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श्री महावीर स्वामी विधान
जिनगुण सम्पत्ति विधान - अथ पंचमवलय पूजा
अथ स्थापना
-नरेन्द्र छंद-
केवल ज्योति प्रगट होते ही, दश अतिशय प्रगटे हैं।
अखिल१ विश्व में शांती हेतू, अद्भुत गुण चमके हैं।।
तीर्थंकर के इन अतिशय को, पूजूँ मन वच मन से।
गुणरत्नाकर२ में अवगाहन३ कर छूटूँ भव वन से।।१।।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपत् समूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपत् समूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपत् समूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथाष्टवंâ -
चाल-नंदीश्वर पूजा की...........
क्षीरांबुधि जल अति स्वच्छ, प्रासुक भृंग४ भरूँ।
जिनगुण की पूजन हेतु, धारा तीन करूँ।।
घातीक्षय५ से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।
निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयज चंदन कर्पूर, केशर मिश्र करूँ।
निज आतम गुण सौगंध्य, हेतू अर्च करूँ।।
घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।
निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।२।।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तासम अक्षत श्वेत, जिनगुण सम सोहें।
मैं पुंज चढ़ाऊँ नित्य, अनुपम सुख हो हैं।।
घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।
निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।३।।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरतरु१ के सुरभित पुष्प, नाना वर्ण लिये।
सौगंधित जिनपद पद्म, रुचि से भेंट किये।।
घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।
निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।४।।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
बरफी पेड़ा पकवान, पायस२ थाल भरे।
क्षुध रोग निवारण हेतु, तुम ढिंग भेंट करें।।
घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।
निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।५।।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति उद्योत३, भ्रम तम दूर करे।
जिनगुण का अर्चन शीघ्र, भेद विज्ञान करे।।
घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।
निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।६।।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दश गंध सुगंधित धूप, खेऊँ तुम आगे।
निज आतम अनुभव होय, कर्म अरी भागें।।
घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।
निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।७।।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पिस्ता अखरोट बदाम, आम अनार लिये।
जिनगुण को अर्चूं नित्य, पाऊँ सौख्य हिये।।
घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।
निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।८।।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन आदि मिलाय, उत्तम अघ्र्य करूँ।
जिनवर पद पद्म चढ़ाय, सम्यक् रत्न भरूँ।।
घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।
निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।९।।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।
जिनपद में धारा करूँ, सकल संघ हितकार।।
शांतये शांतिधारा।
सुरतरु के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिटता दु:ख तुरंत।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अघ्र्य
-शंभु छंद-
प्रभु घाति कर्म का क्षय करते, चउ शत कोसों दुर्भिक्ष टले।
जन-जन सुखकारी हो सुभिक्ष, यह अतिशय होता प्रगट भले।।
मैं वसुविध१ अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।
अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।१।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षत्व घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु घाति चतुष्टय क्षय करके, गगनांगण में ही गमन करें।
वे बीस हजार हाथ ऊँचे, शुभ समवसरण में अधर रहें।।
मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।
अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।२।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा गगनगमनत्व घातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के शरीर औ गमन आदि से, प्राणीवध नहिं हो सकता।
करुणारत्नाकर स्वामी का यह, अतिशय पूर्ण अभय करता।।
मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।
अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।३।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अप्राणिवधत्व घातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलि२ के कवलाहार३ नहीं, क्षुध आदि अठारह दोष नहीं।
परमानंदामृत आस्वादी, प्रभु के सुख तृप्ती पूर्ण कही।।
मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।
अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।४।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा भुक्त्यभाव घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलि जिन के उपसर्ग नहीं, हो सके कदाचित यह जानो।
बस कर्म असाता साता में, संक्रमण करे यह सरधानो।।
मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।
अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।५।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा उपसर्गाभाव घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु का मुख एक तरफ रहता, फिर भी चउ दिश में दीख रहा।
यह अतिशय अद्भुत चतुर्मुखी, सब जन-जन का मन मोह रहा।।
मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।
अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।६।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा चतुर्मुखत्व घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सब विद्या के ईश्वर हैं, सब जनता के भी ईश्वर हैं।
सौ इंद्रों से वंदित गुरुवर, मुनिगण से वंद्य निरंतर हैं।।
मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।
अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।७।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वविद्येश्वर घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर केवलज्ञान प्रगट होते, नहिं छाया पड़ती है तन की।
परमौदारिक शुभ देह कहा, दीप्ती से लाजें रविगण भी।।
मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।
अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।८।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अच्छायत्व घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेत्रों की पलवेंâ नहिं झपवेंâ, फिर भी वे अंतर्दृष्टि कहे।
मानों अनिमिष दृग हो करके, करुणा से सब जग देख रहे।।
मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।
अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।९।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अपक्ष्मस्पंदत्व घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के नख केश न बढ़ सकते, यह भी इक अतिशय तुम मानो।
बस पूर्ण ज्ञान के होते ही, त्रैकालिक वस्तु प्रगट जानो।।
मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।
अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।१०।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा समाननखकेशत्व घातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-
जिन आतम गुण ज्ञान को, पूर्ण किया भगवान।
पूरण अघ्र्य चढ़ाय के, मैं पूजूँ धर ध्यान।।११।।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जयमाला
-दोहा-
मोहनीय द्वय आवरण, अंतराय को घात।
ज्ञान दर्श सुख वीर्य गुण, प्राप्त किया निर्बाध।।१।।
-स्रग्विणीछंद-
जै महासौख्य दातार भरतार हो।
जै महानंद करतार भव पार हो।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।२।।
वान व्यंतर भवन वासि औ ज्योतिषी।
कल्पवासी सभी देव ध्याके सुखी।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।३।।
इंद्र धरणेंद्र मनुजेंद्र वंदन करें।
योगि नायक सदा आप गुण उच्चरें।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।४।।
मोह के वश्य हो नाथ मैं दुख सहा।
जो तिहुंलोक में भी भटकता रहा।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।५।।
नर्वâ के दु:ख की क्या कहूँ मैें कथा।
नाथ! तुम केवली सर्व जानो व्यथा।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।६।।
योनि तिर्यंच में काल बीता घना।
दु:ख ही दुख जहाँ सुक्ख का लेश ना।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।७।।
मैं मनुष योनि में सौख्य को चाहता।
विंâतु सब ओर से क्लेश ही पावता।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।८।।।
देवयोनी मिली फिर भी शांती नहीं।
मानसिक और मृत्यू की पीड़ा सही।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।९।।
रत्न सम्यक् बिना मैं भिखारी रहा।
सौख्य की चाह से दु:ख पाता रहा।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।१०।।
नाथ! तुम भक्ति से आज सम्यक् मिला।
कर कृपा दीजिए ज्ञान सूरज खिला।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।११।।
मुक्ति जब तक न हो नाथ! मांगूँ यही।
आपके पाद की भक्ति छूटे नहीं।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।१२।।
बोधि का लाभ हो ‘ज्ञानमति’ पूर्ण हो। सर्व संपति मिले सौख्य परिपूर्ण हो।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना। हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।१३।।
-घत्ता-
जय जय केवल रवि, अतिशय गुणछवि, तुम धुनि किरण प्रकाश करें।
प्रभु समवसरण में, जो तुम प्रणमें, निज सुख कर में शीघ्र धरें।।१४।।
ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशय जिनगुणसंपद्भ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, जिनगुण सुसंपतिव्रत करें।
व्रत पूर्ण कर प्रद्योत हेतू, यज्ञ उत्सव विधि करें।।
वे विश्व में संपूर्ण सुखकर, इंद्र चक्रीपद धरें।
फिर ‘ज्ञानमति’ से पूर्ण गुणमय, तूर्ण शिव लक्ष्मी वरें।।१।।