४ ऐसे तिथि से उपवास माने हैं।’’ व्रत के दिन पंचामृत अभिषेक करके पूजन करें, पुन: जाप्य करें। व्रत की कथा पढ़ें, स्वाध्याय आदि करते हुए दिन भर धर्मध्यान में व्यतीत करें। व्रत के दिन जिनगुणसम्पत्ति मंत्रों में से जिस मंत्र का दिन हो, उस मंत्र का जाप्य करें। व्रत पूर्ण होने पर उद्यापन करें। उद्यापन की शक्ति न होने से व्रत दूना करें। उद्यापन में मंदिर में मंडल माँडकर बड़े समारोह के साथ भगवान् की सम्मानपूर्वक पूजा करें, पात्रदान देवें, आम, केले, नारंगी, श्रीफल, अखरोट, खारिक, बादाम इत्यादि त्रेसठ-त्रेसठ फल अनेक प्रकार के नैवेद्य सहित भगवान् की पूजा करें। मंदिर में चंदोवा, छत्र, चंवर, झालर, घंटा आदि उपकरण भेंट करें। ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ श्रावक-श्राविकाओं को ६३ ग्रंथ बाँटें। सुमति (निर्नामिका) ने गुरु से व्रत ग्रहण कर विधिवत् पालन किया, अंत में समाधिपूर्वक मरण करके स्वर्ग में ललितांग देव की स्वयंप्रभा नाम की महादेवी हुई। वहाँ से चलकर जंबूद्वीप के पूर्वविदेह संबंधी पुष्कलावती देश के अन्तर्गत पुंडरीकिणी नगरी में वङ्कादंत चक्रवर्ती की लक्ष्मीमती नाम की महारानी से श्रीमती नाम की पुत्री हुई, जो कि वङ्काजंघ महाराज को विवाही गई। किसी समय इन दम्पत्ति ने मुनियुगल को आहार दान देकर महान् पुण्य संचय किया। वहाँ से मरकर उत्तम भोगभूमि में दोनों पति-पत्नी हुए। वहाँ पर चारण मुनियों के उपदेश से दोेनों ने सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। वहाँ से मरकर ऐशान स्वर्ग में वङ्काजंघ आर्य श्रीधर देव हो गये और श्रीमती आर्या स्वयंप्रभ देव हो गर्इं। सम्यक्त्व के प्रभाव से श्रीमती को स्त्रीपर्याय से छुटकारा मिल गया। स्वर्ग से च्युत होकर विदेह क्षेत्र में श्रीधर देव तो राजा सुविधि हुआ और उसकी मनोरमा रानी से यह स्वयंप्रभ देव का जीव केशव नाम का प्यारा पुत्र हुआ। पुन: दीक्षित होकर ये सुविधि सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र हुए एवं केशव वहीं पर प्रतीन्द्र हुआ। पुन: यह इन्द्र स्वर्ग से आकर पूर्वविदेह में वङ्कानाभि चक्रवर्ती हुआ और प्रतीन्द्र का जीव चक्रवर्ती व चौदह रत्नों में से गृहपति नाम का रत्न हुआ, जिसका नाम धनदेव था।

अनन्तर वङ्कानाभि चक्रीश ने दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति को बाँध लिया और श्रेणी में मरणकर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये। धनदेव भी दीक्षित होकर अंत में मरणकर ध्यान के प्रभाव से सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हो गये। वहाँ से चलकर वङ्कानाभि का जीव अहमिंद्र तो भगवान् ऋषभदेव हुआ है और धनदेव का जीव कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर में राजा सोमप्रभ का भाई श्रेयांस कुमार हुआ है। भगवान् ऋषभदेव को जब एक वर्ष तक आहार का लाभ नहीं हुआ, तब हस्तिनापुर में आने पर उनके दर्शन से राजा श्रेयांस को श्रीमती के भव में दिये गये आहारदान का जातिस्मरण हो जाने से आहारदान की विधि का ज्ञान हो गया। उसी समय उन्होंने भगवान को इक्षुरस का आहार देकर अक्षय पुण्य सम्पादन किया, आज भी वह दिवस अक्षयतृतीया के नाम से जगत् में पूज्य हो रहा है। राजा श्रेयांस भगवान के केवलज्ञान के अनन्तर उनके समवसरण में अपने भाई के साथ दीक्षित होकर भगवान के गणधर हो गये। पुन: अन्त में कर्मों का नाश कर मुक्ति पद को प्राप्त हो गये। अहो! निर्नामिका ने एक जिनगुण सम्पत्ति व्रत का पालन किया, जिसके प्रसाद से उत्तम सुखों को भोगकर अन्त में राजा श्रेयांस होकर निर्वाणपद को प्राप्त कर वहाँ पर अनन्त-अनन्त काल के लिए पूर्ण सुखी हो चुके हैं।

अथ जिनगुणसंपत्ति के मंत्र


प्रत्येक मंत्र के पहले ‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा’ इतने बीजाक्षर बोलना चाहिए।

प्रतिपदा की १६ जाप्य


१. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा दर्शनविशुद्धिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा विनयसंपन्नताभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा संवेगभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
६. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शक्तितस्त्यागभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
७. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शक्तितस्तपोभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
८. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा साधुसमाधिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
९. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा वैयावृत्यकरणभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१०. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अर्हद्भक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
११. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा आचार्यभक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा बहुश्रुतभक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा प्रवचनभक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा आवश्यकापरिहाणिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा मार्गप्रभावनाभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१६. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा प्रवचनवत्सलत्वभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।

पंचमी की ५ जाप्य


१. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा स्वर्गावतरणगर्भकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा जन्माभिषेककल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा परिनिष्क्रमणकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा केवलज्ञानकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा निर्वाणकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।

अष्टमी के ८ जाप्य


१. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सुरपुष्पवृष्टिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा दिव्यध्वनिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपाये नम:।
४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा चतुष्षष्टिचामरमहाप्रातिहार्य-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सिंहासनमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
६. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा भामंडलमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
७. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा देवदुन्दुभिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
८. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा छत्रत्रयमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।

दशमी की २० जाप्य


१. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा नि:स्वेदत्वसहजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा निर्मलत्वसहजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा क्षीरगौररुधिरत्वसहजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा समचतुरस्रसंस्थानसहजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा वङ्कावृषभनाराचसंहननसहजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
६. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सौरूप्यसहजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
७. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सौगंध्यसहजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायैनम:।
८. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सौलक्षण्यसहजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
९. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अप्रमितवीर्यसहजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१०. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा प्रियहितवादित्वसहजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
११. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षत्वघातिक्षय-जातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा गगनगमनत्वघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अप्राणिवधत्वघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा भुक्त्यभावघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा उपसर्गाभावघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१६. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा चतुर्मुखत्वघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१७. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वविद्येश्वरघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१८. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अच्छायत्वघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१९. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अपक्ष्मस्पंदत्वघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
२०. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा समाननखकेशत्वघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।

चतुर्दशी की १४ जाप्य


१. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वार्धमागधीयभाषादेवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वजनमैत्रीभावदेवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वर्तुफलादिशोभिततरुपरिणामदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा आदर्शतलप्रतिमारत्नमयीमहीदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा विहरणमनुगतवायुत्वदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
६. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वजनपरमानन्दत्वदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
७. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा वायुकुमारोपशमितधूलिवंâटकादिदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
८. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा मेघकुमारकृतगन्धोदकवृष्टिदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
९. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा पादन्यासे कृतपद्मा निदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१०. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा फलभारनम्रशालिदेवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
११. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शरत्कालवन्निर्मलगगनत्वदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शरन्मेघवन्निर्मलदिग्भावत्वदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा एतैतेतिचतुर्निकायामरपरापराह्वानदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा धर्मचक्रचतुष्टयदेवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।

१. आदिपुराण में-वणिक् की पुत्री निर्नामिका ने यह व्रत पिहितास्रव मुनि से लेकर किया और पुन: क्रम से प्रभा देवी आदि पदों को प्राप्त करते हुए राजा श्रेयांस हो गया, ऐसा कथन है। जिनगुणसंपति व्रत विधि एवं कथा धातकी द्वीप के अन्तर्गत पूर्वमेरु संबंधी पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधिल नामक देश है। उसमें एक पाटलिपुत्र नाम का नगर है। उस नगर में एक नागदत्त सेठ रहते थे, उनकी भार्या का नाम सुमति था। वे दंपत्ति धनहीन होने से अत्यंत दु:खी थे। दोनों ही जंगल से लकड़ी आदि लाकर उसे बेचकर अपना पेट पालन करते थे। एक दिन बेचारी सुमति भूख-प्यास से घबराकर एक वृक्ष की छाया में बैठी थी, इतने में बहुत से नर-नारियों को उत्साह के साथ जाते हुए देखकर पूछा-बंधु और बहनों! आप लोग आज कहाँ जा रहे हैं? तब किसी ने कहा-बहन! इस अंबरतिलक पर्वत पर पिहितास्रव नाम के महामुनि आये हुए हैं, उनके दर्शनपूजन के लिए हम लोग जा रहे हैं। सुमति१ भी उन लोगों के साथ गुरु के दर्शनार्थ वहाँ चली गई। मुनिराज से षट्कर्म और बाहर व्रतों का उपदेश सुनकर अवसर पाकर उसने प्रश्न किया-हे भगवन्! किस पाप के उदय से मैं महान् दरिद्र हुई हूँ? मुनिराज ने कहा-पुत्री! पलासवूâट ग्राम में दिविलह राजा की सुमति रानी से तू धनश्री नाम की कन्या हुई थी। एक दिन सखियों के साथ वन में क्रीड़ा करते हुए वृक्ष के नीचे ध्यान में मग्न समाधिगुप्त मुनिराज को देखा, रूप- यौवन के गर्व से उन्मत्त होकर तूने उनके ऊपर कुत्ते के द्वारा उपसर्ग कर दिया किन्तु मुनिराज ने शांत भाव से उपसर्ग सहन कर लिया। मुनि-उपसर्ग के पाप के कारण आयु पूर्णकर मरकर तू सिंहनी हुई। वहाँ से आकर तू धनहीन घर में उत्पन्न हुई है। पुन: सुमति बोली-हे भगवन्! कोई ऐसा व्रत बतलाइये कि जिससे इस पाप से छुटकारा मिले। मुनि ने कहा-पुत्री! तुम सम्यग्दर्शनपूर्वक जिनगुणसम्पत्ति व्रत करो, जिससे तुम्हारे मनवांछित कार्यों की सिद्धि होगी। इस व्रत की विधि इस प्रकार है-सोलह कारण भावनाओं के १६ उपवास, पंचकल्याणक के ५, अष्ट प्रातिहार्य के ८ और चौंतीस अतिशयों के ३४, इस प्रकार कुल मिलाकर ६३ उपवास या प्रोषध (एक भुक्ति) करें।

१व्रतविधि निर्णय में ‘‘प्रतिपदा के १६, पंचमी के ५, अष्टमी के ८, दशमी के २० और चौदस के १४ ऐसे तिथि से उपवास माने हैं।’’ व्रत के दिन पंचामृत अभिषेक करके पूजन करें, पुन: जाप्य करें। व्रत की कथा पढ़ें, स्वाध्याय आदि करते हुए दिन भर धर्मध्यान में व्यतीत करें। व्रत के दिन जिनगुणसम्पत्ति मंत्रों में से जिस मंत्र का दिन हो, उस मंत्र का जाप्य करें। व्रत पूर्ण होने पर उद्यापन करें। उद्यापन की शक्ति न होने से व्रत दूना करें। उद्यापन में मंदिर में मंडल माँडकर बड़े समारोह के साथ भगवान् की सम्मानपूर्वक पूजा करें, पात्रदान देवें, आम, केले, नारंगी, श्रीफल, अखरोट, खारिक, बादाम इत्यादि त्रेसठ-त्रेसठ फल अनेक प्रकार के नैवेद्य सहित भगवान् की पूजा करें। मंदिर में चंदोवा, छत्र, चंवर, झालर, घंटा आदि उपकरण भेंट करें। ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ श्रावक-श्राविकाओं को ६३ ग्रंथ बाँटें। सुमति (निर्नामिका) ने गुरु से व्रत ग्रहण कर विधिवत् पालन किया, अंत में समाधिपूर्वक मरण करके स्वर्ग में ललितांग देव की स्वयंप्रभा नाम की महादेवी हुई। वहाँ से चलकर जंबूद्वीप के पूर्वविदेह संबंधी पुष्कलावती देश के अन्तर्गत पुंडरीकिणी नगरी में वङ्कादंत चक्रवर्ती की लक्ष्मीमती नाम की महारानी से श्रीमती नाम की पुत्री हुई, जो कि वङ्काजंघ महाराज को विवाही गई। किसी समय इन दम्पत्ति ने मुनियुगल को आहार दान देकर महान् पुण्य संचय किया। वहाँ से मरकर उत्तम भोगभूमि में दोनों पति-पत्नी हुए। वहाँ पर चारण मुनियों के उपदेश से दोेनों ने सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। वहाँ से मरकर ऐशान स्वर्ग में वङ्काजंघ आर्य श्रीधर देव हो गये और श्रीमती आर्या स्वयंप्रभ देव हो गर्इं। सम्यक्त्व के प्रभाव से श्रीमती को स्त्रीपर्याय से छुटकारा मिल गया।

स्वर्ग से च्युत होकर विदेह क्षेत्र में श्रीधर देव तो राजा सुविधि हुआ और उसकी मनोरमा रानी से यह स्वयंप्रभ देव का जीव केशव नाम का प्यारा पुत्र हुआ। पुन: दीक्षित होकर ये सुविधि सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र हुए एवं केशव वहीं पर प्रतीन्द्र हुआ। पुन: यह इन्द्र स्वर्ग से आकर पूर्वविदेह में वङ्कानाभि चक्रवर्ती हुआ और प्रतीन्द्र का जीव चक्रवर्ती व चौदह रत्नों में से गृहपति नाम का रत्न हुआ, जिसका नाम धनदेव था। अनन्तर वङ्कानाभि चक्रीश ने दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति को बाँध लिया और श्रेणी में मरणकर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये। धनदेव भी दीक्षित होकर अंत में मरणकर ध्यान के प्रभाव से सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हो गये। वहाँ से चलकर वङ्कानाभि का जीव अहमिंद्र तो भगवान् ऋषभदेव हुआ है और धनदेव का जीव कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर में राजा सोमप्रभ का भाई श्रेयांस कुमार हुआ है। भगवान् ऋषभदेव को जब एक वर्ष तक आहार का लाभ नहीं हुआ, तब हस्तिनापुर में आने पर उनके दर्शन से राजा श्रेयांस को श्रीमती के भव में दिये गये आहारदान का जातिस्मरण हो जाने से आहारदान की विधि का ज्ञान हो गया। उसी समय उन्होंने भगवान को इक्षुरस का आहार देकर अक्षय पुण्य सम्पादन किया, आज भी वह दिवस अक्षयतृतीया के नाम से जगत् में पूज्य हो रहा है। राजा श्रेयांस भगवान के केवलज्ञान के अनन्तर उनके समवसरण में अपने भाई के साथ दीक्षित होकर भगवान के गणधर हो गये। पुन: अन्त में कर्मों का नाश कर मुक्ति पद को प्राप्त हो गये। अहो! निर्नामिका ने एक जिनगुण सम्पत्ति व्रत का पालन किया, जिसके प्रसाद से उत्तम सुखों को भोगकर अन्त में राजा श्रेयांस होकर निर्वाणपद को प्राप्त कर वहाँ पर अनन्त-अनन्त काल के लिए पूर्ण सुखी हो चुके हैं।

अथ जिनगुणसंपत्ति के मंत्र प्रत्येक मंत्र के पहले ‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा’ इतने बीजाक्षर बोलना चाहिए।
प्रतिपदा की १६ जाप्य


१. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा दर्शनविशुद्धिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा विनयसंपन्नताभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा संवेगभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
६. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शक्तितस्त्यागभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
७. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शक्तितस्तपोभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
८. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा साधुसमाधिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
९. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा वैयावृत्यकरणभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१०. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अर्हद्भक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
११. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा आचार्यभक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा बहुश्रुतभक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा प्रवचनभक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा आवश्यकापरिहाणिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा मार्गप्रभावनाभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१६. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा प्रवचनवत्सलत्वभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।

पंचमी की ५ जाप्य


१. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा स्वर्गावतरणगर्भकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा जन्माभिषेककल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा परिनिष्क्रमणकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा केवलज्ञानकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा निर्वाणकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।

अष्टमी के ८ जाप्य


१. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सुरपुष्पवृष्टिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा दिव्यध्वनिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपाये नम:।
४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा चतुष्षष्टिचामरमहाप्रातिहार्य-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सिंहासनमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
६. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा भामंडलमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
७. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा देवदुन्दुभिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
८. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा छत्रत्रयमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।

दशमी की २० जाप्य


१. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा नि:स्वेदत्वसहजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा निर्मलत्वसहजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा क्षीरगौररुधिरत्वसहजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा समचतुरस्रसंस्थानसहजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा वङ्कावृषभनाराचसंहननसहजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
६. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सौरूप्यसहजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
७. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सौगंध्यसहजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायैनम:।
८. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सौलक्षण्यसहजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
९. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अप्रमितवीर्यसहजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१०. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा प्रियहितवादित्वसहजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
११. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षत्वघातिक्षय-जातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा गगनगमनत्वघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अप्राणिवधत्वघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा भुक्त्यभावघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा उपसर्गाभावघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१६. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा चतुर्मुखत्वघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१७. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वविद्येश्वरघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१८. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अच्छायत्वघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१९. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अपक्ष्मस्पंदत्वघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
२०. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा समाननखकेशत्वघातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।

चतुर्दशी की १४ जाप्य


१. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वार्धमागधीयभाषादेवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वजनमैत्रीभावदेवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वर्तुफलादिशोभिततरुपरिणामदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा आदर्शतलप्रतिमारत्नमयीमहीदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
५. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा विहरणमनुगतवायुत्वदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
६. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वजनपरमानन्दत्वदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
७. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा वायुकुमारोपशमितधूलिवंâटकादिदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
८. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा मेघकुमारकृतगन्धोदकवृष्टिदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
९. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा पादन्यासे कृतपद्मा निदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१०. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा फलभारनम्रशालिदेवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
११. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शरत्कालवन्निर्मलगगनत्वदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१२. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शरन्मेघवन्निर्मलदिग्भावत्वदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१३. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा एतैतेतिचतुर्निकायामरपरापराह्वानदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।
१४. ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा धर्मचक्रचतुष्टयदेवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम:।