धातकी द्वीप के अन्तर्गत पूर्वमेरु संबंधी पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधिल नामक देश है। उसमें एक पाटलिपुत्र नाम का नगर है। उस नगर में एक नागदत्त सेठ रहते थे, उनकी भार्या का नाम सुमति था। वे दंपत्ति धनहीन होने से अत्यंत दु:खी थे। दोनों ही जंगल से लकड़ी आदि लाकर उसे बेचकर अपना पेट पालन करते थे। एक दिन बेचारी सुमति भूख-प्यास से घबराकर एक वृक्ष की छाया में बैठी थी, इतने में बहुत से नर-नारियों को उत्साह के साथ जाते हुए देखकर पूछा-बंधु और बहनों! आप लोग आज कहाँ जा रहे हैं? तब किसी ने कहा-बहन! इस अंबरतिलक पर्वत पर पिहितास्रव नाम के महामुनि आये हुए हैं, उनके दर्शनपूजन के लिए हम लोग जा रहे हैं। सुमति१ भी उन लोगों के साथ गुरु के दर्शनार्थ वहाँ चली गई। मुनिराज से षट्कर्म और बाहर व्रतों का उपदेश सुनकर अवसर पाकर उसने प्रश्न किया-हे भगवन्! किस पाप के उदय से मैं महान् दरिद्र हुई हूँ? मुनिराज ने कहा-पुत्री! पलासवूâट ग्राम में दिविलह राजा की सुमति रानी से तू धनश्री नाम की कन्या हुई थी। एक दिन सखियों के साथ वन में क्रीड़ा करते हुए वृक्ष के नीचे ध्यान में मग्न समाधिगुप्त मुनिराज को देखा, रूप- यौवन के गर्व से उन्मत्त होकर तूने उनके ऊपर कुत्ते के द्वारा उपसर्ग कर दिया किन्तु मुनिराज ने शांत भाव से उपसर्ग सहन कर लिया। मुनि-उपसर्ग के पाप के कारण आयु पूर्णकर मरकर तू सिंहनी हुई। वहाँ से आकर तू धनहीन घर में उत्पन्न हुई है। पुन: सुमति बोली-हे भगवन्! कोई ऐसा व्रत बतलाइये कि जिससे इस पाप से छुटकारा मिले। मुनि ने कहा-पुत्री! तुम सम्यग्दर्शनपूर्वक जिनगुणसम्पत्ति व्रत करो, जिससे तुम्हारे मनवांछित कार्यों की सिद्धि होगी। इस व्रत की विधि इस प्रकार है-सोलह कारण भावनाओं के १६ उपवास, पंचकल्याणक के ५, अष्ट प्रातिहार्य के ८ और चौंतीस अतिशयों के ३४, इस प्रकार कुल मिलाकर ६३ उपवास या प्रोषध (एक भुक्ति) करें। १व्रतविधि निर्णय में ‘‘प्रतिपदा के १६, पंचमी के ५, अष्टमी के ८, दशमी के २० और चौदस के १४ ऐसे तिथि से उपवास माने हैं।’’ व्रत के दिन पंचामृत अभिषेक करके पूजन करें, पुन: जाप्य करें। व्रत की कथा पढ़ें, स्वाध्याय आदि करते हुए दिन भर धर्मध्यान में व्यतीत करें। व्रत के दिन जिनगुणसम्पत्ति मंत्रों में से जिस मंत्र का दिन हो, उस मंत्र का जाप्य करें। व्रत पूर्ण होने पर उद्यापन करें। उद्यापन की शक्ति न होने से व्रत दूना करें। उद्यापन में मंदिर में मंडल माँडकर बड़े समारोह के साथ भगवान् की सम्मानपूर्वक पूजा करें, पात्रदान देवें, आम, केले, नारंगी, श्रीफल, अखरोट, खारिक, बादाम इत्यादि त्रेसठ-त्रेसठ फल अनेक प्रकार के नैवेद्य सहित भगवान् की पूजा करें। मंदिर में चंदोवा, छत्र, चंवर, झालर, घंटा आदि उपकरण भेंट करें। ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ श्रावक-श्राविकाओं को ६३ ग्रंथ बाँटें। सुमति (निर्नामिका) ने गुरु से व्रत ग्रहण कर विधिवत् पालन किया, अंत में समाधिपूर्वक मरण करके स्वर्ग में ललितांग देव की स्वयंप्रभा नाम की महादेवी हुई। वहाँ से चलकर जंबूद्वीप के पूर्वविदेह संबंधी पुष्कलावती देश के अन्तर्गत पुंडरीकिणी नगरी में वङ्कादंत चक्रवर्ती की लक्ष्मीमती नाम की महारानी से श्रीमती नाम की पुत्री हुई, जो कि वङ्काजंघ महाराज को विवाही गई। किसी समय इन दम्पत्ति ने मुनियुगल को आहार दान देकर महान् पुण्य संचय किया। वहाँ से मरकर उत्तम भोगभूमि में दोनों पति-पत्नी हुए। वहाँ पर चारण मुनियों के उपदेश से दोेनों ने सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। वहाँ से मरकर ऐशान स्वर्ग में वङ्काजंघ आर्य श्रीधर देव हो गये और श्रीमती आर्या स्वयंप्रभ देव हो गर्इं। सम्यक्त्व के प्रभाव से श्रीमती को स्त्रीपर्याय से छुटकारा मिल गया। स्वर्ग से च्युत होकर विदेह क्षेत्र में श्रीधर देव तो राजा सुविधि हुआ और उसकी मनोरमा रानी से यह स्वयंप्रभ देव का जीव केशव नाम का प्यारा पुत्र हुआ। पुन: दीक्षित होकर ये सुविधि सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र हुए एवं केशव वहीं पर प्रतीन्द्र हुआ। पुन: यह इन्द्र स्वर्ग से आकर पूर्वविदेह में वङ्कानाभि चक्रवर्ती हुआ और प्रतीन्द्र का जीव चक्रवर्ती व चौदह रत्नों में से गृहपति नाम का रत्न हुआ, जिसका नाम धनदेव था। अनन्तर वङ्कानाभि चक्रीश ने दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति को बाँध लिया और श्रेणी में मरणकर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये। धनदेव भी दीक्षित होकर अंत में मरणकर ध्यान के प्रभाव से सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हो गये। वहाँ से चलकर वङ्कानाभि का जीव अहमिंद्र तो भगवान् ऋषभदेव हुआ है और धनदेव का जीव कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर में राजा सोमप्रभ का भाई श्रेयांस कुमार हुआ है। भगवान् ऋषभदेव को जब एक वर्ष तक आहार का लाभ नहीं हुआ, तब हस्तिनापुर में आने पर उनके दर्शन से राजा श्रेयांस को श्रीमती के भव में दिये गये आहारदान का जातिस्मरण हो जाने से आहारदान की विधि का ज्ञान हो गया। उसी समय उन्होंने भगवान को इक्षुरस का आहार देकर अक्षय पुण्य सम्पादन किया, आज भी वह दिवस अक्षयतृतीया के नाम से जगत् में पूज्य हो रहा है। राजा श्रेयांस भगवान के केवलज्ञान के अनन्तर उनके समवसरण में अपने भाई के साथ दीक्षित होकर भगवान के गणधर हो गये। पुन: अन्त में कर्मों का नाश कर मुक्ति पद को प्राप्त हो गये। अहो! निर्नामिका ने एक जिनगुण सम्पत्ति व्रत का पालन किया, जिसके प्रसाद से उत्तम सुखों को भोगकर अन्त में राजा श्रेयांस होकर निर्वाणपद को प्राप्त कर वहाँ पर अनन्त-अनन्त काल के लिए पूर्ण सुखी हो चुके हैं।
१. आदिपुराण में-वणिक् की पुत्री निर्नामिका ने यह व्रत पिहितास्रव मुनि से लेकर किया और पुन: क्रम से प्रभा देवी आदि पदों को प्राप्त करते हुए राजा श्रेयांस हो गया, ऐसा कथन है। जिनगुणसंपति व्रत विधि एवं कथा धातकी द्वीप के अन्तर्गत पूर्वमेरु संबंधी पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधिल नामक देश है। उसमें एक पाटलिपुत्र नाम का नगर है। उस नगर में एक नागदत्त सेठ रहते थे, उनकी भार्या का नाम सुमति था। वे दंपत्ति धनहीन होने से अत्यंत दु:खी थे। दोनों ही जंगल से लकड़ी आदि लाकर उसे बेचकर अपना पेट पालन करते थे। एक दिन बेचारी सुमति भूख-प्यास से घबराकर एक वृक्ष की छाया में बैठी थी, इतने में बहुत से नर-नारियों को उत्साह के साथ जाते हुए देखकर पूछा-बंधु और बहनों! आप लोग आज कहाँ जा रहे हैं? तब किसी ने कहा-बहन! इस अंबरतिलक पर्वत पर पिहितास्रव नाम के महामुनि आये हुए हैं, उनके दर्शनपूजन के लिए हम लोग जा रहे हैं। सुमति१ भी उन लोगों के साथ गुरु के दर्शनार्थ वहाँ चली गई। मुनिराज से षट्कर्म और बाहर व्रतों का उपदेश सुनकर अवसर पाकर उसने प्रश्न किया-हे भगवन्! किस पाप के उदय से मैं महान् दरिद्र हुई हूँ? मुनिराज ने कहा-पुत्री! पलासवूâट ग्राम में दिविलह राजा की सुमति रानी से तू धनश्री नाम की कन्या हुई थी। एक दिन सखियों के साथ वन में क्रीड़ा करते हुए वृक्ष के नीचे ध्यान में मग्न समाधिगुप्त मुनिराज को देखा, रूप- यौवन के गर्व से उन्मत्त होकर तूने उनके ऊपर कुत्ते के द्वारा उपसर्ग कर दिया किन्तु मुनिराज ने शांत भाव से उपसर्ग सहन कर लिया। मुनि-उपसर्ग के पाप के कारण आयु पूर्णकर मरकर तू सिंहनी हुई। वहाँ से आकर तू धनहीन घर में उत्पन्न हुई है। पुन: सुमति बोली-हे भगवन्! कोई ऐसा व्रत बतलाइये कि जिससे इस पाप से छुटकारा मिले। मुनि ने कहा-पुत्री! तुम सम्यग्दर्शनपूर्वक जिनगुणसम्पत्ति व्रत करो, जिससे तुम्हारे मनवांछित कार्यों की सिद्धि होगी। इस व्रत की विधि इस प्रकार है-सोलह कारण भावनाओं के १६ उपवास, पंचकल्याणक के ५, अष्ट प्रातिहार्य के ८ और चौंतीस अतिशयों के ३४, इस प्रकार कुल मिलाकर ६३ उपवास या प्रोषध (एक भुक्ति) करें। १व्रतविधि निर्णय में ‘‘प्रतिपदा के १६, पंचमी के ५, अष्टमी के ८, दशमी के २० और चौदस के १४ ऐसे तिथि से उपवास माने हैं।’’ व्रत के दिन पंचामृत अभिषेक करके पूजन करें, पुन: जाप्य करें। व्रत की कथा पढ़ें, स्वाध्याय आदि करते हुए दिन भर धर्मध्यान में व्यतीत करें। व्रत के दिन जिनगुणसम्पत्ति मंत्रों में से जिस मंत्र का दिन हो, उस मंत्र का जाप्य करें। व्रत पूर्ण होने पर उद्यापन करें। उद्यापन की शक्ति न होने से व्रत दूना करें। उद्यापन में मंदिर में मंडल माँडकर बड़े समारोह के साथ भगवान् की सम्मानपूर्वक पूजा करें, पात्रदान देवें, आम, केले, नारंगी, श्रीफल, अखरोट, खारिक, बादाम इत्यादि त्रेसठ-त्रेसठ फल अनेक प्रकार के नैवेद्य सहित भगवान् की पूजा करें। मंदिर में चंदोवा, छत्र, चंवर, झालर, घंटा आदि उपकरण भेंट करें। ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ श्रावक-श्राविकाओं को ६३ ग्रंथ बाँटें। सुमति (निर्नामिका) ने गुरु से व्रत ग्रहण कर विधिवत् पालन किया, अंत में समाधिपूर्वक मरण करके स्वर्ग में ललितांग देव की स्वयंप्रभा नाम की महादेवी हुई। वहाँ से चलकर जंबूद्वीप के पूर्वविदेह संबंधी पुष्कलावती देश के अन्तर्गत पुंडरीकिणी नगरी में वङ्कादंत चक्रवर्ती की लक्ष्मीमती नाम की महारानी से श्रीमती नाम की पुत्री हुई, जो कि वङ्काजंघ महाराज को विवाही गई। किसी समय इन दम्पत्ति ने मुनियुगल को आहार दान देकर महान् पुण्य संचय किया। वहाँ से मरकर उत्तम भोगभूमि में दोनों पति-पत्नी हुए। वहाँ पर चारण मुनियों के उपदेश से दोेनों ने सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। वहाँ से मरकर ऐशान स्वर्ग में वङ्काजंघ आर्य श्रीधर देव हो गये और श्रीमती आर्या स्वयंप्रभ देव हो गर्इं। सम्यक्त्व के प्रभाव से श्रीमती को स्त्रीपर्याय से छुटकारा मिल गया। स्वर्ग से च्युत होकर विदेह क्षेत्र में श्रीधर देव तो राजा सुविधि हुआ और उसकी मनोरमा रानी से यह स्वयंप्रभ देव का जीव केशव नाम का प्यारा पुत्र हुआ। पुन: दीक्षित होकर ये सुविधि सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र हुए एवं केशव वहीं पर प्रतीन्द्र हुआ। पुन: यह इन्द्र स्वर्ग से आकर पूर्वविदेह में वङ्कानाभि चक्रवर्ती हुआ और प्रतीन्द्र का जीव चक्रवर्ती व चौदह रत्नों में से गृहपति नाम का रत्न हुआ, जिसका नाम धनदेव था। अनन्तर वङ्कानाभि चक्रीश ने दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति को बाँध लिया और श्रेणी में मरणकर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये। धनदेव भी दीक्षित होकर अंत में मरणकर ध्यान के प्रभाव से सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हो गये। वहाँ से चलकर वङ्कानाभि का जीव अहमिंद्र तो भगवान् ऋषभदेव हुआ है और धनदेव का जीव कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर में राजा सोमप्रभ का भाई श्रेयांस कुमार हुआ है। भगवान् ऋषभदेव को जब एक वर्ष तक आहार का लाभ नहीं हुआ, तब हस्तिनापुर में आने पर उनके दर्शन से राजा श्रेयांस को श्रीमती के भव में दिये गये आहारदान का जातिस्मरण हो जाने से आहारदान की विधि का ज्ञान हो गया। उसी समय उन्होंने भगवान को इक्षुरस का आहार देकर अक्षय पुण्य सम्पादन किया, आज भी वह दिवस अक्षयतृतीया के नाम से जगत् में पूज्य हो रहा है। राजा श्रेयांस भगवान के केवलज्ञान के अनन्तर उनके समवसरण में अपने भाई के साथ दीक्षित होकर भगवान के गणधर हो गये। पुन: अन्त में कर्मों का नाश कर मुक्ति पद को प्राप्त हो गये। अहो! निर्नामिका ने एक जिनगुण सम्पत्ति व्रत का पालन किया, जिसके प्रसाद से उत्तम सुखों को भोगकर अन्त में राजा श्रेयांस होकर निर्वाणपद को प्राप्त कर वहाँ पर अनन्त-अनन्त काल के लिए पूर्ण सुखी हो चुके हैं।