व्रतसूत्र
३४२ अहिंसा सच्चं च अतेण्गं च, तत्तो य बंभं अपरिग्गह च।
पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि, चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विउ।।१।।

हिंसादि पंच अघ हैं तज दो अघों को, पालो सभी परम पंच महाव्रतों को।
पश्चात जिनोदित पुनीत विरागता का, आस्वाद लो, कर अभाव विभावता का।।¬१।।

364. The learned saint should follow such conduct, as preached by Shri Jina by adopting five full vows (Maha-vrata) of non-violency, truth, non stealing, celibacy and non possession.

३६५ णिस्सल्लस्सेव पुणो, महव्वदाइं हवंति सव्वाइं।
वदमुवहम्मदि तीहिं दु, णिदाणमिच्छत्तमायाहिं।।२।।

वे ही महाव्रत नितान्त सुसाधु धारें, नि: शल्य हो विचरते त्रय-शल्य टारें।
मिथ्या निदान व्रतघातक शल्य माया, ऐसा जिनेश उपदेश हमें सुनाया।।२।।

365. All those full vows can be observed by the unblemished vower (Nihsalya-vrati); as the vows are destroyed by three thorns/blemishes named :-
1. Desire for future sense pleasures;
2. Wrong faith; and
3. Deceit.

३६६ अगिणअ जो मुक्खसुहं, कुणइ निआणं असारसुहहेउं।
सो कायमणिकएणठं, वेरुलियमणिं पणासेइ।।३।।

है मोक्ष की यदि व्रती करता उपेक्षा, चारित्र ले विषय की रखता अपेक्षा।
तो मूढ़ भूल मणि जो अनमोल देता, धिक्कार काँच मणि का वह मोल लेता।।३।।

366. The vower (vrati), who ignores (or undermines) the attainment of salvation (in this life) for the sake of achieving worthless sensual pleasures in next life (or lives) looses, as if it were, the gem of lapis lazuli for a piece of glass.

३६७ कुल-जोणि-जीव-मग्गण-ठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं।
तस्सा-रंभ-णियत्तण-परिणामो होइ पढम-वदं।।४।।

जो जीव थान, कुल मार्गण योनियों में, पा जीवबोध, करुणा रखता सबों में।
आरंभ त्याग उनकी करता न हिंसा, हो साधु का विमल भाव वही ‘अहिंसा‘।।४।।

367. The first vow of non violence consists of thought natures of (internal) retirement from the activities, concerned with the living beings, after having been acquainted with their families, and Margana sthans etc.

३६८ सव्वेसि-मासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं।
सव्वेसिं वदगुणाणं, पिंडो सारो अहिंसा हु।।५।।

निष्कर्ष है परम पावन आगमों का, भाई! उदार उर धार्मिक आश्रमों का।
सारे व्रतों सदन है, सब सद्गुणों का, आदेय है विमल जीवन साधुओं का।
है विश्वसार जयवन्त रहे अहिंसा, होती रहे सतत ही उसकी प्रशंसा।।५।।

368. Non violence is the heart of all ashramas mystery of all the scriptures and the quint essence/gist essence of all vows and attributes.

३६९ अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जई वा भया।
हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्नं वयावए।।६।।

ना क्रोध भीतिवश स्वार्थ तराजु तोलो, लेओ न मोल अघ हिंसक बोल बोलो।
होगा द्वितीय व्रत ‘सत्य‘ वही तुम्हारा, आनंद का सदन जीवन का सहारा।।६।।

369. One should neither speak nor cause others speak the violent untruth (Himsarmak-Asatyua/untruth based on violence) either for the sake of him self or for the sake of other or fear etc. This is the second vow of truth.

३७॰ गामे वा णयरे वा-रण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं।
जो मुयादि गहण-भावं, तिदिय-वदै होदि तस्सेव।।७।।

जो भी पदार्थ परकीय उन्हें न लेते, वे साधु देखकर भी बस छोड़ देते।
है स्तेय भाव तक भी मन में न लाते, ‘अस्तेय‘ है व्रत यही जिन यों बताते।।७।।

370. The saint who renounces the thought action (Bhav) of taking or accepting the property (goods of others found in village or town or forest, adopts the third vow of non-stealing.

३७१ चित्तमंत-मचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं।
दंत-सोहण-मेत्तं पि, ओग्गहंसि अजाइया।।८।।

ये द्रव्य चेतन अचेतन जो दिखाते, साधू न भूलकर भी उनको उठाते।
ना दाँत साफ करने तक सींक लेते, अत्यल्प भी बिन दिए कुछ भी न लेते।।८।।

371. The saint does not take (or accept) any things-whether it be animate or unanimate and large or small-without that having been given (to the saint) by its owner. He does not take even a tooth pick, in the like manner.

३७२ अइभूमिं न गच्छेज्जा, गोयरग्गगओ मुणी।
कुलस्स भूमिं जाणिता, मियं भूमिं परक्कमे।।९।।

भिक्षार्थ भिक्षु जब जाँय, वहाँ न जाँय, जो स्थान वर्जित रहा अघ हो न पाँय।
वे जाँय जान कुल की मित भूमि लौं ही, ‘अस्तेय‘ धर्म परिपालन श्रेष्ठ सो ही।।९।।

372. The saint, who goes for begging alms (food), should not enter into the prohibited area; and in case the area concerned belongs to his family, he should go in a limited part thereof, only.

३७३ मूल-मेय-महम्मस्स, महा-दोस-समुस्सयं।
तम्हा मेहुण-संसग्ंिग, निग्गंथा वज्जयंति णं।।१॰।।

अब्रह्म सेवन अवश्य अधर्म मूल, है दोष-धाम दुख दे जिस भाँति शूल।
निग्र्रन्थ वे इसलिए सब ग्रन्थ त्यागी, सेवे न मैथुन कभी मुनि वीतरागी।।१॰।।

373. Sexual contact (maithun-sansarg) is the root of all (irreligous-conduct/wrongs). It is the sumtotal (samuga/collection) of all the vices (dosa). Hence, the possessionless saints, who take the vow of celibacy, totally renounce sexual indulgence (maithun sevan/unchastity).

३७४ मादु-सदा-भगिणीव य, दट्ठूणित्थि-त्तियं च पडिरूवं।
इत्थि-कहादि-णियत्ति, तिलोय-पुज्जं हवे बंभं।।११।।

माता सुता बहन सी लखना स्त्रियों को, नारी-कथा न करना भजना गुणों को।
‘श्री ब्रह्मचर्य व्रत‘ है यह मार हन्ता, है पूज्य वन्द्य जग में सुख दे अनंता।।११।।

374. The fourth vow of celibacy (Brahmacarya) consists of treating the old, young and adolescent (juvenete) women as mothers, sisters and daughters; and keeping one self away from the talks about women (stri-katha). This vow of celibacy commands respect (is worshipped) through all the three universes.

३७५ सव्वेसिं गंथाणं, चागो णिरवेक्ख-भावाणा-पुव्वं।
पंचम-वद-मिदि भणिदं, चारित्त-भरं वहंतस्स।।१२।।

जो अन्तरंग बहिरंग निसंग होता, भोगाभिलाष बिन चारित भार ढोता।
है पाँचवाँ व्रत ‘परिग्रह त्याग‘ पाता, पाता स्वकीय सुख, तू दुख क्यों उठाता।।१२।।

375. The 5th full vow of possessionlesness (Aparigraha) consists of the renunciation of all possessions external as well as internal-by a saint who is (strictly) following the (prescribed) conduct in an indifferent manner i.e. without expecting any gain there from.

३७६ किं किंचण त्ति तक्कं, अपुणब्भव-कामिणोध देहे वि।
संग त्ति जिणवरिंदा, णिप्पडिकम्मत्त-मुद्दिट्ठा।।१३।।

दुर्गन्ध अंग तक ‘‘संग‘ जिनेश गाया, यों देह से खुद उपेक्षित हो दिखाया।
क्षेत्रादि बाह्या सब संग अतः विसारो, होके निरीह तन से तुम मार-मारो।।१३।।

376. Lord Arihanta deva has advised to, those who want to attain salvation, to ignore body, by asserting “Body is also a possession” in view of this, there is no necessity of any further argument (in support of non possession).

३७७ अप्पडिकुट्ठं उवधिं, अपत्थ-णिज्जं-असंजद-जणेहिं।
मुच्छादि-जणण-रहिदं, गेण्हुदु समणो जदि वि अप्पं।।१४।।

जो माँगना नहिं पड़े गृहवासियों से, ना हो विमोह ममतादिक भी जिन्हों से।
ऐसे परिग्रह रखें उपयुक्त होवे, पै अल्प भी अनुपयुक्त न साधु ढोवें।।१४।।

377. (In spite of that) a saint can accept objects, which are indispensable (for his subsistence); which are not coveted (prarthaniya) by the intgemperate (Asamyami/unrestrained) persons and which do not generate (the sense of) ownership (or myness) etc. He should not accept the minutest possession, other than that (afore mentioned).

३७८ आहारेव विहारे, देसं कालं समं खमं उवधि।
जाणित्ता ते समणो, वट्ठदि जदि अप्पलेवी सो।।१५।।

जो देह देश-श्रम-काल बलानुसार, आहार ले यदि यती करता विहार।
तो अल्प कर्म मल से वह लिप्त होता, औचित्य एक दिन है भव-मुक्त होता।।१५।।

378. That saint is “Alpa lepa” (bound with karms in negligible manner) who takes (proper) care regarding his fooding and strolling (Ahar-bihara) keeping in view the country (area), times, labour his own capacity and his title (upadhi).

३७९ न सो परिग्गहो वुत्तो, नाय-पुत्तेण ताइणश।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा।।१६।।

जो बाह्या में कुछ पदार्थ यहाँ दिखाते, वे वस्तुतः नहिं परिग्रह हैं कहाते।
मूर्छा परिग्रह परंतु यथार्थ में है, श्री वीर का सदुपदेश मिला हमें है।।१६।।

379. Lord Mahavir the son of Jnata-has not defined possession as (merely) consisting of material objects,. that Maharshi (great sage) has defined possession as worldly attachment (i.e. intoxication in the living and non-living objects of the world, through Pramatta-yoga).

३८॰ सन्न्ािहिं च न कुव्वेज्जा, लेवमायाए संजए।
पक्खी पत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्वए।।१७।।

ना संग संकलन संयत हो करो रे! शास्त्रादि साधन सुचारु सदा धरो रे।
ज्यों संग ही विहग रखते अपेक्षा, त्यों संयमी समरसी, सबकी उपेक्षा।।१७।।

380. A saint should not collect (or store) things at all. He should (continue to) move with his instruments of Restraint (samyamo-pakarna) like a bird, which remains unconcerned with any store, and (continue to) fly in the sky.

३८१ संथार-सेज्जासण-भत्तपाणे, अप्पिछया अइलाभे विसंते
जो एव-मप्पाण-भितोसएज्जा, संतोसपान्न्ा-रए स पुज्जो।।१८।।

आहार-पान-शयनादिक खूब पाते, पै अल्प में सकल कार्य सदा चलाते।
सन्तोष-कोष, गतरोष अदोष साधु, वे धन्य धन्यतर हैं शिर मैं नवा दूँ।।१८।।

381. A saint is specially found of contentment. He desires little and gets satisfies with very little in respect of samstarak bed (sayya), seat (asan), and food (Ahar) not with standing their abundant supply (plentiful availability).

३८२ अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था अ अणुग्गए।
आहारमाइयं सव्वं, मणसा वि ण पत्थए।।१९।।

ना स्वप्न में न मन में न किसी दशा में, लेते नहीं अशन वे मुनि हैं निशा में।
जिह्वा-जयी जितकषाय जिताक्ष जोगी, कैसे निशाचर बनें, बनते न भोगी।।१९।।

382. An equanimous saint who is possessionless should not even think of taking any food after sunset and before sun rise.

३८३ संतिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा।
जाइं राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे?।।२॰।।

आकीर्ण पूर्ण धरती जब थावरों से, सूक्ष्मातिसूक्ष्म जग जंगम जंतुओं से।
वे रात्रि में न दिखते युग लोचनों से, कैसे बने अशन शोधन साधुओं से?।।२॰।।

383. The earth is always infested with (occupied by) such fine microbes (sukshma Jina) one sensed and more than one sensed as are not visible in the darkness of night. Under such circumstances, how can any saint properly (fully) examine, the purity of food?