अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के दिव्य उपदेश का संकलन द्वादशांग साहित्य के रूप में गणधर देव ने किया है। इस संकलन में कर्मप्रवाद नाम के पूर्व में कर्म विषय का वर्णन विस्तार से किया गया है। इसके सिवा द्वितीय पूर्व के एक विभाग का नाम कर्म-प्राभृत और पंचम पूर्व के एक विभाग का नाम कषाय-प्राभृत है। इनमें भी कर्मविषयक वर्णन है। इसी प्राचीन सािहत्य के आधार पर रचे गये दिगम्बर और श्वेताम्बरसम्प्रदाय में कषाय-प्राभृत, महाबन्ध, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति, कर्मस्तव, कर्मप्रकृति-प्राभृत, कर्मग्रन्थ, षडशीति एवं सप्ततिका आदि कई ग्रन्थ हैं, जिनमें इस विषय विस्तार के साथ किया गया है। ज्ञानावराादि आठों कर्मों के स्वरूप, भेद-प्रभेद, उनके फल, कर्मों की अवस्थाएं-बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्त्व,उत्कर्षण अपकर्षण, संक्रमण, निधत्ति औरन निकाचना का स्वरूप मार्गणा और गुणस्थानों के आश्रय से कर्मप्रकृतियों में बन्ध, उदय और सत्त्व के स्वामियों का विवेचन, मार्गणास्थानों में जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या और अल्प-बहुत्व का विवेचन कर्म साहित्य का प्रधान विषय है। कर्मवाद का जैन अध्यात्मवाद के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। आचार्यों ने चिन्तन और मनन को विपाकविचय नामक धर्मध्यान बताया है। मन को प्रारम्भ में एकाग्र करने के लिए कर्म-विषयक गहन साहित्य के निर्जन वनप्रदेश में प्रवेश करना आवश्यक-सा है। इस साहित्य के अध्ययन से मन को शांति मिलती है तथा इधर-उधर जाता हुआ मन एकाग्र होता है, जिससे ध्यान की सिद्धि प्राप्त होती है।
णमोकार महामन्त्र और कर्मसाहित्य का निकटतम सम्बन्ध है; क्योंकि कर्म-साहित्य णमोकार मन्त्र के उपयोग की विधि का निरूपण करता है। इस महामन्त्र का उपयोग किस प्रकार किया जाए, जिससे आत्मा अनादिकालीन बन्धन को तोड़ सके। आत्मा के साथ अनादिकालीन कर्मप्रवाह के कारण सूक्ष्म शरीर रहता है, जिससे यह आत्मा शरीर में आबद्ध दिखलाई पड़ता है। मन, वचन और काय की क्रिया के कारण कषाय-राग, द्वेष, क्रोध, मान आदि भावों के निमित्त से कर्म-परमाणु आत्मा के साथ बंधते हैं। योग शक्ति जैसी तीव्र या मन्द होती है, वैसी ही संख्या में कम या अधिक परमाणु आत्मा की ओर खिंच आते हैं। जब योग उत्कट रहता है, उस समय कर्मपरमाणु अधिक तादाद में और जब योग जघन्य होता है, उस समय कर्मपरमाणु कम तादाद में जीव की ओर आते हैं। इसी प्रकार तीव्र कषाय के होने पर कर्मपरमाणु अधिक समयतक आत्मा के साथ रहते हैं तथा तीव्र फल देते हैं। मन्द कषाय होने पर कम समय तक रहते हैं तथा मन्द ही फल देते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने बतलाया है कि णमोकार मन्त्रोक्त पंचपरमेष्ठियों की विशुद्ध आत्माओं का ध्यान या चिन्तन करने से आत्मा से चिपटा राग कम होता है। राग और द्वेष से युक्त आत्मा ही कर्मबन्धन करता है।
अर्थात् - जब राग-द्वेष से युक्त आत्माअच्छे या बुरे कामों में लगता है, तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणादि रूप से आत्मा में प्रवेश करता है। यह कर्मचक्र जीव के साथ अनादिकाल से चला आरहा है। पंचास्तिकाय में बताया है-‘‘संसार में स्थित जीव के राग-द्वेषरूप परिणाम होते हैं, परिणामों से नये कर्म बँधते हैं। कर्मों से गतियों से जन्म लेना पड़ता है, जन्म लेने से शरीर होता है, शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियों से विषय का ग्रहण होता है। विषयों के ज्ञान से राग-द्वेष परिणाम होते हैं। इस तरह संसार रूपी चक्र में पड़े जीवों के भावों से कम्र ओर कर्मों से भाव होते रहते हैं। यह प्रवाह अभव्य जीव की अपेक्षा अनादि अनन्त और भव्य जीव की अपेक्षा अनादि सान्त है। कर्मों के बीजभूत राग-द्वेष को इस महामन्त्र की साधना द्वारा नष्ट किया जा सकता है। जिस प्रकार बीज को जला देने से पश्चात् वृक्ष का उत्पन्न होना, बए़ना, फल देना आदि नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकर मन्त्र की आराधना से कर्म-जान नष्ट हो जाता है।
जैन साहित्य में कर्मों के दो भेद माने गये हैं-द्रव्य और भाव। मोह के निमित्त से जीव के राग, द्वेष और क्रोधादिरूप जो परिणाम होते हैं, वे भावकर्म तथा इन भावों के निमित्त में जो कर्मरूप परिणमन न करने की शक्ति रखनेवाले पुद्गल परमाणु खिंचकर आत्मा से चिपट जाते हैं, वे द्रव्यकर्म कहलाते हैं। भावकर्म और भावकर्म निमित्त से द्रव्यकर्म होते हैं। द्रव्यकर्मों के मूल ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, और अन्तराय-ये आठ भेद तथा अवान्तर 148 भेद होते हैं। जिन हेतुओं से कर्म आत्मा में आते हैं, वे हेतु अस्त्रव हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पाँच आस्त्रव प्रतयय-कारण हैं। जब यह जीव अपने आत्मा-स्वरूप को भूलकर शरीरादि पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि करता है और उने समस्त विचार और क्रियाएँ शरीराश्रित व्यवहारों में उलझी रहती हैं, मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। मिथ्यात्व के कारण स्व-पर विवेक नहीं रहता, लक्ष्यभूत कलयाण-मार्ग में सम्यक् श्रद्धा नहीं होती। जीव अहंकार और ममकार की प्रवृत्ति के अधीन होकर अपने को भूल, बाहृ पदार्थों के रूप पर क्षुब्ध हो जाता है। मिथ्यात्व के समान आत्मा के स्वरूप को विकृत करनेवाला अन्य कोई नहीं है। यह कर्मबन्ध का प्रधान हेतु है।
अविरति - चारित्रमोह का उदय होने से चारित्र धारण करने के परिणाम नहीं हो पाते। पाँच इन्द्रियों और मन को अपने वश में न रखना तथा छह काय के प्राणियों की हिंसा करना अविरति है। अविरति के रहने पर जीव की प्रवृत्ति विवेकहीन होती है, जिससे नाना प्रकार के अशुभ कर्मों का बन्ध होता है।
प्रमाद - असावधानी रखना या कल्याणकारी कार्यों के प्रति आदर नहीं करना प्रमाद है। प्रमादी जीव पाँचों इन्द्रियों के विषयों में लीन रहता है, स्त्री-कथा, भोजनकथा, राजकथा और चोरकथा कहता-सुनता है; क्रोध, मान, माया और लाभ इन चारों कषायों में लीन रहता है एवं निद्रा और प्रणयासक्त होकर कर्तव्य मार्ग के प्रति आदरभाव नहीं रखता। प्रमादी जीव हिंसा करे या न करे, उसे असावधानी के कारण हिंसा अवश्य लगती है।
कषाय - आत्मा के शान्त और निर्विकारी रूप को जो अशान्त और विकार-ग्रस्त बनाये उसे कषाय कहते हैं। ये कषायें ही जीव में राग-द्वेषकी उत्पत्ति करती हैं, जिससे जीव निरन्तर संसार परिभ्रमण करता रहता है। यतः समस्त अनर्थों का मूल राग-द्वेष का द्वन्द्व है।
योग - मन, वचन, और काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। योग के द्वारा ही कर्मों का आस्त्रव होता है। शुभ योग के रहने से पुण्यास्त्रव और अशुभ योग के रहने से पापस्त्रव होता है।
कर्मों के आने के साधन मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग है। इन पाँचों प्रत्ययों को जैसे-जैसे घटाते हैं, वैसे-वैसे कर्मों का अस्त्रव कम होता जाता है। अस्त्रव को गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय ओर चारित्र से रोका जा सकता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति, प्रमाद का त्याग करना समिति, आत्मस्वरूप में स्थिर होना धर्म, वैराग्य उत्पन्न करने के साधन-संसार तथा आत्मा के स्वरूप और सम्बन्ध का विचार करना अनुप्रेक्षा, आयी हुई विपत्तियों को धैर्यपूर्वक सहना परीषहजय एवं आत्मस्वरूप में विचरण करना चारित्र है। इस प्रकार कर्मों के आने के हेतुओं को रोकने, जिससे नवीन कर्मों का बन्ध न हो और पुरातन संचित कर्मों को निर्जरा-द्वारा क्षीण कर देने से सहज में निर्वाण प्राप्त किय जा सकता है, कर्म-सिद्धान्त आत्मा के विकास का उल्लेख करते हुए कहता है कि गुणस्थान क्रम से कर्मबन्ध जितना क्षीण होता जाता है उतनी ही आत्मा उत्तरोत्तर विकसित होती जाती है। आत्मा की उत्तरोत्तर विकसित होने वाली विशुद्ध परिणति का नाम गुणस्थान है।
आगम में बताया गया है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि गुणों की शुद्धि तथा अशुद्धि के सरतम भाव से होनेवाले जीव के भिन्न-भिन्न स्वरूपों को गुणस्थान कहा गया हैं अथवा दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के औदयिक आदि जिन भावों के द्वारा जीव पहचाना जाता है, वे भाव गुणस्थान हैं। असल बात यह है कि आत्मा का वास्तविक रूप शुद्ध चेतन और पूर्ण आनन्दमय है। जबतक आत्मा के ऊपर तीव्र कर्मावरण के घने बादलों की घटा छायी रहती है, तब तक उसका वास्तविक रूप दिखलाई नहीं देता, पर आवरण के क्रमशःः शिथिल या नष्ट होते ही आत्मा का असली स्वरूप प्रकट हो जाता है। जब आवरण की तीव्रता अपनी चरम सीमा पर पहुँंच जाती है, तब आत्मा अविकसित अवस्था में पड़ा रहता है और जब आवरण बिलकुल नष्ट हो जाते हैं तो आत्मा अपनी मूल शुद्ध अवस्था में आ जाता है। प्रथम अवस्था को अविकसित अवस्था या अधःपतन की अवस्था तथा अंतिम अवस्था को निर्वाण कहा जाता है। इस तरह आयात्मिक विकास में प्रथम अवस्था-मिथ्यात्वभूमि से लेकर अंतिम अवस्था-निर्वाणभूमि तक मध्य में अनेक आध्यात्मिक भूमियों का अनुभव करना पड़ता है; जैनागमोक्त ये ही आध्यात्मिक भूमियाँ गुणस्थान हैं। इन्हीं का क्रमशः जीव आरोहरण करता है।
समस्त कर्मों में मोहनीय कर्म प्रधान है, जब तक यह बलवान् और तीव्र रहता है, तबतक अन्य कर्म सबल बने रहते हैं। मोह के निर्बल या शिथिल होते ही अन्य कर्मावरण भी निर्बल या शिथिल हो जाते हैं। अतएव आत्मा के विकास में मोहनीय कर्म बाधक है। इसकी प्रधान दो शक्तियाँ हैं-दर्शन और चारित्र। प्रथम शक्ति आत्मस्वरूप का अनुभव नहीं होने देती है और दूसरी आत्मस्वरूप का अनुभव और विवेक हो जाने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति नहीं होने देती है। आत्मिक विकास के लिए प्रधान दो कार्य करने होते हैं-प्रथम स्व-पर का यथार्थ दर्शन अर्थात् भेद-विज्ञानकरना और दूसरा स्वरूप में स्थित होना। मोहनीय कर्म की दूसरी शक्ति प्रथम शक्ति की अनुगामिनी है अर्थात् प्रथम शक्ति के बलवान् होने पर द्वितीय शक्ति कभी निर्बल नहीं हो सकती है; किन्तु प्रथम शक्ति के मन्द, मन्दतर और मन्दतम होते ही, द्वितीय शक्ति भी मन्द; मन्दतर और मन्दतम होने लगती है। तात्पर्य यह है कि आत्मा का स्वरूप दर्शन हो जाने पर स्वरूप-लाभ हो ही जाता है। कर्म सिद्धन्त इस स्वरूप-दर्शन और स्वरूप-लाभ का विस्तृत विवेचन करता है। आत्मा किसी प्रकारस्वरूप-लाभ करती है तथा इसका स्वरूप किस प्रकार विकृत होता है, यह तो कर्म-सिद्धान्त का प्रधान प्रतिपाद्य विषय है।
णमोकार महामन्त्र का भक्तिपूर्वक उच्चारण, मनन और चिन्तन करना आत्मा के स्वरूप-दर्शन में सहायक है। इस महामन्त्र के भावसहित उच्चारण करने मात्र से मोहनीय कम्र की प्रथम शक्ति क्षीण होने लगती हैं एक बात यह भी है कि मोहनीय कर्म के मन्द हुए बिना इस महामन्त्र की प्राप्ति होना अशक्य है। आत्मा की प्रथमवस्था-मिथ्यात्व भूमि में इस मन्त्र के उच्चारण और मनन से जीव दूर रहता है, उसकी प्रवृत्ति इस महामन्त्र की ओर नहीं होती। परन्तु जब दर्शन-मोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाता है, तब चतुर्थ गुणस्थान-स्वरूप-दर्शन में इस महामन्त्र की ओर श्रद्धा ही सम्यक्त्व है; क्योंकि इससे रत्नत्रयगुणविशिष्ट आत्मा के शुद्ध-स्वरूप को नमस्कार किया गया है। कर्म सिद्धान्त के आध्यात्मिक विकास के अनुसार अधःपतन की प्रथम अवस्था मिथ्यात्व में आत्मा की बिलकुल गिरी हुई अवस्था बतलायी है, आत्मा यहाँ आधिभौतिक उत्कर्ष कर सकता है, परन्तु अपने तात्त्विक लक्ष्य से दूर रहता है। णमोकार मन्त्र का भाव-सहित उच्चरण इस भूमि में सम्भव नहीं। बहिरात्मा बनकर आत्मा महा भ्रम में पड़ा रहता है। राग-द्वेषका पटल और अधिक सघन होता जाता है।
भावर्पूवक णमोकार मन्त्र के जाप, ध्यान और मनन से यह अधःपतन की अवस्था दूर हो जाती है, राग-द्वेष की दीवार जर्जरित हो टूटने लगती है, मोह की प्रधान शक्ति दर्शनमोहनीय के शिथिल हाते ही चारित्र मोह भी मन्द होने लगता है। यद्यपि कुछ समय तक दशर््नमोहनीय की मन्दता से उत्पन्न आत्मिक शक्ति को मानसिक विकारों के साथ युद्ध करना पड़ता है, परन्तु णमोकार मन्त्र अपनी अद्भुत शक्ति के द्वारा मानसिक विकारों को पराजित कर देता है। राग-द्वेष की तीव्रतम दुर्भेद्य दीवार को एक मात्र णमोकार मन्त्र ही तोड़ने में समर्थ है। विकासोन्मुखी आत्मा के लिए यह महामन्त्र अंगपरित्राण काकार्य करता है। इस मन्त्र की आराधना से वीर्योल्लास और आत्मशुद्धि इतनी बढ़ जाती है, जिससे मिथ्यात्व को पराजित करने में विलम्ब नहीं लगता तथा यह जीव चतुर्थगुणस्ािन में पहुँच जाता है। अपने विशुद्ध परिणामों के कारण इस अवस्था में पहुँचने पर आत्मा को शान्ति मिलती है तथा अन्तर आत्मा बनकर व्यक्ति अपने भीतर स्थिर सूक्ष्म सहज परमात्मा-शुद्धात्मा का दर्शन करने लगता हैं तात्पर्य यह है कि णमोकार मन्त्र की साधना मिथ्यात्व भूमि को दूर कर परमात्मभाव रूपद ेव का दर्शन कराता है। इस चतुर्थगुणस्थान से आगेवाले गुणस्थान-आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ सम्यग्दृष्टि की हैं, इनमें उत्तरोत्तर विकास तथा दृष्टि की शुद्धि अधिकाधिक होती है। पाँचवें गुणस्थान में देश-संयम की प्राप्ति हो जाती है, णमोकार मन्त्र की आराधना के परिणामों में विरक्ति आती है, जिससे जीव चारित्रमोह को भी शिथिल करता है। इस गुणस्थान का व्यक्ति उक्त महामन्त्र की आराधना का अभ्यासी स्वभावतः हो जाता है।
छठे गुणस्थान में स्वरूपाभिव्यक्ति होती है और लोककल्याण की भावना का विकास होता है, जिससे महाव्रतों का पूर्ण पालन साधक करने लगता है। इस आध्यात्मिक भूमि में णमोकार मन्त्र की आत्मा का एकमात्र आराध्य बन जाता है। विकासोन्मुखी आत्मा जब प्रमाद का भी त्याग करता है और स्वरूप-मनन, चिन्तन के सिवा अन्य सब व्यापारों का त्याग कर देता है तो व्यक्ति अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान का धारी समझा जाता है, प्रमाद आत्मसाधना के मार्ग से विलित करता है, किन्तु यहसाधना णमोकार मन्त्र के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि णमोकारमन्त्र के प्रतिपाद्य आत्मा शुद्ध और निर्मल हैं। इस आध्यात्मिक भूमि में पहुँचकर साधक अपनी शक्ति का विकास करता है, आस्त्रव के कारणों को रोकता है और अवशेष मोहनीय की प्रकृतियों को नष्ट करने की तैयारी करता है। इससे आगे अपूर्वकरण के परिणामों द्वारा आत्मा का विकास करता है और णमोकार मन्त्र की आराधना में आत्माराधना का दर्शन और तादात्म्यकरा करता है तथा मोह के संस्कारों के प्रभाव को क्रमशः दबाता हुआ आगे बढता है और अन्त में उसे बिलकुल ही उपशान्त कर देता है। कोई-कोई साधक ऐसा भी होता है, जो मोहभाव को नाश करता है। आठवें गुणस्थान से आगे णमोकार मन्त्र की आरधना-आत्मस्वरूप के चिन्तन-द्वारा क्रोध, मान और माया को नष्ट कर साधक अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान में पहुँचता है तथा इससे आगे लोभ कषाय का भी दमन कर, दसवें गुणस्थान में पहुँचता है। यहाँ से बारहवें गुणस्थान में स्थित होकर समस्त मोहभाव को नष्ट कर देता है। अनन्तर अपने स्वरूप के ध्यान द्वारा केवल ज्ञान को प्राप्त कर जिन बन जाता है। कुछ दिनों के पश्चात् शुक्लध्यान के बल से योगों का निरोध कर चैदहवें गुणस्थान में पहुँच क्षण-भर में निर्वाण लाभ करता है। यह आत्मा की चरम शुद्धावस्था है, इसी को प्राप्त कर आत्मा कर्मजाल से युक्त होने पर भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता हैं आत्मा की सिद्धि का प्रधान कारण इस मन्त्र की आराधना ही है। इसी से कर्मजाल को नष्ट कर स्वातऩ्य की प्राप्ति का यह कारण बनता है।
उपर्युक्त गुणस्थान-विकास की परम्परा को देखने से प्रतीत होता है कि णमोकर मन्त्र द्वारा कर्मों के आस्त्रव को रोका जासकता है तथा संचित कर्मों का निर्जरा द्वारा क्षय कर निर्वाणलाभ किया जा सकता है। इतना ही नहीं बल्कि णमोकार मन्त्र की आराधना से कर्मों की अवस्था में भी परिवर्तन किया जा सकता है। प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग इन चारों बन्धों में इस मन्त्र की साधना से स्थिति और अनुभाग बन्ध को घटाया जा सकता हैं शुभ कर्मों में उत्कर्षण और अशुभ कर्मों में अपकर्षण-करा किया जा सकता है। इस मन्त्र की पवित्र साधना से उत्पन्न हुई निर्मलता से किन्हीं विशेष कर्मों की उदीरणा भी की जा सकती है। अतएव कर्म-सिद्धान्त की अपेक्षा से भी इस महामन्त्र का बड़ा भारी महत्त्व है। आत्मविकास के लिए यह एक सबल साधन है।