जिनगुण सम्पत्ति विधान - तृतीय वलय पूजा
अथ स्थापना


--गीताछंद--
शुभ प्रातिहार्य सुआठ जिनगुण-संपदा सूचित करें।
तीनों जगत की ऋद्धियाँ, इस भांति से प्रभु को वरें।।
आनंदवंâद महान परमानंद अमृत विस्तरें।
जो भव्यजन उन पूजते, वे स्वात्मरस अमृत भरें।।१।।

ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपत् समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।


ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपत् समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपत् समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथाष्टक (अडिल्लछंद)-
सुरगंगा१ को नीर कनक झारी भरूँ।
श्री जिनवर पद पूज, व्यथा सारी हरूँ।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।१।।

ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।


अष्टगंध वर सुरभित चंदन लाइया।
सकल तापहर जिनवर चरण चढ़ाइया।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।२।।

ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।


उत्तम अक्षत धोय अखंडित लाइया।
कर्म पुंज क्षय हेतू पुंज रचाइया।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।३।।

ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।


मौलसिरी औ पारिजात सुम लायके।
पूजूं श्री जिनपादपद्म हरषाय के।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।४।।

ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।


घेवर पेâनी बरफी मोदक१ आदि ले।
स्वातम अनुभव हेतु जजूँ तुम पद भले।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।५।।

ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।


कनक पात्र में दीप जलाकर लाइया।
अंतर ज्योती हेतु जिनेश्वर ध्याइया।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।६।।

ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।


धूप सुगंधित अग्नि पात्र में खेवते।
कर्म शत्रु को नाश करूँ तुम सेवते।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।७।।

ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।


केला एला दाडिम आदिक फल लिये।
मोक्ष महाफल हेतु नाथ पद अर्चिये।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।८।।

ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।


जल गंधादिक अघ्र्य मिलाकर थाल में।
तीर्थंकर पदपद्म जजूँ त्रयकाल मैं।।
प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।
जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।९।।

ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-दोहा-
सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।
जिनपद में धारा करूँ, सकलसंघ हितकार।।

शांतये शांतिधारा।


सुरतरु१ के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिटता दु:ख तुरंत।।

दिव्य पुष्पांजलि:।


अथ प्रत्येक अघ्र्य


-शंभु छंद-
विकसित२ पुष्पों के गुच्छों से, तरुवर अशोक है शोभ रहा।
रत्नों की अनुपम कांती से, जन-जन के मन को मोह रहा।।
भविजन के मन का शोक हरे, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।
हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।१।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


सुर द्वारा नभ१ से वर्षाये, ये खिले कुसुम मानों हँसते।
श्री जिनवर का शुभ उज्ज्वल यश, मानों प्रमुदित वर्णन करते।।
भविजन के मन को विकसाता, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।
हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।२।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा सुरपुष्पवृष्टिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जो सात शतक औ अट्ठारह, भाषामय जिनवर की वाणी।
जो स्याद्वाद पीयूष भरी, दिव्यध्वनि त्रिभुवन कल्याणी।।
नित भविजन के भवरोग हरे, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।
हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।३।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा दिव्यध्वनिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


यक्षों द्वारा ढोरे जाते, ये चौंसठ चमर बताते हैं।
जो श्री जिन आश्रय लेते हैं, वे निश्चित ऊपर जाते हैं।।
भविजन को ऊध्र्वगतीकारी यह प्रातिहार्य महिमाशाली।
हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।४।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा चतु:षष्टि चामर महाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाना रत्नों से जड़ा हुआ, सिंहासन सुर नर मन मोहे।
प्रभु के तन की कांती से वह, शतगुणित चमकता नित सोहे।।
अनुपम वैभव को प्रगट करे, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।।
हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।५।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा सिंहासनमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु के तन की द्युति ही मानो, भामंउल बन कर प्रागट हुई।
जन उसमें अपने सात भवों, को देख रहे हैं सही सही।।
भविजन वैराग्य बढ़ाने को, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।
हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।६।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा भामंडलमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


देवों की दुंदुभि बाज रही, मानो भविजन आह्वान करें।
आवो आवो हे भव्य जीव, जिनदर्शन कर निज भान करें।।
श्री जिन का गौरव प्रगट करे, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।
हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।७।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा देवदुंदुभिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


ये तीन छत्र शशि मंडल१ सम, उनमें मुक्ता फल लटक रहे।
जिन देव देव के त्रिभुवन की, प्रभुता को मानो प्रगट कहें।।
भविजन का तीन२ ताप शामक३, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।
हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।८।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा छत्रत्रयमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-
तीर्थंकर के आठ ये, प्रातिहार्य जग सिद्ध।
पूजूँ पूरण अघ्र्य ले, पाऊँ जिनगुणरिद्ध।।९।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अष्टमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शांतये शांतिधारा।


दिव्य पुष्पांजलि:।


जयमाला


-दोहा-
परमशुद्ध परमात्मा, परमपुण्य की खान।
तुम गुणमणि माला कहूँ, स्वात्म सौख्य हित जान।।१।।

-अशोक पुष्प मंजरी छंद-
नाथ आप को निहार चर्म नेत्र से तथापि, हर्ष हो महान् तीन लोक में न मावता।
ज्ञान नेत्र से यदी विलोक१ लूं जिनेश आप, तो पुन: कियंत२ हर्ष हो न पार पावता।।
आप ही अनंत सौख्य राशि तेज पुंज देव, आप ही त्रिलोक में अपूर्व कांतिमान हो।
योगिवृंद चित्तपद्म३ के विकास हेतु सूर्य, भव्यस्वांत४ कौमुदी विकास हेतु चांद हो।।१।।

आपकी अनक्षरी५ ध्वनी सुनें अनंत भव्य, चित्त में धरें सदैव जन्म रोग टारते।
आप नाम मात्र को जपें यदी स्वचित्त में, अनंत दु:ख वार्धि से निजात्म को उबारते।।
आप ज्ञान हैं महान् तीन लोक के समान, हों असंख्य लोक तो भी एक कोण में रहें।
सत्य में अनंत औ अनंत मान अभ्र६ भी, निलीन७ आप ज्ञान में विशालता किती कहे।।२।।

आप भक्त के समीप सर्व सौख्य आय के, अहं प्रथम८ अहं प्रथम कि बुद्धि से हि धावते,
कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतितार्थ दायिरत्न९, आपकी अचिन्त्य शक्ति देख के लजावते।।
सर्व सिद्धि दायिनी जिनेन्द्र भक्ति एक ली, समस्त दु:ख चूरणी धरा१ विषे प्रसिद्ध है।
साधु वृंद के अनेक चित्त के विकल्प को, क्षणेक में निवारणे अमोघ२ शस्त्र सिद्ध है।।३।।

आप कीर्ति बार बार शास्त्र में सुनी अत:, जिनेन्द्रदेव! आज आप शर्ण३ आन के लिया।
तारिये न तारिये जंचे प्रभो सुकीजिये, प्रमाण आप ही मुझे स्वचित्त में दृढ़ी किया।।
आज जो दयानिधान! भक्त पे दयाद्र्रभाव, कीजिये उबारिये अनंत दु:ख सिंधु से।
ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य संपदा निजात्म की जु, मोहशत्रु से अभी दिलाय दीजिए मुझे।।४।।

-दोहा-
प्रातिहार्य गुण के धनी, सिद्धि वधू के कांत।
‘ज्ञानमती’ सुख पूर्ण कर, करिये पूर्ण प्रशांत।।५।।

ॐ ह्रीं अर्हं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्यो जयमाला अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शांतये शांतिधारा।


दिव्य पुष्पांजलि:।


-गीताछंद-
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से जिनगुणसुसंपति व्रत करें।
व्रत पूर्ण कर प्रद्योत हेतू यज्ञ उत्सव विधि करें।।
वे विश्व में संपूर्ण सुखकर इंद्रचक्री पद धरें।
फिर ‘ज्ञानमति’ से पूर्ण गुणमय तूर्ण शिवलक्ष्मी वरें।।१।।