उत्तम क्षमा धर्म

मंगलाचरण

स जयति जिनदेवः सर्वविद् विश्वनाथो,
वितथवचन हेतु क्रोधलोभादि मुक्तः।
शिवपुरपापान्थ-प्राणि पाथेयमुच्चैः,
जनितपरमशर्मा येन धर्मोऽभ्य धायि।।1।।

अर्थ- असत्य वचन के कारण क्रोध लोभ आदि से रहित तीन लेक के नाथ भगवान जिनेन्द्र जयवन्त हों, जिन्होंने मोक्षमार्ग में चलने वाले प्राणियों के लिए पाथेय स्वरूप (नास्ता) उत्कृष्ट सुख दायी धर्म का कथन किया है।

jain-img80

क्षान्ति - सति सामथ्र्यें जड़जकनकृत दुर्वचनादीन् आमर्षणं क्षान्ति। तपोबृंहणकारणशरीरस्थिति निमित्तं विरवद्याहारान्वेषणायर्थं परगृहणि भिक्षोंर्दुष्ट मिथ्यादृग् जनाक्रोशनात् प्रहसनाऽनुताडन यष्टिमुष्टिप्रहारशरीर व्यापादनादीनां क्रोधोत्पत्ति निमित्तानां सन्निधाने (सति) कालुष्याभावः क्षमा सदैव कर्तव्या। असंयतै र्मिथ्यादृक् शतुदुष्टाद्यैरूपद्रवे सत्यपि अपकीर्तिभयात् ताड़ नादिकं सह्यते तदिहलोकार्थं भवि परमार्थंसिद्धये न भवि। अपकीर्तिभयात् ताड़नादिसनरूप या क्षमा सा तु सामान्रूपुरूषाऽऽश्रिता प्रोक्ता, किंतु आसीविषर्द्धि, दुष्टिविषद्ध्र्यादीनां सामथ्र्ये सत्यपि महात्मभिः प्राणनाशकरों दुर्जनैः कृतघोरोपसर्गो यः सह्यतें सा धर्मरत्नखनिः उत्तमक्षमा उक्ता। क्षम्यते क्षमते वा या सा क्षमा सहनशीलता। प्रकृष्टप्रशमः क्षमाधर्मः तथा चोक्तं।

अर्थ- सामथ्र्य के होने पर भी मूर्खजनों द्वारा कथित दुर्वचन आदि को सहना, क्षमा है। तप की वृद्धि का कारण शरी की स्थ्ती के निमित्त निर्दोष आहार खोजने के लिये दूसरों के घर जाते हुए मुनि को दुष्ट मिथ्यादृष्टि जनों के आक्रोश, हंसी, अवज्ञा, पीड़ा, लाठी मुठ्ठी के प्रहार से शरीर के पीडि़त कये जाने पर क्रोध की उत्पत्ति के निमित्तों के मिलने पर भी कलुषता के अभाव स्वरूप हमेशा क्षमा करना चाहिए। असंयतमिथ्यादृष्टि जीव का शत्रु दुष्ट आदि के द्वारा उपद्रव करने पर अपकीर्ति के भ्य से पीड़ा सहना, इस लोक कके लिए होता है, परलोक की सिद्धि के लिये नहीं। अपकीतिै के भय से पीड़ा सहने रूप क्षमा तो सामान्य पुरूषों के आश्रित कही गयी है किंतु आशीर्विष दृष्टिविष आदि ऋद्धियों के होने पर भी महात्माओं के प्राणों का नाश करने वाले दुर्जनों द्वारा घोर उपसर्ग किये जाने पर भी सह लेना वह धर्म की खान उत्तम क्षमा है।

येन केनापि दुष्टेन, पीडितेनाऽपि कुत्राचित्।
क्षमात्याज्या न भव्येन, स्वर्गमोक्षाभिलाषिणा।।2।।

अर्थ- स्वर्ग मोक्ष के अभिलाशी भव्य को जिस किसी दुष्ट के द्वारा कहीं पर भी पीडि़त किये जाने पर भी क्षमा का त्याग नहीं करना चाहिए।

वदति वचनमुच्चैर्दुःश्रवं कर्कशादि।
कलुषविकलता या, तां क्षमां वर्णयन्ति।।3।।

अर्थ- नहीं सुनने योग्य कर्कश, कठोर वचनों के बोलने पर भी, जो कलुषता का अभाव है, उसे क्षमा कहते हैं।

वदति वचनमुच्चैर्दुःश्रवं कर्कशादि।
कलुषविकलता या, तां क्षमा वर्णयन्ति।।3।।

अर्थ- नहीं सुनने योग्य कर्कश, कठोर वचनों के बोलने पर भी, जो कलुषता का अभाव है, उसे क्षमा कहेत हैं।

क्षान्तिरेव मनुष्याणं, मातेव हिकारिणी।
माता कोपं समायति, क्षान्ति र्नैव कदाचन।।4।।

अर्थ- क्षमा मनुष्यों को माता के समान हितकारी है, माता क्रोध को प्राप्त हो सकती है, किंतु क्षमा कभी भी क्रोध को प्राप्त नहीं होती।

क्षमया क्षीयते कर्म दुःखदं पूर्वसंचितं।
चित्तं च जायते शुद्धं, विद्वेषभयवर्जितम्।।5।।

अर्थ- क्षमा से दुःखदायी पूर्व संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं, तथा विद्वेष और भय से रहित चित्त निर्मल हो जाता है।

पुष्पकोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्रकोटिसमो जपः।
जपकोटिसमं ध्यानं, ध्यानकोटिसमा क्षमा।।6।।

अर्थ- आराध्य के चरणों में करोड़ों पुष्पों की चढाने से जितना पुण्य मिलता है उतना पुण्य एक स्तोत्र के पाठ करने से प्राप्त हो जाता है, करोड़ों पाठ करने से जितना पुण्य प्राप्त होता है उतना पुण्य एक जाप करने से प्राप्त हो जाता है, करोड़ों जाप करनेसे जितना पुण्य प्राप्त होता है उतना पुण्य एक बार ध्यान करने से प्राप्त हो जाता है तथा करोड़ों बार ध्यान करने से जितना पुण्य प्राप्त होता है उतना पुण्य किसी अपराधी प्राणी को एक क्षमा करने से प्राप्त हो जाता है।

कस्यचित् सम्बलं विद्या, कस्यचित् सम्बलं धनं।
कस्यचित् सम्बलं मात्र्यं, मुनीना, सम्बलं क्षमा।।7।।

अर्थ- किसी क सम्बल विद्या है, किसी का सम्बल धन है, किसी का सम्बल मरण है और मुनियों का समबल क्षमा है।

नरस्याभरंण रूपं, रूपस्याभरणं गुणः।
गुणस्याभरंण ज्ञानं, ज्ञानस्याभरणं क्षमा।।8।।

अर्थ- मनुष्य का आभूषण (अलंकार) रूप है, रूपक आभूषण गुण है, गुण का आभूषण ज्ञान हे, ज्ञान का आभूषण (अलंकार) क्षमा है।

टिप्पण - शरीर की सुंदरता में वृद्धि करने वाले पदार्थ को अलंकार या आभूषण कहे हैं।

पातिव्रत्यं स्त्रीणं रूपं, पिकीनां रूपकं स्वरः।
विद्यारूपं कुरूपाणां, क्षमारूपं तपस्विनाम्।।9।।

अर्थ- स्त्रियों का रूप पतिव्रतापन है, कोयलों का रूप स्वर है, कुरूपों का रूप विद्या है, तपस्वियों का रूप क्षमा है।

मनस्वाह्लदिनी सेव्या, सर्वकालसुखप्रदा।
उपसेव्या त्वया भद्र! क्षमा नाम कुलांगना।।10।।

अर्थ- मन को आनन्दित करने वाली हमेशा सुखदाय हे भ्रद ! तुम्हें क्षमा रूपी कुलीन स्त्री का सेवन करना चाहिए।

क्षमागणुान् प्रवक्ष्यामि, संक्षेपेण तु श्रूयतां।
धर्मकामार्थमोक्षाणं, क्षमा कारणमुच्यते।।11।।

अर्थ- हे भव्य आत्मन्! मैं संक्षेप से क्षमा धर्म के गुणों को कहूंगा, सो सुनो, क्योंकि क्षमा ही धर्म अर्थ काम और मोक्ष की कारण भूत कहीं गयी है।

क्षमा शांति है, क्षमा शस्त्र है, क्षमा श्रेयस्कर है, क्षमा धैर्य है, क्षमा धन है, क्षमा रक्षा का बल है, क्षमा माता है, क्षमा बन्धु है, क्षमा लक्ष्मी है, क्षमा शोभा है, क्षमा कीर्ति है, क्षमा सत्य है, शौच, पूजा, दान, मंगल, उत्तम, शरण इत्यादि सारे गुण क्षमा धर्म में समाहित हैं।

क्षमाखड्ग करे यस्य, दुर्जनः किं करिष्यति।
अतृणे पतितो बह्निः, स्वयमेवोपशाम्यति।।12।।

अर्थ- क्षमारूपी तलवार जिसके हाथ में है, दुर्जन उसका क्या कर सकता है।

जैसे - ईंधन से रहित स्थान में पड़ी हुई अग्नि स्वयं ही शांत हो जाती है।

क्षमाबलमसक्तानां, शक्तानां भूषणं क्षमा।
क्षम वशीकृतो लोकः क्षमया किं न साध्यते।।13।।

अर्थ- श्क्ति हीन जीवों के क्षमा ही बल है, शूरवीरों का क्षमा आभूषण हैं क्षमा से वशी-कृत लोक में क्या-क्या सिद्ध नहीं होता क्योंकि सब कुछ सिद्ध होता है।

क्षमासमं तपो नास्ति, क्षमातुल्यं न सद्व्रतं।
क्षमाभं न हिंत किंचित्, क्षमा न च जीवितम्।।14।।

अर्थ- क्षमा के समान तप नहीं, क्षमा के समान कोई दूसरा सदाचरण नहीं, क्षमा के समान कोई हित नहीं, क्षमाधरियों के समान कोई जीवन नहीं।

इत्यादि क्षमायाः परमान! गुणसंचयान् ज्ञात्वा कृत्स्नप्रयत्नतो यतिभिः श्राद्धैर्वा नित्यं क्षमा कार्या क्षमा मुक्तिसखी क्षमा नृणां कल्पवलीसमा संकल्पितसुखप्रदा, क्षमा शत्रुभ्यो रक्षापरा, क्षमा शममातृका, क्षमा धर्मरत्नानां खनिः।

अर्थ- इस प्रकार सक्षा के श्रेष्ठ गुणों के जानकर सम्पूर्ण प्रयत्न से साधुओं के द्वारा और सामान्य सम्यग्दृष्टि आदि जीवों के द्वरा नित्य ही क्षमा करना चाहिए (सामान्य पद से अविरतदेशव्रती श्रावक) क्षमा मुक्ति वधू की सखी है, मनुष्यों को क्षमा कल्पवृक्ष के सामन सुख को देने वाली है, क्षमा कर्म शत्रुओं से रक्षा करने वाली है, क्षमा समता रूपी धन को उत्पन्न करने वाली माता के समान है, क्षमा धर्म रत्नत्रय की खानि (खदान) है।

क्षमया पाश्र्वेशसंजयंतशिवभूत्यादिनोगिनोऽचिराद् वैरिजान् बहून् उपसार्गन् जित्वा केवलावगमं प्राप्य त्रिजगत्पूज्यं शर्मसागरं लोकाग्रशिखरं प्रापुः। सुरनरमनुजाद कृतोपसर्गान् सोढ्वा ये स्वर्गमोक्षं गतास्तेषां नामानि कथ्यन्ते।

अर्थ- क्षमा से पाश्र्वनाथ भगवान, संजयंत मुनि, शिवभूति आदि मुनि, वैरियों के कये गये भयंकर उपसर्गो को जीतकर शीघ्र ही केवलज्ञान को पाक, तीन लोक में पूज्य, अनन्त काल तक सुख सागर के निमग्न, लोकशिखर पर विराजमान हुए हैं। देव और मनुष्यदि के द्वारा कये गये उपसर्गों को सहन करके जो मोक्ष और स्वर्ग को प्राप्त हुए उन पुरूषों के नाम कहे जाते हैं।

कोहेण जो ण तप्पदि, सुरणरतिरिएहिं कीरमाणेवि।
उवसग्गेवि रउद्दे, तस्स खमा णम्मला होदि।।15।।

अर्थ- सुर, नर, तिर्यंचों के द्वारा उपसर्ग किये जाने पर भी क्रोध से संतप्त नहीं होते है और अन्य भी भयंकर उपसर्ग होने पर जो शांति रहते हैं, उनके ही निर्मल उत्तम क्षमा होती है।

श्रीदत्त मुनि का कथानक

श्रीदत्तमुनि व्र्यन्तरदेव कृतोपसर्गं प्राप्तय शुद्धबुद्धचिद्रूप स्वरूपं साम्यरूपं वीतरागनिर्विकल्पसमाधिना घातिचतुष्टयं हत्वा केवलज्ञानं लब्ध्वा स्वात्मोलब्धिरूपं मोक्षं प्राप्तः।।1।।

अर्थ- श्रीदत्त नामक मुनि व्यन्तरदेव के द्वारा किये गए उपसर्गै को सहन करके, शुद्ध बुद्ध चैतन्य स्वरूप साम्यरूप वीतराग विर्निकल्नप समाधि के द्वारा चार घातिया कर्मों को क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त कर स्वात्मोपलब्धि रूप मोक्ष को प्राप्त हुए हैं।

श्री विद्युच्चर मुनि का कथानक

विद्युच्चरमुनिः चामुण्डाव्यन्तरी कृ तोपसर्ग प्रसह्य उत्तमक्षमाधर्मं भजन् वीतरागनिर्विकल्पसमाधिं प्राप्य केवलज्ञानमुत्पाद्य मोां गतः।।2।।

अर्थ- विद्यच्चर नामक मुनि चामुण्ड नाम के व्यन्तरी के द्वारा किये गये उपसर्ग को सहकर उत्तमक्षमा धर्म को धारण करते हुये, वीतराग निर्विकल्पसमाधि के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त हुए।

श्री चिलाती मुनि का कथानक

श्रेणिकराज्ञः चिलातीमुनिः व्यन्तरीकृतोपसर्गं प्राप्य श्रीरे निःस्पृहो भूत्वा परमक्षान्ति प्राप्य उत्कृष्टधर्मध्यानबेलेन समाधिना कालं कृत्वा सवार्थसिद्धिं गतः।।3।।

अर्थ- राजा श्रेणिक का भाई (दूसरी रानी का पुत्र) चिलाती मुनि व्यन्तरी कृतघोर उपसर्ग को सहकर, शरीर से ममत्व छोड़कर परमक्षान्ति को (क्षमा) प्राप्त होकर, धर्मध्यान के बल से समाधि पूर्वक मरण करके सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हुये।

स्वामि कार्तिकेय मुनि का कथानक

स्वामिकार्तिकेयमुनिः क्रोंचराजकृतोपसर्गं सोढ्वा साम्यपरिणामेन मरणं कृत्वा देवलोकं प्राप्तः ।।4।।

अर्थ- क्रौंचराज कृत भयंकर उपसर्ग को सहनकर कार्तिकेय मुनि समता परिणामों से मरण करके देवगति को प्राप्त हुए।

श्री गुरूदत्तमुनि का कथानक

गुरूदत्तमुनिः कपिलब्राह्ममणकृतोपसर्ग सोढ्वा परमसमाधिं प्राप्तय केवलज्ञानमुत्पाद्य मोक्षं गतः।।5।।

अर्थ- गुरूदत्त मुनि कपित ब्राह्मण के द्वारा किये गये भयंकर उपसर्ग को सहकर, परमसमाधि के द्वारा केवलज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त हुये।

श्री धन्यकुमार मुनि का कथानक

धन्यकुमारमुनिः चक्रराजकृतोपसर्ग सोढ्वा परम क्षमाधर्मं प्राप्य शुक्लध्यानेन कर्मक्षयं कृत्वा मोक्षं कतः।।6।।

अर्थ- धन्यकुमार मुनि ने चक्रराज के द्वारा किये गये घोर उपसर्ग को सहनकर, परम समाधि को प्राप्त कर, शुक्लध्यान रूपी अग्नि को प्रज्वलित किय और कर्मरूपी ईंधन डालकर कर्मों के वंश को नष्ट कर मोक्ष को प्राप्त किया।

पंचसै मुनियों क कथानक

पंचशातमुनयः दण्डकराजेन ईक्षुयन्त्रमध्ये पीलिताः समाधिना मरणं कृत्वा सिद्धिं गताः।।7।

अर्थ- पाँच सौं मुनियों को दण्डकराजा ने ईक्षुयन्तत्र (कोल्हू का तेल निकालने की मशीन) में पेल दिया, उन साधओं ने समता पूर्वक मरण करके मोक्ष प्राप्त किया।

श्री चाणक्यादि पंचशत मुनयः कथान

मन्त्रिकृतोपसर्ग सोढ्वा शुक्लध्यानेन कर्मक्ष्यं कृत्वा सिद्धिं गताः।।8।।

अर्थ- चाणक्य आदि पांच सो मुनियों के ऊपर मंत्री के द्वारा किये गये उपसर्ग को सहनकर शुक्लध्यान से कर्मों का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त हुये।

श्री सुकौशल मुनि का कथानक

मातृचरो व्याघ्री कृतोपसर्गं सोढ्वा शुभध्यानेन समाधिं प्राप्य सवार्थसिद्धिं गतः।।10।।

अर्थ- सुकौशल मुनिराज की पूर्व अवस्था की माता पुत्र मोह से मर कर व्याघ्री हुई, उसने मुनि के ऊपर भयंकर उपसर्ग किया (तन भक्षण किया)। सुकौशल मुनि उस उपसर्ग को सहनकर शुभध्यान पूर्वक शरीर का राग छोड़कर सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हुये।

श्रीपणिकमुनि का कथानक

श्रीपणिकमुनिः जलोपसर्ग सोढ्वा मुक्तिं गतः।।11।।

अर्थ- श्री पणिक मुनि को शत्रु ने जल में डाल दिया उस उपसर्ग को सहन कर वे मोक्ष को प्राप्त हुये।

बत्तीस श्रेष्ठी पुत्रों का कथानक

नदीप्रवाहे पतिताः सन्तः शुभध्यानेन मरणं कृत्वा स्वर्गे देवा जाता।।12।। इत्यादि बहवो जीवा अनेक प्रकारोपसर्गाणि सोढ्वा उत्तमक्षमा प्राप्य शुभां गतिं श्रिता। यदि कश्चित् कुधीः साधेर्निन्दां कुर्यात् तदा मुनिः हृदि एवं चिन्तयेत् एते दोषा मयि सन्ति तर्हि तु सत्यभाषणादस्य दोषो न, यदि व दोषाभावेऽपि एष आाज्ञानाद् मम दोषान् वक्त मारयति न मां, न मे सद्गुणान् गृह्वति इत्यादि चिन्तनैर्मुनिना निन्दादिकं सोढ्व्य साक्षमा। तथा चोक्तं -

अर्थ- 32 सेठ के पुत्र नदी के प्रवाह में बहते हुये शुभध्यान से मरण करके स्वर्ग में देव हुये।।12।। इत्यादि अनेक जीव अनेक प्रकार के उपसर्गों को सहन करके उत्तम क्षमा धर्म की शरण को पाकर शुभ गति को प्राप्त हुये।यदि कोई दुर्बुद्धि साधु की निन्दा करता है तो उस समय साधु अपने हृदय में ऐसा विचार करे कि यदि ये दोष मेरे में नहीं है तो अज्ञान से मेरे को दोषी कह रहा है किंतु मुझको मार तो नहीं रहा, मेरे सद्गुणों को ग्रहण नहीं कर रहा है। इत्यादि चिन्तवन से मुनि को निंदादिक दोष सहन करना चाहिए। यही सच्ची क्षमा है। जैसे कि कहा है -

दत्तेशापं विना पापं, नाऽयं मेऽस्तीति सह्यते।
कृपाकृत्वेत्ययं पापं, वराकः कथमर्जत।।16।।
सत्यपि सर्वतो दोषे, सहनीयं मनीषिणा।
विद्यते मयि दोषोऽयं, न, मिथ्याऽनेन जल्पितम्।।17।।

अर्थ- मुनि ऐसा सोचकर सहन करते हैं कि मेरे पाप कर्म के उदय के बिना यह मुझे कष्ट नहीं दे सकता। यह मेरे ऊपर कृपा करके बेचारा पाप को क्यों कमा रहा है अर्थात् मेरी कर्म निर्जरा हो रही है और यह बेचारा पाप कमा रहा है।।16।।

दोष के होने पर भी बुद्धिमानों को सहन करना चाहिये क्योंकि यह दोष मेरे में है, यह झूठ नहीं बोल रहा है।।17।।

यदि कश्चित् क्रुधा परोक्षे मुनिमाक्रोशति तदा क्रोधाग्निजलदोपमेन मुनिनेति ध्येयमयं परोक्षे मामाक्रोशति प्रत्यक्षे तु न, अयमपि मम लाभ् एव इति मत्वा तत्कृतं आक्रोशं मया सोढव्या।

अर्थ- यदि कोई क्रोधी व्यक्ति परोक्ष में मुनि के ऊपर क्रोध करता है तो उस समय क्रोधग्नि को शांत करने के लिएमेघ के समान मुनि के द्वारा इस प्रकार विचार करना चाहिए कि यह मुझको परोक्ष में क्रोधित हो रहा है, प्रत्यक्ष में नही यह भी मेरे लिए लाभ ही है ऐसा मान कर उसके द्वारा किये हुये आक्रोश को मुझे सहन करना चाहिए।

यदा कश्चित् दुरात्मा प्रत्यक्षे आक्रोशति तदा सन्मुनिना स्वक्रोधशान्तये इति चिन्तनीयम्।

अर्थ- यदि कोई दुरात्मा प्रत्यक्ष में क्रोध करता है तो मुनि के द्वारा अपने क्रोध की शांति के लिये ऐसा चिन्तवन करना चाहिए।

अयं शठः मां केवलगालीं ददाति न तु हन्ति, गालीभिः किं मेऽशुभानि व्रणानि जायन्ते, माम् निन्दनतोऽस्यैव हानि र्न मे, इति विचिन्त्य मुनिना शान्तभावेन दुर्वचः सोढव्यम्।

अर्थ- यह मूर्ख मुझको सिर्फ गालियां दे रहा है, मार तो नहीं रहा, यदि गालीयां भी दे रहा है तो क्या गालियां मुझको अशुभ व्रण (घा) हो गया अर्थात् नहीं हुआ, मेरी निन्दा से इसी को हानि है मेरे को नही, ऐसा विचार कर साधु को शांत भाव से दुर्वचनों को सहन करना चाहिए।

अथवा कश्चिदधीः क्रुधा साधुं ताडयति तदा साधुना चित्ते इति चिन्तनीयं, अयं कुधी र्मां हन्त्येव अंजसा मत्प्राणान् तु न हरति, अघक्षयाद् मेऽस्माल्लाभ एव जातो न हानि र्जाता।

अर्थ- अथवा कोई अज्ञानी क्रोध से साधु को मारता भी है तो साधु ऐसा चिन्तवन करते हैं कि, यह दुर्बुद्धि मुझको मार ही तो रहा है, मेरे प्राणों को तो नहीं हर रहा है, मुझे पाप के क्षय से लाभ ही है, हानि नहीं है।

वाऽत्रायं वधबन्धाद्यै र्मे पापं हरति स्फुटं अत एव हानिस्तु अस्यैव मम तु उज्र्जिता वृद्धिः। अथवा प्राग्भवे मयाऽयं पुरूषस्ताडितस्ततोऽयं मां ताडयति, अस्य कश्चिद् दोषो न।

अर्थ- अथवा पूर्व भव में मैंने इसको ताडि़त किया होगा इसलिए यह मुझको ताडि़त कर रहा है। इसका कोई दोष नहीं है। यह इस लोक में वधबन्धादि के द्वारा मेरे पाप को हरता है इसलिए इसकी ही हानि है, मेरी तो वृद्धि ही है।

प्राड्.मया यत् कृतं कर्म तन्मयैवोपभुज्यते।
मन्ये निमित्तमात्रेऽन्तयः, सुखदुःखोत्पन्ने जनः ।।18।।

अर्थ- पूर्व भव में मैंने जो कर्म किया है उसका फल मुझको ही भोगना पड़ेगा अन्य पुरूष तो सुख दुख उत्पन्न करने में निमित्त मात्र है।

स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभं।
परेण दत्तं यदि लभ्यतें स्फुटं, स्वयं कृतं निरर्थकं तदा।।19।।

अर्थ- स्वयं ने पूर्व मं जैसा कर्म किया है जीव को वैसा ही शुभ-अशुफ फल प्रात होताहै। यदि अशुभ मकर्म का फल किसी अन्य के द्वारा दिया जाता है तो स्वयं के द्वारा किया हुआ कर्म निरर्थक हो जायेगौ

अत्रेमं दुःखादिकारकं निमित्तमात्रं मन्ये, चेन्मदीयमपि चित्तं क्रोधाग्निसन्निधिं व्रजेत् तदाऽस्याज्ञस्य विदो में को विशेषः।।

अर्थ- इस लोक में कहा जाता है कि अन्य के द्वारा दुःख दिया जाता है किंतु ऐसा नहीं है, अन्य तो निमित्त मात्र हैं, ऐसा मैं मानता हूं ऐसी स्थिति में यदि मेरा मन भी क्रोधरूपी अग्नि के पास जाता है, तो इस अज्ञान में और मुझ ज्ञानी में क्या विशेषता रही।

यदि प्रशममर्याां, भित्वा रूष्यामि शत्रवे।
उपयोगः कदाऽस्य स्यात्, तदा में ज्ञानचक्षुषः।।20।।

अर्थ- यदि मैं प्रशम (समता) रूपी दीवाल की मर्यादा (सीमा) तोड़कर इस शत्रु पर क्रोध करता हूं, तो मैं अपने ज्ञानरूपी चक्षु का उपयोग कब करूंगा।

यद्यहं क्रोधहालाहलाक्रान्तं पुमांसं निर्विषीकर्तुमक्षमस्तर्हि चिराभ्यस्तसमभावस्य किं फलमतः सांप्रतं क्रोधविषं पिबामि। पूर्व मया बहुकष्टैर्यः शमोऽभ्यस्तः तस्याधुना वैफल्यं जायते, यदि कोपं करोमि, इत्यादि चिन्तनैराशु चित्तं स्थिरीकृत्य साधुना दुर्जनोद्भवं निखिलंताडनमारणादिकं सोढ़व्यं।

अर्थ- यदि में क्रोधरूपी हलाहल से आक्रान्त (व्याप्त) पुरूष को निविष करने के लिए असमर्थ हूँ। अर्थात इसके क्रोध करने पर यदि में क्रोध हूं तो, बहुत लम्बे समय से जिस समता भाव का मैंने अभ्यास किया है फिर उस समता भाव का क्या फल प्राप्त हुआ? अर्थात कुछ नहीं, इसलिये मैं क्रोध रूपी विष का पान करता हूं। पहले मैंने बहुत कष्टों से जिस समता का अभ्यास किया है, यदि मैं क्रोध करता हूं तो सम भाव का फल मुझको नहीं मिलेगा इत्याद चिन्तवन के द्वारा शीघ्र ही अपने चित्त के स्थिर करके साधु को दुर्जनों के द्वारा किये जानेवाला ताड़न मारणादि को सहन करना चाहिए।

तथ चोक्तं - चिराभ्यस्तेन किं तेन, शमेनास्त्रेण वा फलं।
व्यर्थीभवति यत्कार्ये, समुत्पन्ने शरीरिणाम्।।21।।

अर्थ- प्राणियों के चिरकाल से अभ्यास किये हुए इस समता रूपी अस्त्र (हथियार) का क्या फल हुआ, यदि कार्य आने पर व्यर्थ हो जाय।

यदि कश्चिच्छुद्रः साधों प्राणन् गृह्वति तदा यतिना कोपाग्निरदमिदं चिन्तनीयमयं मम प्राणान् आदत्ते शिवप्रदं धर्मं नादत्ते। वाऽसं पधाद्यै र्जराजर्जरितं कायं हत्वा दिव्यं नूतनम् गुणाकरं वपुर्दत्ते। स मे वरः सुह्यत् कथं न। यद्ययं मां पापकर्मोभ्यों वधाद्यै र्न मां मोचयेत् तदा तेभ्यो मोक्षः कर्थ स्यात् इतिहेतो-रेष में हितकरः यः कारागारनिभात् कायादाशु मां मोचयित्वा स्वर्गादौ स्थापयेत् स कथं शत्रुरूच्यते। इत्यादि सद्विचाराद्यैःप्राणनाशेऽपि साधुना सर्वथेय क्षमा कार्या जातुचित् कोपो न कार्यः।

अर्थ- यदि कोई अज्ञानी प्राणी साधु के प्राणों को हरण करता है, तब साधु को ऐसा विचार करनाचाहिए कि इसकी कोप रूपी अग्नि को मैं समतारूपी मेघ के द्वारा शमन करता हूं। यह मेरे प्राणों को ही ग्रहण कर रहा है, मोक्ष को देने वाले मेरे धर्म को ग्रहण नहीं कर रहा है। यदि वधादि कार्य करके जरा से (बुढापे) क्षीण काय (शरीर) नष्ट करके दिव्य नवीन, गुणों की खान स्वरूप शरीर दे रहा है। वह मेरा श्रेष्ठ मित्र कैसे नहीं अर्थात् मेरा परम बन्धु ही है। यदि वह मुझको पाप कर्मों के बन्ध आदि से नहीं छुड़ाता, तो मैं कर्म बन्ध से नहीं छूटता तो मोक्ष कैसे होता, इस कारण से यह मेरा हित करने वाला ही है। जो कारागार के समान इस शरीर से शीघ्र ही मुझको छुड़ाकर स्वर्गाद में पहुंचा देता है, वह हमारा शत्रु कैसे कहा जायेगा। इत्यादि सद्विचारों के द्वारा प्राणों का नाश होने पर भी साधु के द्वारा निरंतर ही क्षमा करना चाहिए, कभी क्रोध नहीं करना चाहिए।

कोपादोषानाह - क्रोध से हानि
क्रोध नाशयते धर्मं, विभावसुरिवेन्धनं।
पापं च कुरूते घोर, मिति मत्वा विषह्यते।।22।।

अर्थ- क्रोध धर्म को नष्ट कर देता हे, जैसे - अग्नि ईन्धन को नष्ट कर देती है तथा क्रोध भयंकर पापों को भी करता है, ऐसा मानकर क्रोध को छोड़ देना चाहिए।

अज्ञानकाष्ठजनित स्त्वमानवातैः, संघुक्षितः परूषवागुरूविस्फुलंगः।
हिंसाशिखोऽपि भृशमुत्थिवैरधूमः, क्रोधाग्निः उद्दहति धर्मवनं नराणाम्।।23।।

अर्थ- अज्ञान रूपी काष्ठ से उत्पन्न हुई और मानकषाय रूपी वायु से प्रज्वलित हुई कठोर वचन रूपी चिन्गारियों से युक्त हिंसा रूपी झण्डाल जिससे उठ रही है बैर रूपी धुआँ से व्याप्त है, ऐसी क्रोध रूपी अग्नि मनुष्यों के धर्म रूपी वन जला देती है।

क्रोधः प्राणहरः शत्रुः क्रोधोऽमित्रमुखों रिपुः।
क्रोधोऽसि महातीक्ष्णः, सर्व क्रोधोऽपकर्षति।।24।।

अर्थ- क्रोध प्राणों को हरने वाला होने से शत्रु है, क्रोध शत्रुतओं में प्रधान शत्रु है। क्रोध महातीक्ष्ण तलवार के समान है। यहां तक कि क्रोध सब कुछ नष्ट कर देने वाला है।

तपते धरते चैव, यच्च दानं प्रयच्छति।
क्रोधो हरति सर्वस्वं, तस्माम् कोधं विवर्जयेत्।।25।।

अर्थ- जो तप को धारण करते हैं, दान देते हैं, ऐसे प्राणियों का भी क्रोध सब कुछ हरण कर लेता है। इसलिए क्रोध को छोड़ देना चाहिए।

यथान्धः कुपितो हन्याद् यच्चैवाग्रे व्यवस्थितं।
क्रोधान्धोऽपि तथैवात्र, तस्मात् तं दूरतस्त्यजेत्।।26।।

अर्थ- जैसे अन्धा व्यक्ति क्रोध से सामने स्थित वस्तु को नष्ट कर देता है उसी प्रकार क्रोध से अन्ध व्यक्ति भी जानना चाहिए, इसलिये क्रोधी व्यक्ति को दूर से त्याग कर देना चाहिए।

क्रोधो विजित दावाग्निः स्वस्यान्यस्क च घातकः।
दुर्गतेः कारणं क्रोधः, तस्माद् वज्र्यो विवेकिभिः।।27।।

अर्थ- क्रोधरूपी दावाग्नि, स्वयं का और पर का दोनों का घात करती है और क्रोध दुर्गति का कारण् है इसलिए विवेकी पुरूषों के द्वारा क्रोध छोड़ने योग्य है।

श्रामण्यपुण्यतरूरतत्र गुणोघशाखः पत्रप्रसूननिचितो ऽपिफलान्यदत्वा।
यातिक्षयं क्षणत एव घनोग्रकोपात्, दावानलात् त्याजत तं यतोयोऽत्र दूरम्।।28।।

अर्थ- श्रामण्य रूपी पुण्यवृक्ष, जो कि गुण रूप शाखाओं, पत्रपुष्पफलों से व्याप्त है, जिससे छाया तथा मंद मंद हवा आदि प्राप्त होते हैं, हे पति ऐसा श्रामण्य रूपी कल्पवृक्ष भी फल दिये बिना ही क्रोध रूपी दावानल से क्षण भर में क्षय को प्राप्त हो जाता है। इसलिए इस क्रोध को दूर से ही छोड़ो।।41।।

रागं दृशोर्वपुषि कम्पमनेकरूपं, चित्ते विवेकरहितानि विचिन्ततानि।
पुंसाममार्गगमनं श्रमदुः खजातं कोपः करोति सहसा मदिरामदश्च।।29।।

अर्थ- जैसे शराब के मद में जीवों की दशा होती है उसी प्रकार क्रोध के समय आंखों लाल हो जाती है, शरीर कांपनो लगता, हृदय की धड़कने बढ़ जाती है, मन का विवके खो जाता है, चिन्तित होने लगता है, दुखी होता है और आत्मा की दुर्गति में ले जाता है, अधिक क्या कहें क्रोध प्राणियों का क्या-क्या अहित नहीं करता अर्थात् सब कुछ अहित करना है।।42।।

यः कृप्यति प्रतिपदं भुवि निर्निमित्त-माप्तोऽपि नेच्छति जनः सह तेन सख्यम्। मन्दानिलोल्लसित पुष्पभरानतोऽपि किं सेव्यते विषतरूमधुपव्रजेना।।30।।

अर्थ- जो प्राणी पृथ्वी पर बिना कारण पग-पग में क्रोध करता है, वह विद्वान हो तो भी लोग उसके साथ मित्रता नहीं करना चाहते हैं। जैसे मंद-मंद वायु और पुष्पों के भार से नम्री भूत विषवृक्ष को क्या भौरे सेवन करते हैं, अर्थात नहीं करते।

मैत्रीयशोव्रत तपो नियमानुकम्पा, सौभाग्यभाग्यपठनेन्द्रियनिर्भयाद्याः।
नश्यन्ति कोपपुरूवैरहताः समस्ताः, तीव्रगन्नि तप्तरसवत् क्षणतो नरस्य।।31।।

अर्थ- मुनष्य के पास-मैत्री, यश, तप, व्रत, नियम, अनुकम्पा, सौभाग्य, ज्ञान, इन्द्रियविजय, निर्भय, अदि गुण तब तक रहते हैं, जब तक क्रोध रूपी शत्रु ने आक्रमण नहीं किया अर्थात् क्रोध रूपी शत्रु के आने पर ये समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं, जैसे तीव्र अग्नि से रसवान पदार्थ भी क्षण भर में नष्ट हो जाता है।

कोप करोति पितृमातृ सुहृज्जनानामप्यप्रियत्व मुपकारी जनापकारम्।
देहक्षयप्रकृतकार्यवनाशनं च, मत्वेति कोपवशिनो न भवन्ति भव्याः ।।32।।

अर्थ- क्रोध करने वाले व्यक्ति के माता, पिता, मित्र जन अप्रिय हो जाते हैं, उपकारी जन भी तिरस्कार करने लगते हैं, क्रोधी का शरीर क्षय को प्राप्त होता है। सम्पन्न होने वाले कार्य भी विनाश को प्राप्त हो जाते हैं, इसलिए ऐसा मानकर भव्य जीवों को क्रोध के वश नहीं होना चाहिए।

पुण्यं चितं व्रततपोनियमोपवासैः, क्रोध क्षणेन दहतीन्धनवद् हुताशं।
मत्वेति तस्य वशमेति न यो महात्मा, तस्याभिवृद्धिपयाति नरस्य पुण्यम्।।33।।

अर्थ- एक क्षण का क्रोध अनेक भावों के संचित पुण्य व्रत, तप, नियम, उपावस आदि को नष्ट कर देता है। जैसे सुमेरू के बराबर ईन्धन को भी अग्नि नष्ट कर देती है। ऐसा मान कर जो महात्मा क्रोध के वश नहीं होता उसके व्रत उपवास की वृद्धि होती है, और पुण्य संचय होता है।

तृष्णां विवर्धयति धैर्यमपाकरोति, प्रज्ञां विनाशयति संजनयत्यवाच्यं।
संतापयेत् स्ववपुरिन्द्रियवर्गमुग्रः पित्तज्वरप्रतिनिधिः पुरूषस्य कोपः ।।34।।

अर्थ- क्रोधतृष्ण को बढ़ाता है, धैय को दूर हटाता है, बुद्धि को नष्ट करता है, न बोलने योग्य वचनों को बोलना है, पित्तज्वर के समान अपने शरीर और इन्द्रियों को भयंकर रूप से संतापित करता है।

क्रोधस्तापकरश्चोभे, सर्वस्योगकारकः।
क्रोधवैरानुजनकः, क्रोधः सुगतिनाशकः।।35।।

अर्थ- चन्दन के छेदने पर, काटने पर, जलाने पर विक्रिया को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार महापुरूष क्रोध के कारण मिलने पर भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होते।

दग्धं दग्धं त्यपति न पुन र्दिव्यवर्णं सुवर्ण घृष्टं घृष्टं त्यापति न पुनश्चन्दनं चारूगन्धं।
खण्डं खण्डं त्यजति न पुनः स्वादुतामिक्षुदण्डं, प्राणान्तेऽति न विकृति र्जायते चोत्तामनाम्।।36।।

अर्थ- जैसे सुवर्गण अग्न में बार-बार तपाये जने पर अपने दिव्य वर्ण को नहीं छोउ़ता चन्दन बार-बार धिसने पर अपनी श्रेष्ठ सुगंध को नहीं छोड़ता और इक्षु दण्ड (गन्ना) के टुकड़े-टुकड़़े करने पर भी अपने मधुर स्वार को नहीं छोड़ता उसी प्रकार उत्तम पुरूषों के प्राणों का अन्त होने पर भी वे क्रोध को प्राप्त नहीं होते अर्थात् विकार को प्राप्त नहीं होते।

कालुष्यकारणे जाते, दुर्निवारे गरीयसि।
नान्तः क्षुभ्यति कस्मैचिच्छान्तात्माऽसौनिगद्यते।।37।।

अर्थ- दुर्निवार कलुषता के कारण मिलने पर भी जो अंतरंग में किसी के प्रति भी क्रोध नहीं करता। वह शान्तात्मा कहा जाता है।

नवे वयसि यः शान्तः, सः शान्त इति में मतिः।
धातुषु क्षीयमाणेषु, शमः कस्य न जायते।।38।।

अर्थ- नई उम्र में जो शांत है, वही वास्तव में शांत है इस प्रकार मेरी मति है। क्योंकि धातु के क्षय होने पर तो कौन शिथिल नहीं होता अर्थात् सभी शिथिल हो जाते हैं।

स एव प्रशमः श्लाध्यः स च श्रेयोनिबन्धनं।
अदयै ईन्तुकामैं र्यो न पुसां कश्मलीकृतः ।।39।।

अर्थ- यह प्रशम भाव प्रशंसनीय है और वही मोक्ष का कारण है। जो कि निर्दयी पुरूष के द्वारा मारे जाने परी भी हृदय मलिन नहीं होता।

पठठतुशास्त्रसमूहमनेकधा, जिनसमर्चनमर्चनतां सदा।
गुरूनतिं कुरूतां धरतां व्रतं, यदि शमो न वृथा सकलं ततः।।40।।

अर्थ- अनेक शास्त्रें को पढ़ो, जिनेन्द्र भगवान् की निरंतर पूजा करो। गुरू को नमस्कार करो, व्रतों को धारण करो, किंतु यदि शम भाव नहीं आया तो सारी क्रियाएं व्यर्थ हैं।

सर्वेषमपि दोषाणां, मध्ये क्षेभ उदाहृतः।
सर्वेषामपि धर्माणां, मध्ये शम उदाहृत।।41।।

अर्थ- सभी दोषों के मध्य में क्षोभ् होना अत्मघातक कहा गया है अैर सभी धर्मों के मध्य में ‘शम‘ भाव श्रेष्ठ कहा गया हे।

उध ऊध्र्वगतिं जीव-मनीत्वा न निवर्तते।
लक्षणं कोपसद्धर्मों, द्वयेमेतन् निरड्.कुशम्।।42।।

अर्थ- क्रोधी जीव अधोगति को प्राप्त होता है और धर्मी जीव ऊध्र्व गति को प्राप्त होता है, इन दोनों लक्षणों को कोई रोक नहीं सकता, ये लक्षण निरंकुश हैं, ऐसा जानना चाहिए।

श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च भुक्त्वा च, दृष्ट्वा ज्ञात्वा शुभाशुभं।
न हृष्यति ग्लापयिति यः, स शान्त इति कथ्यते।।43।।

अर्थ- जो भव्यात्मा शुभ अशुीा को सुनकर, छूकर, भोगकर, देखकर जानकर न हर्ष करता है और न दुःखी होता है वही शान्त कहा जाता है।

शूद्रेण क्लेशितो धीरो, विक्रियां नोपगच्छति।
राहुणा परिग्रस्तश्च, चन्द्रमा द्विगुणोज्ज्वलः।।44।।

अर्थ- शूद्र के द्वारार क्लेश दिए जाने परभी धीर मनुष्य विक्रिया को प्राप्त नहीं हाते हैं, जैसे राहु के द्वारा चन्द्रमा ग्रसित होने पर दुगुनी कान्ति वाला हो जाता है।

धीमन्! धर्मः परः कार्यः, क्षमयोत्तमया त्वया। उपद्रवे कृते दुष्टै र्जातु कोपो न धर्मंहृहत्।।45।।

अर्थ- हे बुद्धिमान! तुम्हें उत्तम क्षमा धर्म धारण करना चाहिए। दुष्टों के द्वारा उपद्रव किये जाने पर धर्म चुराने वाला क्रोध कभी नहीं करना चाहिए।

स शूरः सात्विको विद्वान् तपस्वी च जितेन्द्रियः।
येनाशु क्षान्तिखड्गेन, क्रोधशत्रु र्निपतितः।।46।।

अर्थ- वही शूर है, सात्विक है, विद्वान है, तपस्वी है, जितेन्द्रिय है जिसने क्षमारूपी तलवार से क्रोध रूपी शत्रु नष्ट कर दिया है।

सुतबन्धुपदातीना - मपराधशतान्यपि।
महात्मनः क्षमन्ते हि तेषां तद्धि विभूषणम्।।47।।

अर्थ- महापुरूष पुत्र, बन्धु, सेना आदि के द्वारा किये गये सैकड़ों अपराधों को भी क्षमा कर देते हैं, क्योंकि उनका आभूषण क्षमा ही है।

यथा क्षमा खननज्वालनादिभि र्न कम्पते, तथा विश्वैरूपसर्गैः, ध्यानस्थो योगी न चलति, क्वचिद् विध्र्वशाद् दुग्धामृतानि विषायन्ते साधूनां चित्तानन्दमृतानि न, साधुजना उपसर्गै विकारं न प्राप्तुवन्ति। लोके विश्वजन्तुप्रज्वालनक्षमः कोपसदृशो बन्हि र्न त्रिजगत् प्रीणनक्षमं क्षमातुल्यममृतं न। द्वीपायनो मुनिः क्रोधेन सर्वां द्वारावतीं दग्ध्वा पश्चात् स्वशरीरं च दग्ध्वा दुर्गतिमगत्।

अर्थ- जैसे पृथ्वी खोदने पर, अग्नि प्रज्ज्वलित करने पर भी कंपित नहीं होती, उीप्रकार अनेक उपसर्गों के द्वारा ध्यानस्थ योगी भी पृथ्वी के समान निष्कंप रहता है, कदाचित भाग्यवश दूध और अमृत विष रूप हो सकता है, किंतु साधु का चित्त विकार को प्राप्त नहीं होता। साधुजन उपसर्गों के द्वारा विकार को प्राप्त नहीं होते, संसार में प्राणियों को नष्ट करने वाली क्रोध रूपी अग्न के समान कोई दूरी अग्नि नहीं है और तीनों लोकों को संतुष्ट करने के लिएक्षमा के समान और कोई अमृत नहीं। द्वीपायन मुनि क्रोध से सम्पूर्ण द्वारावती नगरी को प्रज्वलित करने के बाद में अपनी शरीर को भी जलाकर दुर्गति को प्राप्त हुये।

क्रोधानलसमुत्पन्नो महादाहः शरीरिणाम्।
निर्दहति तपोवृत्तं, धर्म द्वैपायनादिवत्।।48।।

अर्थ- क्रोध रूपी अग्नि से समुत्पन्न महादाह, द्वीपायन मुनि के समान प्राणियों के तप और धर्म को जला देती है।

द्वीपायनस्य कथा

श्री नेमिनाथो बलभद्रेण पुष्टः स्यामिन्! इयं द्वारावती पुरी किं कालान्तरे समुद्रे निमंक्ष्यति कारणान्तरेण वा विनंक्ष्यति भगवानाहरोहिणभ्राता द्वीपायनकुमारस्तव मातुलोऽस्या पुर्या रूषा दाहको भविष्यति द्वादशे वर्षे मद्यहेतुत्वात्। तच्छुत्वा द्वीपायनकुमार इदं जैनवचनमसत्यं चिकिर्षुदींक्षां गृहीत्वा पूर्व देशं गतः। द्वादशावधिपूरणार्थं तपः कर्तुमारब्धवान्। जरत्कुमारेण कृष्णमरणमाकण्र्य बलभद्रादयो नेमिनाथं तपः कर्तुमारब्धवना्। जरत्कुमारेण कृष्णमरणमाकण्र्य बलभद्रादयों नेमिनाथं नमस्कृत्य सर्वेऽपि यादवा द्वारावर्ती विविशुः। ततः कृष्णो बलभद्रश्च पुर्या घोषणां मद्यनिषेधिनीं कारयामासतुः, ततो मद्यपैर्मद्यांगनि पिष्टकिण्वादीनि मद्यानि च कदम्बवने गिरिगह्वरे शिलाभाण्डानि आस्फालितानि। सा मदिरा कदम्बवनकुण्डेषु गता कर्मविपाकहेतुत्वेनावस्थिता। श्रीनेमिनाथः पल्लवदेशे गतः। जिनेन सह भव्यलोक उत्तरापथमुच्चलितः। द्वीपायनस्तु द्वादशं वर्ष भ्रान्त्याऽतीतं मन्वानो जिनादेशो व्यतिक्रान्त इति ध्यात्वा सम्यक्त्वहीनो द्वारावतीमागत्य गिरेर्निकटनगरबाह्यमार्गे आतापनयोगे स्थितः। वनक्रीडा परिश्रान्तास्तृष्णया व्याकुलीभूताः कादम्बकुण्डेषु जलमिति ज्ञात्वा शंभवादयस्तां सुरां पिबन्ति स्म, कदम्बवनस्थितः विसृष्टां कादम्बरीं पीत्वा कुमारा विकारश्च प्रापुः। सा पुराणाऽपि वारूणो परिपाकवशात् तरूणीव तरूणान् वशेऽकरोत् कुमाराअसम्ब्द्धं गायन्तो नृत्यन्तश्च स्खालितपादाः प्रमुक्तकुन्तला पुष्पकृतावतंसाः काण्ठालब्तिपुष्पमालाः सर्वे पुरां समा गच्छन्तः ते सूर्यप्रतिमास्थितं द्वीपायनमुनिं दृष्ट्वा घूणमाननयना इत्यूचुः सोऽयं द्वीपायनो यतिर्यों द्वारावतीं धक्ष्यति सोऽस्माकमग्रतः क्व यास्यति राक इति प्रोच्य सर्वतो लोष्टभिः पाषाणैश्चय तावत् प्रजध्नुर्यावद् भूमौ पपात। एवं तैर्निसुःकैस्ताडित उत्पन्नाधिकक्रोधो दष्टोष्ठो यदूनां स्वतपसश्च विनाशाय भ्रकुटिं चकार कुमारास्तु पुरीं प्रति गमनं चक्रुः कैश्चित्तद्दुराचारो विष्णोबलस्य लघु निवेदितः। तच्छुवा द्वारवत्या प्रलयं जिनोक्तं प्राप्तं तदापि मेनाते पिरच्छदरहितौ मुनिसमीपं गतो। अग्निमिव ज्वलन्तं क्रोधेन सक्लिष्टघियं भ्रूभंगविषमवक्त्रं दुर्निरोक्ष्येक्षणं क्षीणकण्ठगतप्राण विभीषणस्वरूपं ददृशतुः कृतांजलिपुटौ महादरात् प्रणिपत्य याचनां वन्ध्यां जानन्तावपि मोहाद् याचितवन्तौ। हे साधो! चिर परिरक्षितस्तपोभारः क्षमामूलः क्रोधग्निना धक्ष्यते मोक्षसाधनं परिरक्ष्यतां परिरक्ष्यतां मूढैः प्रमादबहुलैदुर्विचेष्टितं भवतः कृतं तत् क्षम्यतां क्षम्यतां। क्रोधश्चतुर्वर्गशत्रुः क्रोधः स्वरनाशनः, अस्मभयं प्रसादः क्रियतां मुने! इति प्रियवादिनौ तौ पादयोर्लगत्वा प्रार्थितवन्तौ तथापि सोऽनिवर्तकः संजातः सर्वप्राणिसंयुक्तद्वारवतीं दाहे पापधीः कृतनिश्चयः युवामेव न धक्ष्यमीत्वयड्. गुलिद्वयेनसंज्ञांचकार अनिवर्तकक्रोधं ज्ञात्वा विषण्णौ व्याघुट्य किंकत्र्तव्यतामूढ़ौ पुरीं प्रविष्टे। तथा शंभवाद्याश्चरमांगका यादवाः पुर्याः निष्क्रम्य दीक्षां गृहीत्वा गिरिगुहादिषु तस्थिवांसः। द्वीपायनस्तु क्रोधशल्येन मृत्वा भवनामरो वभूव। सोऽग्निकुमारनाम विभंगेन पूर्ववैरं स्मृत्वा द्वारावतीं बालवृद्धस्त्रीशुसमेतां विष्णुबलौ मुक्त्वा ददाह। तौ दक्षिणापथे वनीं प्रविष्टौ। तत्र विष्णुर्जरत्कुमारभिल्लेन पादे वाणेन ताडितो मृतः तृतीयं नरकं जगाम। द्वीपायनस्तु अनन्तसंसारी वभूव।
इतिद्वीपायनस्यकथा सम्पूर्णा।

अर्थ- बलभद्र ने भ्गवान नेमिनाथ से पूछा कि हे स्वामिन्! यह द्वारावती नगर, कालान्तर में क्या समुद्र में डूबेगी या अनरू कारणों से नष्ट होगी। तब भगवान ने उत्तर दिया- रोहिणी का भाई द्वीपायन कुमार आपका मामा बारह वर्ष के बाद शराब के कारण इस नगरी को क्रोध में जलाने वाला होगा। इस बात को सुनकर द्वीपायन कुमार इस जैनवचन को असत्य करने की इच्दा से दीक्षा लेकर पूर्व देश को चला गया। और बारह वर्ष की अवधि पूर्ण करने के लिए तप करना प्रारम्भ किया। जरत्कुमार के द्वारा कृष्ण की मृत्यु होगी ऐसा सुनकर बलभद्र आदि सभी लोग नेमिनाथ को नमस्कार करके सभी यादवों ने द्वारवती में प्रवेश किया। इसके बाद कृष्ण और बलभद्र ने शराब निषेध करनेल वाली घोषणाए कराई। तब शराब पीने वालों ने मद्य के अंग-शराब बनाने की वस्तुएं आटा महुआ आदि और शराब को कदम्ब नामक वन में पर्वक की गह्वर में फेंक दिये और वह शराब कदम्ब वन के कुण्डों में बह कर भर गई। कर्मोदय वश सभी यथाा स्थान रनहे लगे। श्री नेमिनाथ स्वामी पल्लव देष की ओर बिहार कर गये। जिनेन्द्र भगवान के साथ भव्य जीव भी उत्तरापथ की ओर चले गये, द्वीपायन मुनि भूल से बारह वर्ष पूर्ण हो गये ऐसा मानते हुए, जिनेन्द्र भ्गवान के चन झूठ हो गये ऐसा सोचते हुए, सम्यग्दर्शन से रहित द्वारावती में आकर पर्वत के पास नगर के बाहर मार्ग में आतापन योग में स्थिति हो गयें वन क्रीड़ा से परिश्रान्त -थके हुए और प्यास से व्याकुल होते हुये कादम्बवन के कुण्डों में जल है, ऐसा जालनकर शम्भू आदि यादव पुत्रों ने उस शराब को पी लिया सिजसे राजकुमार विकार को प्राप्त हो गये। वह बारह वर्ष पुरानी शराब परिपाक वश जैसे वरूणी स्ी, तरूण पुरूष को वश में करती है उसी प्रकार उस उस शराब का सवेन करके असम्बद्ध गाँते नाचते हुये, स्खलित हैं पैर जिनके ऐसे सभी कुमारों के बाल बिखरें हुये और पुष्पों के बनाये करणा भरण जिनने, पुष्पों की माला कंठ में धारण किये हुये सभी कुमार नगर की ओर आ रहे थे।

सूर्य की ओर मुख करके बैठे हुये द्वीपायन मुनि को देखकर आंखों को चढ़ते हुये इस प्रकार बोले, वही यह द्वीपायन मुनि है, जो द्वारावती को जलायेगा, सो अब हमारे सामने से कहां जायेगा, ऐसा कहकर सब ओर से लोष्ट और पत्थरों के द्वारा तब तक मारते रहे जब तक वह भूमि में नहीं गिर गये। इस प्रकार उन निदयी कुमारों के पीटने से उत्पन्न हुआ है और क्रोध जिसको, ऐसे द्वीपायन मुनि ने ओष्ठों को दांतेां से दबाकर अपने तप के बल से यदुवंशियों का नाश करने के लिए भृकुटि चढ़ाई। तब सभी कुमार नगर की ओर चले गये।

किसी ने कुमारों के दुराचार की शिकायत कृष्ण और बलदेव से कर दी। इस वार्ता को सुनकर कृष्ण और बलदेव सोचने लगे कि नेमिनाथ भगवान ने कहा था कि द्वारावती प्रलय को प्राप्त होगी, सो उसका समय आ गया ऐसा मानते हुये दोनों भाई परिवार सहित मुनि के पास गये। वे मुनि क्रोध रूपी अग्नि में जलते हुये अत्यंत संक्लेश को प्राप्त हो रहे थे, टेडी भौंहे, विषयम मुह - (क्रोध के समय में मुख की आकृति बिगड़ जाती है।) नहीं देखने योग्य आंखें, क्षीण शरीर कण्ठ गज प्राण जिनके ऐसे मुनि के भ्यंकर रूप को कृष्ण और बलदेव ने देखा। हाथ जोड़कर, बड़े आदर के साथ नमस्कार करके याचना की, चूंकि दोनों लोग जानते थे कि याचना करना निष्फल है, फिर भी मोह के वश याचना की और कहा कि, हे साधे! तप रूपी भारत की चिर काल से रक्षा की है, और क्षमा जिसका मूल है, वह क्रोध रूपी अग्नि से जल जायेगा, क्षमा मोक्ष का साधन है उसकी रक्षा करों। मूढ़ प्रमाद युक्त अज्ञानी बालकों ने जो दुव्र्यहार किया है और उसको क्षमा करो। क्रोध चारों वर्गों को नाश करने वाला शत्रु है, स्व पर का नाश करने वाला है। हे मुने हम सबके ऊपर प्रसन्न होईएँ।

इस प्रकार कृष्ण और बलदेव ने प्रियवचनों से पैरों में गिरकर क्षमा याचना की, किन्तु मुनि ने कुछ नहीं सुना, पाप बुद्धि युक्त द्वीपायन मुनि ने निश्चय कर लिया कि सब प्रणियों से युक्त द्वारावी जलाऊंगा, सिर्फ तुम दोनों (कृष्ण और बलदेव) को नहीं जलाऊंगा, ऐसा दो अंगुलियों से संकेत किया। दोनों भाईयों ने जाना कि अब क्रोध शांत होने वाला नहीं है, वहां से लौटकर कि कत्र्तव्य मूढ होकर नगर में प्रवेश किया। उस समय शम्भू आदि चरम शरीरी सभी कुमार द्वारका से निकलकर प्रभु के पास जाकर जैनेश्वरी दीक्षा को ग्रहण करके, र्वत की गुफा आदि में रहने लगें द्वीपायन क्रोध रूपी शल्य (वाण) से मर कर भवनवासी देव हो गया, सेा वह अग्नि कुमार नामक देव ने विभांगावधि ज्ञान से पूर्व वैर को स्मरण् करे कृष्ण और बलदेव को छोड़कर, बाल, वृद्ध, स्त्री, पशु सहित द्वारावती को जला दिया। दोनों भाई द्वारका नगरी छोड़कर दक्षिणापथ की ओर वन में प्रवेश कर गये। उस वन में जरत कुमार भील ने कृष्ण जी के पैर में बाण मारा जिसकी पीड़ा से मरकर कृष्ण तीसरी पृथ्वी को प्राप्त हुये और द्वीपायन अनन्त संसारी हुआ।

इस प्रकार द्वीपायन मुनि की कथा समाप्त हुई।

स्त्रीश्र्यादिरहित नारदादयो बहवोऽपि क्रोधेनाघार्जनं कृतवा रौद्रध्यानात्श्वभ्रं गताः। यस्य चित्तकुटीर के कोपाग्नि जृम्भते दृष्टयादिरत्नादि भस्मीभावं व्रजन्ति कोपाग्नि पूर्वं देह दहति, ततोऽपरान् जनान् दहति धर्मादींश्च दहत अमुत्राधोगतिं यति।

अर्थ- बाल ब्रह्मचारी धनएवं गृहत्यागी नारद आदि बहुत से प्राणी क्रोध से पाप का अर्जन करके और रौद्रध्यान से आविष्ट होकर नरक को प्राप्त हुये। जसके चित्त रूपी कुटियां में क्रोध रूपी अग्न हमेशा प्रज्ज्वलित हो रही है, उसके सम्यग्दर्शन आदि रत्न भ्स्म भाव को प्राप्त हो जाते है। क्रोध रूपी अग्नि पहले शरीर को जलाती है, तत्पश्चात् दूसरे लोगों को जलाती है और धर्म आदि को नष्ट कर देती है। अधिक क्या कहें क्रोध इस लोक में भी कष्ट देता है और परलोक में भी अधोगति का कारण होता है।

यदि नग्नः चीवरावृत इस क्वचित् कोपं कुर्यात्तदा सु स साधुः पापधीः असभ्यजनादिपिनीचः प्रोक्तः लोके क्रोधेन समोऽशुभः सर्वानर्थंकरों वैरि न। अमुत्र क्रोधः मनुष्याणां सप्तम श्वभ्रकारको भवित। इत्यादि दोषकर्तारं क्रोधशत्रुं भी तपोधना! क्षमाखड्गेन मोक्षाय जयन्तु।

अर्थ- यदि कोई साधु, श्रावक के समान कदाचित् क्रोध करता है तो वह साधु पाप बुद्धि वाला और असभ्य लोगों से भी नीच कहा गया है। लोक में क्रोध के समान अशुभ और सभी अनर्थों को करने वाला, आत्मा का वैरी इसके समान और कोई नहीं है। यह क्रोध मनुष्यों को सप्तम नरक को प्राप्त कराने वाला कहा है।

इत्यादि अनेक दोषों को करनेवाले क्रोध रूपी शत्रु पर हे तपोधन! माक्ष प्राप्तिम के लिए क्षमा तलवार से विजय प्राप्त करो। जैसा कि कहा है-

पावं खवइ असेसं खमाए परिमंडिओ य मुणिपवरो।
खेयर अमरणरायणं, पसंसणिओ धु्रवं होई।।49।।
इस णाऊण खमागुणं खमेहि तिविहेण सयल जीवाणं।
चिरसंचिय कोहसिहिं वरखमसलिलेण सिंचेह।।50।।

अर्थ- उत्तम क्षमा से परिमण्डित मुनि पुंगव, सम्पूर्ण पाप को नष्ट कर देते हैं, वे मुनि ही देव, मनुष्य और विद्याधरों में निश्चय से प्रशंसा के पात्र होते हैं।

ऐसा जानकर सभी जीवों को मन-वचन-काय से क्षमा गुण को धारण करना चाहिए। चिरकाल से संचित क्रोध रूपी अग्नि को, उत्तम क्षमा रूपी पानी के सिचंन से शांत करना चाहिए।

क्रोधकषायस्य चिन्हमाल - क्रोधः अंगे हृदि च कम्पनं करोति। नेत्रे रागं विदधाति समनसि विभ्रमं करोति, सर्वनीतिनिष्णात बुद्धिक्ष्यं करोति, पुण्यपदवीं नाशयति तृष्णवृद्धिं करोति। अधैर्यतां तनोति, पित्तज्वरद् उष्णतां करोति। क्रोधदोषमाह क्रोध दृशं चित्तं चरित्रं च हन्ति, क्रोधः सर्वक्लेशकरः क्रोधेकृते सति साहायिनोऽपि सकला जना विरूद्ध भवन्ति। क्रोधः स्वपरनाशक धर्मक्षयंकरः संसारवर्धकः चुतुर्वर्गशत्रुः चित्ते कालुष्यं जनयति क्रधिपुरूषस्य तपः कल्शेय पापाय च भवति। इत्यादि कोपादोषान् ज्ञात्वा आत्महितार्थिभिः पुंभिः कोपः परिवर्जनीयः

अर्थ- क्रोधकषय के चिन्ह बताते हैं क्रोध शरीर और हृदय में कम्पन पैदा करता है आंखें लाल हो जाती हैं, मन विभ्रम को प्राप्त होता है, सर्व नीति में निष्णात बुद्धि क्षय को प्राप्त होती है, पवित्र पद को नष्ट कर देता है, तृष्णा की वृद्धि करता है, अधीरता को प्राप्त होता है, पित्तज्वर के समान शरीर उष्णता को प्राप्त होता है।

क्रोध के दोष - क्रोध-दर्शन ज्ञान चरित्र को नष्ट कर देता है। क्रोध सब क्लेशों को करने वालाल है, क्रोध करने पर सभी सहायी बन्धु और सकल जन विरोध को प्राप्त हो जाते हें, स्वर पर नाशक है, धर्म का क्षय करने वाला है संसार का बढ़ाने वाला है, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों वर्गों को नष्ट करने वाला शत्रु है, चित्त में कलुषता को उत्पन्न करनेवाला है, क्रोधी पुरूष का तप क्लेश और पाप के लिये होता है।

इत्यादि क्रोध के दोषों को जानकर आत्मा का हित चाहने वाले पुरूषों के द्वारा, क्रोध त्यागने योग्य ही है।

केषं केनोपायेन कोपाशमनं भवति तद्विधिमाह - ब्राहह्मणानां कोपो दानावसानः। क्षत्रियाणां प्राणावसानः। वणिग्जनानां प्रियवचनावसानः। सतां हि कोपो नमनावसानः। गुरूणां प्रणामावसानः। अतिक्रोधिनः प्रभूत्वमग्नौ पतितं लवणमिव शतधा विशीर्यंते। क्षमावन्तं पुरूषं सर्वे जनाः स्वमनसि संस्थाप्य अजस्त्रं स्तुवन्ति प्रशसन्ति च।

अर्थ- किसका क्रोध किस उपाय से शमन होता है विधि बताते हैं। विप्रों का क्रोध दान देने से शांत होता है, श्रत्रियों का क्रोध प्राण अवसान से, वणिक् जनों का क्रोध प्रियवचनों से, सज्जनों का क्रोध नमन करने से शांत होता है, गुरूओं का क्रोध प्रणाम करने से, अतिक्रोधी का क्रोध कभी शांत नहीं होता जैसे, प्रचुर अग्नि में नमक डालने पर उसके सौ टुकड़े हो जाते हैं। क्षमावान् पुरूष को सभी लोग अपने मन में स्थापित करके निरन्तर स्तुति और प्रशंसा करते हैं।

परिकुप्यति यः सकारणं, नितरां सोऽनुनयेन शाम्यति।
अनिमित्तरूषः प्रतिक्रिया, क्रियतां केन नयेन कथ्यताम्।।51।।

अर्थ- जिसका क्रोध कारण पाकर उत्पन्न होता है उसका क्रोध विनय करने से शांत हो जाता है। बिना कारण के उत्पन्न हुये क्रोध का प्रतिकार कैसे किया जा सकता है।

अतिरोषवतो हितं, प्रियवचनं प्रत्युत कोपदीपकम्।
शिखितप्ततमे हि सर्पिषि, प्रपतत्तोयमुपैति वन्हिताम्।।52।।
कुपितस्य रिपों प्रशान्तये, प्रथमं साम विधीयते बुधैः।
कतकेन विना प्रसन्नतां, सलिलं कर्दमितं प्रयाति किम्।।53।।

अर्थ- अति क्रोधी व्यक्ति को हित ओर प्रिय वचन भी क्रोध रूपी दीपक को बढ़ाने वाले होते हैं। जैसे अग्नि से सन्तप्त घृत में डाला हुआ पानी भी अग्नि पने को प्राप्त होता है।

क्रोध रूपी शत्रु की शांति के लिए सज्जन पुरूषों के द्वारा सबसे पहले समता रस का प्रयोग करना चाहिए। जैसे - कीचड़ से युक्त पानी फिटकरी के बिना क्या निर्मलता को प्राप्त हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता।

क्रोध को जीतने का उपाय

धर्मे स्थितिस्य यदि को ऽपि करोति कष्टं, पापं चिनोति गतबुद्धिरयं वराकः।
एवं विचिन्त्य परिकल्पकृतं त्वमुष्य, ज्ञानान्वितेन भवति क्षमितव्यमत्र।।54।।

अर्थ- धर्म में स्थित रहने वाले व्यक्ति के यदि कोई कष्ट देता है तो वह बेचारा अज्ञानी व्यर्थ में पाप का संचय कर रहा है, ऐसा विचार करके ज्ञानियों को क्षमा करना चाहिये।

कापेन कोऽपि यदि ताडयतेऽथ हन्ति, पूर्व मयाऽस्य कृतमेतदनर्थबुद्ध्या।
दोषो ममैव पुनरस्य न कोऽपि दोषो, ध्यात्वेति तत्र मनसा सहनीयमय।।55।।

अर्थ- यदि कोई व्यक्ति क्रोध से ताडित करता है, तो उस समय ऐसा विचार करना चाहिए कि मैंने पहले अज्ञानता से इसका अनर्थ किया है इसलिए यह कष्ट दे रहा है इसमें मेरा ही दोष है, इसका नहीं, ऐसा विचार करके मन से सहन करना चाहिए।

व्याध्यादिदिोषपरिपूर्णमनिष्ट संग, पूो दमंगमपनीय विवध्र्य धर्म।
शुद्धं ददाति गतबाधमनल्पसौख्यं, लाभो ममाऽयमिति घातकृतो विषह्यम्।।56।।

अर्थ- क्रोधी व्यक्ति यदि कष्ट दे रहा है ऐसा विचार करना चाहिए कि ये शरीर व्याधि आदि दोषों से सहित है इसका संग अनिष्ट है, अपवित्र है, इससे मोह हटा कर और धर्म को बढ़ाकर सहन करना चाहिए यह तो हमको लाभ ही है क्योंकि यह बाधा से रहित बहुत भारी सुख हो देने वाला है।

दोषेषु सत्सु यदि कोऽपि ददाति शापं, सत्यं ब्रबीत्ययमिति प्रविचिन्त्य सह्यम्।
दोषेष्वसत्सु यदि कोऽपि ददाति शापं, मिथ्या ब्रबीत्ययमिति प्रविचिन्त्य सह्यम्।।57।।

अर्थ- यदि कोई व्यक्ति अपने को शाप देता है (शाप-दुर्वचन) तो ऐसा विचार करना चाहिये कि यदि ये दोष मेरे में है तो यह सत्य ही कह रहा है। और यदि ये दोष मेरे में नहीं है, यह मिथ्या कह रहा है तो भी सहन करना चाहिए।

शप्तोऽस्म्यनेन न हतोऽस्मि नरेण, रोषात्, नो मारितोऽस्मि मरणेऽपि न धर्मनाशः।
कोपास्तु धर्ममपहन्ति चिनोति पापम्, संचिन्त्य चारूमतिनेति तितिक्षणीयम्।।58।।

अर्थ- इस व्यक्ति ने क्रोध से दुर्वचन ही तो कहा है, मारा तो नहीं, यदि मारा भी है तो मेरा धर्म नाश तो नहीं किया, ये बेचारा क्रोध करके धर्म को नष्ट कर रहा है और पाप का संचय कर रहा है, ऐसा विचार करके बुद्धिमानों को सहन करना चाहिये।

यद्यज्ञः कोऽपि सत्साधुं, कोपाच्छपति पापभाक्,
आकर्षत्यत्र वा हन्त, यष्ट्यद्यैः प्रायुधेन वा।।59।।

अर्थ- यदि कोई मूर्ख क्रोध से सच्चे साधु को गालियां देता है या लाठी आदि आयुधों से पीटता है, तो वह महा पाप का बंध करता है।

तत्सर्वं साधुना नूनं, सोढव्यं स्वहितेच्छुना,
कर्मक्षपाया कोपो न, कार्यः प्राणात्यये क्वचित्।।60।।

अर्थ- आत्महित के इच्छुक साधु को कर्म क्षय के हेु सब कुछ सहन करना चाहिए, कदाचित प्राण भी चले जाये तो भी साधु को क्रोध नहीं करना चाहिए।

यदि वाक्यकण्टकै- र्विद्धो, नावलम्बे क्षमाऽहं,
ममप्याक्रोशकादस्मात्, को विशेषस्तदा भवेत्।।61।।

अर्थ- वचन रूपी काँटों से विद्व हुआ मैं अगर क्षमा रूपी कवचन का आलम्बन नहीं लेता तो, इस क्रोध करने वाले में और मेरे में क्या अंतर रहा। इसलिये मुझे क्रोध नहीं रना चाहिये।

मदीयमपि चेच्चेतः क्रोधाद्यै र्विप्रलुप्यते।
अज्ञात ज्ञात तत्वानां, को विशेषस्तदा भवेत्।।62।।

अर्थ- यदि मेरा मन क्रोधादि चोरों के द्वारा ठगाया जाता है तो अज्ञानी में और ज्ञानी में क्या विशेषता हुई।

हत्वा स्वपुण्यसन्तानं मददोषं या निकृन्तति।
तस्मैं यद्यहं रूष्यामि, मदन्यः कोऽधमस्तदा।।63।।

अर्थ- जो अपने पुण्य को नष्ट करके हमारे दोषों को छेद रहा हैं यदि मैं उस पर क्रोध करता हूं मेरा जैसा उधम और कौन होगा?

यः शमः प्राक् समभ्यस्तो, विवेकज्ञानपूर्वकः।
तस्यैतऽद्य परीक्षार्थं, प्रत्यनीकाः सम3पस्थिताः।।64।।

अर्थ- विवके ज्ञान पूर्वक जिस समता भाव का मैंने पहले अभ्यास किया है उसकी परीक्षा के लिये ये विघ्न उपस्थित हुये हैं।

परपरितोषनिमित्तं, त्यजन्ति केचिद् धनं शरीरं च।
दुर्वचनबन्धनाद्यै र्वयं रूषतो न लज्जामः।।65।।

अर्थ- कोई महापुरूष दूसरों को सन्तुष्ट करने के लएि धन को छोउ़ देते हैं। किंतु दुर्वचन और बन्धनादि से हम लोग क्रोध करते हुये लज्जा को प्राप्त नहीं होते।

मया दुरात्मना तेऽद्य, मनोवाक् कायकर्मभिः।
यदनिष्टं कृतं सर्वं, तत् त्वं क्षमस्व सर्वथा।।66।।

अर्थ- मुझ दुरात्मा ने मन, वचन, काय से जो अनिष्ट किया है, उस अपराध को आप क्षमा करें।

क्षमतव्यं देव! यत् किंच - दस्माकमिति दुष्कृतं।
विघातुं शक्यते केन, योग्यं सर्वं भवादृशाम् ।।67।।

अर्थ- हे देव! मैंने जो अपराध किया उसको क्षमा करें। क्योंकि आप जैसे योग्य महापुरूष को छोड़कर, मेरे दुष्कृत् और किसके द्वारा नष्ट किये जा सकते हैं।

यदकार्षमहं दुष्टमति कष्टकरं त्रिधा।
तत्सर्व सर्वदा सद्भिः क्षम्यताम् मम दुष्टताम्।।68।।

अर्थ- यदि मन वचन काय से अति कष्ट करने वाली दुष्टता मैंने की हो तो सज्जन पुरूष क्षमा करें।

क्रोधोत्पत्तिनिमित्तानामत्यन्तं सति सम्भवे।
आक्रोशताडनादीनां, कालुष्योपरमः क्षमा।।69।।
क्रोधवन्हेः क्षमैकेयं प्रशांतौ जलवाहिनी।
उद्दामसंयमाराम वृतिर्वात्यनतनिर्भरः।।70।।
क्रोधयोधः कथंकार-महकांरः करोत्ययं।
लीलयैव पराजिग्ये, क्षमया रामयाऽपि यः ।।71।।

अर्थ- क्रोध उत्पत्ति के निमित्त मिलने पर भी कलुषता नहीं होना क्षमा कहलाती है।

क्षेष्ठ संयम रूपी वृति (वरगा) को क्रोध रूपी अग्नि जला देती है, किंतु वह अग्नि शमता रूपी नदी के पानी के सिंचन से शांत हो जाती है।

यह क्रोध रूपी योधा अहंकार कैसे करता है, क्योंकि क्षमा रूपी लक्ष्मी के द्वारा सहज में जीत लिया जाता है।

उत्तमस्य क्षणंकोपो, मध्यस्य प्रहरद्वयं।
अधमस्य त्वहोरात्रं, पापिष्ठस्य सदा भवेत्।।73।।

अर्थ- उत्तम पुरूष का क्रोध एक क्षण में शां हो जाता है। मध्यमपुरूष का क्रोध दोपहर में और अधमपुरूष का एक दिन रात में शांत हो जाता है किंतु पापी जीवों का क्रोध कभी शांत नहीं होता है।

तीर्णों भवार्णवस्तै यै्र, क्षाम्यन्ति क्षमयन्ति च।
क्षाम्यन्ति न क्षमयतां ये, ते दीर्घाजवंजवाः।74।।

अर्थ- जिन महानुभावों ने सब जीवों को क्षमा किया है, और सब जीवों से क्षमा कराया है, उन पुरूषों ने संसार रूपी समुद्र पार कर लिया और जो न क्षमा करते हैं, न कराते हैं उन जीवों का संसार बहुत लम्बा है।

सत्संयममहारामं, यमप्रशमजीवितं।
देहिना निर्दहत्येव, क्रोधवन्हिः समुत्थितः।।75।।

अर्थ- क्र रूपी अग्नि उत्पन्न होने पर प्राणियों के सत्संयम रूपी बगीचा, यम प्रशम और जीवन, ये सभी चीजें जल जाती हैं।

अयं समुत्थितः क्रोधो, धर्मसारं सुरक्षित।
निर्दहत्येव निःशंकः शुष्कारण्यमिवानलः ।।76।।

अर्थ- अच्छी तरह रक्षा किये गये श्रेष्ठ धर्म को उत्पन्न हुयी क्रोध रूपी अग्नि, उस प्रकार शीघ्र नष्ट कर देती है जिसप्रकार शुष्क वन को अग्नि शीघ्र जला देती है।

कुर्वन्ति यतोयोऽप्यत्र, क्रोद्धास्तत्कर्म निन्दितं।
हत्वा लोकद्वयं येन, विशन्ति धरणीतलम्।।77।।

अर्थ- इस लोक में क्रोधी यति भी निन्दित कर्म करते हैं। जिससे दोनों लोकों को नष्ट कर अधोगत के पात्र होते हैं।

जयंति यमिनः क्रोधं, लोकद्वय विरोधकं।
जितक्रोधेन सर्वं जगद् विजयते, जितक्रोधो दुःखस्यास्पदी न भवते्।।78।।

अर्थ- दोनों लोकों का विरोध करनेवाले क्रोध को साधुन जीतते हैं। किंतु क्रोध ने सम्पूर्ण जगत पर विजय प्राप्त की है और जिन्होंने क्रोध को जीता है वे कभी दुःख के पात्र नहीं होते।

क्रोधस्य कालकूटस्य, विद्यते महदनतरं।
स्वाश्रयं दहति क्रोधः कालकूटो न चाश्रयम्।।79।।

अर्थ- क्रोध और काल कूट विष में बहुत अंतर है। क्योंकि क्रोध स्वयं को और आश्रित को जलाता है। किंतु कालकूट सिर्फ खाने वाले को नष्ट करता है आश्रित को नहीं।

अपकारिणिचेत् क्रोधः, क्रोधे क्रोधः कथं न ते।
धर्मार्थकाममोक्षाणां, चतुर्णां परिपन्थिनि।।80।।

अर्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों का विनाश करने वाला यदि क्रोध अपकारी है तो तुम्हारा क्रोध पर ही क्रोध क्यों नही ंहोता अर्थात् क्रोध पर ही क्रोध करना चाहिए।

क्रोधान् मित्रं भवेच्छत्रु, क्रोधाद् धर्मो विनश्यति।
क्रोधाद् राज्यपरिभ्रंशः, क्रोधान् मोमुच्यतेऽसुभिः।।81।।

अर्थ- क्रोध से मित्र शत्रु हो जाता है, क्रोध से धर्म नष्ट हो जाता है। क्रोध से राज्य नष्ट हो जाता है, यहां तक कि क्रोध से प्राण भी नष्ट हो जाते हैं।

क्रोधान्मातापि सक्रोधा, भवेत् क्रोधादधोगतिः।
ततः श्रेयोर्थिनां त्याज्यः, स सदेति जिनोदितम्।।82।।

अर्थ- क्रोध से स्वयं को माता भी सक्रोधी हो जाती है, क्रोध से अधोगति होती है। इसलिये मोक्ष के अभिलाषी पुरूषों को हमेशा के लिए क्रोध को छोड़ देना चाहिए ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है।

तावत्तपो व्रतध्यानं, स्वस्थचित्तं दयादिकं।
यावत् क्रोधो न जायेत, तस्मात् क्रोधं त्यजेन्मुनिः।।83।।

अर्थ- तप, व्रत, ध्यान, एकाग्रचित्त और दयादिक तब तक रहते हैं। जब तक क्रोध रूपी शत्रु ने आक्रमण नहीं किया। उस क्रोध रूपी शत्रु से बचने के लिए मुनि क्रोधको छोड़ें।

पूर्वं शोषयते मात्रं, क्रोधाग्निः प्रकटीस्थितिः।
पश्चादन्या अप दद्याद्, दुःखशोकादिदुर्गतीः।।84।।

अर्थ- क्रोधााग्नि के प्रकट होने पर सबसे पहले शरीर शुष्क होता है बाद में अन्य दुख, शोक, ताप आदि होने से दुर्गति होती है।

लोकद्वयविनाशाय, पापाय नरकाय च।
स्वपरस्यापकाराय, क्रोधशत्रुः श्रीरिणाम्।।85।।

अर्थ- क्रोध रूपी शत्रु, जीवों के दोनों लोकें को नष्ट करने वाला है, पाप बंध कराकर नरक ले जाने वाला है और यहां तक कि स्व और पर का अपकार करने वालाल है।

क्रोधोऽश्वदग्निकृत् पवनवत्, पित्तापहृत् पुण्यहृत्,
नित्यंधूमकृदग्निवद् दुरितकृत्, मिथ्याग्रहाकृष्टिकृत।
मन्त्रीवाऽशुचिरब्धिवाडव इव श्री दृग गिरेर्वज्रवत्,
वृत्तध्यानदवाग्निवत् लसति, दुष्कर्माटीमेघवत्।।86।।

अर्थ- क्रोध-बिना लगाम के घोड़े के समान गड्डे में पटकने वाला है। क्रोध संसार को बढ़ाने के लिए अग्नि कोप्रज्वलित करने वाली हवा के समान है, क्रोध जठराग्नि को और पुण्य को नष्ट करने वाला है। क्रोध, पापों को करने के लिए धूम को उत्पन्न करने वाली अग्नि के समान है। क्रोध-मियिा आग्रह रूपी कृष्टि को करने वाला है। क्रोध दुष्ट स्वभाव वाले मंत्री के समानहै। क्रोध गुण रूपी रत्नों को नष्ट करने के लिये समुद्र में लगी हुई वडबानल के समान है। क्रोध सम्यग्दर्शन रूपी पर्वत की शोभा को नष्ट करने के लिए वज्र के समान है। चारित्र और ध्यान को जलाने के लिए वनग्नि के समान है। दुष्ट कर्म वन को हरा भरा रखने के लिए मेघ के समान है।

अभाष्यां भाष्ते भाषा-मकृतां कुरूते क्रिया।
कोपाव्याकुलितो जीवो, ग्रहार्त इव कम्पते।।87।।

अर्थ- क्रोधी व्यक्ति नहीं बोलने योग्य वाणी बोलने लगता है, नहीं करने योग्य कार्य करने लगता है, तथा क्रोध से व्याकुल जीव ग्रह से पीडि़त मनुष्य की तरह कांपने लगता है।

त्रिवलीकलितालीको, रक्तस्तब्धी कुले क्षणः।
दन्त दष्टाधरो दुष्टो, जायते राक्षसोपमः ।।88।।

अर्थ- क्रोधी व्यक्ति के माथे में त्रिवली हो जाती है, झूठ बोलता है, आंखे लाल हो जाती है। दांतों से डसने लगता है, ओष्ठ कांपने लगते हैं, और दुष्ट राक्षस के समान हो जाता है।

विदधानस्तनौ कोपं, पर घाताय मूढ़धीः।
स्वयं निहन्यते पूर्वमन्यधातो विकल्प्यते।89।।

अर्थ- मूढ बुद्धि दूसरेां का घात करने के लिए कोप करता हुआ पहले स्वयं का घात करता है, बाद में अन्य का घात होता भी है और नहीं भी होता, यह उसके भाग्य के ऊपर है।

कोपादि रहितां सारां सर्व सौख्यकरां क्षमां।
पूजया परया भक्त्या, पूजयामि तदाप्तये।।90।।

अर्थ- कोपादि से रहित, सब धर्मों का सार, सब सुखों को रकने वाली उत्तम क्षमा को मैं क्षमा धर्म की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ भक्ति से पूजा करता हूं।

क्षमा धर्म कथानक

1. नदी के किनारे का साधु बैठा था, तभी एक बिन्छु नदी में गिर गया साधु ने उसको बाहर निकालने की कोशिश की तो उसने साधु के हाथ में डंक मार दिया, साधु के हाथ् से बिच्छु छूट गया और पानी में बहने लगा साधुन ने पुनः निकालने की कोशिश की तो पुनः बिच्छु ने डंक मार दिया, इस प्रकार साधु ने कई बार निकालने की कोशिश की, तभी एक व्यक्ति ने यह करिश्मा देखकर साधु से कहा कि आपके लिये जब यह डंक मार रहा है तो फिर आप छोड़ क्यों नहीं देते? तब साधु ने उत्तर दिया कि जब यह अपने डंक मारने के स्वभाव को नहीं छोड़ रहा है तब मैं अपना दया स्वभाव क्यों छोडूँ।

2. एक बार गांधी जी के कार्यालय में किसी विरोधी व्यक्ति ने एक कागज में गालियां लिखकर टेबिल पर रख दी। गांधी जी ने उस कागज को देखा, और पढ़ा, किंतु उनके मन में कोई विकल्प नहीं हुआ, कागज को रद्दी की टोकरी में डाल दिया और पिन काम में ले लिया। उस व्यक्ति को पता चला तो वह लज्जित होकर गांधी जी के चरणों में झुक गया।

3. वैशाल ग्राम में एक सेठ रहता था, जिसका नाम जिनदत्त था, वह प्रकृति का दयालु, क्षमावान तथा जैन धर्म का अनुयायी था। एक बार उने सम्यग्ज्ञान के प्रचार हेु एक पाठशाला का निर्माण कराया, जिसमें अनेक बच्चे अध्ययन कर अपने अज्ञान अन्धकार को दूर करते थे। उस पाठशाला में प्रवेश पाने हेतु एक बालक आया जिसका नाम था राजकमल, वह स्वभाव से शैतान था, ज बवह क्लास में पढने जाने लगा तो बच्चों को परेशान करता था, शिक्षक की आज्ञा को भी भंग करने लगा तब, शिक्षक ने उसे क्लास से निकाल दया सेठ जी ने उसको अपने पा रख लिया अ बवह घर की वस्तुओं की तोड़फोड़ करने लगा, सेठ जी ने तब भी उसको कुछ नहीं कहा, एक दिन सेठ जी की घड़ी फोड़ दी तब भी सेठ जी ने कुछ नहीं कहा, घड़ी के फूटने पर राजकमल की पश्चाताप हुआ, सेठ जी से क्षमा मांगी, और आंखों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होती रही। अ बवह शैतान राजकमल शांत हो गया और बहुत बड़ा विद्वान हुआ सेठ जी के क्षमा गुण के प्रभाव से वह क्षमा का सागर बन गया।

4. प्राणी को क्रोध आता है तो विवके रूपी नेत्र बन्द हो जाता है। सुप्रसिद्ध नगर साकेत में एक विप्र परिवार रहता था। एक दिन विप्र भिक्षा हेतु किसी नगर में चला गया। घर में सिर्फ ब्राह्मणी और लाड़ला बेटा था, जो कि अभी मां की गोद से बाहर नहीं आया था। मां पानी लेने कुंए पर गई, और अपने लाड़ले को पालने में सुलाया और नेवले को लाड़ले का रक्षा कार्य सौंप कर निश्चिंत हो गई। इसी बीच एक काला नाग लाड़ले के निकट आया देखकर नेवलेने उससे युद्ध किया, और दंत रूपी अस्त्र के प्रहार से नागराज की जीवनलीला समाप्त कर दी। नेवला युद्ध करते करते पीसना से नहा गया, युद्धस्थल को छोड़कर सुगंधित समीर को ग्रहण करने हेतु दरवाजे के बाहर आकर बैठ गया। समय गुजरता गया ब्राह्मणी कुंए से वापस आई, वह देखती है, कि रक्षक ओष्ठ लालिमा युक्त हैं। शायद यह रक्षक नहीं भक्षक है, इसने मेरे लाडले का काम तमाम कर दिया और बिना, सोचे समझे ही शिर की मटकी नेवलेपर पटक दी, रक्षक निरपराध होकर भी प्रशंसा के स्थान पर सजा को प्राप्त हो गया था। ब्राह्मणी जब पट खोलकर पालने के पास पहुंचती है, तो लाडला किलकारी मार रहा था। कितु पालने के नीचे सर्प की लाश देखकर वह पश्चात्ताप करने लगी उसे नेवले का उपकार याद आने लगा कि मैंने अपनी क्रोधरूपी अग्नि से एक निरपराध प्राणी को जला डाला। क्रोध करने से निज और पर का घात होता है इसलिए कभी भी क्रोध नहीं करना चाहिए। अंत में ब्राह्मणी के पश्चाताप ही हाथ लगा।

5. पंडित प्रवन गोपाल दास जी बरैया विद्वानों में से एक थे। आप बहुत ही सहिष्णु स्वभाव के थे। परंतु अपकी पत्नी का स्वभाव थोड़ा तेज था, जिससे वे अक्सर बरैया जी पर गरजती रहती थी।

एक दिन की बात है बरैया जी को किसी कार्य की व्यस्तता के कारण घर वापस आने में विलम्ब हो गया। देर रात तक घर न आने की वजह से आपकी पत्नी आपके ऊपर बहुत नाराज हुई तथा ना जाने आने में अब कितनी देर लगेगी, इस विचार से संकल्प विकल्प करते हुये उन्होंने किवाड बंद कर लिये और विस्तार पर जाकर लेट गई। उन्हें लेटे हुये कुछ ही देर हुयी थी कि इतने में बरैया जी आ गये, बरैया जी ने आवाज लगाई देवी जी किवाड़ खालिये। आवाज सुन भी ली लेकिन कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया पंडित जी ने पुनः आवाज लगाई। तब बड़ी नाराजी के साथ उठी और किवाड़ खोले, जैसे ही पंडित जी ने गृह प्रवेश किया वैसे ही पत्नि ने मटकी भर पानी पंडित जी के ऊपर डाल दिया, जनवरी का माह था भयंकर ठंड थी रात्रि का अवसर था, और पत्नि ने जलवृष्टि कर दी तब भी पंडित जी शांत थे, सिर्फ इतना उत्तर दिया कि हे देवि! अभी तक तो तू गरजती थी किंतु आज बरस भी गयी, इतना कहकर पंडित जी मौन हो गये। वे वास्तविक क्षमावान् पुरूष थे। सद्यः ’’कृतापराधेषु’’ तत्काल किये हुये अपराध को भी क्षमा कर देना ये थी पंडित जी की विशेषता।

6. बहुत पुरानी बात है, ईसा मसीह एक बहुत बड़े दयालु संत थे, उन्होंने अपने जीवन में कभी क्रोध नहीं किया। सुना जाता है कि जब किसी कारण वश उनको शूली पर चढ़ाया गया तब उन्होंने भगवान से प्रार्थना की, हे भगवान्! मुझको सूली पर चढाने वाले ये लोग अज्ञानी हैं, मैं इनका अपराध क्षमा करता हूं। इन्हें कभी कष्ट न देना। इस दुनिया में ऐसे भी प्राणी हैं जो कि प्राण जाने के बाद भी अपराधी पर क्रोध नहीं करते हैं क्योंकि क्षमा गुण आत्मा का स्वभाव है।

7. जब महाभारत हुआ था तब की यह घटना है। कौरव और पाण्डवों के बीच में महाविनाशकारी युद्ध छिड गया। कौरवों के पास योद्धाओं की कतार लगी हुई थी। पाण्डवों के पा सिर्फ श्री कृष्ण जी और पांचों पाण्डव सहित अर्जुन के पांच बेटे थे।

अश्वत्थामा ने अर्जुन के पांचों बेटों को मार डाला द्रोपदी ने सुना तो मूच्र्छित हो गई, भीम ने जब इस बात को सुना तो बोले कि जब तक अश्वत्थामा की बोटी-बोटी काटकर पक्षियों को नहीं खिला दूंगा तब तक मैं भोजन नहीं करूंगा, द्रोपदी ने भीम की इस प्रतिज्ञा को सुनकर कहा कि जैसे-मेरे बेटों के मारे जाने पर में तड़फ रही हूं। इसी प्रकार अश्वत्थामा के मारे जाने पर उसकी मां तड़फेगी, इसलिये इसके अपराध को क्षमा कर दो। द्रोपदी की दयालुता, सहिष्णुता, क्षमागुण प्रशंसनीय था।

8. गणेश प्रसाद जी ’वर्णी’ से प्रायः लोग परिचित हैं उनकी धर्म माता चिरोजा बाई बडी सरल प्रकृति की थी। एक बार की बात है चिरोजा बाई के पा में उनके ननद बाई रहती थी, वह अक्षर ज्ञान से शून्य थीं, एक बार चिरोजा बाई ने समझाया कि झाडू लगाते समय कोई भी कागज मिल जाये तो उसको उठा कर रख दिया करो। एक बार झाडू लगाते समय एक भक्तामर जी के कागज को कचड़े के साथ फेंक रही थी तभी चिरोजा बाई मंदिर से आ गई, उन्होंने देखा तो गुस्सा हुई। उनके सिर के बाल पकडत्रकर सिर दीवाल से टकरा दिया किंतु दीवान में अपना हाथ लगा लिया। ताकी चोट न आ जाए, यह भी कषाय की मंदता का परिणाम है। यह विवके क्षमावान को ही होता है।

क्षमा धर्म के अमृत बिन्दु

1. क्षमा करने के लिए शक्ति चहिए, क्रोध कमजोरी की निशानी है।

2. क्रोधी स्वभाव से यही नरक बनजाता है, और क्षमा भाव से यही स्वर्ग बन जाता है।

3. परिणामों की निर्मलता ही धर्म है, और कषायों को जीतना ही पुरूषार्थ है।

4. अपना काम स्वयं करने से कषाय कम होती है।

5. लोग मित्रों से आई एम सौरी बोलते हैं, शत्रु से नहीं।

6. क्रोध के समय विवके नष्ट हो जाता है।

7. सत्पुरूषों की शत्रुता तभी तक चलती है जब तक शत्रु नम्र न हो जाय।

8. क्षमा मांगने पर क्षमा करना अहंकार को पुष्ट करना है।

9. क्रोध चरित्र मोह की प्रकृति है, इससे संयम गुण का घात होता है।

10. कषय निकटतम संबंध को भी तोड़ देती है।

11. दुनिया के समान हम भी करें, तो हम में और दुनिया में क्या अंतर हुआ।

12. यदि जीवन सफल बनना है तो हमें एक निन्दक शत्रु को अपने पास अवश्य रखना चाहिये।

13. कषायी को स्वयं की और दूसरों की चिंता नहीं रहती।

क्रोध उत्पत्ति के कारण

1. इच्छा पूर्ति में बाधा होना।

2. मन चाहा न होना।

3. मानसिक अस्तव्यस्तता होना।

4. भोजन और मौसम आदि का प्रभाव।

क्रोध जीतने के उपाय

1. क्रोध के कारण उत्पन्न होने पर सदैव मौन रहना।

2. संसार का कोई भी पदार्थ अच्छा या बुरा नहीं है फिर गाली को बुरा क्यों माना जाये। यदि किसी को गाली देने से ही शांति मिलती है तो दे लेने देना चाहिए क्योंकि इससे हमारे आत्मस्वभाव पर क्या फर्क पड़ता है।

3. क्रोध शांत करने के लिए मौन सबसे अचूक दवा है।

4. योग के माध्यम से, प्राणायाम करने से, लम्बी श्वास लेने से, स्थान देने से, पुस्तक पढ़ने से, एकांत में जाकर क्रोध के कारण भूलने से, कषाय रूपी धुआं को निकाल देने से क्रोध रूपी अग्नि स्वयं शांत हो जाती है।

5. इस प्रकार का प्रशस्त वातावरण पैदा करना चाहिए कि घर भी मंदिर के समान प्रतीत हो।

6. अवस्तु में लेन देन कैसा, यदि गाली हम नहीं लेंगे तो किसके पास रहेगी।

7. गाली कहां लगी।

8.मेरा पाप का उदय है। परीक्षा सौभाग्य से होती है।

9. अनिष्टता में इष्टता देखे तेा क्रोध नहीं होगा।

10. क्षमा से शांति, यश और मित्रता होती है।

11.विजय क्रोध की नहीं क्षमा की होती है।

12. क्रोध अज्ञानता से शुरू होता है और पश्चाताप पर जाकर समाप्त होता है।

13. शीतल जल की स्थिति अधिक और गर्म जल की कम होती है।

14. ठंडा लोहा गरम लोहे को काटता है।

15. वर्षों की मित्रता को भी क्रोध का आवेग क्षण भर में नष्ट कर देता है।

16. क्षमा परमात्मा और क्रोध राक्षस है, वे एक आदमी के दो फोटो है।

17. पृथ्वी का नाम क्षमा है, वह मनुष्य के सारे अपराध सहन करती है।

18. एक क्षण का गुस्सा सारे भविष्य को बरबाद कर सकता है।

अमृत दोहावली

एक व्यक्ति के क्रोध से, कभी न झगड़ा होय।
आपस में जब दो मिले, तब निश्चित झगड़ा होय।।1।।

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल है।
न कि उसे जो दन्तहीन विष हीन, विनीत और सरल है।।2।।

मारना है गर किसी को, मार दो अहसान से।
क्या मिलेगा गर किसी को, मार दोगे जान से।।

जान से मारा गया, वापस कभी आता नहीं।
और अहसान का मारा गया, फिर सिर उठा सकता नहीं।।3।।

निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय।
बिना पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुवाय।।4।।

गौरव का यदि चाहते, बनना तुम आधार।
क्षमा शील बनकर करो, सबसे सद्व्यवहार।।5।।

कार्य-विधायक को सद, करो क्षमा का दान।
भूल सको हानि तो, बढ़े और भी शान।।6।।

गृह त्यागी ऋषि वर्ग से, उसकी ज्योति अपार।
सहते जो हैं शान्ति से, दुर्जन वाक्प्रहार।।7।।

तप करते जो भूख सह, वे ऋषि उच्च महान।
क्षमाशील के बाद ही, पर उनका सम्मान।।8।।

क्रोध तुलय रिपु कौन जो, कर दे सर्व विनाश।
हर्ष तथा आनन्द का, वह है यम का पाश।।9।।

इच्छायें उसकी सभी, फलें सदा भरपूर।
जिसने अपने चित्त से, कोप किया अति दूर।।10।।

निन्दक जन पर अज्ञ यह, करता है बहुरोष।
पर निज पर करता नहीं, रखकर भी बहुरोष।।11।।

।।ऊँ ह्रीं उत्तम क्षमा धर्मांन्गाय नमः।।
इति उत्तम क्षमा धर्म