आगम-साहित्य और णमोकार मन्त्र
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आगम-साहित्य को श्रुतज्ञान कहा जाता है। णमोकार मन्त्र में समस्त श्रुतज्ञान हैं तथा यह समसत आगम का सार है। दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासी इन तीनों ही सम्प्रदाय के आगम में णमोकार महामन्त्र के सम्बन्ध में बहुत कुछ पाया जाता है। आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग आदि नाम द्वादशांग के तीनों ही सम्प्रदाय में एक हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय में 14 अंग बाहृ तथा 4 अनुयोग प्रमाणभूत;, श्वेताम्बर सम्प्रदाय में 34 अंग बाहृ-12 उपांग, 10 प्रकीर्णक, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र और दो चूलिका सूत्र प्रमाणभूत एवं स्थानकवासी सम्प्रदाय में 21 अंग बाहृ, 12 उपांग, 4 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र और 1 आवश्यक प्रमाणभूत माने गये हैं। इन सभी आगम ग्रन्थों में णमोकार का व्याख्यान, उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम, प्रयोजन और फल इन दृष्टिकोणों से किया गया है।

उत्पत्ति-द्वार में नयों का अवलम्बन लेकर णमोकार मन्त्र की उत्पत्ति और अनुतपत्ति-नियानित्यत्व का विस्तार से विचार किया गया है। क्योंकि वस्तु के स्वरूप का वास्तविक विवेचन नय और प्रमाण के बिना हो नहीं सकता। नय के जैनागम में सात भेद हैं-

1 - नैगम

2 - संग्रह

3 - व्यवहार

4 - ऋजुसूत्र

5 - शब्द

6 - समभिरूढ़

7 - एवंभूत।

सामान्य से नय के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो भेद किये जाते हैं। द्रव्य को प्रधान रूप से विषय करनेवाला नय द्रव्यार्थिक और पर्याय को प्रधानतः विषय करने वाला पर्यायार्थिक कहा जाता है। पूर्वोक्त सातों नयों में से नैगबम, संग्रह और व्यवहार ये तीन भेद द्रव्यार्थिक के और ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत पर्यायार्थिक नय के भेद हैं। सातों नयों की अपेक्षा से इस महामन्त्र की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति के सम्बन्ध में विचार करते हुए कहा जाता है कि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा यह मन्त्र नित्य है। शब्दरूप पुद्गलवर्गणाएं नित्य हैं, उनका कभी विनाश नहीं होता हैं कहा भी है:

उप्पणाणुप्पणो इत्थ नया णोगमस्सणुप्पण्णो।
सेसाणं उप्पण्णो जइ कत्तो तिविह सामिस्सा।।

अर्थात् - नैगमन की अपेक्षा यह णमोकार मन्त्र अनुत्पन्न-नित्य है। सामान्य मात्र विषय को ग्रहण करने के कारण इस नय का विषय ध्रौव्यमात्र है। उत्पाद और व्यय को यह नहीं ग्रहण करता, अतएव इस नय की अपेक्षा से यह मन्त्र नित्य है। विशेष ध्रौव्यमात्र है। उत्पाद और व्यय को यह नहीं ग्रहण करता, अतएव इस नय की अपेक्षा से यह मन्त्र नित्य है। विशेष पर्याय को ग्रहण करनेवाले नयों की अपेक्षा से यह मन्त्र उत्पाद- व्यय से युक्त है। क्योंकि इस महामन्त्र की उत्पत्ति के हेतु समुत्थान,वचन और लब्धि ये तीन हैं। णमोकार मन्त्र का धारण सशरीरी प्राणी करता है और शरीर की प्राप्ति अनादिकाल से बीजांकुर न्याय से होती आ रही है तथा प्रत्येक जन्म में भिन्न-भिन्न शरीर होते हैं, अतः वर्तमान जन्म के शरीर की अपेक्षाणमोकार मन्त्र सादि और सोत्पत्तिक है। इस मन्त्र की प्राप्ति गुरूवचनों से होती है, अतः उत्पत्तिवाला होने से सादि है। इस महामन्त्र की प्राप्ति योग्य श्रुतज्ञानावरण कर्म का खयोपशम होने पर ही होती है, इस अपेक्षा से यह मन्त्र उत्पाद-व्ययवाला प्रमाणित होता है।

उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध होता है कि नैगम,संग्रह और व्यवहार नय की अपेक्षा यह मन्त्र नित्य, अनित्य दोनों प्रकार का है। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा इस महामन्त्र की उत्पत्ति में वचन-उपदेश और लब्धि ज्ञानावरणीय और वीर्यान्तरायकर्म का क्षयोपशम विशेष कारण है तथा शब्दादि नय की अपेक्षा केवललब्धि ही कारण है। इन पर्यायार्थिक नयों को अपेक्षा से यह णमोकार मन्त्र अत्पादव्ययात्मक है। कहा भी गया है:

‘‘आद्यनैगमः सत्तामात्रग्राही, ततस्तस्याद्यनैगमस्य मतेन सर्ववस्तु नाभूतं नाविद्यमानं किंतु सर्वदैव सर्व सदेव। अतः आद्य नैगमस्य, स नमस्कारों नित्य एव वस्तुत्वात् नभोवत्।’’

शब्द और अर्थ की अपेक्षा से भी यह णमोकार मन्त्र नित्यानित्यात्मक है। शब्द नित्य औरअनित्य दोनों प्रकार के होते हैं। अतः सर्वथा शब्दों को नित्य माना जाए तो सभी स्थानों पर शब्दों के श्रवण का प्रसंग आएगा और अनित्य माना जाए तो नित्य सुमेरू, चन्द्र, सूर्य आदि का संकेत शब्द से नहीं हो सकेगा। अतः पौद्गलिक शब्द-वर्गणाएं नित्य हैं यथा व्यवहार में आनेवाले शब्द अनित्य हैं। शब्दों के नित्यानित्यात्मक होने से णमोकार मन्त्र भी नित्यानित्यात्मक है। अर्थ की दृष्टि से यह नित्य है, क्योंकि इसका अर्थ वस्तुरूप है और वस्तु अनादिकाल से अपने स्वरूप में अवस्थित चली आ रही है और अनन्तकाल तक अवस्थित चली जाएगीं सामान्य विशेषात्मक वस्तु का ग्रहण और विवेचन नय तथा प्रमाण के द्वारा ही हो सकता है। प्रमाणनयात्मक वस्तु उत्पाद व्यय-ध्रौव्यात्मक हुआ करती है और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक ही वस्तु नित्यानित्य कहीं जाती है।

निक्षेप - अर्थ-विस्तार को निक्षेप कहते हैं। निक्षेप-विस्तार में णमोकार मन्त्र के अर्थ का विस्तार किया जाता है। निक्षेप के चार भेद हैं-

1 - नाम

2 - स्थापना

3 - द्रव्य

4 - भाव

णमोकार मन्त्र का भी नाम नमस्कार, स्थापना नमस्कार, द्रव्य नमस्कार और भाव नमस्कार-इन चार अर्थाें में प्रयोग होता है। ‘नमः’ कहकर अक्षरों का उच्चारण करना नाम नमस्कार और मूर्ति, चित्र आदि में पंचपरमेष्ठी की स्थापना कर नमस्कार करना स्थापना नमस्कार है। द्रव्य नमस्कार के दो भेद हैं-आगम द्रव्य नमस्कार और नोआगम द्रव्य नमस्कार। उपयोग रहित ‘नमः’ इस शब्द का प्रयोग करना आगम नमस्कार और उपयोग सहित नमस्कार करना नोआगम नमस्कार होता है। इसके तीन भेद हैं-ज्ञायक, भाव्य ओर तद्व्यतिरिक्त। भाव नमस्कार के भी दो भेद हैं-आगमभाव नमस्कार और नोआगम भाव नमस्कार। णमोकार मन्त्र का अर्थज्ञाता, उपयोवान् आत्मा आगमभाव नमस्कार ओर उपयोग सहित ‘णमो अरिहंताणं’ इन वचनों का उच्चारण तथा हाथ, पांव, मस्तक आदि की नमस्कार-सम्बन्धी क्रिया को करना नोआगमभाव नमस्कार है। इस प्रकार निक्षेप द्वारा णमोकार मन्त्र के अर्थ का आशय हृदयंगम किया जाता है।

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पद-द्वार - ‘‘पद्यते गम्यतेऽर्थोऽनेनेति पदम्’’ अर्थात जिसके द्वारा अर्थबोध हो, उसे पद कहते हैं। इसके पांच भेद हैं-नामिक, नैपातिक, औपसर्गिक, आख्यातिक और मिश्र। संज्ञावाचक प्रत्ययों से सिद्ध होनेवाले शब्द नामिक कहे जाते हैं, जैसे अश्व, घट आदि। अव्ययवाची शब्द नैपातिक कहे जाते हैं, जैसे खलु, ननु, च आदि। उपसर्गवाचक प्रत्ययों को शब्दों के पहले जोड़ देने से जो नवीन शब्द बनते हैं, वे औपसर्गिक कहे जाते हैं। जैसे परिगच्छति, परिघावति। क्रियावाचक धातुओं से निष्पन्न होनेवाले शब्द आख्यातिक कहलाते हैं, जैसे धावति, गच्छति आदि। कृदन्त-कृत् प्रत्यय और तद्धित प्रत्ययों से निष्पन्न शब्द मिश्र कहे जाते हैं, जैसे नायकः, पावकः, जैनः, संयतः आदि। पद-द्वार का प्रयोजन णमोकार मन्त्र में प्रयुक्त शब्दों का वर्गीकरण कर उनके अर्थात का अवधारण करना है-शब्दों की निष्पात्ति को ध्यान में रखकर नैपातिक प्रभृति शब्दों का अर्थ एवं उनका रहस्य अवगत करना ही इस द्वार का उद्देश्य है। कहा गयाहै-‘‘निपतत्यर्हदादिपदानामदिपर्यन्तयोरिति निपातः, निपातादागतं तेन वा निर्तत्तं स एववा स्वार्थिकप्रत्ययविधान्नैपातिकम्-नमः इति पदम्’’। तात्पर्य यह है कि णमोकार मन्त्र के पदों की प्रकृति और प्रत्यय की दृष्टि से व्याख्या करना पद-द्वार है। इस द्वार की उपयोगिता शब्दों की शक्ति को अवगत करने में है। शब्दों मंे नैसर्गिक शक्ति पायी जाती है और इस शक्ति का बोध इसी द्वार के द्वारा सम्भव है। जब तक शब्दों का व्याकरण के प्रकृति-प्रत्यय की दृष्टि से वर्गीकरण नहीं किया जाताहै, तब तक यथार्थ रूप में शब्द-शक्ति का बोध नहीं हो सकता। णमोकार मन्त्र के समस्त पद कितने शक्तिशाली हैं तथा पृथक-पृथक पदों में कितनी शक्ति है और इन पदों की शक्ति का उपयोग आत्मकल्याण के लिए किस प्रकारकिया जा सकता है? आत्मा की कर्मावरण के कारण अवरूद्ध शक्ति किस प्रकार इस महामन्त्र की शक्ति के द्वारा प्रस्फुटित हो सकती है? आदि बातों का विचार इस पद-द्वार में होता है। यह केवल शब्दों की रचना या उस रचना द्वारा सम्पन्न व्युत्पत्ति का ही प्रदेर्शन नहीं करता, बल्कि इस मन्त्र की पद, अक्षर और ध्वनि श्क्ति का विश्लेषण करता हैं

पदार्थद्वार - द्रव्य और भावपूर्वक णमोकार मन्त्र के पदों की व्याख्या करना पदार्थद्वार है। ‘‘इह नमोऽर्हद्भ्यः, इत्यादिषु यत नमः इति पदं तस्य नम इति पदस्वार्थः पदार्थः स च पूजालक्षणः, स च कः? इत्याह द्रव्यसंकोचनं भावसंकोचनं च। तंत्र द्रव्यसंकोचनं करशिरःपदादिसंकोचः। भावसंकोचनं तु विशुद्धस्य मनसोऽर्हदादिगिुणेषु निवेशः।’’ अर्थात ‘नमः अर्हद्भ्यः’ इत्यादि पदों में नमः शब्द पूजार्थक है। पूजा दो प्रकार से सम्पन्न की जाती है-द्रव्य-संकोच और भाव-संकोच द्वारा। द्रव्य-संकोच से अभिप्राय है हाथ, सिर आदि का झुकाना-नम्रीभूत करना और भाव-संकोच का तात्पर्य भगवान् अरिहन्त के गुणो में मन को लगाना। द्रव्य-संकोच औरभाव-संकोच के संयोगी चार भंग होते है।

1 - द्रव्यसंकोच न भाव-संकोच

2 - भाव-संकोच न द्रव्य-संकोच

3 - द्रव्य-संकोच भाव-संकोच और

4 - न द्रव्य-संकोच न भाव-संकोच।

हाथ, सिर आदि को नम्र करना, परन्तु भीतरी अन्तरंग परिणति में नम्रता का न आना अर्थात अन्तरंग परिणामों में श्रद्धाभाव का अभाव हो और ऊपरसे श्रद्धा प्रकट करना यह प्रथम भंग का अर्थ है। दूसरेभंग के अनुसार भीतर परिणामों में श्रद्धा-भाव रहे, किन्तु ऊपर श्रद्धा न दिखलाना। फलतः नमस्कार करते समय भीतर श्रद्धा रहने पर भी हाथ न जोडना और सिर को न झुकाना। तृतीय भंग का अर्थ है कि भीतर भी श्रद्धा हो और ऊपर से भी हाथ जोड़ना, सिर झुकाना आदि नमस्कार की क्रियाओं को सम्पन्न करे। चैथे भंग का अर्थ है कि भीतर भी श्रद्धा की कमी और ऊपर भी नमस्कार-सम्बन्धी क्रियाओं का अभाव रहे।

पदार्थद्वार का तात्पर्य यह है कि द्रव्यभावशुद्धिपूर्वक णमोकार मन्त्र का स्मरण, मनन और जप करना। श्रद्धापूर्वक पंचपरमेष्ठी की शरण मे जाने तथा शरणसूचक शरीरिक क्रियाओं के सम्पन्न करने से ही आत्मा में शक्ति का जागरण होता हैं कर्माविष्ट आत्मा शुद्धात्माओं को द्रव्यभाव की शुद्धिपूर्वक नमस्कार करने से उनके आदर्श से तद्रूप बनती है।

प्ररूपणाद्वार - वाच्य-वाचक प्रतिपाद्य-प्रतिपादक विषय-विषयी भाव की दृष्टि से णमोकार मन्त्र के पदों का व्याख्यान करना प्ररूपणाद्वार है। इसमें किं, कस्य, केन, क्व, कियत्कालं और कतिविधं-इन छह प्रश्नों का अर्थात् निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति औरविधान का समाधान किया जाता है। सबसे पहले यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि णमोकार मन्त्र क्या वस्तु है? जीव है या अजीव? जीव-अजीव में भी द्रव्य है या गुण? नैगम आदि नयों की अपेक्षा जीव ही णमोकार है; क्योंकि ज्ञानमय जीव होता है और णमोकार श्रुतज्ञानमय है। अतएव पंचपरमेष्ठीवाचक णमोकार मन्त्र जीव है। इसकी रूपाकृति-शब्दों को अजीव कहा जा सकता है; पर भाव जो कि ज्ञानमय है, जीवस्वरूप है। द्रव्य और गुण के प्रश्नों में गुणों का समुदाय द्रव्य होता है तथा द्रव्य और गुण में कथंचित् भेदाभेदात्मक सम्बन्ध है; अतः ण्मोकार मन्त्र कथंचित् द्रव्यात्मक और कथंचित् गुणात्मक है।

यह नमस्कार किसको किया जाता है, इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यह नमस्कार पूज्य-नमस्कार करने योग्यों को किया जाता है। पूज्य जीव ओर अजीव दोनों हो सकते हैं। जीव में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपायाय और साधु तथा अजीव में इनकी प्रतिमाएं नमस्कार्य होती है।

‘केन’ किस प्रकार णमोकार मन्त्र की उपलब्धि होती है, इस प्ररूपणा में निर्युक्तिकार ने बताया है कि जब तक अन्तरंग में क्षयोपशम की वृद्धि नहीं होती है, इस मन्त्र पर आस्था नहीं उत्पन्न हो सकती है। कहा है:

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नाणावरणिज्जस्य य, दंसणमोहस्स जो खओवसमो।
जीवमजीवे अट्ठसु भंगेजुस य होइ सव्वत्थ।।2893।।

अर्थात् - जीव को ज्ञानावरणदि आठों कर्मों में से-मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमक े साथ मोहनीयकर्म का क्षयोपशम होने पर णमोकार मन्त्र की प्राप्ति होती है। णमोकार मन्त्र श्रुतज्ञानरूप होता है और श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक ही होता है, अतः मतिज्ञानावरण कम्र के क्षयोपशमक े साथ, मोहनीय कर्म का क्षयोपशम भी होना आवश्यक है। क्योंकि आत्मस्वरूप के प्रति आस्था मिथ्यात्व कर्म के अभाव में ही होती है। अनन्तानुबन्धी क्रोध मान, माया और लोभ के विसंयोजन के साथ मिथ्यात्व का क्षय उपशम या क्षयोपशम होना इस मन्त्र की उपलब्धि के लिए आवश्यक है। इस महामन्त्र की उपलब्धि में अन्तरायकर्म का क्षयोपशम भी एक कारण है। यतः भीतरी योग्यता के प्रकट होने पर ही इस महामन्त्र की उपलब्धि होती है।

‘क्व’ यह नमस्कार कहाँ होता है? इसका आधार क्या है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यह नमस्कार जीव में, अजीव में, जीव-अजीव में, जीव-अजीवों में, अजीव-जीवों में जीवो-अजीवों में, जीवेम में और अजीवों में कथंचिद् भेदात्मकता होने के कारण होता है। नयों की भिन्न-भिन्न दृष्टियाँ होने के कारण उपर्युक्त आठ भंगों में से कभी एक भंग आधार, कभी दो भंग आधार, कभी तीन भंग आधार और कभी इससे अधिक भंग आधार होते हैं।

‘कियत्कालं’ - नमस्कार किनते समय तक होता है, इस प्रश्न का समाधान करते हुए बताया गया है कि उपयोग की अपेक्षा से नमस्कार का उत्कृष्ट और जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। कर्मावरण क्षयोपशमरूप लब्धि का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट और जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। कर्मापशमरूप लब्धि का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल 66 सागर से अधिक होता है।

‘कतिविधो नमस्कारः’ - कितने प्रकार का नमस्कार होता है, इस प्ररूपणा में बताया गया है कि अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँचों पदो ंके पूर्व में णमो-नमः शब्द पाया जाता है। अतः पाँच प्रकारका नमस्कार होता है। इस प्रकार इस प्ररूपणा-द्वार में निर्देश, स्वामित्व, साधन, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुत्व की अपेक्षा भी वर्णन किया गया है।

वस्तुद्वार-गुण-गुणी में कथंचिद् भेदाभेदात्मकता होने से अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांचों परमेष्ठी ही नमस्कार करने योग्य वस्तु हैं। व्यक्ति रत्नत्रयरूप गुणों को इसलिए नमस्कार करताहै कि गुणों की प्राप्ति उसे अभीष्ट होती है। संसार-अटवी से पार होने का एकमात्र साधन रत्नत्रय है, अतः गुणगुणी में भेदात्मकता होने के कारण रत्नत्रय गुण को तथा उनके धारण करनेवाले पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया हैं यही इस णमोकारमन्त्र की वस्तु है।

आक्षेपद्वार - णमोकारमन्त्र के सम्बन्ध में कुछ शंकाएं की गयी हैं। इन शंकाओं का निवारण ही इस द्वार में किया गया है। बताया गया है कि सिद्ध और साधु इन दोनों को नमस्कार करने से काम चल सकता है, फिर पाँच शुद्धात्माओं को नमस्कार क्यों किया गया है? क्योंकि जीवन्मुक्त अरिहन्त का सिद्ध में और न्यून रत्नत्रय गुणधारी आचार्य और उपाध्याय का साधु परमेष्ठी में अन्तर्भाव हो जाता हे, अतः पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करना उचित नहीं। यदि यह कहा जाए कि विशेष दृष्टि से भिन्नत्व की सूचना देने के लिए नमस्कार किया है तो सिद्धों के अवगाहना, तीर्थ, लिंग, क्षेत्र आदि की अपेक्षा से अनेक भेद होते हैं तथा अरिहनतें के तीर्थंकर अरिहन्त, सामान्य अरिहत्न आदि भी अनेक भेद हैं। इसी प्रकार आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठी के भी अनेक भेद हो जाते हें। इस प्रकारसब परमेष्ठी अनन्त हो जाएंगे, फिर इन्हें पाँच मानक नमस्कार करना कैसे उपयुक्त कहा जाएगा।

प्रसिद्धिद्वार - इस द्वार में पूर्वोक्त द्वार में आपादित शंकाओं का निराकरण किया गया है। द्विविध नमस्कार नहीं किया जा सकता हेै; क्योंकि अव्यापकपने का दोष आएगा। सिद्ध कहने से अरिहन्त के समस्त गुणों का बोध नहीं होता है, इसी प्रकार साधु कहने से आचार्य और उपाध्याय के गुणों का भी ग्रहण नहीं होता है। अतएव संक्षेप से द्विविध परमेष्ठी को नमस्कार करना अयुक्त है। निर्युक्तिकार ने भी बताया है:

अरिहंताई नियमा, साहूसाहू उ ते सू भइयव्वा।
तम्हा पंचविहो खलु हेउनिमित्तं हवइ सिद्धो।।3202।ं

साधुमात्रनमस्कारो विशिष्टोऽर्हदादिगुणनमस्कृतिफलप्रापणसमर्थों न भवति। तत्सामान्याभिधाननमस्कारकृतत्वात्, मनुष्यमात्रनमस्कारवत्, जीवमात्रनमस्कारवद्वेति। तस्मात्संक्षेपतोऽपि पंचविध एवं नमस्कारों, न तु द्विविधः अव्यापकत्वात्; विस्तरतस्तु नमस्कारो न विधीयते अशक्यत्वात्।

अर्थात् - साधु मात्र का कथन करने से आचार्य और उपाध्याय के गुणों का स्मरण नहीं हो सकता है। क्योंकि सामान्य कथन से विशेष की उपलब्धि नहीं हो सकती है। जिस प्रकार मनुष्य सामान्य को नमस्कार करने से अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु के गुणों का स्मरण नहीं हो सकता है और न तद्रूप बनने की प्रेरणा ही मिल सकती है। अतः पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करना आवश्यक है, परमेष्ठियों के नमस्कार से कार्य नहीं चल सकता है। जो अनन्त परमेष्ठियों को नमस्कार करने की बात कही गयी है, उसका समाधान ‘सव्व’ पद के द्वारा हो जाता है। यह पद सभी परमेष्ठियों के साथ जोड़ा जा सकता है, जिससे अनन्त अर्हन्त, अनन्त सिद्ध, अनन्त आचार्य, अनन्त उपाध्याय और अनन्त साधुओं का ग्रहण हो ही जाता है। शक्ति सीमित होने के कारण पृथक् अनन्त परमेष्ठियों का निरूपण नहीं किय गया है। सामान्य के अन्तर्गत विशेष भेदों का भी ग्रहण हो गया है।

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क्रमद्वार - किसी भी वस्तु का विवेचन क्रम से किया जाता हैं णमोकार मन्त्र के विवेचन में पदों का क्रम ठीक नहीं रखा गया है। क्रम दो प्रकर का होता है‘- पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी। णमोकार मन्त्र में पूर्वानुपूर्वी क्रम का निर्वाह नहीं किया गया है क्योंकि सिद्धों का आत्मा पूर्ण विशुद्ध है, समस्त आत्मिक गुणों का विकास सिद्धों में ही है। अतएव विशुद्धि की अपेक्षा पूज्य होने के कारण सिद्धों को सर्वप्रथम नमस्का रहोना चाहिए था, पर णमोकार मन्त्र में ऐसा नहीं किया गया है। अतः पूर्वानुपूर्वी क्रम यहाँ पर नहीं है। पश्चानुपूर्वी क्रम का भी निर्वाह यहाँ पर नहीं किया गया है, क्योंकि इस क्रम में सबसे पहले साधु को नमस्कार ओर सबसे पीछे सिद्धों को नमस्कार होना चाहिए था। समाधान-उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है। यहाँ पूर्वानुपूर्वी क्रम ही है। सिद्धों की अपेक्षा अरिहन्त अधिक उपकारी हैं; क्योंकि इन्हीं के उपदेश से हमें सिद्धों का ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अनन्तर गुणों की न्यूनता और अधिकता की अपेक्षपा अन्य परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। यों तो ‘पादक्रम’ प्रकरण में इसका विस्तृत विवेचन किया जा चुका है। अतः यहाँ पर उन सभी युक्तियों और प्रमाणों को उद्धृत करना असंगत होगा।

प्रयोजनफल द्वार - णमोकार मन्त्र की आराधना से लौकिक और पारलौकिक फलों की प्राप्ति किस प्रकार से होती है, इसका वर्णन इस द्वार में किया गया है।

इस प्रकार नय, निक्षेप एवं विभन्न हेतुओं के द्वारा णमोकार मन्त्र का वर्णन जैनागम में मिलता है।