जिनगुण सम्पत्ति विधान - प्रथम वलय पूजा
अथ स्थापना


--गीताछंद--
दर्शनविशुद्धी आदि सोलह, भावना भवनाशिनी।
जो भावते वे पावते, अति शीघ्र ही शिवकामिनी१।।

हम नित्य श्रद्धा भाव से, इनकी करें आराधना।
पूजा करें वसुद्रव्य२ ले, करके विधीवत् थापना।।१।।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनासमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनासमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।


-अथाष्टक-
चाल-चौबीसों श्री जिनचंद.....
पयसागर३ को जल स्वच्छ, हाटक४ भृंग भरूँ।
जिनपद में धारा देत, कलिमल दोष हरूँ।।
वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।
जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।१।।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो जन्मजरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।


मलयज५ चंदन कर्पूर, केशर संग घिसा।
जिनगुण पूजा कर शीघ्र, भव भव दु:ख पिसा।।
वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।
जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।२।।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।


उज्ज्वल शशि रश्मि समान, अक्षत धोय लिये।
अक्षय पद पावन हेतु, सन्मुख पुंज दिये।।
वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।
जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।३।।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।


चंपक सुम१ हरसिंगार, सुरभित भर लीने।
भवविजयी२ जिनपद अग्र, अर्पण कर दीने।।
वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।
जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।२।।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।


नानाविध घृत पकवान, अमृत सम लाऊँ।
निज क्षुधा निवारण हेतु, पूजत सुख पाऊँ।।
वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।
जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।५।।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।


वंâचनदीपक की ज्योति, दशदिश ध्वाँत३ हरे।
जिन पूजा भ्रमतम टार, भेद विज्ञान करे।।
वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ४ बनें।
जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।६।।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।


कृष्णागरु धूप सुगंध, खेवत धूम्र उड़े।
निज अनुभव सुख से दुष्ट, कर्मन भस्म उड़े।।
वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।
जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।७।।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।


पिस्ता अखरोट बदाम, एला थाल भरे।
जिनपद पूजत तत्काल, सब सुख आन वरें।।
वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।
जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।८।।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।


जल चंदन अक्षत पुष्प, नेवज दीप लिया।
वर धूप फलों से पूर्ण, तुम पद अघ्र्य दिया।।
वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।
जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।९।।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो अनघ्र्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-दोहा-
सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।
झारी से धारा करूँ, सकल संघ हितकर।।१०।।

शांतये शांतिधारा।


वुंâद कमल बेला वकुल, पुष्प सुगंधित लाय।
जिनगुण हेतू मैं करूँ, पुष्पांजलि सुखदाय।।११।।

दिव्य पुष्पांजलि:।


अथ प्रत्येक अघ्र्य - चाल-मेरी भावना.........
जो पचीस मल दोष विवर्जित, आठ अंग से पूर्ण रहा।
भक्ती आदी आठ गुणों युत, सम्यग्दर्शन शुद्ध कहा।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा दर्शनविशुद्धिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


दर्शन ज्ञान चरित्र तथा, उपचार विनय ये चार कहें।
इनसे सहित सदा जिनवचरत, भविजन शिव का द्वार लहें।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।२।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा विनयसंपन्नताभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शील और व्रत के पालन में, निरतिचार जो रहें सदा।
सहसअठारह शीलपूर्णकर, निजआतमरत रहें सदा।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।३।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जो संतत ही चार तरह के, अनुयोगों१ का मनन करें।
पढ़ें पढ़ावें गुणें गुणावें, वे ही श्रुतमय तीर्थ करें।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।४।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


भवतन भोगविरागी होकर, सत्यधर्म में प्रेम करें।
वे संवेग भावना बल से, स्वात्मसुधारसपान करें।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।५।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा संवेगभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


यथाशक्ति जो चार दान औ, रत्नत्रय का दान करेंं।
वे प्राणी वर त्यागधर्म से, सुखमय केवलज्ञान वरें।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।६।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शक्तितस्त्यागभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


अनशन आदी बाह्यतपों को, यथाशक्ति रुचि सहित करें।
प्रायश्चित्त विनय वैयावृत, आदिक से मन शुद्ध करें।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।७।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शक्तितस्तपोभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


साधूजन मन समाधान कर, धर्म-शुक्ल में अचल करें।
साधुसमाधी पालन करके, तीर्थंकर पद अमल करें।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।८।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा साधुसमाधिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रासुक औषधि आदि वस्तु से, मुनि की वैयावृत्य करें।
संयम साधक, मन को रुचिकर, सेवा कर बहुपुण्य भरें।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।९।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा वैयावृत्यकरणभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


छ्यालिस गुण धर दोष अठारह, शून्य प्रभू अर्हंत कहे।।
समवसरण में राजित जिनवर, उनकी भक्ती नित्य रहे।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१०।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अर्हद्भक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


पंचाचार स्वयं पालें नित, शिष्यों को भी पलवावें।
शिक्षा दीक्षा प्रायश्चित दे, सूरी सबके मन भावें।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।११।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा आचार्यभक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


द्वादशांगमय श्रुत के ज्ञाता, श्रुतपारंगत गुरू कहें।
अथवा तत्कालिक१ पूरण श्रुत, जाने बहुश्रुत गुरू रहें।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१२।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा बहुश्रुतभक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जिनवर भाषित प्रवचन में रत, प्रवचन भक्ति धरें मन में।
अथवा चतु:संघ२ भक्ती में, रत जो उन पद पूजूँ मैं।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१३।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा प्रवचनभक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


आवश्यक३ की हानि न करते, समय-समय निज क्रिया करें।
षट् आवश्यक के बल निश्चय, आवश्यक को पूर्ण करें।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१४।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा आवश्यकापरिहाणिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शिवपुर मार्ग प्रभावन करते, विद्या, तप दानादिक से।
मार्गप्रभावन भावना भाकर, निज आतम पावन करते।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१५।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा मार्गप्रभावनाभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रवचन में वत्सलता धारें, जिनवच रत में प्रीति धरें।
चार संघ में गाय वत्सवत्, सहज प्रेम भव भीति हरे।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१६।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा प्रवचनवत्सलत्वभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-पूर्णाघ्र्य-
सोलह कारण भावन जग में, पुण्य सातिशय की जननी।
तीर्थंकर पद की कारण हैं, निश्चित भवसागर तरणी।।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१७।।

ॐ दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनाभ्यो जिनगुणसंपद्भ्यो मुक्तिपदकारणस्वरूपाभ्य: पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।



जयमाला


-दोहा-
स्वातम रस पीयूष से, तृप्त हुए जिनराज।
सोलह कारण भावना, भाय हुये सिरताज।।१।।

--सोमवल्लरी छंद (चामर छंद)--
दर्श की विशुद्धि जो पचीस दोष शून्य है।
आठ अंग से प्रपूर्ण सप्त१ भीति शून्य है।।
सत्य ज्ञान आदि तीन रत्न में विनीत जो।
साधुओं में नम्रवृत्ति धारता प्रवीण वो।।१।।

शील में व्रतादि में सदोषवृत्ति२ ना धरेंं।
विदूर३ अतीचार से तृतीय भावना धरें।।
ज्ञान के अभ्यास में सदैव लीनता धरें।
भावना अभीक्ष्ण ज्ञान मोहध्वांत को हरें।।२।।

देह मानसादि दु:ख से सदैव भीरुता।
भावना संवेग से समस्त मोह जीतता।।
चार संघ को चतु: प्रकार दान जो करें।
सर्व दु:ख से छुटें सुज्ञान संपदा भरें।।३।।

शुद्ध तप करें समस्त कर्म को सुखावते।
साधु की समाधि में समस्त विघ्न टारते।।
रोग कष्ट आदि में गुरूजनों कि सेव जो।
प्रासुकादि औषधी सुदेत पुण्यहेतु जो।।४।।

भक्ति अरीहंत, सूरि, बहुश्रुतों१ की भी करें।
प्रवचनों की भक्ति भावना से भवदधी तरें।।
छै क्रिया अवश्य करण योग्य काल में करें।
मार्ग२ की प्रभावना सुधर्म द्योत३ को करें।।५।।

वत्सलत्व४ प्रवचनों में धर्म वात्सल्य है।
रत्नत्रयधरों में सहज प्रीति धर्म सार है।।
सोलहों सुभावना पुनीत भव्य को करें।
तीर्थनाथ संपदा सुदेय मुक्ति भी करें।।६।।

वंदना करूँ पुन: पुन: करूँ उपासना।
अर्चना करूँ पुन: पुन: करूँ सुसाधना।।
मैं अनंत दु:ख से बचा चहूँ प्रभो! सदा।
ज्ञानमती संपदा मिले अनंत सौख्यदा।।७।।
-दोहा-
तीर्थंकर पद हेतु ये, सोलह भावन सिद्ध।
जो जन पूजें भाव से, लहें अनूपम सिद्धि।।८।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध््यादिषोडशकारणभावनाभ्यो जयमाला पूणाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-गीताछंद-
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, जिनगुण सुसंपति व्रत करें।
व्रत पूर्ण कर प्रद्योत हेतू, यज्ञ उत्सव विधि करें।।
वे विश्व में संपूर्ण सुखकर, इन्द्र चक्री पद धरें।
फिर ज्ञानमति से पूर्ण गुणमय, तूर्ण शिवलक्ष्मी वरें।।१।।