णमोकार महामन्त्र अनादि है। प्रत्येक कल्पकाल में होनेवाले तीर्थंकरों के द्वारा इसके अर्थ का और उनके गणधरों के द्वारा इसके शब्दों का निरूपण किया जाता है। पूजन-पाठ के आरम्भ में इस महामन्त्र को अनादि कहकर स्मरण किया गया है। पूजन का आरम्भ ही इस महामन्त्र से होता है। पाँचों परमेष्ठियों को एक साथ नमस्कार होने से यह मन्त्र पंच परमेष्ठी मन्त्र भी कहलाता है। पंच परमेष्ठी अनादि होने के कारण यह मन्त्र अनादि माना जाता है। इस महामन्त्र में नमस्कार किये गये पात्र आदि नहीं, प्रवाह रूप से अनादि हैं और इनको स्मरण करनेवाला जीव भी अनादि है। वास्तविकता यह है कि णमोकार मन्त्र आत्मा का स्वरूप है, आत्मा अनादि हे, अतः यह मन्त्र भी अनादिकाल से गुरूपरम्परा द्वारा प्रतिपादित होता चला आ रहा है। अध्यात्ममंजरी में बताया गया है कि-‘‘इदम् अर्थमन्त्रं परमार्थतीर्थपरम्परागुरूपरम्पराप्रसिद्धं विशुद्धोपदेशदम्।’’ अर्थात अभीष्ट सिद्धिकारक यह मन्त्र तीर्थकारों की परम्परा तथा गुरूपरम्परा से अनादिकाल से चला आ रहा है। आत्मा के समान यह अनादि और अविनश्वर है। प्रत्येक कल्पकाल में होनेवाले तीर्थंकरों के द्वारा इसका प्रवचन होता है। द्वितीय छेदसूत्र महानिशीथ के पाँचवें अध्याय में बताया गया है कि-‘‘एयं तु जं पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स वक्खाणं तं महाया पबंधेण अणंतगयपज्जवेहिं सुत्तस्स य पियभूयाहिं णिज्जुत्तिभासचुन्नीहिं जहेव अणंत-नाण दंसणधरेहिं तित्थयरेहिंवक्खाणियं तहेव सभासओ वक्खाणिज्जं तं आसि। अहन्नया कालपरिहाणिदोसेणं ताओ णिज्जुत्ति-भास-चुन्नीओ वुच्छिन्नाओ। इओ य बच्चंतेणं कालेणं समएणं महिड्ढिपत्ते पयागुणसारी वइरसामी नाम दुवालसंगसुअहरे समुप्पन्ने। तेण ये पंचमंगल-महासुयक्खंधस्स उद्धारो मूलसुत्तस्स मज्झे लिहिओ। मूलसुत्तं पुण सुत्तत्ताएगणहरेहिं अत्थाताए अरिहंतेहिं भगवंतेहिें धम्मतित्थ हिं तिलोगमहिएहिं वारजिणिंदेहिं पन्नवियं त्ति एस बुड्ढसंपयाओ।’’
होना तथा उत्पाद-व्ययरूप परिणति का होना कालद्रव्य पर निर्भर है। कालद्रव्य की सहयता के बिना इस मन्त्र का आविर्भाव और तिरोभाव सम्भव नहीं है।
णमोकार महामनत्र द्रव्य है, इसमें गुण और पर्यायें पायी जाती है। इस मन्त्र में द्रव्य, द्रव्यांश, गुण, गुणांश रूप स्वचतुष्अय वर्तमान है जिसे दूसरे शब्दों में द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव कहा जाता है। इसका अपना चतुष्अय होने से ही यह द्रव्यापेक्षया अनादि माना जाता है। द्रव्यानुयोग की अपेक्षा से भी यह मन्त्र आत्म-कल्याण में सहायक है; क्योंकि इसके द्वारा आत्मिक गुणों का निश्चय होता है। स्वानुभूति की इसके साथ अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकर की व्याप्तियाँ वर्तमान है। तात्पर्य यह है कि णमोकार मन्त्र से स्वानुभूति होती हे, अतः णमोकार मन्त्र की उपयोगावस्थ में स्वानुभव के साथ विषमा व्याप्ति और लब्धि रूप णमोकार मन्त्र के साथ स्वानुभाव की समा व्याप्ति होती है।
इस महामन्त्र से जीवादि तत्त्वों के विषय में श्रद्धा, रूचि, प्रतीति और आचरण उत्पन्न होते हैं। तत्त्वार्थ के जानने के लिए उद्यत बुद्धि का होना श्रद्धा, तत्त्वार्थ में आत्मिकभाव का होना रूचि, तत्त्वार्थ को ज्यों का त्यों स्वीकार करना प्रतीति एवं तत्त्वार्थ ओर अुनुकूल क्रिया करना आचरण है। श्रद्धा, रूचि, प्रतीति से तीनों णमोकार के द्रव्यांश और गुणांश हैं। अथवा यों समझना चाहिए कि ये तीनों ज्ञानात्मक हैं, णमोकार मन्त्र श्रुतज्ञान रूप है, अतः ये तीनों ज्ञान की पर्याय होने से णमोकार मन्त्र की भी पर्याय हैं। स्वानुभूति के साथ णमोकार मन्त्र की आराधना करने से सम्यग्दर्शन तो उत्पन्न ही होता है, पर विवेक और आचरण भी प्राप्त हो जाते हैं।
इस महामन्त्र की अनुभूति आत्मा में हो जाने पर प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है तथा आत्मानुभूति हो जाने से बाहृ विषयों से अरूचि भी हो जाती है। प्रथम गुण के उत्पन्न होने से पंचेछ्रिय सम्बन्धी विषयों में और असंख्यात लोकप्रमाण क्रोधादि भावों में स्वभाव से ही मन की प्रवृत्ति नहीं होती है। क्योंकि अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का उदय उसके नहीं होता है तथा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्यख्यानावरण कषायों कामन्दोदय ही जाता है। संवेग गुण की उत्पत्ति होनेसे आत्मा का धर्म और धर्म के फल में पूरा उत्साह रहात है; तथा साधर्मी भइयों से वात्सल्यभाव रहने लगता है। समस्त प्रकारकी अभिलाषाएं भी इस गुण के प्रादुर्भूत होने से दूर हो जाती हैं, क्योंकि सभी अभिलाषाएँ मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्नहोती हैं णमोकार मन्त्र की अनुभूति न होना या इस महामन्त्र के ्रपति हार्दिक श्रद्धा भावना का न होना मिथ्यात्व है। सम्यग्दृष्टि से णमोकार महामन्त्र की अनुभूति हो ही जाती है, अतः सभी सांसारिक अभिलाषाओं का अभाव हो जाता है। पंचाध्यायीकार ने संवेग गुण का वर्णन करते हुए कहा है:
अर्थ-सम्पूर्ण अभिलाषाओं का त्याग करना अथवा वैराग्य धारण करना संवेग है और उसी का नाम धर्म है। क्योंकि जिसके अभिलाषा पायी जाती है, वह धर्मात्मा कभी नहीं हो सकता। मिथ्यादृष्टि पुरूष सदा रागी भी है वहकभी भी रागरहित नहीं होता। पर णमोकार मन्त्र की आराधना करनेवाले सम्यग्दृष्टि का राग नष्ट हो जाता है। अतः वह रागी नहीं, अपितु विरागी है। संवेग गुण आत्मा को आसक्ति से हटाता है और स्वरूप में लीन करताहैं
णमोकार मन्त्र की अनुभूति होने से तीसरा आस्तिक्य गुण प्रकट होता है। इस गुण के प्रकट होते ही ‘सत्त्वेषु मैत्री’ की भावना आ जाती है। समस्त प्राणियों के ऊपर दयाभाव होने लगता है। ‘सर्वभूतेषु समता’ के आ जाने पर इस गुण का धारक जीव अपने हृदय में चुभनेवाले माया, मिथ्यात्व और निदान शल्य को भी दूर कर देता है तथा स्व-पर अनुकम्पा पालन करने लगता है। चैथे आस्तिक्य गुण के प्रकट होने में द्रव्य, गुण पर्याय आदि में यथार्थ निश्चय बुद्धि उत्पन्न हो जाती है तथा निश्चय और व्यवहार के द्वारा सभी द्रव्यों की वास्तविकता का हृदयंगम भी होने लगता है। द्वादशांगवाणी का सार यह णमोकार मन्त्र सम्यक्त्व के उक्त चारों गुणों को उत्पन्न करता है।
आत्मा को सामान्य-विशेष स्वरूप माना गया है। ज्ञान की अपेक्षा आत्मा सामान्य है और उस ज्ञान में समय-समय परजो पर्यायें होती हैं, यह विशेष है। सामान्य स्वयं ध्रौव्यरूप रहकर विशेष रूप में परिणमन करता है; इस विशेष पर्याय में यदि स्वरूपकी रूचि हो तो समय समय पर विशेष में शुद्धता आती जाती है। यदि उस विशेष पर्याय में ऐसी विपरीत रूचि हो कि ‘जो रागादि तथा देहादि हैं, वह मैं हूँ’ तो विशष्ेा में अशुद्धता होती है, स्वरूप् में रूचि होने पर शुद्ध पर्याय क्रमबद्ध और विपरीत होने पर अशुद्ध पर्याय क्रमबद्ध प्रकट होती हैं। चैतन्य की क्रमबद्ध पर्याय में अन्तर नहीं पड़ता, किन्तु जीव जिधर रूचि करताहै, उस ओरकी क्रमबद्ध दश प्रकट होती है। णमोकार मन्त्र आत्मा की ओर रूचि करता है तथा रागादि औद देहादि से रूचि को दूर करता है, अतः आत्मा की शुद्ध क्रमबद्ध दशाओं को प्रकट करनेमें प्रधान कारण यही कहा जा सकता है। यह आत्मा की ओरवह पुरूषार्थ है जो क्रमबद्ध चैतन्य पर्यायों को उत्पन्न करने में समर्थ है। अतएव द्रव्यानुयोग की अपेक्षा णमोकार मन्त्र की अनुभूति विपरीत मान्यता और अनन्तानुबन्धी कषाय का नाश कर विशुद्ध चैतन्य पर्यायों की ओर जीव को प्रेरित करती है। आत्मा की शुद्धि के लिए इस महामन्त्र का उच्चारण, मनन और ध्यान करना आवश्यक हैं