श्रावकाचार और णमोकार महामन्त्र
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श्रावकाचार की प्रत्येक क्रिया के साथ इस महामन्त्र का घनिष्ठ सम्बन्घ है। धार्मिक एवं लौकिक सभी कृत्यों के प्रारम्भ में श्रावक इस महामन्त्र का स्मरण करता है। श्रावक की दिनचर्या का वर्णन करते हुए बताया गया है कि प्रात$काल ब्राहृा मुहूर्त में शैया त्याग करने के अनन्तर णमोकार मन्त्र का स्मरण कर अपने कर्तव्य का विचार करना चाहिए। जो श्रावक प्रातःकालीन नित्य क्रियाओं के अनन्तर देवपूजा, गुरूभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन षट्कर्मों को सम्पन्न करता है, विधिपूर्वक अहिंसात्मक ढंग से अपनी आजीविका अर्जन कर आसक्ति-रहित हो अपने कार्यों को सम्पन्न करता है, वह धन्य है। श्रावक के इन षट्कर्मों में णमोकार महामन्त्र पूर्णतया व्याप्त है। देवपूजा के प्रारम्भ में भी णमोकार मन्त्र पढ़कर ‘‘ऊँ हृीं अनादि मूलमन्त्रेभ्या ेनमः पुष्पांजलिम्’’ कहकर पुष्पांजलि अर्पित किया जाता है। पूजन के बीच-बीच में भी णमोकार महामन्त्र आता हैं यह बार-बार व्यक्ति को आत्मस्वरूप का बोध कराता है तथा आत्मिक गुणों की चर्चा करने के लिए प्रेरित करता है।

गुरूभक्ति में भी णमोकार महामन्त्र का उच्चारण करना आवश्यक है। गुरूपूजा के आरम्भ में भी णमोकार मन्त्र को पढ़कर पुष्प चढ़ाये जाते हैं। पश्चात् जल, चन्दन आदि द्रव्यों से पूजा की जाती है। यों तो णमोकार मन्त्र में प्रतिपादित आत्मा की गुरू हो सकते हैं। अतः गुरू अर्पण रूप भी यही मन्त्र है। स्वाध्याय करने में तो णमोकार मन्त्र के स्वरूप का ही मनन किया जाता है। श्रावक इस महामन्त्र के अर्थ को अवगकत करने के लिए द्वादशांग जिनवाणी का अध्ययन करता है। यद्यपि यह महामन्त्र समस्त द्वादशांग का सार है, अथवा द्वादशांग रूप ही है। संसार की समस्त बाधाओं को दूर करनेवाला है। शास्त्र प्रवचन आरम्भ करने के पूर्व जो मंगलाचरण पढ़ा जाता है, उसमें णमोकार मन्त्र व्याप्त है। कर्तव्यमार्ग का परिज्ञान कराने के लिए इसके सामने कोई भी अन्य साधन नहीं हो सकता है। जीवन के अज्ञानभाव और अनात्मिक विश्वास इस मन्त्र के स्वाध्याय द्वारा दूर हो जाते हैं। लोकैषणा, पुत्रैषणा और वित्तैषणाएं इस महामन्त्र के प्रभाव से नष्ट हो जाती है। तथा आत्मा के विकार नष्ट होकर आत्मा शुद्ध निकल आता है। स्वाध्याय के साथ तो इस महामन्त्र का सम्बन्घ वर्णनातीन है। अतः गुरूभक्ति और स्वाध्याय इन दोनों आवश्यक कर्तव्यों के साथ इस महामन्त्र का अपूर्व सम्बन्ध है। श्रावक की ये क्रियाएं इन मन्त्र के सहयोग के बिना सम्भव ही नहीं है। ज्ञान, विवेक और आत्मजागरण की उपलब्धि के लिए णमोकार मन्त्र के भावध्यान की आवश्यकता है।

इच्छाओं, वासनाओं और कषायों पर नियन्त्रण करना संयम है। शक्ति के अनुसार सर्वदा संयम का धारण करना प्रत्येक श्रावक के लिए आवश्यक है। पंचेन्द्रियों का जप, मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्ति का त्याग तथा प्राणीमात्र की रक्षा करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। यह संयम ही कल्याण का मार्ग है। संयम के दो भेद हैं-प्राणीसंयम और शक्तिसंयम। अन्य प्राणियों को किंचत् भी दुःख नहीं देना, समस्त प्राणियों के साथ भ्रातृत्व भावना का निर्वाह करना और अपने समान सभी को सुख-आनन्द भोगने का अधिकारी समझना प्राणीसंयम है। इन्द्रियों को जीतना तथा उनकी उद्दास प्रवृत्ति को रोकना इन्द्रिय-संयम है। णमोकार मन्त्र की आराधन के बिना श्रावक संयम का पालन नहीं कर सकता है, क्योंकि इसी मन्त्र का पवित्र स्मरण संयम की ओर जीव को झुकाता है। इच्छाओं का निरोध करना तप है; णमोकार महामन्त्र का मनन, ध्यान और उच्चारण इच्छाओं को रोकता है। व्यर्थ की अनावश्यक इच्छाएं, जो व्यक्ति को दिन-रात परेशान करती रहती है, इस महामन्त्र के कारण से रूक जाती है, इच्छाओं पर नियन्त्रण हो जाता है तथा सारे अनर्थों की जड़ चित्त की चंचलता और उसका सतत संस्कार युक्त रहना, इस महामन्त्र के ध्यान से रूक जाता है। अहंकारवेष्टित बुद्धि के ऊपर अधिकार प्राप्त करने में इससे बढ़कर अन्य कोई साधन नहीं है। अतएव संयम और तप की सिद्धि इस मन्त्र की आराधना-द्वारा ही सम्भव है।

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दान देना गृहस्थ का नित्य प्रति का कर्तव्य है। दान देने के प्रारम्भ में भी णमोकार मन्त्र का स्मरण किया जाता है। इस मन्त्र का उच्चारण किये बिना कोई भी श्रावक दान की क्रिया सम्पन्न कर ही नहीं सकता है। दान देने का ध्येय भी त्यागवृत्ति द्वारा अपनी आत्मा को निर्मल करना और मोह को दूर करना है। इस मन्त्र की आराधना द्वारा राग-मोह दूर होते हैं और आत्मा में रत्नत्रय का विकास होता है। अतः एव दैनिक षट्कर्मों में णमोकार मन्त्र अधिक सहायक है।

श्रावक की दैनिक क्रियाओं का दर्शन करते हुए बताया गया है कि प्रातःकाल नित्यक्रियाओं से निवृत्त होकर जिन मन्दिर में जाकर भगवान् के सामने णमोकार मन्त्र का स्मरण करना चाहिए। दर्शन-स्तोत्रादि पढ़ने के अनन्तर ईर्यापथशुद्धि करना आवश्यक है। इसके पश्चात् प्रतिक्रमण करते हुए कहना चाहिए कि ‘हे प्रभो! मैंने चलने में जो कुछ जीवों की हिंसा की हो, उसके लिए मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। मन, वचन, काय को वश में न रखने से, बहुत चलने से, इधर-उधर फिरने से, आने-जाने से, द्वीन्द्रियादिक प्राणियों एवं हरित काय पर पैर रखने से, मल-मूत्र, थूक आदि का उत्क्षेपण करने से, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय या पचेन्द्रिय अपने स्थान पर रोके गये हों, तो मैं उसका प्रायश्चित्त करता हूँ। उन दोषों की शुद्धि के लिए अरहन्तों को नमस्कार करता हूँ अैर ऐसे पाप कर्म तथा दुष्टाचार का त्याग करता हूँ। उन दोषों की शुद्धि के लिए अरहन्तों को नमस्कार करता हूँ अैर ऐसे पाप कर्म तथा दुष्आचार का त्याग करता हूँ।’ ‘‘णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्णयाणं णमो लोए सव्वसाहूणं’’ इस मन्त्र का नौ बार जाप कर प्रायश्चित विधिपूर्वक किया जाता है। प्रायश्चित्तविधि में इस मन्त्र की उपयोगिता अत्याधिक है। इसके बिना यह विधि सम्पन्न् की जाती है। 27 श्वासोच्छ्वास में 9 बार इसे पढ़ा जाता है।

आलोचना के समय सोचे कि पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम चारों दिशाओं और ईशाद आदि विदिशाओं में इधर-उधर घूमने या ऊपर की ओर मुंह कर चलने में प्रमादवश एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा की हो, करायी हो, अनुमति दी हो, वे सब पाप मेरे मिथ्या हों। मैं दुष्टकर्मोंे की शान्ति के लिए पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार मन में सोचकर अथवा वचनों से उच्चारण कर नौ बार णमोकार मन्त्र का पाठ करना चाहिए।

सन्ध्या-वन्दन के समय - ‘‘ऊँ हृीं इवीं क्ष्वीं वं मं हं सं तं पं द्रां द्रीं हं सः स्वाहा।’’ इस मन्त्र द्वारा द्वादशांगों का स्पर्श कर प्राणायाम करना चाहिए। प्राणायाम में दायें हथ की पांचों अंगुलियों से नाक पकड़कर अंगूठे से दायें छिद्र को दबाकर बायें छिद्र से वायु को खींचे। खींचते समय ‘णमो अरिहंताणं’ और ‘णमो सिद्धाणं’ इन दोनों पदों का जाप करें। पूरी वायु खींच लेने पर अंगुलियों से बायें छिद्र को दबाकर वायु को रोक लें। इस समय ‘णमो आइरियाणं’ और ‘णमो उवज्झायाणं’ इन पदों का जाप करें। अन्त में अंगूठे को ढीला कर धीरे-धीरे दाहिने छिद्र से वायु को निकालना चाहिए तथा ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ पद का जाप करना चाहिए। इस तरह सन्ध्या-वन्दन के अंत में नौ बार णमोकार मन्त्र पढ़कर चारों दिशाओं को नमस्कार कर विधि समाप्त करना चाहिएं हरिवंशपुराण में बताया गया है कि णमोकार मन्त्र और चतुरूत्तमंगल श्रावक की प्रत्येक क्रिया के साथ सम्बद्ध हैं, श्रावक की कोई भी क्रिया इस मन्त्र के बिना सम्पन्न नहीं की जाती है। दैनिक पूजन आरम्भ करने के पहले ही सर्वपाप और विघ्न का नाशक होने के कारण इसका स्मरण कर पुष्पांजलित क्षेपण की जाती है। श्रावक स्वस्तिवाचन करता हुआ इस महामन्त्र का पाठ करता है। बताया गया है:

पुण्यपंचनमस्कारपदपाठपवित्रितौ।
चतुरूत्तममांगल्यशरणप्रतिपादिनौ।।

आचार्यकल्प श्री पं. आशाधर जी ने भी श्रावकों की क्रियाओं के प्रारम्भ में णमोकार महामन्त्र के पाठ का प्राधान्य दिया हैं पूज्यवाद स्वामी ने देशभक्ति में तथा उस ग्रन्थ के टीकाकार प्रभाचन्द्र ने इस महामन्त्रत्र को दण्डक कहा है। इसे दण्डक कहे जाने का अभिप्राय ही यह है कि श्रावक की समस्त क्रियाओं में इसका उपयोग किया जाता है। श्रावक की एक भी क्रिया इस महामन्त्र के बिना सम्पन्न नहीं की जा सकती है।

षोडशकारण संस्कारों के अवसर पर इस मन्त्र का उच्चारण किया जाता है। ऐसा कोई भी मांगलिक कार्य नहीं, जिसके आरम्भ में इसका उपयोग न किया जाए। मृत्यु के समय भी महामन्त्र का स्मरण आत्मा के लिए अत्यन्त कल्याणकारक बताया है। जैनाचार्यों ने बतलाया है कि जीवन-भर धर्म साधना करने पर भी कोई व्यक्ति अन्तिम समय में आत्मसाधन-णमोकार मन्त्र की आराधना द्वारा निज को पवित्र करना भूल जाए, तो वह उसी प्रकार माना जाएगा, जिस प्रकार निरन्तर अस्त्र-शस्त्रों का अभ्यास करनेवाला व्यक्ति युद्ध के समय शस्त्र-प्रयोग करना भूल जाए। अतएव अंतिम समय में अनाद्यनिधन इस महामन्त्र का जाप करके अपनी आत्मा को अवश्य पवित्र करना चाहिए। कहा गया है:

जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अदिभूदं।
जरमरणवाहिवेया-खयकरणंसव्वदुक्खाणं।।
-मूलाचार

अर्थात्-जिनेन्द्र भगवान की वचन रूपी ओषधि इन्द्रिय-जनित विषय-सुखों का विरेचन करनेवाली है,-मूलाचार अमृत स्वरूप है और जरा, मरण, व्याधि, वेदना आदिसब दुःखों का नाश करनेवाली है। इस प्रकार जो पंचपरमेष्ठी के स्वरूप का स्मरण करनेवाले णमोकार मन्त्र का ध्यान करता है, वह निश्चतः सल्लेखना व्रत को धारण करता है। श्रावक को संसार के नाश करने में समर्थ इस महामन्त्र की आराधना अवश्य करनी चाहिए। अमितगति आचार्य ने कहा है:

सप्तविंशतिरूच्छ्वसाः संसारोन्मूलनक्षमे।
सन्ति पंचनमस्कारे नवधा चिन्तिते सति।

इस प्रकार श्रावक अन्तिम समय में णमोकार मन्त्र की साधना कर उत्तम गति की प्राप्ति करता है और जन्म-जन्मान्तर के पापों का विनाश करता हैं अन्तिम समय में ध्यान किया गया मन्त्र अत्यन्त कल्याणकारी होता है।