प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों में णमोकार मन्त्र के पाठान्तर भी उपलब्ध होते हैं। श्वेताम्बर आम्नाय में णमो के स्थान पर नमो पाठ प्रचलित है। अतएव संक्षेप में इस मन्त्र केक पाठान्तरों पर विचार कर लेना भी आवश्यक है। दिगम्बर परम्परा में इस मन्त्र का मूलपाठ तो षट्खण्डागम के प्रारम्भ में लिखित ही है। इस पुस्तक में भी इसी पाठ को मूलपाठ माना गया है। पाठान्तर दिगम्बर परम्परा के अनुसार निम्न प्रकार हैं:
‘अरिहंतणं’ के स्थान पर मुद्रित ग्रन्थों में अरहंताणं, प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों में अर्हंताण तथा अरूहंताा पाठ भी मिलते हैं। इसी प्रकार ‘आइरियाणं’ के स्थान पर आयरियाणं, आइरीयाणं आइरिआण पाठ भी पाये जाते हैं। अन्य पदो ंके पाठ में कुछ भी अन्तर नहीं है, ज्यों के त्यें हैं। यदि अरिहंताणं के स्थान पर अरहंताणं और अरूहंताणं या अर्हंताणं पाठ रखे जाते हैं, तो प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से अरूहंताणं और अरहंताणं दोनों पदों से अर्हत् शब्द निष्पन्न होता है। अत; दोनों शुद्ध हैं; पर अर्थ में अन्तर है। अरूहंत का अर्थ है कि जिनका पुनर्जन्म अब न हो अर्थात् कर्म बीज के जल जाने के कारण जिनका पुनर्जन्म का अभाव हो गया है, वे अर्हंत कहलाते हैं। देवों के द्वारा अतिशय पूजनीय होने के कारण अरहंत कहे जाते हैं। इसी अरहंत को लेखकों ने अर्हंत लिखा है, अर्थात् प्राकृत शब्द को संस्कृत मानकर अर्हंत पाठ भी लिखा जाने लगा।
षट्खण्डागम की धवला टीका के देखने से अवगत होता है कि आचार्य वीरसेन के समय मं भी इस महामन्त्र के अरहंत और अरूहंत पाठान्तर थे। उनके इस मन्त्र की व्याख्या में प्रयुक्त ‘अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्तः’ तथा ‘भ्रष्टबीज-वन्निशक्तीकृताघातिकर्मणो हननात्’ वाक्यों से स्पष्ट सिद्ध है कि यह व्याख्या उक्त पाठान्तरों को दृष्टि में रखकर ही की गयी होगी। यद्यपि स्वयं वीरसेनाचार्य को मूलपाठ ही अभिप्रेत था, इसी कारण व्याख्या के अन्त में उन्होंने अरिहंत पद ही प्रयुक्त किया है; फिर भी व्याख्या की शैली से यह स्पष्ट प्रकट हो जाता है कि उनके सामने पाठान्तर थे। व्याकरण और अर्थ की दृष्टि से उक्त प्रकट हो जाता है कि उनके सामने पाठान्तर थे। व्याकरण और अर्थ की दृष्टि से उक्त पाठान्तरों में कोई मौलिक अन्तर न होने के कारण उन्होंने उनकी समीक्षा करना उचित न समझा होगा।
इसी प्रकार आइरियाणं, आयरियाणं पाठों के अर्थ में कोई भी अन्तर नहीं है। प्राकृत व्याकरण के अनुसार तथा उच्चारणादि के कारण इनमें अन्तर पड़ गया है। रकारोत्तरवर्ती इकार को दीर्घ करना केवल उच्चारण की सरलता तथा लय को गति देने के लिए हो सकता है। इसी प्रकार इकार के स्थान पर यकार का पाठ भी उच्चारण के सौकर्य के लिए ही किया गया प्रतीत होता है। अतः णमोकार मन्त्र का शुद्ध और आगमसम्मत पाठ निम्न है:
श्वेताम्बर-परम्परा में इस मन्त्र का पाठ निम्न प्रकार उपलब्ध होता है-
सप्तस्मरणानि में ‘अरिहंताणं’ के तीन पाठ बतलाये गये हैं- ‘अत्र पाठ-त्रयम्-अरहंताणं, अरिहंताणं, अरूहंताणं’ इन तीनों पदों का अर्थ पूर्व के समान इन्द्रादि के द्वारा पूज्य, घातिया कर्मों के नाशक, कर्मबीज के विनाशक रूप में किया गया है। उच्चरण-सरलता के लिए आइरियाणं के स्थान पर आयरियाणं पाठ है। इसमें अर्थ की कोई विशेषता नहीं है।
इस प्रकार श्वेताम्बर आम्नाय के पाठों में दिगम्बर अम्नाय के पाठों की अपेक्षा कोई मौलिक भेद नहीं हैं। जो कुछ भी अन्तर है वह ‘नमो’ पाठ में है। इस समप्रदाय के आगमिक ग्रन्थों में भी ‘ण’ के स्थान पर ‘न’ पाया जाता है। इसका कारण यह है कि कर्धमागधी प्राकृत से ‘ण’ के स्थान पर ‘न’ होता हैं। दिगम्बर आम्नाय के साहत्य की प्राकृत प्रायः जैन शौरसेनी है जो महाराष्ट्री के नकार के स्ािानपर णकार हेने से समता रखती है। किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय के साहित्य की प्राकृत भाषा अर्धमागधी हे, इसमें णकार के स्थान परणकार और नकार दोनों प्रयोग पाये जाते हैं। बताया गया है कि-‘‘महाराष्ट्रायां नकारस्य सर्वदा णकारो जायतेऽर्द्धमागध्यां तु नकारणकारी द्वावपि।’’ यथा ‘छणं छणं परिण्णय लोगसन्नं च सव्वसो।’’ -आचात्र 1-2-3-103।
परन्तु इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भाषा के परिवर्तन से शब्दों की शक्ति मेें कमी आती है, जिससे मन्त्रशास्त्र के रूप और मण्डल में विकृति हो जाती है और साधक को फल-प्राप्ति नहीं हो पाती है। अतः णमो पाठ ही समीचीन है, इस पाठ के उच्चारण, मनन और चिन्तन में आत्मा की शक्ति अधिक लगती है तथा फलप्राप्ति शीघ्र होती है। मन्त्रोच्चारण से जिस प्राण-विद्युत् का संचार किया जाता है, यह ्णमो् के घर्षण से ही उत्पन्न की जा सकती है। अतएव शुद्धपाठ ही काम में लेना चाहिए।