क्षमा के समान मार्दव भी आत्मा का स्वभाव है। मार्दस्वभावी आत्मा के आश्रय से आत्मा में जो मान के अभावरूप शांति-स्वरूप पर्याय प्रकट होती है,उसे भी मार्दव कहते हैं। यद्यपि आत्मा मार्दवस्वभावी है तथापि अनादि से आत्मा में मार्दव के अभावरूप मानकषायरूप पर्याय ही प्रकटरूप से विद्यमान है।
’मृदोर्भावः मार्दवत्’ मृदुता - कोमलता का नाम मार्दव है। मान कषाय के कारण आत्मस्वभाव में विद्यमान कोमलता का अभाव हो जाता है। उसमें एक अकड़-सी उत्पन्न हो जाती है। मानकषाय के कारण् मानी अपने को बड़ा और दूसरों को छोटा मानने लगता है। उसमें समुचित विनय का भी अभाव हो जाताहैं मानी जीव हमेशा अपने को ऊंचा और दूसरों को नीचा करने का प्रयत्न किया करता है। मान के खाति वह क्या नहीं करता? छल-कपट करता है, मान भंग होने पर क्रोधित हो उठता है। सम्मान-प्राप्ति के लिए सब कुछ करने को तैयार रहता है। यहां तक कि जिन धनादि पदार्थों क संग्रह मौत की कीमत पर करता है, उन्हें भी पानी की तरह बहाने को तैयार हो जाता है। घर-बार, स्त्री-पुत्रादि सब कुछ छोड़ देने पर भी मान नहीं छूटता। अच्छे-अच्छे तथाकथित महात्माओं को आसन की ऊंचाई के लिए झगड़ते देखा जा सकता है, नमस्कार न करने पर उखड़ते देखा जा सकता है। यह सब मानकषाय की ही विचित्र महिमा है।
मानी जीव की प्रवृत्ति का चित्रण पंडित टोडरमलजी ने इसप्रकार किया है-
’’जब इसके मानकषाय उत्पन्न होती है तब औरों को नीचाा व अपने को ऊंचा दिखाने की इच्छा होती है और उसके अनेक उपाय सोचता है। अन्य की निन्दा करता है, अपनी प्रशंसा करता है व अनेक प्रकार से औरों की महिमा मिटाता है, अपनी महिमा करता है। महाकष्ट से जो धनादिक का संग्रह किया उसे विवाहादि कार्यों में खर्च करता है तथा कर्ज लेकर भी खर्चता है। मरने के बाद हमारा यश रहेगा - ऐसा विचारकर अपना मरण करके भी अपनी महिमा बढाता है। यदि कोई अपना सम्मानादिक न करे तोउसे भयादिक दिखाकर दुख उत्पन्न करके अपना सम्मान कराता है। तथा मान होने पर कोई पूज्य-बड़े हों उनका भी सम्मान नहीं करता, कुछ विचार नहीं रहता। यदि अन्य नीचा और स्वयं ऊंचा दिखाई न दे, तो अपने अनतरंग में आप बहुत सन्तापवान होता है और अपने अंगों का घात करता है तथा विष आदि से मर जाता है - ऐसी अवस्था मान होने पर होती है।1’’
कषायों में मान का दूसरा नम्बर, क्रोधका पहिला। दश धर्मों में भी उत्तमक्षमा के बाद उत्तममार्दव आता है। इसका भी कारण है। यद्यपि क्रोध और मान दोनों द्वेषरूप होते हैं, तथापि इनकी प्रकृति में भेद है। जब कोई हमें गाली देता है तो क्रोध आता है, पर जब प्रशंसा करता है तो मान हो जाता है। दुनिया में तो निन्दा और प्रशंसा सुनने को मिलती ही रहती है। अज्ञानी दोनों स्थितियों में कषाय करता है।
जिसप्रकार जिनका शारीरिक स्वास्यि कमजोर होता है, उन्हें ठंडी और गरम दोनों प्रकार की हवाएं परेशान करती है, गरम हवा में उन्हें लू लग जाताी है ओर ठंडी हवा में जुखाम हो जाता है; उसीप्रकर जिनका आत्मिक स्वास्थ्य कमजोर होता है, उन्हें निंदा और प्रशंसा दोनों ही परेशान करते हैं। निन्दा की गरम हवा लगने से उन्हें क्रोध की लू लग जाती है और प्रशंसा की ठंडी हवा लगने से मान का जुखाम हो जाता है।
निन्दा शत्रु करते हैं और प्रशंसा मित्र! अतः क्रोध के निमित्त बनते हैं शुत्र और मान के निमित्त बनते हैं मित्र।
विरोधियों की एक आदम होती है - विद्य़मान गुणों की चर्चा तक न करना और अविद्यमान अवगुणों की बढ़ा-चढ़ाकर चर्चा करना। अनुकूलों की भी एक आदत होती है, वे भी एक कमजोरी के शिकार होते हैं - वे विद्यमान अवगुणों की चर्चा तक नहीं करते, बल्कि अल्प गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर बखान करते हैं, कभी-कीाी अविद्यमान गुणों को भी कहने लगते हैं। कम्पउंडर को डॉक्टर और मुंशी को वकील साहब कहना इसी वृत्ति का परिणाम हैं
दोनों ही वृत्तियां खोटी हैं, क्योंकि वे क्रमशः क्रोध और मान के अनुकूल हैं।
ऐसे लोग दुनिया में भले ही कम मिलें जो गुणों को अवगुण रूप में प्रस्तुत करें, पर ऐसे चापलूस पग-पग पर मिलेंगे जो छोटे से गुण को बढ़ा-चढ़ाकर कहते है। लखपति को करोड़पति कहना साधारण सी बात है।
एक बात यही भी है कि निंदा करने वाले प्रायः पीठ-पीछे निंदा करते हैं, मुंह के सामने निंदा करने वाले बहुत कम मिलेंगे; पर प्रशंसा अधिकतर मुँह पर ही की जाती है, पीठ पीछे बहुत कम। वे लोग बड़े ही भाग्यशाली हैं जिनकी प्रशंसा लोग पीठ-पीछे भी करें।
अतः प्रशंसा निन्दा से अधिक खतरनाक है।
प्रतिकूलता में क्रोध और अनुकूलता में मान आता है। असफलता क्रोध और सफलता मान की जननी है। यही कारण है कि असफल व्यक्त् क्रोध होता है और सफल मानी। जब कोई व्यक्ति किसी काम में असफल हो जाता है तो वह उन स्थितियों पर क्रोधति हो उठता है, जिन्हें वह असफलता का कारण समझता है और सफल होने पर सफलता का श्रेय स्वयं लेकर अभियान करने लगता है।
यद्यपि मान भी क्रोध के समान खतरनाक विकार है, पर लोग उसे न जाने क्यों कुछ प्यार करते हैं? मानपत्र सब के घरों में टंगे मिल जावेंगे, किसी के घर पर क्रोधपत्र नहीं मिलेगा। क्रोधपत्र केाई किसी को देता भी नहीं है, और कोई देगा भी तो कोई लेगा नहीं, घर में लगाने की बात तो बहुत दूर है। पर लोग मानपत्र बड़ी शान से लेते हैं और उसे बड़े ही प्यार से घर में लगाते हैं। बहुत लोग तो उसे ज्ञान-पत्र समझते हैं, जबकि उस पर साफ-साफ लिखा रहता है मान-पत्र। इतने से भी संतोष नहीं होता है तो फिर उसे अखबरों में पूरा का पूरा छपाते हैं,चाहे उसका विज्ञज्ञापन चार्ज ही क्यों न देना पड़े।
यदि कभी मानपत्र मिल जाता है तो उसे संभाल कर रखते हैं, पर अपमान तो अनेक बार मिला है, पर.........। पुण्यहीनों का मान से अधिक अपमान ही होता है।
मान एक मीठा जहर है, जो मिलने पर अच्छा लगता है, पर है बहुत दुःखदायक। दुःखदायक क्या दुःखदायक ही है, क्योंकि है तो आखिर कषाय ही।
यद्यपि मान भी क्रोध के समान ही आत्मा का अहित करने वाला विकार है, तथापि बाह्य में क्रोध क समान सर्व-विनाशक नहीं। जिा पर हमें क्रोध आता है, हम उसे नष्ट कर डालना चाहते हैं, पूर्णतः बरबाद कर देना चाहते हं; पर जिसके लक्ष्य से मान होता है उसे नष्ट नहीं करना चाहते, वरन् उसे कायम रखना चाहते हैं, पर अपने से कुछ छोटेरूप में।
क्रोध को विरोधी की सत्ता ही स्वीकृत नहीं होती, जबकि मानी को भीड़ चाहिए, नीचे बैठने वाले चाहिए, जिनसे वह कुछ ऊंचा दिखे। मानी को मान की पुष्टि के लिए एक सभा चाहिए, जिसमें सब नीचे बैठे हों और वह सबसे कुछ ऊंचा। अतः मानी दूसरों को भी रखना चाहता है, पर अपने से कुछ नीचे; क्योंकि मान की प्रकृति ऊंचा दिखने की है और ऊंचाई एक सापेक्ष स्थिति है। कोई नीचे हो तो ऊंचे का व्यवहार बनता है। ऊंचाई के लिए नीचाई और नीचाई के लिए ऊचाई चाहिए।
क्रोधी लोग गांव में किसी को पांव में सोना नहीं पहिनने देते थे, उनके मकान से ऊंचा मकान नहीं बनाने देते थे; क्योंकि उनके मकान से दूसरे का मकान बड़ा हो जाए तो उनका मान खण्डित हो जाता था।
क्रोधी वियोग चाहता है पर मानी संयोग। यदि मुझे सभा में क्रोध आ जाय तो मैं उठकर भाग जाऊंगा और यदि वश चलेगा तो सबको भाग दूंगा। पर यदि मान आवे तो भगूंगा नहीं और सबको भगाऊंगा भी नहीं, पर नीचे बिठाऊंगा और मैं स्वयं ऊपर बैठना चाहूंगा। मान की प्रकृति भगाने की नहीं, दबाकर रखने की, नीचे रखने की है; जबकि क्रोध की प्रकृति खत्म करने की है।
यही कारण है कि क्रोध नम्बर एक की कषाय है और मान नम्बर दो की।
मान के अनेक रूप होते हैं। कुछ रू पतो ऐसे होते हैं, जिन्हें बहुत से लोग मान मानते ही नहीं। दीनता मान का एक ऐसा ही रूप है, जिसे लोग मान नहीं मानना चाहते। दीन की मानी-अभिमानी मानने को उनका दिल स्वीकार नहीं करता। वे कहते हैं दीन तो दीन है, वह मानी कैसे हो सकता है?
यदि मार्दवधर्म के अभाव का नाम मानकषाय और मानकषाय के अभाव का नाम मार्दवधर्म है तोफिर दीनता का मान मानना ही होगा, क्योंकि यदि उसे मान न माना जायगा तो मान के अभाव में दीनता मार्दव हो जावेगी।
क्यों? कैसे?
देखिये - मान आठ चीजों के आश्रय से होता है -
ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप, और शरीर - इन आठ वस्तुओं के आश्रय से जो मान किया जाता है, उसे मानरहित भगवान मान कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि क्रोध या मान कोई भी विकार हवा में नहीं होता, किसी न किसी के आश्रय से होता है। आश्रय का अर्थ है लक्ष्य। अर्थात जब हमें क्रोध आता है तो वह किसी न कसी पर, किसी न किसी के लक्ष्य से होता है। ऐसा नहीं कि क्रोध आने पर पूछा जाय कि किस पर आ रहा है तो कहे किसी पर नहीं, वैसे ही आ रहा है - ऐसा नहीं होता। क्रोध किसी न किसी पर ही आता है। उसीप्रकार मान भी कसी न किसी वस्तु के आश्रय से ही होता है। जिन वस्तुओं के आश्रय से मान होता है, उन्हें आठ भागों में वर्गीकृत किया गया हैं
’मैं ज्ञान हूँ’ इस विकल्प के आश्रय से होने वाले मान को ज्ञानमद कहते हैं। इसीप्रकार कुल, जाति, धन, बल आदि के आश्रय से कुलमद, जातिमद, धनमद, बलमद आदि होते हैं।
अधिकांश लोगों की मान्यता ऐसी पाई जाती है क धनमद धनवालों को ही होताहै, गरीबों को नही। उनका कहना है कि गरीबों के पास धन है ही नहीं, तो उन्हें धनमद कैसे हो सकता है? इसीप्रकार रूपमद रूपवालों को होगा, कुरूपों को नहीं। बलमद बलवानों को होगा, निर्बलों को नहीं। इसीप्रकार अन्य भी समझ लेना चाहिए।
उनकी यह बात ऊपर से कुछ जँचती भी है, पर गम्भीरता से विचार करने पर प्रतीत होता है कि यह बात युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि यदि धनमद धनवालों को ही होगा, बलमन बलवानों को ही होगा, रूपमद रूपवान को ही होगा तो फिर ज्ञानवान को ही होना चाहिए; जबकि ज्ञानमद ज्ञानी को नहीं, अज्ञानी को होता है। ज्ञानमद ही क्यों, आठों ही मद अज्ञानी को ही होते हैं, ज्ञानी को नहीं।
जब ज्ञानमद अज्ञानी को हो सकता है तो धनमद निर्धन को क्यों नहीं, रूपमद कुरूप को क्यों नहींद्य इसीप्रकार बलमद निर्बल को क्यों नहीं? आदि।
दूसरी बात यह है कि मान लो एक व्यक्ति ऐसा है जिसके पास न तो धन है, न बल है, न ही वह रूपवान है, न ही ऐश्वर्यवान है, न ही ज्ञानी एवं तपस्वी ही है; उच्च जाति एवं उच्च कुलवाला भी नहीं है तो उसके तो कोई मद होगा ही नहीं, उसे किसी भी प्रकार का मान होगा नहीं; उसे तो फिर मानकषाय के अभाव में मार्दव धर्म का धनी मानना होगा। शायद यह आपको भी स्वीकार न होगा, क्योंकि इस स्थिति में जो धर्म का नाम भी नहीं जानते; ऐसे दीनहीन, कुरूप, निर्बल, नीच जाति कुल वाले अज्ञानी जन के भी मार्दवधर्म की उपस्थिति माननी होगी, जो कि सम्भव नहीं है।
वस्तुतः स्थिति यह है कि धन के संयोग से अपने को बड़ा माने वह मानी। मात्र धन के होने से कोई मानी नहीं हो जाता, पर उसके होने से अपने को बड़ा मानकर मान करने से मानी होती है। इसीप्रकार धन के न होने सेया कम होने से अपने को छोटा माने वह दीन है, मात्र धन की कमी या अभाव से कोई दनी नहीं हो जाता, हो जावे तो मुनिराजों को दीन मानना होगा; क्योंकि उनके पा तो धन होता ही नहीं, रखते ही नहीं। वे तो मार्दवधर्म के धनी हैं, वे दीन कैसे हो सकते हैं? धन के अभाव से अपने को छोटा अनुभव कर दीनता लावे तो दीन होता है।
धनिदि के अभाव में भी धनादिमदों की उपस्थिति मानने में हमें परेशानी इसलिए होती है कि हम धनादि के संयोग से मान की उत्पत्ति मान लेते हैं। हम मान का ना पर से करते हैं। मानकषाय और मर्दवधर्म दोनों की आत्मा की पर्यायेंह ैं, अतः उनका नाम अपने से ही होना चाहिए, पर से नहीं।
दूध लीटर से नापा जाता है और कपड़ा मीटर से। यदि कोई कहे दो लीटर कपड़ा देना या दो मीटर दूध देना तो दुनिया उसे मूर्ख ही समझेगी; क्योंकि ऐसा बोलने वाला न तो लीटर को ही समझाता है और न मीटर को ही, या फिर वह दूध और कपड़ा दोनों से अपरिचित है अन्यथा लीटरों में कपड़ा और मीटरों में दूध क्यों मांगता?
आत्मा के धर्म मार्दवादि और अधर्म मानादि को भी परपदार्थों से क्यों नापना? धनादि परपदार्थों के संयोग मात्र से मानकषाय एवं अभाव से मार्दवधर्म को मानने वाले न तो मानकषाय को ही समझते हैं और न मार्दवधर्म को ही। भले ही वे मानकषाय करते हों, पर उसका सही स्वरूप नहीं समझते। ऐसा भी संभव है कि धनादि का संयोग हो, पर धनमद न हो। अज्ञानी को धनादि का संयोग न होने पर भी नियम से धनादिमद होते हैं; क्योंकि जबतक सम्यग्दर्शन नहीं हुआ, आत्मा का अनुभव नहीं हुआ, तब तक धनादिमदों की अपस्थिति अनिवार्य है, भले ही वह बाह्य में अभिमान करता दिखाई न भी दे।
मान और दीनता दोनों ही मार्दवधर्म के विरोधी भाव है। अतः दोनों ही मद (मान) के ही रूप हैं। जब मार्दव के अभाव को मान या मान के अभाव को मार्दव कहा जाता है; कम से कम तब निश्चितरूप से ’मान’ शब्द में दीनता को भी शामिल मानना होगा, अन्यथा मार्दवधर्म वालों के दीनता का अभाव मानना संभव न होगा।
’ज्ञानी के ज्ञानमद नहीं होता और अज्ञानी के होता है।’ इससे भी एक बात प्रकट होती है कि जिसकामान होता है उसकी सत्ता हो ही, यह आवश्यय नहीं। अतः धनमद होने के लिए धन की उपस्थिति आवश्यक नहीं।
धनादि का व्यवहार तो मात्र मनुष्यगति में ही पाया जाता है और मान चारों ही गतियों में पाया जाता है। कुल-जात का व्यवहार भी मनुष्य-व्यवहार है। मान को मात्र मनुष्य-व्यवहारतक सीमित रखकर नहीं, विस्तृत सीमा में समझना होगा।
इसमें मूल बात ध्यान देने की यह है कि अज्ञानी ने अपना नाप अपने से नहीं किया, वरन् धनादि के संयोग से किया। धन के संयोग से अपने को बड़ा माना ओर उसकी कमी या अभाव से अपने को छोटा माना। पर के कारण चाहे अपने को छोटा माने या बड़ - दोनों ही मान हैं। इस कारण मानी तो मानी है ही, दीन भी मानी ही है।
लौकिक दृष्टि से भले ही उसमें भेद हो, पर आध्यात्मिक दृष्टि से विशेषकर मार्दवधर्म के संदर्भ में अभिमान और दीनता दोनों मान के ही रूप हैं, उनमें कोई विशेष भेद नहीं। मार्दवधर्म दोनों के ही अभाव में उत्पन्न होने वाली स्थिति है।
अभिमान और दीनता दोनों में अकड़ है; मार्दवधर्म की कोमलता, सहजता दोनों में ही नहीं है। मानी पीछे को झुकता है,दीन आगे को; सीधे दोनों ही नहीं रहते। मानी ऐसे चलता है जैसे वह चैड़ा हो और बाजार सकड़ा एवं दीन ऐसे चलता है जैसे वह भारी बोझ से दबा जा रहा हो।
अतः यह एक निश्चित तथ्य है कि अभिमान और दीनता दोनों ही विकार हैं, आत्म-शांति को भंग करने वाले हैं और दोनों के अभाव का नाम ही मार्दवधर्म है।
समानता आने पर मान जाता है। मार्दवधर्म में समानता का तत्व विद्यमान है। ’सभी आत्माएं समान हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं।’ यह मान्यता सहज ही मानकषय को कम करती है, क्योंकि बडप्पन के भाव का नाम ही तो मान है। ’मैं बड़ा और जगत छोटा’ - यह भाव मानस्वरूप हैं। तथा ’मैं छोटा और जगत बड़ा’ -यह भाव दीनतारूप है; यह भी मान का ही रूपांतर है; जैसाकि पहले स्पष्ट किया जा चुका हैं
अर्हतमत में ’मेरा स्वरूप सिद्ध समान है’ कहकर भगवान को भी समानता के सिद्धान्त के भीतर ले लिया गया है। ’मैं किसी से बड़ा नहीं’ मानने वाले को मान एवं ’मैं किसी से छोटा नहीं’ मानने वलो को दीनता आना संभव नहीं।
छोटे-बड़े का भाव मान है और समानता का भाव मार्दव। सब समान हैं, फिर मान कैसा? पर हमने ’स’ छोड़कर ’मान’ रख लिया है। यदि मान हटाना है तो सबमें विद्यमान समानता को चाहिए, मानिए; मान स्वयं भाग जाएगा और सहज ही मार्दवधर्म प्रकट होगा।
जैसा हो वैसा अपने को मानने का नाम मान नहीं है; क्योंकि उसका नाम तो सत्यश्रद्धान है। बल्कि जैसा है नहीं, वैसा मानने से, तथा जैसा है नहीं, वैसा मानकर अभिमान या दीनता करने से मान देता है, मार्दवधर्म खण्डित होता है। यदि मात्र अपने को ज्ञानी मानने से मान होता हो, तो फिर ज्ञानी को भी ज्ञानमद मानना होगा; क्योंकि वह भी तो अपने को ज्ञानी मानता है। केवलज्ञानी भी अपने को केवलज्ञानी मानते-जातने हैं, तो क्या वे भी मानी हैं?
नहीं, कदापि नहीं। ज्ञानमद केवलज्ञानी को नहीं होता, क्षयोपशम ज्ञानवालों को होता है। क्षयोपशम ज्ञानवालों में भी ज्ञानमद सम्यग्ज्ञानी को नहीं, मिथ्याज्ञानी को होता है। मिथ्याज्ञानी को अज्ञानी भी कहा जाता है।
संयोग को संयोगरूप जानने से भी मान नहीं होता, क्योंकि सम्यग्ज्ञानी-चक्रवर्ती अपने को चक्रवर्ती जानता है, मानता भी है; किंतु साथ में यह भी जानता है कि यह सब संयोग है, मैं तो इनसे भिन्न निराला तत्व हूं। यही कारण है कि उसके अनन्तानुबन्धी का मान नहीं होता। यद्यपि कमजोरी के कारण अप्रत्याख्यानादि का मान रहता है, तथापि मान के साथ एकत्वबुद्धि का अभाव है, अतः उसके आंशिकरूप से मार्दवधर्म विद्यमान है।
अनन्तानुबन्धी मान का मूल कारण शरीरादि परपदार्थ एवं अपनी किारी अल्पविकसित अवस्थाओं में एकत्वबुद्धि है। मुख्यतः हम इसे शरीर के साथ एकत्वबुद्धि के आधार पर समझ सकते हैं; क्योंकि रूपमद, कुलमद, जातिमद, बलादिमद शरीर से ही सम्बंन्ध रखते हैं। रूपमद शरीर की कुरूपता और सुरूपता के आश्रय से ही होता है। इसीप्रकार बलमद भी शरीर के बल से सम्बन्धित है तथा जाति और कुल का निर्णय भी जन्म से सम्बन्ध रखने के कारण शरीर से ही जुड जाता है।
जो व्यक्ति शरीर को ही अपने से भिन्न पदार्थ मानता है, जानता है, उसमें अपनत्व भी नहीं रखता; वह शरीर के सुन्दर होने से अपने को सुन्दर कैसे मान सकता है? इसीप्रकार उसके कुरूप होने से भी अपने को कुरू कैसे मानेगा?
दूसरी बात यह भी तो है कि ज्ञानी इनकी क्षणभंगुरता से भली-भांति परिचित होता है। अतः इनके आश्रय से उसे मान कैसे हो सकता है? शरीरादि संयोग पल-पल में विकृत और विनष्ट होने वाले हैं। क्या पता अभी सुंदर दिखने वाला शरीर कब असुन्दर हो जावे। ऐश्वर्य का भी क्या भरोसा? प्रातः के श्रीमंत को सयं होने से पहले श्रीविहीन होते देखा जा सकता है। अपनी भुजाओं से मोटर रोक देने वाले गामा पहलवान के बाजुओं में मरते समय मक्खी उड़ाने की भी शक्ति न रही थी। क्या कोई दावे के साथ कह सकता है कि जो शक्ति, जो सैन्दर्य और जो सम्पत्ति आज उके पास है, वह कल भी रहेगी? काया और माया को बिखरते क्या देर लगती है? ऐसी स्थिति में मान क्या किया जाय और किस पर किया जाए?
इसीप्रकार जाति, कुलादि पर भी घटित कर लेना चाहिए।
ऐश्वर्यमद बाह्य पदार्थों से सम्बंध रखता है तथा ज्ञानमद आत्मा की अल्पविकसित अवस्था के आश्रय से होने वाला मद है। जिसे अपनी पूर्णविकसित पर्याय केवलज्ञान का पता है, उसे क्षयोपशमरूप आल्पज्ञान का अभिमान कैसे हो सकता है? कहां भगवान का अनन्तज्ञान और कहां अपना उसका अनन्तवां भाग ज्ञान, क्या करना उसका अभिमान ? और क्षयोपशम ज्ञान क्षणभंगुर भी तो है। अच्छा-भला पढ़ा-लिखा आदिमी क्षण भर में पगल भी तो हो सकता है?
धन-जन-तन आदि संयोगों के आधार पर किया गया मान अन्ततः खण्डित होना ही है; क्योंकि संयोग का वियोग निश्चित है। अतः संयोग का मान करने वाले का मान खण्डित होना भी निश्चित है। पूर्णविकसित पर्याय केवलज्ञान का पता है, उसे क्षयोपशमरूप अल्पज्ञान का अभिमान कैसे हो सकता है? कहां भगवान का अनन्तज्ञान और कहा अपना उसका अनन्तवां भाग ज्ञान, क्या करना उसका अभिमान? और क्षयोपशम ज्ञान क्षणभंगुर भी तो है। अच्छा-भला पढ़ा-लिख आदमी क्षण भर में पागल भी तो हो सकता है?
मार्दवधर्म की प्राप्ति के लिए देहादि में से एकत्वबुद्धि तोड़नी होगी। देहादि में एकत्वबुद्धि मिथ्यात्व के कारण होती है; अतः सर्वप्रथम मिथ्यात्व का ही अभाव करना होगा, तभी उत्तमक्षम-मार्दवादि धर्म प्रकट होंगे, अन्य कोई मार्ग नहीं है। मिथ्यात्व का अभाव आत्मदर्शन से होता है; अतः आत्मदर्शन ही एकमात्र कर्तव्य है; उत्तमक्षमा-मार्दवादि धर्म अर्थात् सुख-शंति प्राप्त करने का एमात्र उपाय है।
देहादि में परबुद्धि के साथ-साथ आत्मा में उत्पन्न होने वाली क्रोधमानादि कषायों में हेयबुद्धि भी होनी चाहिए। उनमें हेयबुद्धि हुए बिना उनका अभाव होना संभव नहीं है। यद्यपि अज्ञानी भी कहना तो यही है कि मान खोटी चीज है, इसे छोड़ना चाहिए; तथापि उसके अंतर में मानादि के प्रति उपादेयबुद्धि बनी रहती है। हेय तो शास्त्रों में लिख है, इसलिए कहता है। मन से तो वह मान-सम्मान चाहता ही है; अत; मान रखने के अनेक रास्ते निकालताहै। कहता है कि मान नहीं पर आदमी में स्वाभिमान तो होना ही चाहिए। स्वमिभन किसे कहते हैं, इसकी तो उसे खबर ही नहीं है; मान के ही कसी अंश को स्वामिमान मान लेता है।
मान लीजिए आपने मुझे प्रवचन के लिए बुलाया, पर जो स्टेज बनाया तथा प्रवचन सुनने के लिए जितनी जनता जुड़ी, वह स्टेज व उतनी जनता मुझे अपनी विद्वता की तुलना में अपर्याप्त लगे तथा मैं कहने लगूं कि इतनीसी स्टे! इस पर एक चैकी लगाओं इतने बड़े विद्वान् के लिए इतनी नीची स्टेज बनाते शर्म नहीं आई और जनता भी इतनी-सी।
आप कहेंगे पंडितजी मानी हैं और मैं कहूंगा कि यह मान ननहीं, स्वाभिमान हैं। विद्वान को मानी नहीं, पर स्वाभिमान तो होन ही चाहिये; उसकी इज्जत तो होनी ही चाहिए।
समझ में नहीं आता कि इसमें बेइज्जती की किसने? क्या कम जनता एवं नीचे स्टेज से किसी की बेइज्जती हो जाती है? अन्ततोगत्वा मान और स्वभिमान के बीच विभाजन रेखा तो खींचनी हो होगी कि कहां तक वह स्वाभिमान कहलाएगा और कहां से मान। आखिर में होता यही है कि लोग उसे मानी कहते रहते हैं और मान करने वाला उसी को स्वाभिमान नाम देता रहता है।
और भी अनेक प्रसंगों पर इसप्रकार के दृष्य देखे जा सकते हैं।
स्वाभिमान श्ब्द स्व$अभिमान से बना है। स्व शब्द निज का वाची है,उसमें स्टेज और जनता कहां से आ जाते हैं। वस्तुतः तो अपनी आत्मा की पूर्ण शक्तियों को पहिचान कर उनके आश्रय से जगत के सामने दीन न होना ही स्वाभिमान है। स्वाभिमान का सही स्वरूप न पहिचान कर स्वाभिमान के नाम पर अज्ञानी मान ही करता रहता है।
सम्मान के नाम से भी मान लिया-दिया जाता है। कहते हैं कि यह सत् मान है। हम तो समझते हैं कि मान तो असत् ही होता है, पर लोगों ने उसके भी दो भेद कर डाले हैं - सत्$मान = सम्मान और असत् $ मान = असम्मान। यदि मान भी सत् होगा तो फिर असत् क्या होगा?
लोग कहते हैं कि सम्मान तो दूसरों ने दिया है, उससे हम मानी कैसे हो गये? पर भाई साहब! लिया तो आपने है। आचार्यों ने चारो गतियों में चार कषायों की मुख्यता बताते हुए मनुष्य गति में मान की मुख्यता बताई है। आदमी सब कुछ छोड़ सकता है - घर-बार, स्त्री-पुत्रादि, यहाँ तक कि तन के वस्त्र भी, पर मान छोड़ना बहुत कठिन है। आप कहेंगे कैसी बात करते हो? पद की पर्यादा तो रखनी ही पड़ती है। पर भाई! समस्त पदो के त्याग का नाम साधु पद है, यह बात क्यों भूल जाते हो?
रावण मान के कारण ही नरक गया। यद्वपि वह सीताजी को हर कर ले गया था, तथापि उसने उन्हें हाथ भी नहीं लगाया। अन्त में तोउसने सीताजी को ससम्मान राम को वापस करने का भी निश्चय कर लिया था, किंतु उसने सोचा कि बिना राम से लड़े ओर बिना जीते देने पर मान भंग हो जाएगा। दुनिया कहेगी कि डरकर सीाता वापस दे दी है। अतः उसने संकल्प किया कि पहिले राम को जीतूंगा, फिर सीता को ससम्मान वापस कर दूंगा।
देखो! सीता वापस देना स्वीकार, पर जीवकर; हारकर नहीं। सवाल सीता का नहीं; मूंछ का था, मान का था। मूंछ के सवाल के कारा सैकड़ों घर बर्बाद होते सहज ही देखे जा सकते हैं। मनुष्यगति में अधिकतर झगड़े मान के खातिर ही होते हैं। न्यायालयों के आस-पास मूंछों पर ताव देते लोग सर्वत्र देखे जा सकते हैं।
यहां एक प्रश्न सहज ही उठ सकता है कि आप कैसी बातें करते हैं? मान-सम्मान की चाह तो ज्ञानी के भी हो सकती है, होती भी है। देखने पर पुरणों में भी ऐसे अनेक उदाहरण मिल जावेंगे।
हाँ! हाँ!! क्यों नहीं, अवश्य मिल जावंगे। पर मान की चाह अलग बात है और मानादि कषायों में उपादेयबुद्धि अलग बात है। मानाद कषायों में उपादेयबुद्धि मिथ्यात्व भाव है, उसके रहते तो उत्तममार्दवादि धर्म प्रकट नहीं हो सकते; मान की चह और मान कषाय की उपस्थिति में आंशिकरूप से मार्दवादि धर्म प्रकट हो सकते हैं; क्योंकि मान की चाह और मानकषाय की आंशिक उपस्थिति चारित्र-मोह का दोष है, वह क्रमशः ही जायेगा, एक साथ नहीं।
सम्यग्दृष्टि के यद्यपि अनन्तानुबंधी मान चला गया है; तथापि अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण अैर संज्वलन मान तो विद्यमान है, उनका प्रकट रूप तो ज्ञानी के भी दिखाई देगा ही। इसीप्रकार अणुव्रती के प्रत्याख्यान और संज्वलन सम्बंधी तथा महाव्रती मुनिराजों के भी संज्वलन सम्बंधी मानादि की उपस्थिति रहेगी ही। मानादि कषायें छूटेंगी तो भूमिकानुसार ही; पर उनमें उपादेयबुद्धि, उन्हें अच्छा मानना तो छूटना ही चाहिए; इसके बिना तो धर्म का आरंभ भी नहीं हो सकता।
आश्चर्य की बात तो यह है कि हम उन्हें उपयोगी और उपादेय मानने लगे हैं। कहते हैं कि गृहस्थी में थोड़ा क्रोध, मान आदि तो होना ही चाहिए, अन्यथा काम ही न चलेगा। यदि थोडा-बहुत भी क्रोध नहीं रहा तो फिर बच्चे भी कहना न मानेंगे। सारा अनुशासन-प्रशासन समाप्त हो जायेगा। थोड़ा स्वभाव तेज हो तो सब काम ठीक होता है, समय पर होता है। इसीप्रकार यदि हम बिलकुल भी मान न रखेंगे तो फिर कोई भटे के भाव भी नहीं पूछेगा। आन-बान-शान के लिए भी थोड़ा-सा मान जरूरी है।
अज्ञानी समझता है कि अनुशासन-प्रशासन और मान-सम्मान क्रोध-मान के द्वारा होते हैं, जबकि इनका क्रोध-मान के साथ दूर का भी सम्बन्ध नहीं है।
एक बाबजी थे। उन्हें खांसी उठा करती थी। उनसे कहा गया कि खांसी का इलाज करा लीजिए, क्योंकि कहावत है कि ’लड़ाई की जड़ हांसी ओर रोगी जड़ खांसी’। वे कहने लगे - भाई! भरे-पूरे घर में इतनी खांसी तो चाहिए। क्यों? - ऐसा पूछने पर कहने लगे - तुम समझते तो हो नहीं, बहू -बेटियों वाला बड़ा घर है, घर में खांसते-खखरते जाओ तो सब सावधान हो जाते हैं, इसमें उनकी और हमारी दोनों की इज्जत बनी रहती है।
जब उनसे कहा गया कि खांसी का तो इलाज करवा लीजिए, बहू-बेटियों के लिए नकली खांस लिया करना। तब तुनक कर बोले - नकली क्यों खांसू जब असली ही है तो; हम नकली काम नहीं करते, नकली वे करें जनके असली न हो।
आवश्यकतावश खांसना-खखारना अलग बात है और खांसी को ही उपयोगी और उपादेय मानना अलग बात। जिसने खांसी को ही उपयोगी और उपादेय मान लिया है, उसे कालान्तर में निश्चितरूप से तपेदिक होने वाला है। इसीप्रकार मानादि की चाह या मानादि का आंशिकरूप से होना अलग बात है और उन्हें उपयोगी और उपादेय मानना अलग बात। उपादेय मानने वाले को धर्म प्रकट होना भी संभव नहीं है।
मानादि कषायें भूमिकानुसार क्रमशः छूटती हैं, पर उनमें उपादेयबुद्धि एक साथ ही छूट जाती है। इनमें उपादेयबुद्धि छटे बिना धर्म का आरम्भ ही नहीं होता।
तो क्या अंत में यही निष्कर्ष रहा कि क्रोध-मानादि कषाय नहीं करना चाहिए, इन्हें छोड़ देना चाहिए?
नहीं, कहा था न कि क्रोध-मान छोड़े नहीं जाते हैं, छूट जाते हैं। बहुत से लोग मुझसे कहते हैं कि आप बीमार बहुत पड़ते हैं, जरा कम पड़ा कीजिए न। मैं पूछता हूँ कि क्यों मैं बीमार सोच-समझकर पड़ता हूँ - जो कम पड़ा करूँ, अधिक नही। अरे भाई! मेरा बस चले तो मैं बीमार पडूँ ही नहीं।
इसीप्रकार क्या कोई क्रोध-मानादि कषायें सोच-समझकर करता है। अरे! उसकावश चले तो वह कषाय करे ही नहीं, क्योंकि प्रत्येक समझदान प्राणी कषायों को बुरा समझता है और यह भी चाहता है कि मैं कषाय करूं ही नहीं, पर उसके चाहने से होता क्या है? क्रोध-मानादि कषायें हो ही जाती हैं, हो क्या जाती है,सदा बनी ही रहती हैं; कभी कम, कभी अधिक; कभी मंद,कभी तीव्र। अनादिकाल से एक भी अज्ञानी आत्मा आज तक कषाय किए बिनाएक समय भी नही रहा। यदि एक बात भी, एक समय को भी कषाय भाव का पूर्णतः अभाव हो जावे तो फिर कषाय हो नहीं सकती।
अब यह महत्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है कि फिर मान क्यों उत्पन्न होता है और मिटे कैसे? इसकी उत्पत्ति का मूल कारण क्या है और इसका अभाव कैसे किया जाय?
जबतक यह आत्मा परपदार्थों को अपना मानता रहेगा, तबतक अनन्तानुबन्धी मान की उत्पत्ति होती रहेगी। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि परपादर्थ की उपस्थितिमात्र मान का कारण नहीं है। तिजोरी में लाखों रूपया पड़ा रहता है, पर तिजोरी को मान नहीं होता, उन्हें संभालने वाले मुनीम को भी मान नहीं होता; पर उससे दूर बैठे सेठ को होता है, क्योंकि सेठ उन्हें अपना मानता है।
सेठ अपने को कपड़ा-मिल का मालिक समझता है। कपड़ा-मिल छूटने से मान नहीं छूटेगा;क्योंकि राष्ट्रीय करा हो जाने पर मिल तो छूट जायगी, पर सेठ को मान की जगह दीनता हो जावेगी। अभी तक अपने को मिल का मालिक समझकर मान करता था, अब उसके अभााव में अपने को दीन अनुभव करेगा।
मिल छूटने से नहीं, पर छोड़ने से तो मान छूट जायगा?
तब भी नहीं, क्योंकि छोड़ने के मान हो जायगा, मान छोड़ने के लिए उसे अपना मानना छोड़ना होगा। मान का आधार ’पर’ नहीं, पर को अपना मानना है।
जो पर को अपना माने उसे मुख्यतः मान होता है। अतः मान छोड़ने के लिए पर को अपना मानना छोड़ना होगा। पर को अपना मानना छोड़ने का अर्थ यह है कि निज को निज और पर को पर जानना होगा, दोनों को भिन्न-भिन्न स्वतंत्र सत्तायुक्त पदार्थ मानना ही पर को अपना मानना छोडना है, ममत्वबुद्धि छोड़ना है।
पर से ममत्वबुद्धि छोड़नी है और रागादि भावों में उपादेयबुद्धि छोड़नी है। इनके छूट जाने पर मुख्यतः मान उत्पन्न ही न होगा, विशेषकमर अनन्तानुबंधी मान तो उत्पन्न ही न होगा। चारित्र-दोष और कमजोरी के कारण अप्रत्याखनादि मान कुछ काल तक रहेंगे, पर वे भी इसी ज्ञान-श्रद्धान के बल पर होने वाली आत्मलीनता से क्रमशः क्षीण होते जावेंगे और एक दिन ऐसा आयेगा कि मार्दवस्वभावी आत्मा पर्याय में भी पूर्ण मार्दवधर्म से युक्त हो जायगा, मानादि का लेश भी न रहेगा।
वह दिन सबको शीघ्रातिशीघ्ज्ञ्र प्राप्त हो, इस पवित्र भावना के साथ मार्दवधर्म की चर्चा से विराम लेता हूँ।