उत्तमक्षमा
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क्षमा आत्मा का स्वभव है। क्षमास्वभावी आत्मा के आश्रय से आत्मा में जो क्रोध के अभावरूप शान्ति-स्वरूप पर्याय प्रकट होती है, उसे भी क्षमा कहते हैं। यद्यपि आत्मा क्षमास्वभावी है, तथापि अनादि से आत्मा में क्षमा के अभावरूप क्रोध पर्याय ही प्रकटरूप से विद्यमान है।

जब-जब उत्तमक्षमादि धर्मों की चर्चा चलती है, तब-तब उनका स्वरूप अभावरूप ही बताया जाता है। कहा जाता है - क्रोध का अभाव क्षमा है, मान का अभाव मार्दव है, माया का अभाव आर्जव है - आदि।

क्या धर्म अभावस्वरूप ;छमहंजपअमद्ध है? क्या उसका कोई भावात्मक ;च्वेपजपअमद्ध रूप नहीं है?यदि है, तो क्यों नहीं उसे भावात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता?

क्रोध नहीं करना, मान नहीं करना, छल-कपट नहीं करना, हिंसा नहीं करना, चेरी नहीं करना, आदि न जाने कितने निषेध समा गये हैं धर्म में। धर्म क्या मात्र निषेधों का नाम है? क्या उसका कोई विधेयात्मक पक्ष नहीं? यदि धर्म में पर से निवृत्ति की बात है तो साथ में स्व में प्रवृत्ति की भी चर्चा कम नहीं है।

यह नहीं करना, वह नहीं करना, प्रतिबंधों की भाषा है। बंधन से छूटने का अभिलाषी मोक्षार्थी जब धर्म के नाम पर भी बंधनों की लम्बी सूची सुनता है तो घबड़ा जाता है। वह सोचता है कि यहां आया था बंधन से छूटने का मार्ग खोजने के लिये और यहां तो अनेक प्रतिबंधों में बांधा जा रहा है। धर्म तो स्वतंत्रता का नाम हैं जिसमें अनन्त बंधन हो, वह धर्म कैसा?

तो क्या धर्म प्रतिबंधों का नाम है, अभावस्वरूप है?

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नहीं, धर्म तो वस्तु के स्वभाव को कहते हैं, अतः वह सद्भावस्वरूप ही होती है, अभावस्वरूप नहीं। पर क्या करें, हमारी भाषाउल्टी हो गई है। क्रोध का अभाव क्षमा है, मान का अभाव मार्दवहै - के स्थान पर हम ऐसा क्यों नहीं कहते कि क्षमा का अभाव क्रोध है, मर्दाव का अभाव मान है, आर्जव का अभाव मायाचार है, आदि।

जरा विचारिए - ज्ञान का अभाव अज्ञान है या अज्ञान का अभाव ज्ञान? ’ज्ञान’ मूल शब्द है, उसमें निषेधवाचक ’अ’ लगाकर ’अज्ञान’ शब्द बना है, अतः स्वतः सिद्ध है कि ज्ञान का अभाव अज्ञान है।

वस्तु आ स्वभाव तो धर्म होता ही है, साथ ही स्वभाव के अनुरूप पर्याय को अर्थात् स्वभावपर्याय को भी धर्म कहा जाता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभावपर्याय होने से ही धर्म है। विभाव (विभावपर्याय) को अधर्म कहते हैं।

ज्ञान आत्मवस्तु का स्वभाव है, अतः धर्म है। सम्यग्ज्ञानपर्याय को भी ज्ञान कहते है, अतः सम्यग्ज्ञान ही धर्म है। अज्ञान (मिथ्याज्ञानपर्याय) आत्मा का विभाव है, अतः वह अधर्म है। इसीप्रकार क्षमा आत्मा का स्वभाव है, अतः वह तो धर्म है ही; साथ ही क्षमास्वभावी आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली क्षमास्वभावरूप स्वभावपर्याय भी धर्म है, किन्तु क्षमास्वभावी आत्मा जब क्षमास्वभावरूप परिणमन न करके विभावरूप परिणमन करता है, ते उसके उस विभाव परिणमन को क्रोध कहा जाता है।

क्रोध आत्मा का एक विभाव है और वह क्षमा के अभावस्वरूप प्रकट हुआ हे। यद्यपि वह संतति की अपेक्षा से अनादि का है, तथापि प्रतिसमय नया-नया उत्पन्न होता है। अतः सत्य तो यह है कि क्षमा का अभाव क्रोध है, पर कहा यह जाता है कि क्रोध का अभाव क्षमा है। इसका कारण यह है कि अनादि से यह आत्मा कभी भी क्षमादि स्वभावरूप परिणमित नहीं हुआ, क्रोधदि विकाररूप ही परिणमित हुआ है; और जब भी क्ष्मादि स्वभावरूप परिणमित होता है तो क्रोधदि का अभाव हो जाता है। अतः क्रोधदि के अभावपूर्वक क्षमादिरूप परिणमन देखकर उक्त कथन किया जाता है।

यदि ज्ञान के समान ही इसका प्रयोग अपेक्षित हो तो वह इसप्रकार किया जा सकता है - ज्ञान काअभाव अज्ञान, क्षमा का अभाव (क्रोध), मार्दव का अभाव अमार्दव (मान), आर्जव का अभाव अनार्जव (मायाचार छल कपट) अदि।

जब कोई यह नहीं कहता कि अज्ञान मत करो, पर यही कहा जाता है कि ज्ञान करो; तब क्रोध मत करो के स्थान पर क्षमा धारण करो, क्यों नहीं कहा जाता? इसका भी कारण है, और वह यह कि हम क्रोध, मान, माया आदि से परिचित हैं; वे हमारे नित्य अनुभूत विभाव हैं। क्षमादि हमारे लिए अपरिचित और अननुभूत-से हैं। परिचित से अपरिचित की ओर, अनुभूत से अननुभूत की तरफ जाना ही सहज होता है।

दुनिया की स्थिति यह है क उसे जब यह कहा जाता है कि क्रोध नहीं करना क्षमा है तो उसे संतोष हो जाता है, पर उससे यह कहा जाय कि क्षमा नहीं करना क्रोध है तो अटपटा लगता है, कुछ समझ में नहीं आता। अतः क्रोध की परिभाषा सदा भावात्मक समझाई जाती है। जैसे - क्रोध गुस्से को कहते हैं, जब क्रोध आता है तो आंखें लाल हो जाती हैं शरीर कांपने लगता है, होंठ फड़कने लगते हैं, आदि।

यहां एक प्रश्न हो सकता है कि आचार्यों ने भी तो इसीप्रकार समझाया है। आचार्यों के समाने भी एक समस्या थी कि उन्हें क्रोधियों की क्षमा समझानी थी; अतः क्षमा को भी क्रोध के माध्यम से समझाना पडा। व्यवहारी को व्यवहार की भाषा में समझाना पड़ता है। मुनिजन क्षमा के भण्डार होते हैं। यदि वे अपनी आरे से बोलेंगे तो यही बोलेंगे कि क्षमा का अभाव क्रोध है, पर दुनिया में भाव होता है वक्ता का और भाषा हेती है श्रोता की। यदि श्रोता की भाषा में न बोला गया तो वह कुछ समझ ही न सकेगा।

अतः ज्ञानीजन समझाना तो चाहते हैं क्षमाधर्म, पर समझाते हैं क्रोध की बात करके। बच्चों से बात करने के लिए उनकी ओर से बोलना पड़ता है। जब हम बच्चे से कहते हैं कि मां को बुलाना, तब हमारा आशय बच्चों की मां से होता है, अपनी मां से नहींः कयोंकि हम जानते हैं कि ऐसा कहने पर बच्चा अपनी मां को ही बुलायेगा, हमारी मां को नहीं।

इसीप्रकार जब हमें भी क्षमा को क्रोध की भाषा में ही समझाना है तो पहिले क्रोध को ही अच्छी तरह स्पष्ट करना समुचित होगा।

यद्यपि यह आत्मा ज्ञान का घनपिण्ड और आनन्द का कन्द है, स्वभाव से स्वयं परिपूर्ण है; तथापि कुछ विकृतियां, कमजोरियां तब से ही इसके साथ जुड़ी हुई हैं, जब से यह है। उन कमजोरियों को शास्त्रकारों ने विभाव कहा, कषाय कहा, अैर न जाने क्या-क्या नाम दिये; उनके त्याग का उदेश भी कम नहीं दिया; सच्चे सुख को प्राप्त करने का उपाय भी उनके त्याग को ही बताया। महात्माओं के अनेक उपदेशों और आदेशों के बावजूद भी प्राणी इनसे बच नहीं पाया। इन कमजोरियों के कारण प्राणियों ने अनेक कष्ट उठाये हैं, उठा रहे हैं और उठायेंगे। इनसे बचेने के लिए भी उपाय कम नहीं किये गये, पर बात वहीं की वहीं रही।

जिन विकरों के कारण, जिन कमजोरियों के कारण, जिन कषायों के कारण प्राणी सफलता के द्वार तक पहुंच कर भी कई बार असफल हुआ, सुख-शांति के शिखर पर पहुंचने के लिए प्रयत्नशील रहने परभी पहुंच नहीं पाया; उन विकारों में, उन कमजोरियों में, उन कषायों में सबसे बड़ा विकार, सबसे बड़ी कमजोरी और सबसे बड़ी कषाय है क्रोध।

क्रोध आत्मा की एक ऐसी विकृति है, ऐसी कमजोरी है, जिसके कारण उसका विवके समाप्त हो जाता है, भले-बुरे की पहिचान नहीं रहती। जिसपर क्रोध आता है, क्रोधी उसे भला-बुरा कहने लगता है, गाली देना लगता है, मारने लगता है, यहां तक कि स्वयं की जान जोखिम में डालकर भी उसका बुरा करना चाहता है। यदि कोई हितैषी पूज्य पुरूष भी बची में आवे तो उसे भी भला-बुरा कहने लगता है, मारने तक को तैयार हो जाता है। यदि इतने पर भी उसका बुरा न हो तो स्वयं बहुत दुखी होता है, अपने ही अंगों का घात करने लगता है, माथा कूटने लगता है, यहां तक कि विषादि भक्षण करकेक मर तक जाता है।

लोक में जितनी भी हत्याएं और आत्म-हत्याएं होती हैं, उनमें से अधिकांश क्रोधावेश में ही होती हैं। क्रोध के समान आत्मा का कोई दूसरा शत्रु नहीं है।

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क्रोध करने वाले को जिसपर क्रोध आता है, वह उसकी ओर ही देखता है, अपनी ओर नहीं देखता। क्रोध को जिसपर क्रोध आता है, उसी को गलती दिखाई देती है, अपनी नहीं; चाहे निष्पक्ष विचार करने पर अपनी ही गलती क्यों न निकले। पर क्रोध विचार करता ही कब है? यही तोउसका अन्धापन है कि उसकी दृष्टि पर की ओर ही रहती है और ह भी पर में विद्यमान-अविद्यमान दुर्गुणों की ओर ही; गुणों को तो वह देख ही नहीं पाता। यदि उसे पर के गुण दिखाई दे जावें तो फिर तो उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होगी।

यदि मालिक के स्वयं के पैर से ठोकर खाकर काच का गिलास फूट जावे तो एकमद चिल्लाकर कहेगा कि इधर बीच में गिलास किसने रख दिया? उसे गिलास रखने वाले पर क्रोध आएगा, स्वयं पर नहीं। वह यह नहीं सोचेगा कि मैं देखकर क्यों नहीं चला?

यदि वही गिलास नौकर के पैर की ठोकर से फूटे तो चिल्लाकर कहेगा - देखकर नहीं चलता, अंधा है। फिर उसे बीच में गिलास रखने वाले पर क्रोध न आकर ठोकर देने वाले पर आएगा; क्योंकि बीच में गिलास रखा तो स्वयं उसने है।

गलती हमेशा नौकर की ही दिखेगी चाहे स्वयं ठोकर दे, चहे नौकर के पैर की ठोकर लगे; चाहे स्वयं गिलास रखे, चाहे दूसरे ने रखा हो।

यदि कोई कह दे कि गिलास तो आप ही ने रखा था और ठोकर भी आपने मारी, अब नौकरी को क्यों डांटते हो? तब भी यह बोलेगा कि इसे उठा लेना चाहिए था, इसने उठाया क्यों नहीं? उसे अपनी भूल दिख ही नहीं सकती; क्योंकि क्रोध ’पर’ मं ही भूल देखता है; स्वयं में देाने लगे तो क्रोध आएगा कैसे? यही कारण है कि आचार्यों ने क्रोध को क्रोधान्ध कहा है।

क्रोधान्ध व्यक्ति क्या-क्या नहीं कर डालता? सारी दुनिया में मनुष्यों द्वारा जिता भी विनाश होता देखा जाता है, उसके मूल में क्रोधादि विभाव ही देखे जाते हैं। द्वारिका जैसी पूर्ण विकसित और सम्पन्न नगरी का विनाश द्वीपायन मुनि के क्रोध के कारण ही हुआ था। क्रोध के कारण सैंकड़ों घर-परिवार टूटते देखे जाते हैं। अधिक क्या कहें - जगत में जो कुछ भी बुरा नजर आता है, वह सब क्रोधादि विकारों क ही परिणाम है।

कहा भी है - ’’ क्रोधोदयाद् भवित कस्य न कार्यहानि‘1 क्रोध के उदय में किसी कार्य-हनि नहीं होती, अर्थात् सभी की हानि होती है।’’

हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान् आचार्य रामचन्द्र शुकल ने अपने ’क्रोध’ नामक निबन्ध में इसका अच्छा विश्लेषण कियहै।

क्रोध एक शांति भंग करने वाला मनोविकार है। वह क्रोध करने वाले की मानसिक शांति तो भंग कर ही देता है, साथ ही वातावरण को भी कलुषित और अशान्त कर देता है। जिसके प्रति क्रोध-प्रदर्शन होता है, वह तत्काल अपमान का अनुभव करता है और इस दुःख पर उसकी भी त्यौरी चढ़ जाती है। यह विचार करने वलो बहुत थोड़े निकलते हैं कि हम पर जो क्रोध प्रकट किया जा रहा है वह उचित है या अनुचित।

क्रोध का एक खतरनाक रूप है बैर। बैर क्रोध से भी खतरनाक मनोविकार है। वस्तुतः वह क्रोध का ही एक विकृत रूप है। बैर अ का अचार या मुरब्बा है। क्रोध के आवेश में हम तत्काल बदला लेने की सोचते हैं। सोचते क्या हैं - तत्काल बदला लेने लगते हैं। जिसे शत्रु समझते हैं, क्रोधावेश में उसे भला-बुरा कहने लगताहै, मारने लगते हैं। पर जब हम तत्काल कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न कर मन में ही उसके प्रति क्रोध को इस भाव से दबा लेते हैं कि अभी मौक ठीक नहीं है, अभी प्रत्याक्रमण करने से हमें हानि हो सकती है, शत्रु प्रबल है, मौका लगने पर बदला लेंगे; तब वह क्रोध बैर का रूप धारण कर लेता है और वर्षों दबा रहता है तथा समय आने पर प्रकट हो जाता है।

ऊपर से देखने पर क्रोध की अपेक्षा यह बैर विवके का कम विरोधी नजर आता है, पर यह है क्रोध से भी अधिक खतरनाक; क्योंकि यह योजनाबद्ध विनाश करता है, जबकि क्रोध विनाश की योजना नहीं बनाता, तत्काल जो जैसा संभव होता है, कर गुजरता है। योजनाबद्ध विनाश सामान्य विनाश से अधिक खतरनाक और भयानक होता है।

यद्यपि जितनी तीव्रता और वेग क्रोध में देखने में आताहै - उतना बैर में नहीं, तथापि क्रोध का काल बहुत कम है, जबकि बैर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।

क्रोध और भी अधिक रूप में पाया जाताहै। झल्लाहट, चिड़चिड़ाहट, क्षोभ आद भी क्रोध के ही रूप हैं। जब हमें किसी की कोई बात या काम पसंन नहीं आता हैऔर वह बात बार-बार हमारे सामने आती है तो हम झल्ला पड़ते हैं। बार-बार की झल्लाहट चिड़चिड़हट में बदल जाती है। झल्लाहट और चिड़चिड़हाट असफल क्रोध के परिणाम हैं। यह एक प्रकार से क्रोध के हल्के-फुल्के रूप हैं। क्षोभ भी क्रोध क ही अव्यक्त रूप है।

ये सभी विकार क्रोध के ही छोटे-बड़े रूप हैं। सभी मानसिक शान्ति को भंग करने वाले हैं, महानता की रहा में रोड़े हैंै। इनके रहते कोई भी व्यक्ति महान नहीं बन सकता, पूर्णता को प्राप्त नहीं का सकता। यदि हमें महान बनना है,पूर्णता को प्राप्त करना है तो इन पर विजय प्राप्त करनी ही होगी, इन्हें जीतना ही होगा। पर कैसे? आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल के अनुसार -

’’अज्ञान के कारण जबतक हमें परपदार्थ इष्ट-अनिष्ट प्रतिभासित होते रहेंगे, तबतक क्रोधादि की उत्पत्ति होती ही रहेगी; किंतु जब तत्वाभ्यास के बल से परापदार्थों में से इष्ट-अनष्ट बुद्धि समाप्त होगी, तब स्वभावतः क्रोधादि की उत्पत्ति नहीं होगी।’’

आश्य यह है कि क्रोधदि की उत्पत्ति का मूल कारण, अपने सुख-दुःख का कारण दूसरों को मानना है। जब हम अपने सुखःदुख का कारण अपने में खोजेंगे, उनका उत्तरदायी अने को स्वीकारेंगे, तो फिर हम क्रोध करेंगे किस पर? क्योंकि अपने अच्छे-बुरे और सुख-दुःख का कर्ता दूसरों को मानना ही क्रोधादि की उत्पत्ति का मूल कारण है।

क्षमा के साथ लगा उत्तर शब्द सम्यग्दर्शन की सत्ता का सूचक है। सम्यग्दर्शन के साथ होनेवाली क्षमा ही उत्तमक्षमा हैं

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यहां एक प्रश्न संभव है - जबकि क्षमा का संबंध क्रोध के अभाव से है तो फिर उसका सम्यग्दर्शन से क्या संबंध? यह शर्त क्योंकि उत्तमक्षमा सम्यग्दृष्टि को ही होती है, मियिादृष्टि को नहीं? जिसको क्रोध नहीं हुआ, उसक उत्तमक्षका हो गई; चाहे वह मिथ्यादृष्टि हो या सम्यग्दृष्टि। मिथ्यादृष्टि के उत्तमक्षका हो ही नहीं सकती, यह अनिवार्य शर्त क्यों?

भाई! बात ऐसी है कि क्रोध का अभाव आत्मा के आश्रय से होता है। मिथ्यादृष्टि के आत्मा का आश्रय नहीं है; अतः उसके क्रोध का अभाव नहीं हो सकता। इसलिए मिथ्यादृष्टि के क्रोध नहीं हुआ, यह बनता ही नहीं है उसे जो ’ क्रोध नहीं हुआ’ ऐसा देखने में आता है, वह तो क्रोध का प्रदर्शन नहीं हुाअ वाली बात है। क्योंकि कभी-कभी जब क्रोध मंद होता है तो क्रोध का प्रदर्शन नहीं देखा जाता है,उसे ही अज्ञान क्रोध का अभाव समझ लेते हैं और उत्तमक्षमा कहने लगते हैं। वस्तुतः वह उत्तमक्षमा नहीं, उत्तमक्षमा का भ्रम हैं

अब प्रश्न यह पैदा होता है कि मिथ्यादृष्टि के क्रोध का अभाव क्यों नहीं हो सकता? उसके सदा अनन्त क्रोध क्यों रहा है? इसका उत्तर यह है कि पर में कर्तृत्वबुद्धि से ही अनन्तानुबन्धी क्रोध उत्पन्न होता है। जब कोई परपदार्थ इसकी इच्छा के अनुकूल परिणमित नहीं होता है, तो वह उस पर क्रोधित हो उठता है। इसका अर्थ यह हुआ कि लोक में जो-जो परपदार्थ उसकी इच्छा के अनुकूल परिणमत न होंगेख्, वे सब उसके क्रोध के पात्र होंगे। परपदार्थ हैं अनन्त, अतः अभिप्राय में अनन्त परपदार्थ उसके क्रोध के पात्र हुए; यही है अनन्तानुबन्धी क्रोध, क्योंकि उसने अनन्त परपदार्थों से अनुबन्ध किया है।

इसप्रकार हम देखते हैं कि मिथ्यादृष्टि के परपदार्थों में कर्तृत्व बुद्धि रहती है; इसकाकरण उसके क्रोधादि मंद भले ही हो जाएं, किंतु जब उसके अनन्तानुबन्धी कषाय का भी अभाव नहीं होता है तो उत्तमक्षमादि धर्म प्रकट कैसे हो सकते है?

दूसरी बात यह भी तो है कि उत्तमक्षमादि दशधर्म सम्यक्चारित्र के ही रूप हैं और सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन के बिना होता नहीं, इसलिए यह स्वतः सिद्ध है कि मिथ्यादृष्टि के उत्तमक्षमादि धर्म प्रकट नहीं हो सकते।

निश्चय से तो क्षमास्वभावी आत्मा के आश्रय से पर्याय में क्रोधरूप विकार की उत्पत्ति नहीं होना ही उत्तम क्षमा है; पर व्यवहार से क्रोधादि के निमित्त मिलने पर भीउत्तेजित नहीं होना, उनके प्रतिकाररूप प्रवृत्ति नहीं हाने को भी उत्तमक्षमा कहा जाता है। दशलक्षण पूजन में उत्तमक्षमा का वर्णन करते हुए कविवर द्यानतरायजी ने कहा है -

’’गाली सुन मन खेन न आनौ, गुन को औगुन कहै बखानौ।
कहि है बखानौ वस्तु छीने, बांध-मार बहुविधि करै।
घरतैं निकारै तन विदारै, बैर जो न तहां धरै।।’’

उक्त छनद में निमित्तों की प्रतिकूलता में भी जो शान्त रह सके, वही उत्तमक्षका का धारी है; ऐसा कहा गया है। गाली सुनकर भी जिसके हृदय में खेद उत्पन्न्न न हो, वह उत्तमक्षमावान है।

बहुत से लोग ऐसा कहते पाये जाते हैं कि वैसे तो मेरा स्वभाव एकदम शान्त है, पर कोई छेड दे तो फिर मुझसे शान्त नहीं रहा जाता। उनके मेरे कहना है कि ऐसा कोई व्यक्ति बताइएकि जिसकी प्रशांसा करें अैर उसे क्रोध आवे। प्रशंसा सुनकर तो लोगों को मान आता है, क्रोध नहीं। क्षमा का धारी तो वह है, जिसे गालियं सुनकर भी क्रोध न आवे।

यहां तो और भी ऊंची बात की है। क्रोध की उग्रता तो दूर, मन में भी खेद तक उत्पन्न न हो, तब क्षमा है। किन्हीं बाह्य कारणों से क्रोध व्यक्त न भी करे, पर मन में खेद-खिन्न हो जावे तो भी क्षमा कहां रही? जैसे -मालिक ने मुनीम को डांटा-फटकारा, तो नौकरी छूट जाने के भय से मुनीम में क्रोध के लक्षण तो प्रकट नहीं हुए, पर खेद-खिन्न हो गया तो वह क्षमा नहीं कहला सकती। इसीलिए तो खिला है -

’’गाली सुनि मन खेद न आनौ।’’

जो ’गाली सुनकर चाटा मरे’,वह काया की विकृति वाला है। ’गाली सुनकर गाली देवं’, वह वचन की विकृति वाला है। ’गाली सुनकर खेद मन में लावे’, वह मन की विकृकित वाला है। परंतु ’गााली सुन मन खेद न आवे’, वह क्षमाधारी है।

इसके भी आगे कहते हैं कि ’गुन को औगुन कहै बखानी।’ हों तो हम में गुण और सामने वाला औगुणरूप से वर्णन करे, और वह भी अकेले में नहीं-भरी सभा में, व्याख्यान में; फिरभी हम उत्तेजित न हों तो क्षमाधारी हैं।

कुछ लोग कहते हैं भाई! हम गालियां बर्दाश्त कर सकते हैं, पर यह कैसे संभव है कि जो दुर्गुण हममें है ही नहीं, उन्हें कहता फिरे। उन्हें भी अकेले में कहे तो किस तरह सह भी लें, पर भरी सभा में, व्याख्यान में कहें तो फिर तो गस्सा आ ही जाता हैं

कवि इसी बात को तो स्पष्ट कर रहाहै कि गुस्सा आ जाता हैक्, तो वह क्षमा नही;क्रोध ही है। मान लो तब क्रोध न आवे, हम सोच लें - बकने वाले बकते हैं तो बकने दो, हमें क्या? पर ज बवह हमारी वस्तु छीनने लगे तब? वस्तु छीनने पर भी क्रोध न करें, पर वह हमें बांध दे, मारे और भी अनेक प्रकार पीड़ा दे तब? इसी के उत्तर में कवि ने कहा है:-

’’वस्तु छीने, बांध मार बहुविधि करै।’’

’बहुविधि करै’ शब्द में बहुत भाव भरा है। आप में जितने सामथ्र्य हो इसका अर्थ निकालिए। आज पीडा देने के अनेक नए-नए उपाय निकाल लिए गए हैं। विदेशी जासूसों के कपड़े जाने पर उनसे शत्रुओं के गुप्त भेद उगलवाने के लिए अनेक प्रकार की अमानुषिक पीड़ाएं दी जाती हैं, जिनकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैंद्ध ’बहुविधि करै’ में वे सब आ जाती हैं। पीडा देने के जितने प्रकार आप कल्पान कर सकें, करिए वे सब ’बहुविधि करै’ में आ जावेंगे । फिर भी क्रोध न करें तब उत्तमक्षा होगी, ऐसा कवि कहना चाहता ह। बात यहीं पर समाप्त नहीं हुई, आगे भी बढ़ती है -

’’घरतैं निकारै तन विदारै, बैर जो न तहां धरै।’’

कोई दुष्ट अनेक प्रकार पीडाएं दे देकर चला जाए, पर बाद में हम घर में रहकर उपचार और आराम तो कर रसकते हैं; पर ज बवह हमें घर से ही निकाल दे, तब क्या करें? घर से भी निकाल दे, पर शरीर है तो कहीं न कहीं कुछ न कुछ करके जीवन चला ही लेंगे। पर ज बवह घर से भी निकाल दे और शरीर का भी विदारण कर दे, तब तो क्रोध आ ही जावेगा।

नहीं भाई! तब भी क्रोध न आवे तो उत्तमक्षमा है। तब भी कहां? मान लो क्रोध नहीं किया, पर मन में गांठ बांध ली, बैर धारण कर लिया तो भी उत्तमक्षमा नहीं है।

क्रोध और बैर के बरे में पहले स्पष्टीकरण किया जा चुका है। क्रोध किय जाता है और बैर धारण किया जाता है और बैर धारण किया जाताहै अर्थात क्रोध में तत्काल प्रतिक्रिया होती हैै अैर बैर में मन में गांठ बांध ली जाती है।

बैर आग है और आग जहां रखी जाएगी पहिले उसे जलाएगी, बाद में दूसरे को जलए चाहे न जलाए। अतः बैर भी - जो धारण करता है, उसे ही जलाता है; जिसके प्रति बैर धारण किया है, उसे चाहे जला पये अथवा नहीं भी; क्योंकि उसका भला-बुरा तोउसके पुण्य-पाप के उदय के आधीन है। अतः यहां क्रोध के अभाव के साथ-साथ बैर के अभाव को उत्तमक्षमा कहा है।

पर ये सब बातें व्यवहार की हैं। निश्चत से तो बाह्य निमित्तो की प्रतिकूलताओं पर भी मात्र क्रोध की प्रवृत्ति दिखाइ नहीं देना उत्तमक्षमा नहीं है। हो सकता है कि बाह्य में क्रोधदि की प्रवृत्ति न भी दिखाई दे और अंतर में उत्तमक्षमा का विरोधी क्रोधभाव विद्यमान हो तथा अंतर में आंशिक उत्तमक्षमा विद्यमान रहे, फिर भी बाह्य में क्रोधादि में प्रवृत्ति दिखाई देखाई दे।

अतः निश्चय उत्तमक्षमा समझने के लिए कुछ गहराई में जाना होगा।

शास्त्रों में क्रोध चार प्रकार का कहा गया है।

1. अनन्तानुबन्धी

2. अप्रत्याख्यान

3. प्रत्याख्यान और

4. संज्वलन

चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि के अप्रत्याख्यानसम्बन्धी क्रोध का अभाव हो गया है, अतः उसे तत्सम्बंधी उत्तम क्षमाभाव प्रकट हो गया है। पंचम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती के अनन्तानुबंधी और अप्रत्याख्यानसम्बन्धी क्रोध के अभावजन्य उत्तमक्षमा विद्यमान है तथा छठवें-सातवें गुणस्थानवर्ती महाव्रती मुनिराजों के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान सम्बन्धी क्रोध का अभाव होने से वे तीनों के अभाव संबंधी उत्तमक्षमा के धारक है। नौंवे-दसवें गुणस्थान के ऊपर वाले तो पूर्ण उत्तमक्षमा के धारक हैं।

उक्त कथन शास्त्रीय भाषा में हुआ, अतः शास्त्रों के अभ्यासी ही समझ पाएंगे। इस सबका तात्पर्य यह है कि उत्तमक्षमा आदि का नाम बारह से नहीं किया जा सकता। कषायों की मंदता और तीव्रता पर उत्तमक्षमा आधारित नहीं है, उसका आधार तो उक्त कषायों का क्रमशः अभाव है। कषायों की मंदता-तीव्रता के आधार पर जो भेद पड़ता है, वह तो लेश्या है।

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यद्यपि व्यवहार से मंदकषाय वाले को भी उत्तमक्षमादि का धारण करने वाला कहा जाता है, पर अन्तर की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा भी हो सकता है कि वह बहर से तो बिल्कुल शांत दिखाई दे, किंतु अंतर में अनन्तर क्रोध हो अर्थात अनन्तानुबन्धी का क्रोधी हो। नववें ग्रैवेयक तक पहुंचने वले मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि बाहर से इतने शान्त दिखाई देते हैं कि उनकी खाल खींचकर नमक छिड़कें तब भी उनकी आंख की कोर लाल न हो, फिर भी शास्त्रकारों ने कहा है कि वे उत्तमक्षमा के धारक नहीं है, अनन्तानुबंधी के क्रोध हैं; क्योंकि उनके अन्तर से आत्मा की अरूचिरूपी क्रोध का अभाव नहीं हुआ है। बाह्य में जो क्रोध का अभाव दिखाई देता है, उसका कारण आत्मा के आश्रय से उत्पन्न शांति नहीं है, वरन् जिस चिन्तन के आधार पर वे शान्त रहे हैं, वह पारिश्रत ही रहता है।जैसे - वे सोचते हैं कि यदि मैं साधु हुआ हूं तो मुझे शांत रहना ही चाहिए। यदि शांत नहीं रहूंगा तो लोग क्या कहेंगे? इस भव में मेरी बदनामी होगी और पाप का बन्ध होगा तो अगला भव भी बिगड़ जायगा। यदि शांत रहूंगा तो अभी प्रशंसा होगी और पुण्यबंध होगा तो आगे भी सुख की प्राप्ति होगी।

इसीप्रकार का कोई न कोई यशादि का लोभ व अपयश आदि का भय अथवा पुण् की रूचि और पाप की अरूचि ही उनकी शांति का आधार रहती है या फिर शास्त्रों में लिखा है कि मुनिराज को क्रोध नहीं करना चाहिए, शांत रहना चाहिए - आदि किसी न किसी बाह्य आधार को पकड़ कर ही शांत रहते हैं, उनकी शांति का आधार आत्मा नहीं बनता है।

तथा कोई ज्ञानी चारित्रमोह के दोष से बाहर में क्रोध करता भी दिखाई दे, फिर भी उत्तमक्षका का धारक हो सकत है। जैसे - आचार्यमहाराज मुनिराज को डांटते भी दिखाई दें, उन्हें दण्ड भी दे रहे हों, उत्तेजित भी दिखाई दे रहे हो; फिरभी वे उत्तमक्षका के धारक हैं -क्योंकि उनके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध का अभाव है, आत्मा का आश्रय विद्यमान है। अणुव्रती या अविरतसम्यग्दृष्टि गृहस्थ तो और भी अधिक बाह्य में क्रोध करता दिखाई दे सकता है। अव्रती परंतु क्षायिकयम्यग्दृष्टि भरतचक्रवर्ती बाहुबली पर चक्र चलाते समय भी अनन्तानुबन्धी के क्रोधी नहीं थे। अतः उत्तमक्षमा का निर्ण बाह्य प्रवृत्ति के आधार पर नहीं किया जा सकता।

अनन्तानुबंधी क्रोध के अभाव से उत्तमक्षका प्रकट होती है और अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान क्रोध का अभाव उत्तमक्षमा को पल्लवित करता है तथा संज्वलन क्रोध का अभाव उत्तमक्षका को पूर्णता प्रदान करता है।

अनन्त संसार का अनुबंध करने वाला अनन्तानुबंधी क्रोध आत्मा के प्रति अरूचि का नाम है। ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा की अरूचि ही अनन्तानुबंधी क्रोध है। जब हमें किसी व्यक्ति के प्रति अनन्त क्रोध होता है तो हमउसकी शकल भी देखना पसंद नहीं करते, उसकी बात करना-सुनना पसंद नहीं करते। कोई तीसरा व्यक्ति उसकी चर्चा हमसे करे तो हमें वह भी बर्दाश्त नहीं होती, उसकी प्रशंसा सुनना तो बहुत दूर की बात है।

इसीप्रकार जिन्हें आत्मदर्शन की रूचि नहीं है, जिन्हें आत्मा की बात करना-सुनना पसंद नहीं है, जिन्हें आत्चर्चा ही नहीं, आत्मचर्चा करने वाले भी नहीं सुहाते; वे सब अनन्तानुबंधी के क्रोधी हैं; क्योंकि उन्हें आत्मा के प्रति अनन्त क्रोध है, तभी तो उन्हें आत्मचर्चा नहीं सुहाती।

हमने पर को तो अनन्त बार क्षमा किया, पर आचार्यदेव कहते हैं कि हे भई! एक बार अपनी आत्म को भी क्षमा कर दे, उसकी ओर देख, उसकी सुध ले। अनादि से पर को परखने में ही अनन्त काल गमाया है। एक बार अपनी आत्मा को भी देख, जान, परखः सहज ही उत्तमक्षमा तेरे घट में प्रकट हो जावेगी। आत्मा का अनुभव ही उत्तमक्षमा की प्राप्ति का वास्तविक उपाय है। क्षमास्वभावी आत्मा का अनुभव करने पर, आश्रय करने पर ही पर्याय में उत्तमक्षमा प्रकट होती है।

आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि ज्ञानीजीव को उत्तमक्षमा प्रकट होती है, और आत्मानुभव की वृद्धि वालों को ही उत्तमक्षा बढ़ती है, तथा आत्मा में ही अनन्तकाल को समा जाने वालो में उत्तमक्षमा पूर्णता को प्राप्त होती है।

अविरतसम्यग्दृष्टि, अणुव्रती, महाव्रती और अरहनत भगवान में उत्तमक्षा का परिमाणत्मक भेद है, गुणत्मक भेद नहीं। उत्तमक्षा दो प्रकार की नहीं होती, उसका कथन भले दो प्रकार से किया जाय। उसको जीवन में उतारने के स्तर तो दो से भी अधिक हो सकते हैं। निश्चयक्षमा और व्यवहारक्षमा कथन-शैली के भेद हैं, उत्तमक्षा के नहीं। इसीप्रकार अविरतसम्यग्दृष्टि की क्षमा, अणुव्रती की क्षमा, महाव्रती की क्षमा, अरहन्त की क्षमा - ये सब क्षमा को जीवन में उतारने के स्तर के भेद हैं, उत्तमक्षा के नहीं; वह तो एक अभेद है। उत्तमक्षा तो एक अकषयभावरूप है, वीतरागभावस्वरूप है, शुद्धभवरूप है। वह कषायरूप नहीं, रागभावस्वरूप नहीं, शुभाशुभभावरूप नहीं; बल्कि इनके अभावरूप है।

क्षमास्वभावी आत्मा के आश्रय से समसत प्राणियों को उत्तमक्षा धर्म संकट हो और सभी अतीन्द्रिय ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा का अनुभव कर पूर्ण सुखी हो; इसी पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ।