मानव-जीवन को सुव्यवस्थित रूप से यापन करने तथा इस अमूल्य मानव-शरीर द्वारा चिरसंचित कर्मकालिमा को दूर करने का मार्ग बतलाना आचारशास्त्र का विषय है। आचारशास्त्र जीवन के विकास के लिए विधान का प्रतिपादन करता है; यह आबालवृद्ध सभी के जीवन को सुखी बनानेवाली नियमों का निर्धारण कर वेयक्तिक और सामाजिक जीवन को व्यवस्थित बनाता है। यों तो आचार शब्द का अर्थ इतना व्यापक है कि मनुष्य का सोचना, बोलना, करना आदि सभी क्रियाएं इसमें परिगणित हो जाती है। अभिप्राय यह है कि मनुष्य की प्रत्येक प्रवृत्ति और निवृत्ति को आचार कहा जाता है। प्रवृत्ति का अर्थ है, इच्छापर्वूक किसी काम में लगाना और निवृत्ति का अर्थ हे, प्रवृत्ति को रोकना। प्रवृत्ति अच्छी और बुरी दोनों प्रकर की होती है। मन, वचन, और काय के द्वारा प्रवृत्ति सम्पन्न की जाती है। अच्छा सोचना, अच्छे वचन बोलना, अच्छे कार्य करना, मन, वचन, काय की सत्प्रवृत्ति और बुरा सोचना, बुरे वचन बोलना, कार्य करना असत्प्रवृत्ति है।
अनादिकालीन कर्म संस्कारों के कारण जीव वास्तविक सुख स्वभाव को भूले हुए हैं, अतः यह विषय वासनाजन्य सुख को ही वास्तविक सुख समझ रहा है। ये विषय-सुख भी आरम्भ में बड़े सुन्दर मालूम होते हैं, इनकारूप बड़ा ही लुभावना है, जिसकी भी दृष्टि इन पर पड़ती है, वही इनकी ओर आकृष्ट हो जाता है, पर इनका परिणाम हलाहल विष के समान होता है। कहा भी है-‘‘आपातरम्ये परिणामदुःखे सुखे कथं वैषयिके रतोऽसि’’ अर्थात्-वैषयिक सुख परिणाम में दुःखकारक होते हैं, इनसे जीवनको क्षणिक शान्ति मिल सकती है; किन्तु अन्त में दुःखदायक ही होते हैं। आचारशस्त्र जीव को सचेत करता है तथा उसे विषय-सुखों में रत होने से रोकत है। मोह और तृष्णा के दूर होने पर प्रवृत्ति नत् हो जाती है; परन्तु यह सत्प्रवृत्ति भी जब-तब अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर देती है। अतएव प्रवृत्ति की अपेक्षा निवृत्ति पर ही आचारशास्त्र ज़ोर देता है। निवृत्तिमार्ग ही व्यक्ति की आध्यात्मिक, मानसिक और शरीरिक शक्ति का विकास करता है, प्रवृत्तिमार्ग नहीं। प्रवृत्तिमार्ग में संभलकर चलने पर भी जोखिम उठानी पड़ती है, भोग-विलास जब-तब जीवन को अशान्त बना देते हैं, किन्तु निवृत्ति मार्ग में किसी प्रकार का भय नहीं रहता। इसमें आत्मा रत्नत्रय रूप आचरण की ओर बढ़ता है तथा अनुभव होने लगता है कि जो आत्मा ज्ञाता, द्रष्टा है, जिसमें अपरिमित बल है, वह मैं हूँ। मेरसांसारिक विषयों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। मेरा आत्मा शुद्ध है, इसमें परमात्मा के सभी गुण वर्तमान है। शुद्ध आत्मा को ही परमात्मा कहा जाता है। अतः शक्ति की अपेक्षा प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा है। इस प्रकार जैसे-जैसे आत्मतत्त्व का अनुभव होता है, वैसे-वैसे ऐन्द्रियिक सुख सुलभ होते हुए भी नहीं रूचते हैं।
निवृत्ति मार्ग की ओर अथवा सत्प्रवृत्तिमार्ग की ओर जीव की प्रवृत्ति तभी होती है, तब वह रत्नत्रय रूप आत्मतत्त्व की आराधना करता है। णमोकार मन्त्र में आराधना ही है। इस मन्त्र का चिन्तन, मनन और स्मरण करने से सत्नत्रयरूप आत्मा का अनुभव होता है, जिससे मन, वचन और काय की सत्प्रवृत्ति होती है तथा कुछ दिनों के पश्चात् निवृत्तिमार्ग की ओर भी व्यक्ति अपने-आप झुक जाता है। विषय कषायों से इसे अरूचि हो जाती है। इस महामन्त्र के जप और मनन में ऐसी शक्ति है कि व्यक्ति जिस बाहृ पदार्थों में सुख समझता था, जिनके प्राप्त होने से प्रसन्न होता था, जिनके पृथक् होने से इसे दुःख का अनुभव होता था, उन सबको क्षण-भर में छोड़ देता है। आत्मा के अहितकारक विषय और कषायों से भी इसकी प्रवृत्ति हट जाती है। इन्द्रियों की पराधीनता, जो कि कुगति की ओर जीव को ले जानेवाली है, समाप्त हो जाती है। मंगल वाक्य का चिन्तन समस्त पाप को मलाने-नष्ट करनेवाला होता है और अनेक प्रकार के सुखों को उत्पन्न करनेवाला है। अतः सुखाकांक्षी को णमोकार मन्त्र-जैसे महा पावन मंगल वाक्यों का चिन्तन, मनन और स्मरण करना आवश्यक है; जिससे उसकी राग-द्वेष निवृत्ति हो जाती है। करणलब्धि की प्राप्ति में सहायक णमोकार मन्त्र है, इससे अनन्तानुबन्ध और मिथ्यात्व का अभाव होते ही आत्मा में पुण्यास्त्रव होने से बद्ध कर्मजाल विश्रृंखलित होने लगता है।
णमोकार मन्त्र में पंचपरमेष्ठी का ही स्मरण किया गया है। पंचपरमेष्ठी की शरण जाने, उनकी स्मृति और चिन्तन से राग-द्वेष रूप प्रवृत्ति रूक जाती है, पुरूषार्थ की वृद्धि होने लगती है तथ रत्नत्रय गुण आत्मा में आविर्भूत होने लगता है। आत्मा के गुणों को आच्छादित करनेवाला मोह ही सबसे प्रधान है, इसको दूर करने के लिए एकमात्र रामबाण पंचपरमेष्ठी के स्वरूपका मनन, चिन्तन और स्मरण ही है। णमोकार मन्त्र के उच्चारण मात्र से आत्मा में एक प्रकार की विद्युत् उत्पन्न हो जाती है, जिससे सम्यक्त्व की निर्मलता के साथ सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की भी वृद्धि होती हैं क्योंकि इस महामन्त्र की आराधना किसी अन्य परमान्ता या शक्ति-विशेष की आराधना नहीं है, प्रत्युत अपनी आत्मा की ही उपासना है। ज्ञान, दर्शनमय अखण्ड चैतन्य आत्मा के स्वरूप क अनुभव कर अपने अखण्ड साधक स्वभाव के उपलब्धि के लिए इस महामन्त्र-द्वारा ही प्रयत्न किया जाता है।
णमोकार मन्त्र या इस मन्त्र के अंगभूत प्रभाव आदि बीज मन्त्रों के ध्यान से आत्मा में केवल ज्ञान पर्याय को उत्पन्न किया जा सकता है। साधक बाहृ-जगत् से अपनी प्रवृत्ति को रोक कर जब आत्ममय कर देता है, तो उक्त पर्याय की प्राप्ति में विलम्ब नहीं होता। णमोकार मन्त्र में इतनी बड़ी शक्ति है जिससे यह मन्त्र श्रद्धापूर्वक साधना करनेवालों को आत्मानुभूति उत्पन्न कर देता है तथा इस मन्त्र के साधक में प्रथम गुण आ जाता है। अतः णमोकार मन्त्र के द्वारा सम्यक्त्व और केवल ज्ञान पर्यायें उत्पन्न हो सकती है। यद्यपित निश्चय नय की अपेक्षा सम्यक्त्व और केवलज्ञान आत्मा में सर्वदा विद्यमान हैं; क्योंकि ये आत्मा के स्वभाव हैं, इनमें पर के अवलम्बन की आवश्यकता नहीं। णमेकार मन्त्र आत्मा से पर नहीं है, यह आत्मस्वरूप है। अतएव विष्काम की अपेक्षा यह महामन्त्र आत्मोत्थान के लिए आलम्बन नहीं हे; किन्तु आत्मा ही स्वयं उपदान और निमित्त है यथा आत्मा की शुद्धि के लिए शुद्धात्मा को अवलम्बन बनाया जाता है, इसका अर्थ है कि शुद्धात्मा के देखकर उनके ध्यान-द्वारा अपनी अशुद्धता को दूर किया जाता है अर्थात् आत्मा स्वयं ही अपनी शुद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है। णमोकार मन्त्र भाव और द्रव्य रूप से आत्मा में इतनी शुद्धि उत्पन्न करताहै जिससे श्रद्धागुण के साथ श्रावक गुण भी उत्पन्न हो जाता है। यद्यपि यह आनन्द आत्मा के भीतर ही वर्तमान है, कहीं बाहर से प्राप्त नहीं किया जाता है, किन्तु णमोकार मन्त्र के निमित्त के मिलते ही उद्बुद्ध हो जाता है। चरित्र और वीर्य आदि गुण भी इस महामन्त्र के निमित्त से उपलब्ध किये जा सकते हैं। अतएव आत्मा के प्रधान कर्य रत्नत्रय या उत्त क्षमादि पक्ष धर्म की उपलब्धि में यह मन्त्र परम सहायक है।