अनुचिन्तनगम पारिभाषिक शब्दकोष
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अगुरूलघुत्व गुण

यह वह गुणहै जिसके निमित्त से द्रव्य का द्रव्यत्व बना रहता है।

अघातियाकर्म

आत्मगुणों का घात न करनेवाले कर्म

अचेतन

अचेतन अनुभूतियाँ वे हैं जिनकी तात्कालीक चेतना मनुष्य को नहीं रही, किन्तु उसके जीवन पर उनका प्रभाव पड़ता है।

अणु

पुद्गल का सबसे छोटा टुकड़े या अंश को अणु कहते हैं।

अतिशय

ये अद्भुत या चमत्कार पूर्ण बातें जो सामान्य व्यक्तियों में न पायी जाएं, अतिशय कहलाती हैं।

अधिकरण

वस्तु के आधार का नाम अधिकरण है। अधिकरण के दो भेद हैं-अन्तरंग और बहिरंग।

अन्तरंग परिग्रह

आन्तरिक राग, द्वेष, काम क्रोधादि, विकारों में ममत्व भाव रखना अन्तरंग परिग्रह है। यह चैदह प्रकार को होता है।

अन्तरात्मा

शरीर, धन-धान्यादि समस्त पर -वस्तुओं से ममत्वबुद्धि रहित होना एवं सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा को ही अपना समझना, अन्तरात्मा है।

अन्तराय कर्म

सुख ज्ञान एवं ऐश्वर्य प्राप्ति के साधनों में विघ्न उत्पन्न करनेवाला कर्म अन्तराय कर्म कहलाता है।

अनानुपूर्वी

पदव्यतिवम से णमोकार मन्त्र का पाठ करना या जाप करना अनानुपूर्वी है।

अपकर्षण

कर्मों के स्थितिबन्ध एवं अनुभाग बन्ध का घट जाना अपकर्षण है।

अभिप्राय

णमोकार मन्त्र के रहस्य या भाव की जानकरी।

अभिरूचि

अभिरूचि अस्फुट ध्यान है तथा ध्यान अभिरूचि का ही स्फुट रूप है।

अभ्यास

मनोविज्ञान बतलाता है कि अभ्यास ;म्गमतबपेमद्ध बार-बार किसी कार्य के करने की प्रवृत्ति जिसका दूसरा नाम आवृत्ति ;त्मचमजपजपवदद्ध है, ध्यान आदि के लिए उपयोगी है।

अभ्यास नियम

अभ्यास नियम को आदत निर्माण का नियम भी कह गया है ;ज्ीम संू व िींइपज.वितउंजपवदद्ध। इस नियम के दो प्रमुख अंग हैं-पहले को उपयोग का नियम ;ज्ीम संू व िनेमद्ध और दूसरे को अनुपयोग का नियम ;ज्ीम संू व िकपेनेमद्ध कहते हैं। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। उपयोग का नियम यह बतलाता है कि यदि एक खास परिस्थिति के प्रति बार-बार एक ही तरह की प्रतिक्रया प्रकट की जाए तोउस परिस्थिति और प्रतिक्रिया के बीच एक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।

अरण्यपीठ

एकान्त निर्जन अरण्य में जाकर णमोकार मन्त्र या अन्य किसी मन्त्र की साधना करना अरण्यपीठ है।

अर्थ

गुण पर्याय युक्त पदार्थ का नाम अर्थ है।

अर्ध पर्यंकासन

इस आसन में ध्यान के समय अर्ध पद्मासन लगाया जाता है।

अवचेतन

चेतन मन के परे अवचेतन या चेतनोन्मुख मन है। मन के इस स्तर में वे भावनाएँ, स्मृतियाँ, इच्छाएँ तथा वेदनाएँ रहती हैं जो प्रकाशित नहीं हैं किन्तु जो चेतना पर आने के लिए तत्पर हैं। कोई भी विचार चेतन मन में प्रकाशित होने के पूर्व अवचेतन मन में रहता है।

अविरति

व्रतरूप परिणत न होनेा अविरति है। इसके बारह भेद हैं।

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असंयम

इन्द्रियासक्ति और हिंसारूप परिणति को असंयम कहा जाता है।

आख्यातिक

क्रियावाचक धाताुओं से निष्पन्न होनेवाले शब्द आख्यातिक कहलो हैं। जैसे-भवित, गच्छति आदि।

आचार

सात्त्विक प्रवृत्त्यिों का आलम्बन ग्रहण करना आचार है। आचार में जीवनव्यापी उन सभी प्रवृत्तियों का आकलन किया जाता है जिनसे जीवन का सर्वोंगीण निर्माण होता है।

आचारांग

ग्यारह अंगों में यह पहला अंग है। इसमें मुनि और गृहस्थ के सभी प्रकार के आचरणों का वर्णन किया जाता है।

आर्तध्यान

इष्टवियोग अनिष्टसंयोगादि से चिन्तित रहना आर्तध्यान है।

आदत

आदत मनुष्य का अर्जित मानसिक गुण है। मनुष्य के जीवन में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ काम करती हैं-जन्मजात और अर्जित। अर्जित प्रवृत्तियाँ ही आदत है।

आनुपूर्वी

उच्च गुणों के आधार पर या किसी विशेष क्रम के आधार पर किसी वस्तु का सन्निवेश करना आनुपूर्वी है।

आर्जव

आत्मा के सरल परिणामों को आर्जव कहते हैं।

आवश्यक

जिन क्रियाओं का पालन करना मुनि के लिए अत्यावश्यक होता है, उन्हें आवश्यक कहते हैं। आवश्यक के 6 भेद हैं।

आसन

ध्यान करने के लिए बैठने की विशेष प्रक्रिया को आसन कहा जाता है।

आसन-शुद्धि

काष्ठ, शिला, भूमि या चटाई पर अहिंसकवृत्तिपूर्वक आसीन होना आसन-शुद्धि है। आसन को सावधानीपूर्वक शुद्ध रखना आसनशुद्धि हैं।

आस्तिक्य

लोक-परलोक में आस्था रखना आस्तिक्य है।

आस्त्रव

कर्मों के आने के द्वारा को आस्त्रव कहते हैं। इसके दो भेद हैं-भाव आस्त्रव और द्रव्य आस्त्रव ।

इच्छा

इच्छाशक्ति मनुष्य की वह मानसिक शक्ति है, जिसके द्वारा वह किसी प्रकार के निश्चय पर पहुँचता है और उस निश्चय पर दृढ़ रहकर उसे कार्यान्वित करता है। संक्षप में किसी वस्तु की चाह को इच्छा कहते हैं। चाह मनुष्य के वातावरण के सम्पर्क से उत्पन्न होती है उसका लक्ष्य किसी भोग की प्राप्ति होता है। यह क्रियात्मक मनोवृत्ति है। अप्रकाशित इच्छाएँ वासना कहलाती हैं। और प्रकाशित इच्छाओं को इच्छा कहते हैं।

इच्छित क्रिया

जो क्रिया में अभीष्ट होती है उसे इच्छित क्रिया कहते हैं। यह अनुकूल वातावरण में प्रकाशित होती है।

इन्द्रियगोचर

जो इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किया जा सके उसे इन्द्रियगोचार या इन्द्रियग्राहहृ कहते हैं।

उच्चाटन

जिन मन्त्रों के द्वारा किसी के मन को स्थिर, उल्लासरहित एवं निरूत्साहित कर पदभ्रष्ट या स्थानभ्रष्ट कर दिया जाए वे मन्त्र उच्चाटन मन्त्र कहलाते हैं।

उद्दिष्ट

पद को रखकर संख्या का अनायन करना उद्दिष्ट है।

उत्कर्षण

कर्मों की स्थिति और अनुभाग बन्ध क बढ़ना उत्कर्षण है।

उदय

समय पाकर कर्मों का फल देना उदय है।

उदीरणा

समय से पहले ही कर्मों का फल देने लगना उदीरणा है।

उपयोग

जानने-देखने रूप चेतना की विशेष परिणति का नाम उपयोग है।

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उपांशु

अन्तर्जलरूप किसी मन्त्र का जाप करना-मन्त्र के शब्दों को मुखसे बाहर न निकालकर कण्ठस्थान में श्ब्दों का गुंजन करते रहनाही उपांशु विधि है।

उमंग

किसी भी कार्य के प्रति उत्साह ग्रहण करने की क्रिया उमंग कहलाती है।

ऋजुसूत्र

भूत और भावी पर्यायें को छोड़कर जो वर्तमान को ही ग्रहण करता है, उस ज्ञान और वचन को ऋतुसूत्र नय कहत हैं।

एवंभूत

जिस शबद का जिस क्रिया रूप परिण पदार्थ को ही ग्रहण करनेवला वचनओर ज्ञान एवं भूत नय है।

औदारिक शरीर

मनुष्य और तिर्यंचों के स्थूल शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं।

औपसर्गिक

उपसर्गवाचक प्रत्ययों को शब्दों के पहले जोड देने से जो नवीन शब्द बनते हैं वे औपसर्गिक कहे जाते हैं।

कमलासन

कमलासन पद्मासन का ही दूसरा नाम है। इससे दाहिनाया बायाँ पैर घुटने से मोड़कर दूसरे पेर के जंघामूल पर जमा दीजिए और दूसरे पैर को भी मोड़कर उसी प्रकार दूसरे जंघामूल पर रखिए।

कषाय

जो आत्मा को कसे अर्थात् दुःख दे अथवा आत्मा को क्रोधादि रूप विकामय परिणति को कषाय कहते हैं।

कायशुद्धि

यत्नाचारपूर्वक शरीर शुद्ध करने की क्रिया को कायशुद्धि कहते हैं।

कुमानुष

कुभोग भूमि के रहनेवाले ऐसे मनुष्य जिनके शरीर की आकृति विभिन्न और विचित्र प्रकार की हो।

क्रियाकेन्द्र

क्रियावाही नाडि़याँ मस्तिष्क के जिस स्थान में केन्द्रित होती है, उसका नाम क्रियाकेन्द्र हैं।

क्रियात्मक

क्रियात्मक वह मनोवृत्ति है जिसके द्वारा मानव के समस्त क्रिया-कलापों कासंचालन हो। इसके दो भेद हैं-जन्मजात और अर्जित।

क्रियावाही

सुषुम्ना में स्थिर क्रिया वाही वे नाडि़याँ हैं जो शरीर के बाहरी अंग में होने वाली किसी भी प्रकार की उत्तेजना की सूचना देती हैं।

गुणस्थान

मोह अैर योग के निमित्त से होने वाले आत्म के परिणाम विशेष गुणस्थान हैं।

गुप्ति

मन, वचन और काय का पूर्ण निग्रह करना गुप्ति है।

गोत्र

मन, वचन और काय का पूर्ण निग्रह करना गुप्ति है।

गोत्र

गोत्र कर्म के उदय से मनुष्य को उच्च आचरण या नीच आचरण वाले कुल में जन्म लेना पड़ता है।

घातियाकर्म

आतम के गुणों का घात करने वाले कर्म घातिया कहलाते हैं।

चतुर्विध संघ

मुनि, अर्जिका, श्रावक और श्राविका इन चारों के संघ को चतुर्विध संघ कहते हैं।

चेतन मन

चेतन मन, मन का वह भाग है जिसमें मन की समस्त ज्ञात क्रियाएँ चला करती है।

चैदह पूर्व

भगवान् महावीर के पहले आगमिक परम्परा में जो ग्रन्थ वर्तमान थे वे पूर्व ग्रन्थ कहलाये। इनकी संख्या चैदह होने से ये चैदह पूर्व कहे जाते हैं।

जृम्भण

जिस मन्त्रों की शक्तियों से शुत्रु, भूत, पे्रत, व्यन्तर आदि भय-त्रस्त हो जाएं, काँपने लगें, उन मन्त्रों को जृम्भण कहते हैं।

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जिनकल्पि

जिनकल्पि का अर्थ है समस्त परिग्रह के त्यागी दिगम्बर उत्तम संहनन धारी साधु। ये एकादशांग सूत्रों के धारक गुहावासी होते हैं।

जिज्ञासा

किसी वस्तु या विचार को जानने रूप जो प्रवृत्ति होती है उसे जिज्ञासा कहते हैं।

तत्परता नियम

इस नियम के अनुसार प्राणी को ऐसे काम करने में आनन्द मिलता है जिसके करने में आनन्द मिलता है जिसके करने की तैयारी उसमें होती है ओर ऐसे काम करने सेउसे असंतोष प्राप्त होता है जिसके करने की तैयार उसमें नहीं होती।

तप

इच्छाओं का निरोध करना तपह ै।

त्याग

किसी वस्तु से ममता या मोह को छोड़ना त्याग कहलाता है। त्याग का तात्पर्य दान से है।

दमन

मूल प्रवृत्ति के प्रकाशन पर नियन्त्रण करनादमन कहलाताहै।

दर्शनावरण

जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण का आच्छादन करता है वह दर्शनलावरणीय कर्म कहलाता है।

दर्शनोपयोग

पदार्थ के सामान्य रूप को ग्रहण करनेवाली चैतन्यरूप प्रवृत्ति दर्शनपयोग है।

देशव्रती

जो श्रावक व्रतों के धारण करनेवाले गृहस्थ हैं वे देशव्रती हैं।

दैवसिक

दिनों की अवधि से किये जानेवाले व्रतों को दैवसिक व्रत कहते हैं। दैवसिक व्रतों में दश लक्षण, पुष्पांजलि और रत्नत्रय आदि है।

द्रव्यलिंगी

मुनिवेश, किन्तु सम्यक्त्वहीन जैन मुनि द्रव्यलिंगी कहलाता है।

द्रव्यशुद्धि

पात्र की अन्तरंग शुद्धि को द्रव्यशुद्धि कह गया है। णमोकार मन्त्र का जाप करने के लिए बतायी गयी आठ प्रकार की शुद्धियों में यह पहली शुद्धि है।

द्रव्य संकोच

शरीर को नम्रीभूत बनाना द्रव्य संकोच है।

द्रव्य संसार

पंच परावर्तन रूप इस संसार के अस्तित्व को द्रव्य संसार कहते हैं।

द्वादशांग

अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के आचारांग, सूत्रकृतांग आदि द्वादश भेदों को द्वादशांग कहते हैं।

धर्म

वस्तु के स्वभाव का नाम धर्म है। यह धर्म रत्नत्रय रूप, उत्तम क्षमादि रूप एवं अहिंसामय है।

धर्मध्यान

आज्ञविचय, उपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय रूप चिनतन को धर्मध्यान कहते हैं।

ध्यान

ध्यान देने एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को वातावरण मंे उपस्थित अनेक उत्तेजनाओं में-से उसकी अभिरूचि एवं मनोवृत्ति के अनुकूल किसी एक उत्तेजना को चुन लेने तथा उसके प्रति प्रतिक्रिया प्रकट करने को बाध्य करती है।

धारण

जिसका ध्यान किय जाए, उस विषय में निश्चल रूप से मन को लगा देना धारण है।

नय

वस्तु का आंशिक ज्ञान नय कहलाता है।

नष्ट

संख्या को रखकर पद का प्रमाण निकालना नष्ट है।

नाम कर्म

नाम कर्म के उदय से शरीर की आकृतियाँ उत्पन्न होती है। अर्थात् शरीर निर्माण का कार्य इसी कर्म के उदय से होता है।

नामिका

संख्यावाचक प्रत्ययों से सिद्ध होने वाले शब्द नामिक कहे जाते हैं।

निदान

आगामी भोगों की वांछा करना या फल-प्राप्ति का उद्देश्य रखना निदान है।

निधत्ति

कर्म का संक्रमण और उदय न हो सकता निधत्ति है।

नियम

शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान ये पांच नियम कहे गये है। नियम का वास्तविक अर्थ रागद्वेष को हटाना है।

निरवधि

निरवधि वे व्रत कहलाते हैं जिन व्रतों के लिए किसी विशेष तिथि या दिन का विधान हो। जैसे-कवल चन्द्रायण, मुक्तावली, एकावली आदि।

निर्जरा

बँधे हुए कर्मों का आमा से अलग होना निर्जरा है।

निर्देश

वस्तु का स्वरूप कथन करना निर्देश है।

निर्विकल्प समाधि

जब समाधि काल में ध्यान, ध्याता, धेय का विकल्प नष्ट हो जाए तोउसे निर्विकल्प समाधि कहते हैं।

निक्षेप

कार्य होने पर अर्थात् व्यवहार चलाने के हेतु युक्तियों में सुयुक्ति-मार्गनुसार जो अर्थ का नामादि चार प्रकार से अरोप किया जाता है वह न्यायशास्त्र में निक्षेप कहलाता है।

नैगम

जो भूत और भविष्यत् पर्यायों में वर्तमान का संकल्प करताहै या वर्तमान में जो पर्यायपूर्ण नहीं हुई उसे पूर्ण मानता है उस ज्ञान तथा वचन को नैगम नय कहते हैं।

नैपातिक

अव्ययवाची शब्द नैपातिक कहे जाते हैं। जैसे - खलु, ननु आदि।

नोकषाय

किंचित् कषाय को नोकषाय कहते हैं।

पद

जिसके द्वारा अर्थबोध होउसे पद कहते हैं।

पदार्थ-द्वार

द्रव्य और भावपूर्वक ण्मोकार मन्त्र के पदों की व्याख्या करना पदार्थद्वार है।

परमेष्ठी

जो परमपद-उत्कृष्ट स्थान में स्थित हों अर्थात् जिनमें आत्मिक गुणों का-रत्नत्रय का विकास हो गया है।

परसमय

मैं मनुष्य हूँ, यह मेरा शरीर है इस प्रकार नाना अहंकार और ममकार भावों से युक्त हो अचिलित चेतना विलास रूप आत्मा-व्यवहार से च्युत होकर समस्त निन्द्य क्रिया समूह के अंगीकार करने से राग, द्वेष की उत्पत्ति में संलग्न रहनेवाला परसमय रत कहलाता है। वास्तव में पर-द्रव्यों का नाम ही परसमय है।

परिग्रह

ममताया मूच्र्छा का नाम परिग्रह है।

परिणाम-नियम

यह नियम सन्तोष और असन्तोष का नियम भी कहा जाता है। यदि किसी क्रिया के करने से प्राणी को सन्तोष मिलता है तो उस क्रिया के करने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है और यदि किसी क्रिया के करने से असन्तोष मिलता है तो उस प्रवृत्ति का विनाश हो जाता है, इस नियम-द्वारा उपयोगी कार्यों का अन्त हो जाता है।

पल्लव

मन्त्र के अन्त में जोड़े जानेवाले स्वाहा, स्वधा, फट्, वषट् आदि शब्द पल्लव कहलाते हैं।

पश्चानुपूर्वी

यह पूर्वानुपूर्वी के विपरीत है। इसमें हीन गुण की अपेक्षा क्रम की स्थापना की जाती है।

पापास्त्रव

पाप प्रकृतियाों का आना पापास्त्रव है।

पुद्गल

रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले द्रव्य को पुद्गल कहते हैं।

पुत्रैषणा

पुत्र प्राप्ति की कामना या सांसारिक विषयों की प्राप्ति की कामना पुत्रैषणा है।

पुण्यस्त्रव

पुण्य प्रकृतियों का आना पुण्यास्त्रव है।

पूजा

किसी के प्रति अपने हृदय की श्रद्धा और आदरभावना को प्रकट करना पूजा है।

पूर्वानुपूर्वी

पूर्व-पूर्व की योग्यतानुसार वस्तुओं या पदों का क्रम नियोजन।

पौष्टिक

जिन मन्त्रों की साधना से अभीष्ट कार्यों की सिद्धि एवं संसार के ऐश्वर्य की प्राप्ति हो; वे मन्त्र पौष्टिक कहते हैं।

प्रत्यक्षीकरण

प्रत्यक्षीकरण एक ऐसी मनसिक क्रिया है जिसके द्वारा वातावरण में उपस्थित वस्तु तथा ज्ञान इन्द्रियें को उत्तेजित करने वाली परिस्थितियों का तात्कालिक ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रत्याहार

इन्द्रिय और मन को अपने-अपने विषयों से खींचकर अपनी इच्छानुसार किसी कल्याणकारी ध्येय में लगाने को प्रत्याहार कहते हंै।

प्रथमोमशमसम्यक्त्व

मोहनीय की सात प्रकृतियों के उपशम से होने वाला सम्यक्त्व।

प्रमाद

कषाय या इन्द्रियासक्ति रूप आचरण प्रमाद है।

प्ररूपणा द्वारा

वाच्य-वाचक, प्रतिपाद्य-प्रतिपादक, विषय-विषयी भाव की दृष्टि से णमोकार मन्त्र पदों का व्याख्यान करना प्ररूपणा द्वार है।

प्रस्तार

आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी के अंगों का विस्तार करना प्रस्तार है।

प्राणायाम

श्वास और उच्छ्वा के साधने को प्राणायाम कहते हैं। इसके तीन भेद हैं-पूरक, कुम्भक और रेचक।

फल

मन्त्र के तीन अंग होते हैं-रूप, बीज और फल। मन्त्र के द्वारा होनेवाली किसी वस्तु की प्राप्ति उसका फल कहलाती है।

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बन्ध

कर्म और आत्मा के प्रदेशों का परस्तपर में मिलना बन्ध है।

बहिरंग परिग्रह

धन-धान्यादि रूप दश प्रकार का बहिरंग परिग्रह होता है।

बहिरात्मा

शरीर और आत्मा को एक समझने वाला मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा है।

बीज

मन्त्र की ध्वनियें में जो शक्ति निहित रहती है उसे बीज कहते हैं।

मिथ्या ज्ञान

मिथ्या दर्शन के साथ होने वाला ज्ञान मिथ्या ज्ञान कहलाता है।

मिश्र

मिश्रित परिणति को जिसे न तो हमस म्यक्त्व रूप कह सकते हैं औन मिथ्यात्व रूप ही-मिश्र कहा जाता है।

मूलगुण

मुख्य गुणों को मूल गुण कहा जाता है।

मूल प्रवृत्ति

मूल प्रवृत्ति एक प्रकृतिदत्त शक्ति है। यह शक्ति मानसिक संस्कारों के रूप में प्राणी के मन में स्थित है। जिसके कारण प्राणी किसी विशेष प्रकार के पदार्थ की ओर ध्यान देता है और उसकी उपस्थिति में विशष्ेा प्रकार की वेदना की अनुभूति करता है तथा किसी विशिष्ट कार्य में प्रवृत्त होता है।

मोहन

जिन मन्त्रों के द्वारा किसी को मोहित किया जा सके, वे मोहन मन्त्र कहलाते हैं।

मोहनीय

मोहनीय कर्म वह है जिसके उदय से आत्मा में दर्शन और चारित्र रूप प्रवृत्ति उत्पन्न न हो।

यम

इन्द्रियों का दमन कर अहिंसक प्रवृत्ति को अपनाना यम है।

योग

मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं।

रत्नत्रय

सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं।

रूप

मन्त्र की ध्वनियों का सन्निवेश रूप कहलाता है।

रौद्र-ध्यान

हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप परिणति के चिन्तन से आत्मा को कषाय युक्त करना रौद्र-ध्यान है।

लेश्या

कषाय के उदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं।

लोकैषणा

यश की कामना या संसार में किसी भी प्रकार प्रसिद्धि प्राप्त करने की इच्छा लोकैषण है।

वचनशुद्धि

वचन व्यवहार में किसी भी प्रकार के विकार को स्थान न देना वचन-शुद्धि है।

वज्रासन

दोनों पैर सीधे फैलाकर बैठ जाइए और बायाँ पैर घुअने से मोड़कर जाँघ से इस प्रकार मिलाइए कि नितम्ब के सामने ज़मीन पर टिक जाए और सीने क बायाँ भाग ऊपर उठे हुए घुटने पर अड़ा रहे। इसके बाद दाहिनी ओर थोड़ा झुकते हुए बायाँ नितम्ब कुछ ऊपर उठाइए, दाहिना हाथ दाहिनी जांघ के पास जमीन पर टिकाकर झुके हुए धड़ को सहारा दीजिए और बायें पैर को टखने के पास पकड़ लीजिए।

वश्याकर्षण

जिन मन्त्रों के द्वारा किसी को शया आकृष्ट किया जा सके वे मन्त्र वश्याकर्षण कहलाते हैं।

वचक

वाचक विधि में जाप करते समय मंुह से श्ब्दों का उच्चारा किया जाता है।

वासना

मानव-मन में अनेक क्रियात्मक मनोवृत्तियाँ प्रकाशित होती हैं अर्थात् चेतना को उनका ज्ञान रहता है और कुछ अप्रकाशित रहती है। अप्रकाशित इच्छाओं का ही नाम वासना है।

विचार

विचार मन की वह प्रक्रिया है जिससे हम पुराने अनुभव को वर्तमान समस्याओं के हल करने में लाते हैं।

वित्तैषणा

ऐश्वर्य प्राप्ति की आकांक्षा वित्तैषणा है।

विद्वेषण

जो मन्त्र द्वेष भाव को उत्पन्न करने में सहायक हों,वे विद्वेषण कहलाते हैं।

विधान

अनुष्ठान-विशेष को विधान कहा जात है।

विनय-शुद्धि

जापकरते समय आस्तिक्य भावपूर्वक हृदय में नम्रता धारण करना विनय-शुद्धि है।

विपाकविचय

कर्म के फल का विचार करना विपाकविचय धर्म ध्यान है।

विलयन

मन की किसी विशेष प्रवृत्ति को विलीन कर देना विलयन है।

विसंयोजन

अनन्तानुबन्धी कषाय का अन्य कषायरूप परिणमन करना विसंयोजन कहलाता है।

वेदनात्मक

प्रत्येक मनोवृत्ति के तीन पहलू हैं-ज्ञानात्मक, वेदनात्मक और क्रियात्मक। वेदनात्मक का तात्पर्य है कि किसी प्रकार की अनुभूति का होना।

वेदनीय

वेदनीय वह कर्म है जिसके उदय से प्राणी को सुख अैर दुःख की प्रप्ति हो।

व्यंजनपर्याय

प्रदेशवत्व गुण के विकार को व्यंजनपर्याय कहते हैं।

व्यवहार

संग्रह नय से ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक भेद करना व्यवहार नय है।

शवपीठ

निम्नकोटि के मन्त्रों की सिद्धि के लिए मृतक के शव पर आसन लगाना शवपीठ है।

शब्द नय

लिंग, संख्या, साधन आदि के व्यभिचार को दूर करने वाले ज्ञान और वचन को शब्द नय कहते हैं।

शान्तिक

शान्ति उत्पन्न करनेवाले मन्त्र शान्तिक कहलाते हैं।

शुक्ल-ध्यान

लेश्या की उज्ज्वलता हो जाने पर कर्मध्यान का उल्लंघन कर शुक्ल ध्यान का आरम्भ होता है । इसके चार भेद हैं।

शुद्धोपयोग

स्वानुभूत रूप विशुद्ध परिणति की प्राप्ति शुद्धोपयोग है। इसी का दूसरा नाम वीतराग विज्ञान है।

शुद्धोपयोगी

शुद्धोपयोगी के धारी वीतरागविज्ञानी शुद्धोपयोगी हैं।

शुभोपयोग

पूण्यानुराग रूप शुभोपयोग होता है। इसमें प्रशस्त राग का रहना आवश्यक है।

शोधन

किसी प्रवृत्ति का शुद्ध या शोधन करना शोधन कहलाता है।

शौच

अन्तरंगे और बहिंरग में पवित्र वृत्ति क उत्पन्न होना शौच धर्म है।

श्मशान-पीठ

श्मशान भूमि में जाकर किसी मन्त्र का अनुष्ठान करना श्मशान-पीठ है।

श्यामा-पीठ

जितेन्द्रिय बनकर नग्न तरूणी के समक्ष निर्विकार भाव से मन्त्र की सधना करना श्यामा-पीठ है।

श्रद्धा

गुणों के प्रति रागात्मक आसक्ति श्रद्धा कहलाती है।

श्रुतज्ञान

पंच इन्द्रिय और मन के द्वारा पर के उपदेश से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान है।

श्रेयोमार्ग

सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप मोक्ष का मार्ग ही श्रेयोमार्ग है।

सत्य

जो वस्तु जैसी देखी या सुनी है उसका उसी रूप में कथन करना सत्य है। इसमें अहिंसा प्रवृत्ति का रहना अत्यावश्यक है।

सत्त्व

कर्मों प्रकृतियों की सत्ता का नाम सत्त्व है। सत्त्व प्रकृतियाँ 148 मानी गयी हैं।

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सप्तव्यसन

बुरी आदत का नाम व्यसन है। ये सात होते हैं। तात्पर्य यह है कि जुआ, चोरी आदि सात प्रकार की बुरी आदतें सप्तव्यसन कहलाती है।

समय शुद्धि

प्रातः मध्याह्न और सन्ध्या समय नियमित रूप से किसी मन्त्र का जाप करना समय शुद्धि है। इसमें समय का निश्चित रहना और निराकुल होना आवश्यक है।

समभिरूढ़

लिंग आदि का भेद न होने पर भी शब्दभेद से अर्थ का भेद माननेवाला समभिरूढ़ नय है।

संकल्प

किसी कार्य के करने की प्रतिज्ञा का नाम संकल्प है।

संक्रमण

एक कर्म का दूसरे सजातीय कम्र रूप हो जाने को संक्रमण करण कहते हैं।

संग्रह

अपनी-अपनी जाति के अनुसार वस्तुओं का या उनकी पर्यायों का एक रूप से संग्रह करने वाले ज्ञान और वचन को संगह कहते हैं।

संवेग

संवेग एक चेतन अनुभूति है जिसमें कई प्रकार की शारीरिक क्रियाएं शामिल रहती हैं।

संयम

इन्द्रिय निग्रह के साथ अहिंसात्मक प्रवृत्ति को अपनाना संयम है।

संवेदन

चैतन्य मन का सर्वप्रथम और सरल ज्ञान संवेदन है। संवेदन इन्द्रियों के बाहृ पदार्थ के स्पर्श से होता है।

समाधि

ध्यान की चरम सीमा को समाधि कहते हैं।

सम्यक् चारित्र

तत्त्वार्थ श्रद्धान के साथ चारित्र का होना सम्यक् है।

सम्यग्ज्ञान

तत्त्व श्रद्वान के साथ ज्ञान का होना सम्यक् ज्ञान है।

सम्यग्दर्शन

जीव, अजीव आदि सातों तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।

सल्लेखना

बुद्धिपूर्वक काय और कषाय को अच्छी तरह कृश करना सल्लेखना है।

सहज क्रिया

उत्तेजना का सबसे सरल कार्य सहज क्रियाएं, जैसे- छींकना, खुजलाना, आँसू आना आदि हैं।

सहज अनुभव

भूख-प्यास आदि शरीरिक मांगों की पूर्त में ही सुख और उनकी पूर्ति के अभाव में दुःख का अनुभव करना सहज अनुभव है। यह अनुभव पशु कोट का माना जाता है।

साधन

वस्तु के उत्पन्न होने के कारणों को साधना कहते हैं।

सावधि

जिन व्रतों के करने के लिए दिन, मास या तिथि की अवधि निश्चित रहती है, वे व्रत सावधि कहलाते हैं।

सिद्धगति

जाति, जरा, मरण आदि से रहित समस्त सुख का भाण्डार सिद्ध अवस्था ही सिद्ध गति है।

सुखापन

आरामपर्वूक पलहत्थी मारकर बैठना ही सुखासन है।

स्कन्ध

दो या दो से अधिक परमाणुाओं के समूह को स्कन्ध कहते है।

स्तम्भन

नदी, समुद्र या तेजी से आती हुई सवारी की गति का अवरोध करवानेवाले मन्त्र स्तम्भन कहलाते हैं। इन मन्त्रों से जलती हुई अग्नि के वेग को या वेग से आक्रमण करते हुए शत्रु की गति को अवरूद्ध किया जा सकता है।

स्थविरकल्पी

जो भिक्षु वस्त्र और पात्र अपने पास रखकर संयम की साधना करता है-वह स्थविरकल्पी कहलाता है।

स्थायीभाव

जब किसी प्रकार का भाव मन में बार-बार उठता है अथवा एक ही प्रकार की उमंग जब मन में अधिक देर तक ठहरती है त बवह मन में विशेष प्रकार क स्थायी भाव पैदा कर देती है।

स्थिति

कर्मों का जीव के साथ अमुक समय तक बँधे रहने का नाम स्थितिबन्ध है।

स्मरण

पूर्वानुभूत अनुभवों अथवा घटनाओं को पुनः वर्तमान चेतना में लाने की क्रिया को स्मरण कहते हैं।

स्व-संवदेन ज्ञान

स्वानुभूत रूप ज्ञान स्व-संवदेन ज्ञान कहलाता है।

स्व-समय

अपनी आत्मा में रमण करने की प्रवृत्ति स्व-समय है। अर्थात् परद्रव्यों से भिन्न आत्मद्रवरू को अनुभव में लाना ही स्व-समय है।

स्वामित्व

किसी वस्तु के अधिकारीपने को ही स्वामित्व कहते हैं।

स्वाध्याय

चिन्तन, मननपूर्वक शास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय है।

क्षमा 25

क्रोध रूप परिणति न होने देना क्षमा है।

क्षयोपशम

कर्मों का क्षय और उपशम होना क्षयोपशम है।

क्षायिक सम्यक्त्व

दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियाँ और अनन्तानुबन्धी चार; इन सात प्रकृतियों के क्षय से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं।

क्षायिक दान

दानान्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से दिव्य ध्वनि आदि के द्वारा अनन्त प्राणियों का उपकार करनेवाला क्षायिक दान होता है।

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क्षायिक उपभोग

उपभोग अन्तरय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से क्षायिक भोग की प्राप्ति होती है।

क्षायिक भोग

भोगान्तरय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से क्षायिक भोग की प्राप्ति होती है।

क्षायिक लाभ

लाभान्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से क्षायिक लाभ होता है।

ज्ञान-केन्द्र

मस्तिष्क में ज्ञानवाही नाडि़यों का जो केन्द्र स्थान है-वही ज्ञानकेन्द्र कहलाता है।

ज्ञानवाही

ज्ञानवाही स्नायु-कोष स्नायु प्रवाहों को ज्ञान इन्द्रियों से सुषुम्ना और मस्तिष्क में ले जाते हैं।

ज्ञानात्मक

ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा सम्पादित होनेवाली प्रवृत्ति ज्ञानात्मक कहलाती है।

ज्ञानावरण

जीव के ज्ञान गुण को आच्छादित करने वाला कर्म ज्ञानावरणीय कर्म कहलाता है।

ज्ञानोपयोग

जीव की जानने रूप प्रवृत्ति को ज्ञानोपयोग कहते हैं।