जिनगुण सम्पत्ति विधान - चतुर्थ वलय की पूजा
अथ स्थापना


--गीताछंद--
जिन जन्म के अतिशय सहज१ दश विश्व में विख्यात हैं।
जो तीर्थकर्ता के अपूरब, पुण्य के फल ख्यात हैं।।
मैं नित्य जिनगुण संपदा को, पूजहूँ अति चाव से।
आह्वान करके अर्चना विधि, मैं करूँ अति भाव से।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हं दशसहजातिशयजिनगुणसंपत् समूह!


अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं दशसहजातिशयजिनगुणसंपत् समूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं दशसहजातिशयजिनगुणसंपत् समूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अथाष्टवंâ-


-गीताछंद-
गंगानदी का नीर निरमल, बाह्य मल शोधन करे।
जिनपाद पंकज२ धार देते, कर्ममल तत्क्षण हरे।।
तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।
निज आत्म सहजानंद३ अनुभव, पाय दुख से छूटते।।१।।

ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।


वर अष्टगंध सुगंध शील, ताप सब तन की हरे।
जिनपाद पंकज पूजते, भव ताप को भी परिहरे।।
तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।
निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।२।।

ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।


उज्ज्वल अखंडित शालि सुरभित, पुंज तुम आगे धरूँ।
निजज्ञान सुख गुण पुंज हेतू, नाथ पद अर्चन करूँ।।
तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।
निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।३।।

ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।


बेला चमेली वुंâद जूही, सर्वदिव्â सुरभित करें।
मदनारि१ जेता जिनचरण, पूजत सुमन सुमनस२ करें।।
तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।
निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।४।।

ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।


अमृत सदृश पकवान नाना, भांति के भर थाल में।
गुण सिंधु जिन पद पूजते, स्वात्मानुभव हो हाल में।।
तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।
निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।५।।

ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।


घृत दीप और कपूर ज्योती, बाह्य तम को परिहरे।
वैâवल्य ज्योती पूजते, निजज्ञान ज्योती अघ हरे।।
तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।
निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।६।।

ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।


कृष्णागरू वरधूप सुरभित, खेवते जिन पास में।
सब दुरितशत्रू दूर भागें, पुण्य सागर पास में।।
तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।
निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।७।।

ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।


अंगूर दाडिम आम्र अमरख, सरस फल अर्पण करूँ।
निज आत्म गुण की प्राप्ति हेतू, आप पद अर्चन करूँ।।
तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।
निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।८।।

ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।


जल गंध तंदुल पुष्प नेवज, दीप धूप फलाघ्र्य ले।
त्रैलोक्यपति के पादसरसिज, पूजते शिवफल मिले।।
तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।
निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।९।।

ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-दोहा-
सकल जगत में शाँतिकर, शांतिधार सुखकार।
जिनपद में धारा करूँ, सकल संघ हितकार।।

शांतये शांतिधारा।


सुरतरु के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिटता दु:ख तुरंत।।

दिव्य पुष्पांजलि:।


अथ प्रत्येक अघ्र्य


-नरेन्द्र छंद-
तीर्थंकर के जन्म काल से, स्वेद१ न तन में जानो।
मातु उदर से जन्में फिर भी, जन्म अपूरब मानो।।
अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।
रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।१।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा नि:स्वेदत्व सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


तीर्थंकर के निर्मल तन में, मल-मूत्रादि न होवें।
प्रभु के गुण का नाम मंत्र भी, भव भव का मल धोवे।।
अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।
रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।२।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा निर्मलत्व सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


तीर्थंकर के जन्म समय से, तन में रुधिर१ नहीं है।
दुग्ध सदृश है धवल रुधिर जो, अतिशय सहज सही है।।
अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।
रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।३।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा क्षीरगौररुधिरत्व सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु के तन की सुन्दर आकृति२, समचतुरस्र बखानी।
नाम कर्म ब्रह्मा ने सचमुच, अनुपम रचना ठानी।।
अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।
रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।४।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा समचतुरस्रसंस्थान सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


वङ्कावृषभनाराच संहनन, उत्तम प्रभु का जानो।
परमपुण्यमय अद्भुत तन को, गुण गाकर भव हानो।।
अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।
रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।५।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा वङ्कावृषभनाराचसंहनन सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


अतिशय सुन्दर रूप मनोहर, उपमा रहित सुहाता।
इन्द्र हजार नेत्र कर निरखे, तो भी तृप्ति न पाता।।
अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।
रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।६।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सौरूप्य सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


तीर्थंकर के अनुपम तन में, अति सौगंध्य सुहावे।
इस गुण का अर्चन करके जन, यश सुरभी महकावें।।
अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।
रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।७।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सौगन्ध्य सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


एक हजार आठ लक्षण शुभ, प्रभु के तन में भासें।
एक एक लक्षण की पूजा, जिन लक्षण परकाशे।।
अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।
रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।८।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सौलक्षण्य सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


बल अतुल्य तीर्थंकर तन का, तुलना नहीं जगत में।
इस गुण की पूजा करने से, आतम बल हो क्षण में।।
अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।
रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।९।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अप्रमितवीर्य सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रियहित वचन प्रभू के अनुपम, अमृतसम सुखदायी।
सरस्वती ने मुक्तवंâठ से, जिनगुण महिमा गायी।।
अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।
रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।१०।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा प्रियहितवादित्व सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-
तीर्थंकर शिशु के सहज, दश अतिशय अभिराम।
पूरण अघ्र्य चढ़ाय मैं, पूजूँ विश्वललाम।।११।।

ॐ ह्रीं दश सहजातिशय जिनगुणसंपद्भ्य: पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतये शांतिधारा।


दिव्य पुष्पांजलि:।


जयमाला


-दोहा-
त्रिभुवन जन उद्धार की, करुण भावना चित्त।
तीर्थंकर पद पावते, गाऊँ तिन गुण नित्त।।१।।

चाल-हे दीनबंधु..............
जैवंत तीर्थमंत अतुल गुणनिधी भरें।
जैवंत देहमंत दश अतिशय सहज धरें।।
जो नाथ के इन अतिशयों की अर्चना करें।
लोकातिशायि१ पुण्य की उपार्जना करें।।२।।

तन में न पसीना-नहीं मल मूत्र हो कभी।
पयसम२ रुधिर हो समचतुष्क३ सौम्य आकृती।।
होता है वङ्का वृषभमय नाराच संहनन।
महिमानरूप तनसुगंध सहज सुलक्षण।।३।।

परिमाण१ रहित वीर्य हो प्रियहितकरी वाणी।
भविजन के जन्म रोग नाश हेतु कल्याणी।।
दश जन्म के अतिशय त्रिलोक पूज्य कहाते।
मुक्त्यंगना का आप में आकर्ष बढ़ाते।।४।।

सब लोक औ अलोक का साम्राज्य दिलाते।
फिर अंत में त्रैलोक्य के मस्तक पे बिठाते।।
सद्गुण अनंतानंत से भण्डार भराते।
आनन्त्य काल सौख्य सुधा२ पान कराते।।५।।

मैं भक्ति भाव से गुणों की अर्चना करूँ।
अपने गुणों की प्राप्ति हेतु वंदना करूँ।।
हे नाथ! तुम प्रसाद से अब जन्म ना धरूँ।
बस ‘ज्ञानमती’ पूरिये अभ्यर्थना करूँ।।६।।

-घत्ता-
तीर्थंकर गुणगण, अनुपम निधि मणि, जो भविजन निजवंâठ धरें।
सो शिवरमणी वर, अनुपमसुखकर, जिनगुणसंपति शीघ्र वरें।।७।।

ॐ ह्रीं जन्मसंबंधि दशसहजातिशय जिनगुणसंपद्भ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शांतये शांतिधारा।


दिव्य पुष्पांजलि:।


-गीता छंद-
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, जिनगुणसुसंपति व्रत करें।
व्रतपूर्णकर प्रद्योत हेतू, यज्ञ उत्सव विधि करें।।
वे विश्व में संपूर्ण सुखकर, इंद्र चक्रीपद धरें।
फिर ‘ज्ञानमति’ से पूर्ण गुणमय, तूर्ण शिव लक्ष्मी वरें।।१।।