योगशास्त्र और णमोकार महामन्त्र
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मनुष्य अहर्निश सुख प्राप्त करने की चेष्ट करता है, किन्तु विश्व के अशान्त वातावरण के कारणउसे एक क्षण को भी शान्ति नहीं मिलती है। मनीषियों का कथन है कि चित्तवृत्तियों कानिरोध कर लने पर व्यक्ति को शान्ति प्राप्त हो सकती है। जैनागम में चित्तवृत्ति का निरोध करने के लिए योग का वर्णन किया गया हैं। आत्मा का उत्कर्ष साधन एवं विकास योग-उत्कृष्ट ध्यान के सामथ्र्य पर अवलम्बित है। योगबल से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है तथा पूर्ण अहिंसा शक्ति या शील की प्राप्ति द्वारा संचित कर्ममल दूर कर निर्वाण प्राप्त किया जाता है। साधारण ऋद्धि-सिद्धियाँ तो उत्कृष्ट ध्यान करनेवालों के चरणों में लोटती हैं। योगसाधना करनेवाले को शरीर-मन पर अधिकार प्राप्त हो जाता है।

मनुष्य को चित्त की चंचलता के कारण ही अशान्ति का अनुभव करना पड़ता है; क्योंकि अनावश्यक संकल्प-विकल्प ही दुःखों के करण हैं। मोह-जन्य वासनाएं मानव के हृदय का मन्थनपकर विषयों की ओर प्रेरित करती हें जिससे व्यक्ति के जीवन में अशान्ति का सूत्रपात होता है। योग-शास्त्रियों ने इस अशान्ति को रोकने के विधानों का वर्णन करते हुए बतलाया है कि मन की चंचलता पर पूर्ण आधिपत्य कर लिया जाए तो चित्त की वृत्तियों का इधर-उधर जाना रूक जाता है। अतएव व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक ओर आध्यात्मिक उन्नति का एक साधन योगभ्यास भी है। मुनिराज मन, वचन और कार्य की चंचलता को रोकने के लिए गुप्ति और समितियों का पलान करते हैं। यह प्रक्रिया भी योग के अन्तर्गत है। कारण स्पष्ट है कि चित्त की एकाग्रता समस्त शक्तियों को एक केन्द्रगाभी बनाने तथा साध्य तक पहुँचाने में समर्थ है। जीवन में पूर्ण सफलता इस शक्ति के द्वारा प्राप्त होती है।

जैनग्रन्थों में सभी जिनेश्वरों को योगी माना गया है। श्रीपूज्यपादस्वामी ने दशभक्ति में बताया है-‘‘योगीश्वरान् जिनान् सर्वान योगनिर्धूतकल्मषान्। योगैस्त्रिभिरहं वन्दे योगस्कन्धप्रतिष्ठितान्’’। इससे स्पष्ट है कि जैनागम में योग का पर्याप्त महत्व स्वीकार किया गया है। योगशास्त्र के इतिहास पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि इस कल्पकाल में भगवान आदिनाथ ने योग का उपदेश दिया। पश्चात् अन्य तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में इस योगमार्ग का प्रचार किया। जैनग्रन्थों में योग के अर्थ में प्रधानतया ध्यान शब्द का प्रयोग हुआ है। ध्यान के लक्षण, भेद, प्रभेद, आलम्बन आदिक विस्तृत वर्णन अंग और अंगबाहृ ग्रन्थों में मिलता हैं श्रीउमास्वामी आचार्य ने अपनी तत्त्र्वािसूत्र में ध्यान का वर्णन कियाहै, इस ग्रन्थ के टीककारों ने अपनी-अपनी टीकाओं में ध्यान पर बहुत कुछ विचार कियाहै। ध्यानुसार और योगप्रदीप में योग परपूरा प्रकाश डाला गया है। आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में योग पर पर्याप्त लिखा है। इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर सम्प्रदाय में श्रीहरिभद्र सूरि ने नयी शैली में बहुत लिखा है। इनके रचे हुए योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगंविशिका, योगशतक और षोडशक ग्रन्थ हैं। इन्होंने जैनदृष्टि से योगशास्त्र क र्वान कर पातंजल योगशस्त्र की अनेक बातों की तुलना जैन संकेतों के साथ की है। योगदृष्टिसमुच्चय में योग की आठ दृष्टियों का कथन है जिनसे समस्त योग साहित्य में एक नवीन दिशा प्रदर्शित की गयी है। हेमचन्द्राचार्य ने आठा योगांगों का जैन शैली के अनुसार वर्णन किया है तथा प्रणायाम से सम्बन्ध रखनेवाली अनेक बातें बतलायी हैं।

श्रीशुभचन्द्राचार्य ने अपने ज्ञानार्णव में ध्यान के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत भेदों का वर्णन विस्तार के साथ करते हुए मन के विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट औरसुलीन इन चारों भेदों का वर्णन बड़ी रोचकता और नवीन शैली में किया है। उपाध्याय यशोविजय में अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद आदि ग्रन्थों में योग-विषयक निरूपण किया हैं दिगम्बर सभी आध्यात्मिक ग्रन्थों में ध्यान या समाधि का विस्तृत वर्णन प्राप्त है।

योग शब्द युज् धातु से घ´् प्रतयय कर देने से सिद्ध होताहै। युज् के दो अर्थ हैं-जोड़ना और मन स्थिर करना। निष्कर्ष रूप में योग को मन की स्थिरता के अर्थ में व्यवहत करते हैं। हरिभद्र सूरि ने मोक्ष प्राप्त करनेवाले साधनका नाम योग कहा है। पतंजलि ने अपनेयोगेशास्त्र में ‘‘योगश्चितवृत्तिनिरोधः’’-चित्तवृत्ति का रोकना योग बताया है। इन दोनों लक्षणें का समन्वय करने पर फलितार्थ यह निकलता है कि जिस क्रिया या व्यापार के द्वारा संसारोन्मुख वृत्तियाँ रूक जाएँ और मोक्ष की प्राप्ति हो, योग है। अतएव समस्त आत्मक शक्तियों का पूर्ण विकास करनेवाली क्रिया-आत्मोन्मुख चेष्टा योग है। योग के आठ अंग माने जाते हैं-यम, नियम, आसन, प्राण्यायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इन योगांगों के अभ्यास से मन स्थिर हो जाता है। तथा उसकी शुद्धि होकर वह शुद्धिपयोग की ओर बढ़ता है या शुद्धोपयोग को प्राप्त हो जाता है। शुभचन्द्राचार्य ने बतलाया है:

यमदिषु कृताभ्यासो निःसंगो निर्ममो मुनिः।
रागादिक्लेशनिर्मुक्तं करोति स्ववशं मनः।।
एक एवं मनोरोधः सर्वाभ्युदयसाधकः।
यमेवालम्ब्य संप्राप्ता योगिनस्तत्त्वनिश्चयम्।।
मनःशुद्धयेव शुद्धिः स्वाद् देहिनां नात्र संशयः।
वृथा तद्व्यतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम्।।
-ज्ञानार्णव प्रत्र 22 श्लोत्र 3,12, 14

अर्थात - जिसने यमादिक का अभ्यास किया है, परिग्रह और ममता से रहित है ऐसा मुनि ही अपने मनको रागादि से निर्मुक्त तथा वश करने में समर्थ होता है। निस्सन्देह मन की शुद्धि से ही जीवों की शुद्धि होती है, मन की शुद्धि के बिना शरीर को क्षीण करना व्यर्थ है। मन की शुद्धि से इस प्रकार का ध्यान होता है, जिससे कर्मजाल कट जाता हैं एक मन का निरोध ही समस्त अभ्युदयों को प्राप्त कराने वाला है; मन के स्थिर हुए बिना आत्मस्वरूप में लीन होना कठिन है। अतएव योगांगों का प्रयोग मन को स्थिर करने के लिए अवश्य करना चाहिए। यह एक ऐसा साधन है, जिससे मन स्थिर करने से सबसे अधिक सहायता मिलती है।

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यम ओर नियम - जैनधर्म निवृत्तिप्रधान है, अतः यम-नियम का अर्थ भी निवृत्तिपरक है। अतएव विभाव परिणति से हटकर स्वभाव की ओर रूचि होना ही यम-नियम है। जैनागम में इन देनों योगांगो का विस्तृत वर्णन मिलता है। यम या संयम के प्रधान दो भेद हैं-प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम। समस्त प्राणियों की रक्षा करना, मन-वचन-काय से किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचना तथा मन में राग-द्वेष की भावना न उत्पन्न होने देना प्राणिसंयम है और पंचेन्द्रियों पर नियन्त्रण करना इन्द्रियसंयम है। पाँचों व्रतों का धारण, पाँचों समितियों के पालन, चारों कषायों का निग्रह, तीन दण्डों-मन, वचन, काय की विपरीत परिणति का त्याग और पाँचों इन्द्रियों का विजय करना ये सब संयम के अंग हैं। जैन आम्नाय में यम-नियमों का विधान राग-द्वेषमयी प्रवृत्ति को वश करने े लिए ही किया गया है। अतः ये दोनें प्रवृत्तियाँ ही मानवों को परमानन्द से हटाती रहती हैं। रागी जीव कर्मों को बाँधता है और वीतरागी कर्मों से छूटता है। अतः रांग और द्वेष की प्रवृत्ति को इन्द्रियनिग्रह एवं मनोनिग्रह आत्मभावना के द्वारा दूर करना चाहिए। कहा गया:

रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागो विमुच्यते।
जीवों जिनोपदेशोऽयं समासाद् बन्धमोक्षयोः।।
यत्र रागः पदं धत्ते द्वेषस्तत्रैति निश्चयः।
उभावेतौ समालम्ब्य विक्रामत्याधिक मनः।।
रागद्वेषविषोद्यानं मोहबीजं जिनैर्मतम्।
अतः स एव निःशेषदोषसे नानरेश्वरः।।
रागादिवैरिणः क्रूरानमोहभूपेन्द्रपालितान्।
निकृत्य शमशास्त्रेण मोक्षमार्ग निरूपय।।
-ज्ञानार्णव प्र. 23 श्लो. 1ण् 25ण् 30ण् 37

अर्थात - अनादि में लगे हुए राग-द्वेष ही संसार के कारण हैं, जहाँ राग-द्वेष हैं, वहाँ नियमतः कर्मबन्ध होता है। वीतरागता के प्राप्त होते ही कर्म का बन्ध रूक जाता है और कर्मों की निर्जरा होने लगती है। जहाँ राग रहता है वहाँ उसका अविनाभावी द्वेष भी अवश्य रहता है। अतः इन दोनों का अवलम्बन करके मन में नाना प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं। राग-द्वेषरूपी विषवन का मोह बीज है, अतः समस्त विषय-कषायों की सेना का मोह ही राजा है। यही संसार में उत्पन्न हुआ दावानल है तथा अत्यन्त दृढ़ कर्मबन्धन का हेतु है। यह संसारी प्राणी मोहनिद्रा के कारण ही मिथ्यात्व, अविरति, प्रसाद, कषाय और योगरूपी पिशाचों के अधीन होता हैं। इसी मोह की ज्वाला से अपने ज्ञानादि को भस्म करता है। मोहरूपी राजा के द्वारा पलित राग-द्वेषरूपी शत्रुओं को नष्ट कर मोक्षमार्ग का अवलम्बन लेना चाहिए। राग, द्वेष, मोहरूप त्रिपुर को ध्यानरूपी अग्नि द्वारा भस्म करना चाहिए।

यम-नियम निवृत्तिपरक होने पर ही उपर्युक्त त्रिपुर का भस्म कर व्यक्ति के ध्यानसिद्धि का कारण हो सकते हैं। अतः जैनागम में यम-नियम का अर्थ समताभाव की प्राप्ति द्वारा उक्त त्रिपुर को भस्म करना है, क्योंकि इसी के ध्यान की सिद्धि होती है। आर्तध्यान और रौद्रध्यान का निवारण धर्म-ध्यान और शुक्लध्यान की सिद्धि में सहायक होता है।

आसन - समाधि के लिए मन की तरह शरीर को भी साधना अत्यावश्यक है। आसन बैठने के ढंग को कहते हैं। योगी को आसन लगाने का अभ्यास होना चाहिए। श्रीशुभचन्द्राचार्य ने ध्यान के योग्य सिद्धक्षेत्र, नदी-सरोवर-समुद्र का निर्जन तट, पर्वत का शिखर, कमलवन, अरण्य, श्मशानभूमि, पर्वत की गुफा, उपवन, निर्जन गृह या चैत्यालय, निर्जन प्रदेश को स्थान माना है। इन स्थानों में जाकर योगी काष्ठ के टुकड़े पर या शिलातल पर अथवा भूमि या बालुका पर स्थिर होकर आसन लगावें पर्यंकासन, अर्द्धपर्यंकासन, वज्रासन,सुखासन, कमलासन और कायोत्सर्ग ये ध्यान के योग्य आसन माने गये हैं। जिस आसन से ध्यान करते समय साधक का मन खिन्न न हो, वही उपादेय है। बताया गया है:

कायोत्सर्गश्च पर्यंकः प्रशस्तं कैश्चिदीरितम्।
देहिनां वीर्यवैकल्यात्कालदोषेण सम्प्रति।। -ज्ञानार्णव प्र. 28 श्लो. 22

अर्थात - ‘इस समय कालदोष से जीवों के सामथ्र्य की हीनता है, इस कारण पद्मासन और कायोत्सर्ग ये ही आसन ध्यान करने के लिए उत्तम हैं। तात्पर्य वह है कि जिस आसन से बैठकर साधक अपने मन को निश्चल कर सके, वही आसन उसके लिए प्रशस्त है।

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प्राणायाम - श्वास और उच्छ्वास के साधने को प्राणायाम कहते हैं। ध्यान की सिद्धि और मन को एकाग्र करनेे लिए प्राणायाम किया जाता है। प्राणायाम पवन के साधन की क्रिया है। शरीरस्थ पवन जब वश हो जाता है। तो मन भी अधीन हो जाता है। इनके तीन भेद हैं-पूरक, कुम्भक और रेचक। नासिक छिद्र के द्वारा वायु को खींचकर शरीर में भरना पूरक; उस पूरक पवन को नाभि के मध्य में स्थिर करना कुम्भक और धीरे-धीरे बाहर निकालना रेचक है। यह वायुमण्डल चार प्रकार का बतलाया गया है-पृथ्वीमण्डल, वायुमण्डल और अग्निमण्डल। इन चारों की पहचान बताते हुए कहा है कि क्षितिबीज से युक्त, गले हुए स्वर्ग के समानकांचन प्रभावाला, वज्र के चिन्ह से संयुक्त, चैकोर पृथ्वीमण्डल है। वरूणबीज से युक्त, अर्धचन्द्रकार, चन्द्रसदृश, शुक्लवर्ण और अमृतस्वरूपजल से सिंचित अप्मण्डल है। पवनबीजाक्षरयुक्त, सुवृत्त, बिन्दुओं सहित नीलांजल धन के समान, दुर्लक्ष्य वायुमण्डल है। अग्नि के स्फुलिंग समान पिंगलवर्ण, भीम-रौद्ररूप, ऊध्र्वगमन करनेवाला, त्रिकोणाकार, स्वास्तिक ये युक्त एवं वहिनीजयुक्त अग्निमण्डल होता है। इस प्रकार चारों वायुमण्डलों की पहचान के लक्षण बतलाये हैं; परन्तु इन लक्षणों के आधार से पहचानना अतीत दुष्कर है। प्राणायाम के अत्यंत अभ्यास से ही किसी साधकविशेष को इनका संवेदन हो सकता है। इन चारों वायुओं के प्रवेश और निस्सरण से जय-पराजय, जीवन-मरण, हानि-लाभ आदि अनेक प्रश्नों का उत्तर दिया जा सकता है। इन पवनों की साधना से योगी में अनेक प्रकार की अलौकिक और चमत्कारपूर्ण शक्तियों का प्रदुर्भाव हो जाता है। प्राणायाम की क्रिया का उद्देश्य भी मन को स्थिर करना है, प्रमाद को दूर भगाना है। जो साधक यत्नपूर्वक मन को वायु के साथ-साथ हृदय-कमल की कणिका में प्रवेश कराकर वहाँ स्थिर करता है, उसके चित्त में विकल्प नहीं उठते और विषयों की आशा भी नष्ट हो जाती है तथा अन्तरंग में विशेष ज्ञान का प्रकाश होने लगता है। प्राणायाम की महत्ता का वर्णन करते हुए शुभचन्द्राचार्य ने बतलाया है:

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शनैः शनैर्मनोऽजस्त्रं वितन्द्रः सह वायुना।
प्रवेश्य हृदयाम्भोजकर्णिकायां चियन्त्रयेत्।।
विकल्पा न प्रसूयन्ते विषयाशा निवत्र्तते।
अन्त स्फुरति विज्ञानं तत्र चित्ते स्थिरीकृते।।
-ज्ञानार्णव प्र. 29 श्लो. 1, 2, 10, 11
1. सुख-दुःख-जय-पराजय-जीवित-मरणानि विध्न इति के चेत्।
वायु प्रपंचरचनामवेदिनां कथमयं मानः।।
ज्ञा. प्र. 29, श्लो, 77
जन्मशतजनितमुग्रं प्राणायामाद्विलीयते पापम्।
नाडीयुगलस्यान्ते यतेर्जिताक्षस्य वीरस्य।।
ज्ञानार्णव प. 29, श्लो, 102

अर्थ - पवनों के साधनरूप प्राणायाम से इन्द्रियों के विजय करनेवाले साधकों के सैंकड़ों जन्म के संचित किये गये तीव्र पाप दो घड़ी के भीतर लय हो जाते हैं।

प्रत्याहार - इन्द्रिय और मन को अपने-अपने विषयों से खींचकर अपनी इच्छानुसार किसी कल्याणकारी ध्यये में लगाने को प्रत्याहार कहते हैं। अभिप्राय यह है कि विषयों से इन्द्रियों को और इन्द्रियों से मन को पृथक् कर मन को निराकुल करके ललाट पर धारण करना प्रत्याहार-विधि है। प्रत्याहार के सिद्ध हो जाने पर इन्द्रियां वशीभूत हो जाती हैं और मनोहर विषय की ओर भी प्रवृत्त नहीं होती हैं। इसका अभ्यास प्राणायाम के उपरान्त किया जाता है। प्राणायाम द्वारा ज्ञान-तन्तुओं के अधीन होने पर इन्द्रियों का वश में आना सुगम है। जैसे कछुओ अपने हस्त-पादादि अंगों को अपने भीतर संकुचित कर लेता है, वैसे ही स्पर्श, रसना आदि इन्द्रियों की प्रवृत्ति को आत्मरूप में लीन करना प्रत्याहार का कार्य है। राग-द्वेष आदि विकारों से मन दूर हुआ जाता है। कहा गया है:

सम्यक्समाधिसिद्ध्यर्थं प्रत्याहारः प्रशस्यते।
प्राणायामेन विक्षिप्तं मनः स्वास्थ्यं न विन्दति।।
प्रत्याहृतं पुनः स्वस्थं सर्वोपाधिविवर्जितम्।
चेतः समत्वमापन्नं स्वस्मिन्नेव लयं व्रजेत्।।
वायोः संचारचातुर्यमणिमाद्यंगसाधनम्।
प्रायः प्रत्यूहबीजं स्यान्मुनेर्मुक्तिमभीप्सतः।।

अर्थात - प्राणायाम में पवन के साधन से विक्षिप्त हुआ मन स्वास्थ्य को प्राप्त नहीं करता, इस कारण समाधि सिद्धि के लिए प्रत्याहार करना आवश्यक है। इसके द्वारा मन राग-द्वेष से रहित होकर आत्मा में लय हो जाता है। पवन साधन शरीर-सिद्धि का कारण है, अतः मोक्ष की वांछा करनेवाले साधक के लिए विघ्नकारक हो सकता है। अतएवं प्रत्याहार द्वारा राग-द्वेष को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए।

धारणा - जिसका ध्यान किया जाए, उस विषय में निश्चलरूप से मन को लगा देना, धारणा है। धारणा द्वारा ध्यान का अभ्यास किया जाता है।

ध्यान और समाधि - योग, ध्यान और समाधि ये प्रायः एकार्थवाचक हैं। योग कहने से जैनाम्नाय में ध्यान और समाधि का ही बोध होता है। ध्यान की चरम सीमा को समाधि कहा जाताहै। ध्यान के सम्बन्ध में ध्यान, ध्याता, ध्येय और फल इन चारों बातों का विचार किया गया है। ध्यान चार प्रकार का है-आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल। इनमें आर्त और रौद्र ध्यान दुध्र्यान हैं एवं धर्म और शुक्ल ध्यान शुभ ध्यान है। इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग, शारीरिक वेदना आदि व्यथाओं को दूर करने के लिए संकल्प-विकल्प करना आर्तध्यान और हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँचों पापों के सेवन में आनन्द का अनुभव करना और इस आनन्द की उपलब्धि के लिए नाना तरह की चिन्ताएं करना रौद्रध्यान है।

धर्म से सम्बद्ध बातों का सतत चिन्तन करना धर्मध्यान है। इसके चार भेद हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय। जिनागम के अनुसार तत्त्वों का विचार करना आज्ञाविचय; अपने तथा दूसरों के राग, द्वेष, मोह आदि विकारों को नाश करने का उपाय चिन्तन करना उपायविचय, अपने तथा पर के सुख-दुख देखकर कर्मप्रकृतियों के स्वरूप का चिन्तन करना विपाकविचय एवं लोक के स्वरूप का विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है। इसके भी चार भेद हैं--पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत। शरीर स्थित आत्मा का चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान है। इसकी पाँच धारणाएं बतायी गयी हैं-पार्थिवी, आग्नेयी, वायवी, जलीय और तत्त्वरूपवती।

पार्थिवी - इस धारणा में एक मध्यलोक के बराबर निर्मल जल का समुद्र चिन्तन करें और उसके मध्य में जम्बू द्वीप के समान एक लाख योजन चैड़ा स्वर्ण-रंग के कमल का चिन्तन करें, इसकी कर्णिका के मध्य में सुमेरूपर्वत का चिन्तन करें। उस सुमेरूपर्वत के ऊपर पाण्डुक वन में पाण्डुकशिला तथा उस शिाल परस्फटिकमणि के आसन का एवं उस आसन पर पद्मासन लगाये ध्यान करते हुए अपना चिन्तन करंे। इतना चिन्तन बार-बार करना पृथ्वी धारणा है।

आग्नेयी - उसी सिंहासन पर स्थिर होकर यह विचारें कि मेरे नाभि-कमल के स्थान पर भीतर ऊपर को उठा हुआ सोलह पत्तों का एक कमल है उस पर पीतरंग के अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ् लृ ल् ए ऐ ओ और अं अः ये सोलह स्वर अंकित हैं तथा बीच में ‘र्हं’ लिखा हैं दूसरा कमल हृदय स्थान पर नाभि-कमल के ऊपर आठ पत्तों का औंधा कमल विचारना चाहिए। इसे ज्ञानावणादि आठा कर्मों का कमल कहा गया है। पश्चात् नाभिकमल के बीच ‘र्हं’ लिखा है, उसकी रेफ से धुआँ निकलता हुआ सोचें, पुनः अग्नि की शिखा उठती हुई सोचना चहिए। आग की ज्वाला उठकर आठों कर्मों के कमल को जलाने लगी। कमल के बीच से फूटकर अग्नि की लौ मस्तक पर आ गयी। इसका आधा भाग शरीर के एक तरफ़ और शेष आधा भाग श्रीर के दूसरी तरफ़ मिलकर दोनों कोने मिल गये। अग्निमय त्रिकोण सब प्रकार के शरीर को वेष्टित किये हुए है। इस त्रिकोण में र र र र र र र र अक्षराकं को अग्निमय फैले हुए विचारें अर्थात् इस त्रिकोण के तीनों कोण अग्निमय र र र अक्षरों के बने हुए हैं। इसके बाहरी तीनों कोणों पर अग्निमय साथिया तथा भीतरी तीनों कोणों पर अग्निमय ऊँ र्ह लिखा हुआ सोचें। पश्चात् सोचें कि भीतरी अग्नि की ज्वाला कर्मों को और बाहरी अग्नि की ज्वाला शरीर को जला रही हैं। जलते-जलते कर्म और शरीर दोनों ही जलकर राख हो गये हैं तथा अग्नि की ज्वाला शान्त हो गयी है अथवा पहले की रेफ में समा गयी है, जहाँ से वह उठी थी; इतना अभ्यास करना अग्नि-धारण है।

वायु - धारण-पुनः साधक चिन्तन करें कि मेरे चारों ओर प्रचण्ड वायु चल रही है। वह वायु गोल मण्डलाकार होकर मुझे चारों ओर से घेरे हुए हैं। इस मण्डल में आठ जगह ‘स्वायँ-स्वायँ लिखा है। यह वायुमण्डल कर्म तथा शरीर की रज को उड़ा रहा है, आत्मा स्वच्छ तथा निर्मल होता जा रहा है। इस प्रकार ध्यान करना वायु-धारण है।

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जल - धारणा-पश्चात् चिन्तन करें कि आकाश मेघाच्छन्न हो गया है, बादल गरजने लगे है; बिजली चमकने लगी है और खूब ओर की वर्षा होने लगी है। ऊपर पानी का एक अर्धचन्द्राकार मण्डल बन गया है, जिस पर प प प प प प प कर्मस्थानों पर लिखा है। गिरनेवाले पानी की सहस्त्रधाराएं आत्मा के ऊपर लगी हुई कर्मरज को धोकर आत्मा को साफ़ कर रही हैं। इस प्रकार चिन्तन करना जल-धारणा है।

तत्त्वरूपवती धारणा - वही साधक आगे चिन्तन करे कि अब मैं सिद्ध, बुद्ध, सर्वज्ञ, निर्मल, निरंजन, कर्म तथा शरीर से रहित चैतन्य आत्मा हूँ। पुरूषाकार चैतन्य धातु की बनी हुई मूर्ति के समान हू। पूर्ण चन्द्रमा के समान ज्योतिरूप देदीप्यामान हूँ। इस प्रकर इन पाँचों के द्वारा पिण्डस्थ ध्यान किया जाता है।

पदस्थ ध्यान - मन्त्र पदो ंके द्वारा अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु तथा आत्मा के स्वरूपक ा विचारना पदस्थ ध्यान है। किसी नियत स्थान-नासिकाग्र या भृकुटि के मध्य में णमोकार मन्त्र को विरजमान कर उसको देखते हुए चित्त को जमाना तथा उस मन्त्र के स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए। इस ध्यान का सरल और सांध्य उपाय यह है कि हृदय में आठ पत्तों के कमल का चिन्तन करे। इस आठों पत्तों-दलों में-से पाँच पत्तों पर क्रमशः ‘णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं’ इन पांच पदों को तथा शेष तीन पत्तों पर क्रमशः ‘सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः, सम्यक्चरित्राय नमः’ इन तीनों पदों को और कर्णिका पर ‘सम्यक् तपसे नमः’ इस पद को लिखा हुआ सोचें। इस प्रकार पत्ते पर लिखे हुए मन्त्रों का ध्यान जितने समय तक कर सकें, करें।

स्पस्थ - अरिहन्त भगवान् के स्वरूप का विचार करें कि भगवान समवशरण में द्वादश सभाओं के मध्य में ध्यानस्थ विराजमान हैं। अथवा ध्यानस्थ प्रभु-मुद्रा का ध्यान करें।

रूपातीत - सिद्धों के गुणों का विचार करें कि सिद्ध अमूर्तिक, चैतन्य, पुरूषाकार, कृतकृत्य, परमशान्त, निष्कलंक, अष्टकर्मरहित, सम्यक्त्वादि आठ गुणसहिंत, निर्लिप्त, निर्विकार एवं लोकाग्र में विराजमान हैं। पश्चात् अपने-आपको सिद्ध स्वरूप समझकर लीन हो जाना रूपातीत ध्यान है।

शुक्लध्यान - जो ध्यान उज्ज्वल सफ़ेद रंग के समान अत्यन्त निर्मल और निर्विकार होता है उसे शुक्लध्यान कहते हैं। इसके चार भेद हैं-पृथक्त्ववितर्क वीचार, एकत्ववितर्क अवीचार, सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति।

ध्याता - ध्यान करनेवाला ध्याता होता है। आत्मविकास की दृष्टि से ध्याता 14 गुणस्थानों में रहनेवाले जीव हैं, अतः इसके 4 भेद हैं। पहले गुणस्थान में आर्तध्यान या रौद्रध्यान ही होता है। चैथे गुणस्थान में धर्मध्यान होता है।

ध्यये - ध्यान के स्वरूप का कथन करते समय ध्येय के स्वरूप का प्रायः विवेचन किया जा चुका है। ध्येय के चार भेद हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। णमोकार मन्त्र नामध्येय हैं। तीर्थंकरों की मूर्तियाँ स्थापनाध्येय हैं। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पंचपरमेष्ठी द्रव्ययेय हैं और इनके गुण भावध्येय हैं। यों तो सभी शुद्धात्माएं ध्येय हो सकती हैं। जिस साध्य को प्राप्त करना है, वह साध्य ध्येय होता है।

योगशास्त्र के इस संक्षिप्त विवेचन के प्रकाश में हम पाते हैं कि णमोकार का योग के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। योग की क्रियाओं का इसी मन्त्रराज की साधना करने के लिए विधान किया गया है। जैनाम्नाय में प्रधान स्थान ध्यान को दिया गया है।योग के आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार-क्रियाएं शरीर को स्थिर करती है। साधक इन क्रियाओं के अभ्यास द्वारा णमोकार मन्त्र की साधना के योग्य अपने शरीर को बनाता है। धारणा-द्वारा मन की क्रिया के अधीन करता है। तात्पर्य यह है कि योगो-मन, वचन, काय-को स्थिर करने के लिए योगाभ्यास करना पड़ता है। इन तीनों योगों की क्रिया तभी स्थिर होती है, जब साधक आरम्भिक साधना के द्वारा अपने को इस योग्य बना लेता है। इस विषय के स्पष्टीकरण के लिए गणित का गति-नियामक सिद्धान्त अधिक उपयोगी होगा। गणितशास्त्र में आया है कि किसी भी गतिमान् पदार्थ को स्थिर करने के लिए उसे तीन लम्बसूत्रों द्वारा स्थिर करना पड़ता है। इन तीन सूत्रों से आबद्ध करने पर उसकी गति स्थिर हो जाती है। उदाहरण के लिए यों कहा जा सकता है कि वायु के द्वारा नाचते हुए बिजली के बल्ब को यदि स्थिर करना हो तो उसे तीन सम सूत्रों के द्वारा आबद्ध कर देना होगा। क्योंकि वायु या अन्य कसी भी प्रकार के धक्के को रोकने के लिए चैथे सूत्र से आबद्ध करने की आवश्यकता नहीं होगी। इसी प्रकार णमोकार मन्त्र की स्थिर साधना करने के लिए साधक को अपनी त्रिसूत्र रूप मन, वचन और काय की क्रिया को अवरूद्ध करना पड़ेग। इसी के लिए आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार की आवश्यकता है। मन के स्थिर करने से ही ध्यान की क्रिया निर्विघ्नताय चल सकती है।

ध्यान करने का विषय - ध्येय णमोकार मन्त्र से बढ़कर और कोई पदार्थ नहीं हो सकता है। पूर्वाेक्त नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों प्रकार के ध्येयों द्वारा णमोकार मन्त्र का ही विधान किया गया है। साधक इस मन्त्र की आराधना द्वारा अनात्मिक भावों को दूरकर आत्मिक भावों का विकास करता जाता है, और गुणस्थानारोहण कर निर्विकल्प समाधि के पहले तक इस मन्त्र का या इस मन्त्र में वर्णित पंचपरमेष्ठी का अथवा उनके गुणों का ध्यान करता हुआ आगे बढ़ता रहता है। ज्ञानार्णव में बताया गया है:

गुरूपंचनमस्कारलक्ष्णं भूत मन्त्रमूर्जितम्।
विचिन्तयेज्जगज्जन्तु पवित्रीकरणक्षमम्।।
अनेनैव विशुद्ध्यन्ति जन्तवः पापपंकताः।
अनेनैव विमुच्यन्ते भवक्लेशान्मनीषिणः।।
-ज्ञानार्णव प्र. 38 श्लो, 38, 43
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अर्थात - णमोकार जो कि पंचपरमेष्ठी नमस्कार रूप है, जगत् के जीव को पवित्र करने में समर्थ है। इसी मन्त्र के ध्यान से प्राणी पाप से छूटते हैं तथा बुद्धिमान व्यक्ति संसार के कष्टों से भी। इसी मन्त्र की आराधना द्वारा सुख प्राप्त करते हैं। यह ध्यान का प्रधान विषय है। हृदय-कमल में इसका जप करने से चित्त शुद्ध होता है।

जप तीन प्रकार से किया जाता है-वाचक, उपांशु और मानस। वाचक जाप में शब्दों का उच्चारण किया जाता है अर्थात् मन्त्र को मुँह से बोल-बोलकर जाप किया जाता है। उपांशु में भीतर से शब्दोच्चारण की क्रिया होती है, पर कण्ठस्थान पर मन्त्र के शब्द गूँजते हैं किन्तु मुख से नहीं निकल पाते। इस विधि में शब्दोच्चारण की क्रिया के लिए बाहरी और भीतरी प्रयास किया जाता है, परन्तु शब्द भीतर गूँजते रहते हैं, बाहर प्रकट नहीं हो पाते। मानस जाप में बाहरी और भीतरी शब्दोच्चारण का प्रयास रूप जाता है, हृदय में णमोकार मन्त्र का चिन्तन होता रहता है। यही क्रिया ध्यान का रूप धारण करती है। यशस्तिलकचम्पू में इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है।

वचसा वा मनसा वा कार्यों जाप्यः सव्याहितस्वान्ते।
शतगुणमाद्ये पुण्ये सहस्त्रसंख्यं द्वितीये तु।। -य., भाग 2, पृ. 38

वाचक जाप से उपांशु में शतगुणा पुण्य और उपांशु जाप की अपेक्षा मानसजाप में सहस्त्रगुणा पुण्य होता है। मनस जाप ही ध्यान का रूप है, यह अन्तर्जल्परहित मौनरूप होता है। बृहद्द्रव्यसंग्रह में बताया गया है-‘‘एतेषां पदानां सर्वमन्त्रवादपदेषु मध्ये सारभूतानां इहलोकपरलोकेष्टफलप्रदानामर्थ ज्ञात्वा पश्चादनन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपेण वचनोच्चारणेन च जापं कुरूत। तथैव शुभोपयोगरूपत्रिगुणावस्थायां मौनेन ध्यायत।’’ अर्थात्- सब मन्त्रशास्त्र के पदों में सारभूत औरइस लोक तथा परलोक में इष्ट फल को देनेवाले परमेष्ठीवाचक पंच पदों का अर्थ जानकर, पुनः अनन्तज्ञानादि गुणों के स्मरण रूप वचन का उच्चारण करके जप करना चाहिए और इसी प्रकार शुभोपयोगरूप इस मन्त्र का मन, वचन और काय गुप्ति को रोककर मौन द्वारा ध्यान करना चाहिए। सर्वभूतहितरत, अचिन्त्यचरित्र ज्ञानामृतपयः पूर्ण तीनों लोकों को पवित्र करनेवाले, दिव्य, निर्विकार, निरंजन विशुद्ध ज्ञानलोचन के धारक, नवकेवललब्धियों के स्वामी, अष्टमहाप्रातिहार्यों से विभूषित स्वयंबुद्ध अरिहन्त परमेष्ठी का ध्यान भी किया जाता है, अथवा सामूहिक रूप में पंचपरमेष्ठी का मौन चिन्तन भी ध्यान का रूप ग्रहण कर लेत है।

पदस्थ और रूपस्थ दोनों प्रकार के ध्यानों में इस महामन्त्र के स्मरण द्वारा ही आत्मा की सिद्धि की जाती हैद्ध क्योंकि महामन्त्र और शुद्धात्मा में कोई अन्तर नहीं हैं। शुद्धात्मा का वर्णन ही महामन्त्र में है और उसी के ध्यान से निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति होती है। अतः ध्यान का दृढ़ अभ्यास हो जाने पर साधक को यह अनुभव करना आवश्यक है कि मैं परमात्मा हूँ, सर्वज्ञ हूँ, मैं ही साध्य हूँ, मैं ही सिद्ध हूँ, सर्वदर्शी भी मैं ही हूँ। मैं सत्, चित्त, आनन्दरूप हूँ, अज हूँ, निरंजन हूँ। इस प्रकार चिन्तन करता हुआ साधक जब समस्त संकल्प-विकल्पों से विमुक्त हो अपने-आप में विलीन हो जाता है, तब उसे निर्विकल्प ध्यान या परम समाधि की प्राप्त होती है।

हेमचन्द्राचार्य ने अपने योगशास्त्र में योगांगों के साथ णमोकार मन्त्र का सम्बन्ध दिखलाते हुए बतलाया है कि योगाभ्यास द्वारा शरीर और मन की क्रियाओं का नियन्त्रण कर आत्मा को ध्यान के मार्ग में ले जाना चाहिए। साधक सविकल्प समाधि की अवस्था में इस अनादिसिद्ध मन्त्र के ध्यान से अन्तःआत्मा को पवित्र करता है। पंचपरमेष्ठी के तुल्य शुद्ध होकर निर्वाण मार्ग का आश्रय लेता है। बताया गया है:

ध्यायतोऽनादिसंसिद्धान् वर्णानेतान् यथाविधि।
नष्टादिविषये ज्ञानं ध्यातुरूत्पद्यते क्षणात्।।
तथा पुण्यतमं मन्त्रं जगत्त्रितयपावनम्।
योगी पंचपरमेष्ठिनमस्कारं विचिन्तयेत्।।
विशुद्ध्या चिन्तयस्तस्य शतमष्टोत्तरं मुनिः।
भुंजानोऽपि लभेतैव चतुर्थतपसः फलम्।।
एनमेव महामन्त्रं समाराध्येह योगिनः।
त्रिलोक्यापि महीयन्तेऽधिगताः परमां श्रियम्।।
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अर्थात - अनादि सिद्ध णमोकार मन्त्र के वर्णों का ध्यान करने से साधक को इष्टादि विषय का ज्ञान क्षण-भर में हो जाता है। यह मन्त्र तीनों लोकों के जीवों को पवित्रकरता है। इसके ध्यान से-अन्तर्जल्परिहत चिन्तन से आत्मा में अपूर्व शक्ति आती है। नित्य मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक इस मन्त्र का 108 बार ध्यान करने से भोजन करने पर भी चतुर्थोपवास-प्रोषधोपवास का फल प्राप्त होता है। योगी व्यक्ति इस मन्त्र की आराधना से अनेक प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त हेाता है तथा तीनों लोकों में पूज्य हो जाता है।

णमोकार मन्त्र की सभी मात्राएं अत्यन्त पवित्र हैं, इन मात्राओं में से किसी मात्रा का तथा णमोकार मन्त्र के 35 अक्षरों और पाँच पदों में सेे किसी अक्षर और पद का अथवा इन अक्षरों, पदों और मात्राओं के संयोग से उत्पन्न अक्षर, पदोें और मात्राओं का जो ध्यान करता है, वह सिद्धि को प्राप्त होता है। ध्यान के अवलम्बन णमोकार मन्त्र के अक्षर, पद और ध्वनियाँ ही हैं। जब तक साधक सविकल्प समाधि में रहता है, तब तक उसके ध्यान का अवलम्बन णमोकार ही होता है। हेमचन्द्राचार्य ने पदस्थ ध्यान का वर्णन करते हुए बताया है:

यत्पदानि पवित्राणि समालम्ब्य विधीयते।
तत्पदस्थं समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्तपारगैः।।

अर्थात - पवित्र णमोकार मन्त्र के पदों का आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है, उसको पदस्थ ध्यान सिद्धान्तशास्त्र के ज्ञाताओं ने कहा है। रूपस्थ ध्यान में अरिहन्त के स्वरूप का अथवा णमोकार मन्त्र के स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए। रूपस्थ ध्यान में आकृतिविशेष का ध्यान करने का विधान है। यह आकृतिविशेष पंचपरमेष्ठी की होती है तथा विशेष रूप से इसमें अरिहन भगवान् की मुद्रा का ही आलम्बन किया जाता है।

रूपातीत में ज्ञानावरणादि आठ कर्म और औदारिकादि पाँच शरीरों से रहित, लोक और अलोक के ज्ञाता, द्रष्टा, पुरूषाकार के धारक, लोकाग्र पर विराजमान सिद्धपरमेष्ठी ध्यान के विषय हैं तथा णमोकार मन्त्र की रूपाकृतिरहित, उसका भाव या पंचपरमेष्ठी के अमूर्तिक गुण ध्यान का आलम्बन होता हैं। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और शुभचन्द्र ने रूपातीत ध्यान में अमूर्तिक अवलम्बन माना है तथा यह अमूर्तिक अवलम्बन णमोकार मन्त्र के पदोक्त गुणों का होता है। हरिभद्रसूरि ने अपने योगबिन्दु ग्रन्थ में ‘‘अक्षरद्वयमेतत् श्रूयमाणं विधानतः’’ इस श्लोक की स्वोपज्ञटीका में योगशास्त्र का सार णमोकार मन्त्र को बताया है। इस महामन्त्र की आरधना से समता भाव की प्राप्ति होती है तथा आत्मसिद्धि भी इसी मन्त्र के ध्यान से आती है। अधिक क्या, इस मन्त्र के अक्षर स्वयं योग हैं। इसकी प्रत्येक मात्रा, प्रत्येक पद, प्रत्येक वण्र अमितशक्तिसम्पन्न हैं। वह लिखते हैं-‘‘अक्षरद्वयमपि किं पुनः पंचनमस्कारीदीन्यनेकान्यक्षराणीत्यपि शब्दार्थः। एतद् ‘योगः’ इति शब्दलक्षणं श्रूयमाणमाकण्र्यमानम्। तथाविधार्थानवबोधेऽषि ‘विधानतो’ विधानेन श्रद्धासंवेगादिशुद्धभावोल्लासकरकुड्मलयोजनादिलक्षणेन, गीतयुक्त-पापक्षयाय मिथ्यात्वमोहद्यकुशलकर्मनिर्मूलनायोच्चैरित्यर्थम्’’। अर्थात ध्यान करने के लिए ध्येय णमोकार मन्त्र के अक्षर, पद एवं ध्वनियाँ हैं। इन्हीं को योग भी कहा जाता है, यदि इन शब्दों को सुनकर भी अर्थ का बोध न हो तो भी श्रद्धा, संवेग और शुद्ध भावोल्लासपूर्वक हाथ जोड़कर इस मन्त्र का जाप करने से मिथ्यात्व मोह आदि अशुभ कर्मों का नाश होता है। इससे स्पष्ट है कि हरिभद्रसूरि ने पंचपरमेष्ठी वाचक णमोकार मन्त्र के अक्षरों को ‘योग’ कहा है। अतएव णमोकारमन्त्र स्वयं योगशास्त्र है, योगशास्त्र के सभी ग्रन्थों का प्रणयन इस महामन्त्र को हृदयंगम करने तथा इसके ध्यान द्वारा आत्मा को पवित्र करने के लिए हुआ है। ‘योग’ शब्द का अर्थ जो संयोग किया जाता है, उस दृष्टि से णमोकार मन्त्र के अक्षरों का संयोग-शुद्धात्मा का चिन्तन कर अर्थात् शुद्धात्माओं से अपना सम्बन्ध जोड़कर अपनी आत्मा को शुद्ध बनाना है। ‘धर्म-व्यापार’ को जब योग कहा जाता है, उस समय णमोकार मन्त्रोक्त शुद्धात्मा के व्यापार-प्रयोग-ध्यान, चिन्तन द्वारा अपीन आत्माको शुद्ध करना अभिप्रेत है। अतएव णमेकार मन्त्र और योग का प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभाव सम्बन्ध है; क्योंकि आचायो्रं ने अभेद विवक्षा से णमोकारमन्त्र को योग कहा है, इस दृष्टि सेयोग का तादात्म्यभाव सम्बन्ध भी सिद्ध होता है। तथा भेद विवक्षा से णमोकार मन्त्र की साधना के लिए योग का विधान किया है। अर्थात् योग-क्रिया द्वारा णमोकर मन्त्र की साधना की जाती है, अतः इस अपेक्षा से योग को साधन ओरणमोकार मन्त्र को साध्य कहा जा सकता है। यम, नियम, आसन, प्राणयाम और प्रतयय इन पंचांगों द्वारा णमोकारमन्त्र को साधने योग्य शरीर और मनको एकाग्र किया जाता है। ध्यान और धारण क्रिया द्वारा मन, वचन और काय की चंचलता बिलकुल रूक जाती है तथा साधक णमोकार मन्त्र रूप होकर सविकल्प समाधि को पार करने के उपरान्त निर्विकल्प समाधि को प्राप्त होता है। जिस प्रकार रात में समस्त बहरी कोलाहल के रूक जाने पर रेडियों की आवाज़ साफ़ सुनाई पड़ती है तथा दिन में शब्द-लहरों पर बाहरी वातावरण का घात-प्रतिघात होता रहता है, अतः आवाज़ साफ़ सुनाई नहीं पड़ती है। पर रात में शब्द-लहरों पर ये आघात छूट जाने पर स्पष्ट आवाज़ सुनाई पड़ने लगती है। इसी प्रकार जब तक हमारे मन, वचन और काय स्ाििर नहीं होते हैं, तब तक णमोकार मन्त्र की साधना में आत्मा को स्थिरता प्राप्त नहीं होती है; किन्तु उक्त तीनों-मन, वचन और काय-के स्थिर होे ही साधन में निश्चलता आ जाती है। इसी कारन कहा गया है कि साधक को ध्यान-सिद्धि के लिए चित्त की स्थिरता रखनी परम आवश्यक है। मन की चंचलता में ध्यान बनता नहीं। अतः मनोनुकूल स्त्री, वस्त्र, भोजनादि इष्ट पदार्थों में मोह न करो, राग न करो और मन के प्रतिकूल पड़नेवाले सर्प, विष, कण्टक, शत्रु, व्याधि आदि अनिष्ट पदार्थों में द्वेष मन करो, कयोंकि इन इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में रग-द्वेष करने से मन चंचल होताहै और मन के चंचल रहने से निर्विकल्प समाधि रूप ध्यान का होना सम्भव नहीं। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने इसी बात को स्पष्ट किया है:

मा मुज्झइ मा रज्जइ मा दूराई इट्ठणिट्ठट्ठेसु।
थिरमिच्छइ जइ चित्तं विचित्तज्झाणप्पसिद्धीए।।

णमोकार मन्त्र का बार-बार स्मरण, चिन्तन करने से मस्तिष्क में स्मृति-चिन्ह ;डमउवतल ज्तंबमद्ध बन जाते हैं जिससे इस मन्त्र की धारणा ;त्मजंपदपदहद्ध हो जाने से व्यक्ति अपने मन को आत्मचिन्तन में लगा सकताहै। अभिरूचि, अर्थ, अभ्यास, अभिप्राय, जिज्ञासा और मनोवृत्ति के कारण ध्यान में मजबूती आती है। जब ध्येये की प्रति अभिरूचि उत्पन्न हो जाती है तथा ध्येय का अर्थ अवगत हो जाता है और उसअर्थ को बार-बार हृदयंगम करने की जिज्ञासा और मनोवृत्ति बन जाती है, तब ध्यान की क्रिया पूर्णता को प्राप्त हो जाती है। अतएव योग-मार्ग के द्वारा णमोकार मन्त्र की साधना में सहायता प्राप्त होती है। इस मार्ग की अनभिज्ञात में व्यक्ति को ध्येय वस्तु के प्रति अभिरूचि, अर्थ, अभ्यास आदि का आविर्भाव नहीं हो पाता है। अतः णमोकार मन्त्र की साधना योग द्वारा करनी चाहिए।