जिनगुण सम्पत्ति विधान - द्वितीय वलय पूजा
अथ स्थापना


--गीताछंद--
वरपंच कल्याणक जगत् में, सर्वजन से वंद्य हैं।
त्रैलोक्य में अति क्षोभ कर, सुर इन्द्रगण अभिनंद्य हैं।।
मैं पंचमी१ गति प्राप्ति हेतू, पंच कल्याणक जजूँ।
आह्वाननादी विधि करूँ, संपूर्ण कल्याणक भजूँ।।१।।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।


-अथाष्टक (भुजंग प्रयात छंद)-
पयोसिंधु को नीर झारी भराऊँ।
प्रभो आपके पाद धारा कराऊँ।।
महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।
महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।१।।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।


सुगंधीत चंदन कपूरादि वासा।
चढ़ाते तुम्हें सर्व संताप नाशा।।
महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।
महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।२।।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।


पयोराशि२ के पेâन सम तंदुलों को।
चढ़ाऊँ तुम्हें सौख्य अक्षय मिले जो।।
महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।
महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।३।।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।


जुही केवड़ा चंपकादी सुमन हैं।
तुम्हें पूजते काम व्याधी शमन है।।
महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।
महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।४।।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।


कलावंâद लाडू भरा थाल लाऊँ।
क्षुधा डाकिनी नाश हेतू चढ़ाऊँ।।
महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।
महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।५।।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।


मणीदीप ज्योती भुवन को प्रकाशे।
करूँ आरती मोह अंधेर नाशे।।
महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।
महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।६।।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।


अगनि पात्र में धूप खेऊं दशांगी।
करम धूम्र पैâले चहुँदिक सुगंधी।।
महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।
महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।७।।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।


नरंगी मुसम्बी अनंनास लाऊँ।
महामोक्षफल हेतु आगे चढ़ाऊँ।।
महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।
महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।८।।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।


जलादी वसूद्रव्य से थाल भरके।
चढ़ाऊँ तुम्हें अघ्र्य संसार उर के।।
महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।
महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।९।।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो अनघ्र्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-दोहा-
सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।
जिनपद में धारा करूँ, सकल संघ हितकार।।१०।।

शांतये शांतिधारा।


सुरतरु के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिटता दु:ख तुरंत।।११।।

दिव्य पुष्पांजलि:।


अथ प्रत्येक अघ्र्य
-गीताछंद-
छह मास पहले गर्भ आगम१, से रतन बरसें यहाँ।
छप्पन कुमारी देवियाँ, जिनमात को अर्चें यहाँ।।
सोलह सुपन से गर्भ मंगल, सूचना होती यहाँ।
हम गर्भ कल्याणक जजें, वसु अघ्र्य ले कर में यहाँ।।१।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा स्वर्गावतरणगर्भकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जिन जन्म से सुरलोक में, घंटादि बाजे बज उठें।
जिन जन्म उत्सव के लिए, इन्द्रादि आसन वँâप उठें।।
सुरशैल२ पर अभिषेक कर, प्रभु को पुन: लाते यहाँ।
हम जन्म कल्याणक जजें, वसु अघ्र्य ले कर में यहाँ।।२।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा जन्माभिषेककल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


भव भोग तनु से हो विरत, द्वादश अनुप्रेक्षा करें।
लौकांतिकों का संस्तवन, सुन नाथ फिर दीक्षा धरें।।
इन्द्रादि सुरगण कर रहे, दीक्षा महोत्सव विधि यहाँ।
हम निष्क्रमण१ कल्याण पूजें, अघ्र्य ले कर में यहाँ।।३।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा परिनिष्क्रमणकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु शुक्ल ध्यानानल२ जला, सब घातिया को ज्वालते।
वैâवल्य लक्ष्मी पाय के, द्वादश गणों में राजते।।
निज दिव्य ध्वनि पीयूष से, भवि खेत को सींचें यहाँ।
हम ज्ञानकल्याणक जजें, वसु अघ्र्य ले कर में यहाँ।।४।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा केवलज्ञानकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


यमराज३ को जड़मूल से, संहार कर शिवपति बने।
स्वात्मोत्थ४ परमाल्हाद सुख, संतृप्त त्रिभुवनपति बने।।
निर्वाण कल्याणक महोत्सव, सुर तभी करते यहाँ।
हम मोक्षकल्याणक जजें, वसु अघ्र्य ले कर में यहाँ।।५।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा निर्वाणकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-दोहा-
गर्भ जन्म तप ज्ञान अरू, कल्याणक निर्वाण।
पाँचों को पूर्णाघ्र्य ले, पूजूँ हो कल्याण।।६।।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्य: पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।



जयमाला


-सोरठा-
परम पुण्यमय तीर्थ, तीर्थंकर तिहुँलोक में।
शरण गही धर प्रीति, कर्म पंक प्रक्षालने।।१।।

-रोला छंद-
छह महिने ही पूर्व, पृथ्वी पर आने से।
अतिशय पुण्य प्रभाव, दिव से च्युति पाने से।।
रत्न बरसते नित्य, नभ से पंद्रह मासा।
श्री ह्री देवी आदि, सेव करें जिनमाता।।१।।

सोलह स्वप्न प्रदर्श, मात गरभ जब बसते।
इन्द्रादिक सुर आय, गर्भ महोत्सव करते।।
मति श्रुत अवधि सुज्ञान, तुमको नित्य रहे हैं।
गर्भ विषे भी आप, सुख से तिष्ठ रहे हैं।।२।।
जन्म समय तत्काल, इन्द्रन आसन वंâपे।
नमन करें तत्काल, सुरगण तुम गुण जंपे।।
जिनशिशु सद्योजात१ मेरु शिखर ले जाके।
इन्द्र करें अभिषेक, उत्सव अधिक रचाके।।३।।
स्वर्गों के ही वस्त्र, भोजन आदि सुखन में।
बाल्य समय सुरसंग, खेलें मात अंगन में।।
जब होवे वैराग्य, लौकांतिक सुर आते।
जिनगुणमंगलकीर्ति, गाकर पुण्य कमाते।।४।।
पुन: इन्द्रगण आय, परिनिष्क्रमण२ मनावें।
महामहोत्सव साज, करके पुण्य बढ़ावें।।
प्रभू महाव्रतधार, आतम ध्यान धरे हैं।
कर्म घातिया चूर, केवलज्ञान वरे हैं।।५।।
समवसरण रच देव, ज्ञान कल्याणक पूजें।
जब जिन करत विहार, जनमनपावन हूजें।।
भव्य अनंतानंत, धर्मामृत को पीते।
जन्म मरण की व्याधि, नाश करमरिपु जीतें।।६।।

जिनवर योग निरोध, करके कर्म जलावें।
तत्क्षण शिवतिय संग, लोक शिखर पर जावें।।
सकलसुरासुर आय, मोक्षकल्याणक पूजें।
जिनपद पंकज पूज, भविजन अघरिपु१ धूजें।।७।।

इसविध पंचकल्याण, जिनगुण नित्य जजूँ मैं।
पंचभ्रमण२ चकचूर३, सर्वकल्याण भजूँ मैं।।
परमसुखास्पद४ धाम, परमानंदस्वरूपी।
‘ज्ञानमती’ से पूर्ण, पाऊँ मैं चिद्रूपी।।८।।

-दोहा-
पंच महाकल्याणमय, जिनगुणसंपद जान।
जो जन पूजें भाव से, लहें सौख्य निर्वाण।।९।।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणक जिनगुणसंपद्भ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।