।। जैन मूर्तिकला ।।
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चक्रेश्वरी, पद्यावती आदि यक्षियों की मूर्तियां

जैन मूर्तिकला में तीर्थंकरों के अतिरिक्त प्रत्येक तीर्थंकर के अनुशंगी एक यक्ष और एक यक्षिणी माने गये हैं। आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ की यक्षिणी का नाम चक्रेश्वरी है। इस देवी की एक ढाई फुट ऊंची पाषाण मूर्ति मथुरा संग्रहालय में विराजमान है। यह मूर्ति एक गरूड़ पर आधारित आसन पर स्थित है। मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले में ही कटनी के समीप विलहरी ग्राम के लक्ष्मणसागर के तट पर एक मंदिर में चक्रेश्वरी की मूर्ति खैरामाई के नाम से ूपजी जा रही है, किंतु मूर्ति के मस्तक पर जो आदिनाथ की प्रतिमा है, वह उसे स्पष्टतः जैन परम्परा की घोषित कर रही है। चक्रेश्वरी की मूर्तियां देवगढ के मंदिरों में भी पाई गई हैं। श्रवणवेलगोला (मैसूर) के चन्द्रगिरि पर्वत पर शासन-बस्ति नामक आदिनाथ के मंदिर के द्वार पर आज-बाज गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी यक्षी की सुंदर प्रतिमाएं हैं। यह मंदिर लेखानुसार श्ज्ञक स. 1049 (1117 ई.) से पूर्व बन चुका था। वहां के अन्यान्य मंदिरों में नाना तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षियों की प्रतिमाएं विद्यमान हैं। पद्मावती की इससे पूर्व व पश्चातकालीन मूर्तियां जैन मंदिरों में बहुतायत से पाई जाती हैं। इनमें खंडगिरि (उडीसा) की एक गुफा मूर्ति सबसे प्राचीन प्रतीत होती है। नालंदा व देवगढ़ की मूतियां 7वी-8वीं शती की हैं।

अम्बिका देवी की मूर्ति

तीर्थकरों के यक्ष-यक्षिणियों में सबसे अधिक मूर्तियां नेमिनाथ की यक्षिणी अम्बिका देवी की पाई जाती है। इस देवी की सबसे प्राचीन व विख्यात मूर्ति गिरनार (ऊर्जयन्त) पर्वत की अम्बादेवी नामक टोंक पर है। इस देवी की एक उल्लेखनीय पाषाण प्रतिमा 1 फुट 9 इंज ऊंची मथुरा संग्रहालय में है। अम्बिका एक वृक्ष के नीचे सिंह पर स्थित कमलासन पर विराजमान है। बायां पैर ऊपर उठाया हुआ व दाहिना पृथ्वी पर हैं दाहिने हाथ में फलों का गुच्छा है व बायां हाथ बायीं जंघा पर बैठे हुए बालक को सम्हाले है। बालक वक्षस्थल पर झूलते हुए हार से खेल रहा है। अधोभाग वस्त्रालंकृत है और ऊपर वक्षस्थल पर दोनों स्कंधों से पीछे की ओर डाली हुई ओढ़नी है। सिर पर सुन्दर मुकुट है, जिसके पीछे शोभनीक प्रभावल भी है। अम्बिका की ऐसी मूर्तियां उदयगिरि-खंडगिरि की नवमुनि-गुफा तथा ढंक की गुफाओं में भी पाई जाती है। इनमें इस मूर्ति के दो ही हाथ पाये जाते हैं, जैसा कि ऊपर वर्णित मथुरा की गुप्तकालीन प्रतिमा में भी है। किंतु दक्षिण में जिनकांची के एक जैन मठ की दीवाल पर चित्रित अम्बिका चतुर्भुज है। उसके दो हाथों में पाश और अंकुश हैं तथा उन्य दो हाथ अभय और वरद मुद्रा में है। वह आम्रवृक्ष के नीचे पद्मासन विराजमान है, और पास में बालक भी है। मैसूर राज्य के अंगडि नामक स्थान के जैन मंदिर में अम्बिका की द्विभुज-मूर्ति खड़ी हुई बहुत सुंदर है। उसकी त्रिभंग शरीराकृति कलात्मक और लालित्यपूर्ण हैं देवगढ़ के मंदिर में तथा आबू के विमल-वसही में भी अम्बिका की मूर्ति दर्शनीय है।

सरस्वती की मूर्ति

मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त सरस्वती की मूर्ति एक फुट साढे नौ इंच ऊंची हैं देवी चैकोर आसन पर विराजमान हैं सिर खंडित है। बायें हाथ में सूत्र से बंधी हुई पुस्तक है। दाहिना हाथ खंडित है। किंतु अभय मुदा्र में रहा प्रतीत होता है। इसका काल 78. 54 त्र 132 ई. कुषाण राजा हुविष्क के समय में पड़ता है। जैन परम्परा में सरस्वती की पूजा कितनी प्राचीन है, यह इस मूर्ति और उसके लेख से प्रमाणित होता हैं सरस्वती की इतनी प्राचीन प्रतिमा अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं हुई। देवगढ़ के 19वें मंदिर के बाहिरी बरामदे मेें सरस्वती की खड़ी हुई चतुर्भुज मूर्ति है, जिसका काल वि.स. 1126 के लगभग सिद्ध होता है। राजपूताने में सिरोही जनपद के अजारी नामक स्थान के महावीर जैन मंदिर में प्रतिष्ठित मूर्ति के आसन पर वि.स. 1269 खुदा हुआ है। यह मूर्ति कहीं द्विभुज, कहीं चतुर्भुज, कहीं मयूरवाहिनी और कहीं हंसवाहिनी पाई जाती है। एक हाथ में पुस्तक अवश्य रहती है। अन्य हाथ व हाथों में कमल, अक्षमाला और वीणा अथवा इनमें से कोई एक या दो पाये जाते है अथवा दूसरा हाथ अभय मुदा्र में दिखाई देता है। धवलाटीका के कत्र्ता वीरसेनाचार्य ने इस देवी की श्रुतदेवता के रूप में वन्दना की है, जिसके द्वादशांग वाणीरूप बारह अंग हैं, सम्यग्दर्शनरूप तिलक है, और उत्तम चारित्ररूप आभूषण है। आकोटा से प्राप्त सरस्वती की धातु-प्रतिमा (11 वीं शती से पूर्व की बडौदा संग्रहालय में) द्विभुजा खड़ी हुई है। मुख-मुदा्र बड़ी प्रसन्न है। मुकुट का प्रभावल भी है। ऐसी ही एक प्रतिमा वसंतगढ़ से भी प्राप्त हुई है।

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