इस महामन्त्र में शुद्धात्माओं को क्रमशः नमस्कार किया गया प्रतीत नहीं होता है। रत्नत्रय की पूर्णता तथा पूर्ण कर्म कलंक का विनाश तो सिद्ध परमेष्ठी में देखा जाता है, अतः इस महामन्त्र के पहले पद में सिद्धों को नमस्कार होना चाहिए था; किन्तु ऐसा नहीं किया गया है। धवला टीका में आचार्य वीरसेन स्वामी ने इस आशंका को उठाकर निम्न प्रकार समाधान किया है:
विगताशेषलेपेषु सिद्धेषु सत्स्वर्हतां सलेपानामादौ किमिति नमस्कारः क्रियत इति चेन्नैष दोषः, गुणाधिकसिद्धेषु श्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वात्। असत्यर्हत्याप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीनम्, संजातश्चैतत् प्रसादा-दित्युपकारापेक्षया वादावर्हन्नमस्कारः क्रियते। न पक्षपातों दोषाय शुभपक्षवृत्तेः श्रेयोहेतुत्वात्। अद्वैतप्रधाने गुणीभूतद्वेते द्वैतनिबन्धनस्य पक्षपातस्यानुपपत्तेश्च। आश्रद्धाया आप्तागमपदार्थविषयश्रद्धाधिक्यनिबन्ध- नत्वख्यापनार्थ वार्हतामादौ नमस्कारः।
अर्थात-सभी प्रकार के कर्म लेप से रहित सिद्धपरमेष्ठी के विद्यमान रहते हुए आघातिया कर्मों के लेप से युक्त अरिहन्तों को आदि में नमस्कार क्यों किया है? इस आशंका का उत्तर देते हुए वीरसेन स्वामी ने लिखा है कि यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि सबसे अधिक गुणवाले सिद्धों में श्रद्धा की अधिकता के कारण अरिहन्त परमेष्ठी ही हैं-अरिहन्त परमेष्ठी के निमित से ही अधिक गुणवाले सिद्धों में सबसे अधिक श्रद्धा उत्पन्न होती है अथवा यदि अरिहन्त परमेष्ठी न होते तो हम लोगों को आप्त आगम और पदार्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता था। यतः अरिहन्त की कृपा से ही हमें बोध की प्राप्ति हुई है, इसलिए उपकार की अपेक्षा भी यदि में अरिहन्तों को नमस्कार करना युक्ति-संगत है। जो मार्गदर्शक उपकारी होता है उसी का सबसे पहले स्मरण किया जाता है।
यदि कोई यह कहे कि इस प्रकार आदि में अरिहन्तों को नमस्कार करना तो पक्षपात है? इस पर आचार्य उत्तर देते है कि ऐसा पखपात दोषोत्पादक नहीं है; किन्तु शुभ पक्ष में रहने से वह कल्याण का ही कारण है। तथा द्वैत को गौण करके अद्वैत की प्रधानता से किये गये नमस्कार में द्वेतमूलक पक्षपात बन भी तो नहीं सकता है। अतः उपकारी के रूप में अरिहन्त भगवान् को सबसे पहले नमस्कार किया है, पश्चात् सिद्ध परमेष्ठी को।
अरिहन्त और सिद्ध में नमस्कार का उक्त क्रम मान लेने पर, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु के नमस्कार में उस क्रम का निर्वाह क्यों नहीं किया गया है? यहाँ भी सबसे पहले साधु परमेष्ठी को नमस्कार किया जाता, पश्चात् उपाध्याय और आचार्य परमेष्ठी को नमस्कार होना चाहिए था, पर ऐसा पदक्रम नहीं रखा गया है।
उपर्युक्त आशंका पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस महामन्त्र में परमेष्ठियों को रत्नत्रय गुण की पूर्णता और अपूर्णता के कारण दो भागों में विभक्त किया है। प्रथम विभाग में अर्हन्त और सिद्ध हैं, द्वितीय विभाग में आचार्य, उपाध्याय और साधु है। प्रथम विभाग के परमेष्ठियों में रत्नत्रयगुण की न्यूनतावाले परमेष्ठी को पहले और रत्नत्रयगुण की पूर्णतावाले परमेष्ठी को पश्चात् रखा गया है। इस क्रमानुसार अरिहन्त को पहले और सिद्ध को बाद में परित किया है। दूसरे विभाग के परमेष्ठियों में ही यही क्रम है। आचार्य और उपाध्याय की अपेक्षा मुनि का स्थान ऊँचा है; क्योंकि गुणस्थान-आरोहरण मुनिपरद से ही होता है, आचार्य और उपाध्याय पद से नहीं। और यही कारण है कि अन्तिम समय में आचार्य और उपाध्यायों को अपना-अपना पद छोड़कर मुनि पद धारण करना पड़ता है। मुक्ति भी मुनिपद से ही होती है तथा रत्नत्रय की पूर्णता इसी पद में सम्भव है। अतः दोनों विभागों में उन्नत आत्माओं को पश्चात् पठित किया गया है।
एक अन्य समाधान यह भी है कि जिस प्रकार विभाग के परमेष्ठियों में उपकारी परमेष्ठी को पहले रखा गया है, उसी प्रकार द्वितीय विभाग के परमेष्ठियों मे ंभी उपकारी परमेष्ठी को प्रथम स्थान दिया गया है। आत्मकल्याण की दृष्टि से साधुपद उन्नत है, पर लोकोपकार की दृष्टि से आचार्यपद श्रेष्ठ है। आचार्य संघ का व्यवस्थापक ही नहीं होता, बल्कि अपने समय के चतुर्विघ संघ के रक्षण के साथ धर्म-प्रसार और धर्म-प्रचार का कार्य भी करता है। उसे लोक-व्यवहारज्ञ भी होना चाहिए जिससे लोक में तीर्थकर द्वारा प्रवर्तित धर्म का भली भाँति संरक्षण कर सके। अतः जनता के उत्थान के साथ आचार्य का सम्बन्ध है, यह अपने धर्मोपदेश द्वारा जनता को तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट मार्ग का अवलोकन कराता है। भूले-भटकों को धर्मपन्थ सुझाता है। अतएव जनता का धार्मिक नेता होने के कारण आचार्य अधिक उपकारी हैं। इसलिए द्वितीय विभाग के परमेष्ठियों में आचार्य पद को प्रथम स्थान दिया गया है।
आचार्य से कम उपकारी उपाध्याय है। आचार्य सर्वसाधारण को अपने उपदेश से धर्ममार्ग में लगो हैं, किन्तु उपाध्याय उन जिज्ञासुओं को अध्ययन कराते हैं, जिनके हृदय में ज्ञानपिपासा है। उनका सम्बन्ध सर्वसाधारण से नहीं, बल्कि सीमित अध्ययनार्थियों से है। उदाहरण के लिए यों कहा जा सकता है क एक वह नेता है जो अगणित प्राणियों की सभा में अपना मोहक उपदेश देकर उन्हें हित की ओर ले जाता है और दूसरा वह प्रोफ़ेसर है, जो एक सीमित कमरे में बैठे हुए छात्रवृन्द को गम्भीर तत्त्व समझाता है। हैं दोनों ही उपकारी, पर उनके उपकार के परिमाण और गुणों में अन्तर है। अतः आचार्य के अनन्तर उपाध्याय पद का पाठ भी उपकार गुण की न्यूवता के कारण ही रखा गया है।
अन्त में मुनिपद या साधु पद का पाठ आता है। साधु दो प्रकार के हैं-द्रव्यलिंगी और भावलिंगी। आत्म कल्याण करने वाले भाव लिंगी साधु हैं। ये अन्तरंग-काम, क्रोध, मान, माया, लोभ रूप परिग्रह से तथा बहिरंग-धन, धान्य, वस्तत्र आदि सभी प्रकार से परिग्रह से रहित होकर आत्मचिन्तन में लीन रहतो हैं। ये सर्वदा लोकोपकार से पृथक् रहकर आत्मसाधना में रत रहते हैं। यद्यपित इनकी सौम्य मुदा्र तथा इनके अहिंसकर आचरण्या का प्रभाव भी समाज पर अमिट पड़ता है, पर ये आचार्य या उपाध्याय के समान लोक-कल्याण में संलग्न नहीं रहते हैं। अतः ‘सव्व-साधु’ पद का पाठ सबसे अन्त में रखा गया है।