पढमो जीवाधियारो
THE SOUL

स्वसमय और परसमय का लक्षण -

जीवो चरित्तदंसणणाणठिदो तं हि ससमयं जाणे।
पोंग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमयं।।
(1-2-2)

जो जीव शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित है, उसे निश्चय से स्वसमय जानो। और जो जीव पौद्गालिक कर्मप्रदेशों में स्थित है, उसको परसमय जानो।

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विशेष - यहां जाणे पद मुमुक्षुओं के लिए स्वेच्छापूर्वक जानने के आशय में प्रयुक्त हुआ है, अर्थात यह पद इच्छावाचक है और जाण पद आज्ञावाचक है।

जो जीव शुद्ध आत्माश्रित हैं, वे स्वसमय कहलाते हैं। अरिहन्त और सिद्ध ही स्वसमय हैं, क्षीणमोह गुणस्थान तक जीव परसमय है।

Know that the jiva (soul) which rests on pure faith, knowledge, and conduct, alone is the Real Self. The one which is conditioned by the karmic matter is to be known as the impure self.

Note: The word jane suggests voluntary understanding; ‘jana implies a command.

The souls which rest on the pure self are called the Real Self. Only the Arhats and the Siddhas are the Real Self. All other souls, up to the spiritual stage of destroyed delusion (Ksinmoha) are other than the Real Self.

अध्याय 1

’समय ’ की सुन्दरता

एयत्तणिच्छयगदो समओ स्व्वत्थ सुंदरो लोगे
बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि।।
(1-3-3)

एकत्व निश्चय को प्राप्त (निश्चय से अपने स्वभाव में स्थित) शुद्ध आत्मा ही लोक में सर्वत्र सुंदर है (शोभा को प्राप्त होता है), इसलिए एकत्व में (दूसरे के साथ) बन्ध की कथा विसंवाद करने वाली है।

विशेष - जीव अपने स्वभाव में स्थित रहने पर ही शोभा को प्राप्त होता है। (यद्यपि ’समय’ शब्द से - धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल एवं जीव - सभी द्रव्य लिये जाते हैं, तथापि यहां आत्मा अभिप्रेत है। पुद्गल कर्म के साथ जीव का बन्ध होने पर जीव में विसंवाद खड़ा होता है। इसी प्रकार धर्म, अधर्म आदि सभी अपने-अपने स्वभाव में स्थित ही सुन्दर होते हैं।)

The Real Self who has realized oneness with his own nature is the beautiful ideal in the whole universe. To associate this Self with bondage, therefore, will be a self-contradictory narration.

Note: The jiva (soul) accomplishes true beauty when it is in harmony with its own nature. Although ‘samaya’ connotes all substances – the medium of motion, the medium of rest, space, time, matter, and jiva – what is intended here is the jiva (soul). Contradiction arises when the jiva is contaminated with the karmic matter. In the same way, the medium of motion, the medium of rest etc., look beautiful only when they rest on their own nature.

एकत्व की दुर्लभता

सुदपरचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा।
एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स।।
(1-4-4)

काम (स्पर्शन और रसना इन्द्रिय), भोग, (घ्राण, चक्षु और श्रोत्र) इन पांचों इन्द्रियों के सम्बन्ध की और बन्ध की कथा सभी जीवों की सुनी हुई है, परिचित है और अनुभव में आई हुई है, केवल रागादि से मिन्न एकत्व की प्राप्ति सुलभ नहीं है।

विशेष - सुदपरिचिदाणुभूदा-सुद (ज्ञान) परिचिद (श्रद्धा), अणुभूदा (चारित्र) अर्थात इस पद से यहां मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र लिये गये हैं।

Tales involving pleasures of five senses – kama (sensuous pleasures involving touch and taste), and bhog (sensuous pleasures involving smell, sight and hearing) – and of karmic attachment have been heard, known, and experienced by all. Only the attainment of Self that is free from all attachments is not easy.

Note: the words – heard, known, and experienced – mentioned above, refer to wrong belief, knowledge, and conduct respectively, in the verse.

आचार्य की प्रतिज्ञा -

तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण।
जदि दाएज्ज पमाणं चुक्र्केज्ज छलं ण र्घेत्तव्व।।
(1-5-5)

(आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि) मैं उस एकत्व विभक्त (अभेद रत्नत्रय रूप आत्मस्वरूप) को आत्मा के निजवैभव से दिखाता हूं। यदि मैं दिखाऊँ तो उसे प्रमाण मानना। यदि मैं कहीं चूक जाऊँ तो विपरीत अभिप्राय ग्रहण न कर लेना

विशेष - वक्ता के कथन के अभिप्राय को उलटकर उस वाक्य के अर्थ को अनर्थ में परिवर्तित कर देना ’छल’ है।

(Acharya Kundkund says-) I will reveal that unified Self (impregnable Self with right faith, knowledge, and conduct) with the soul’s own glory. If I succeed, accept it as a validation of truth, and if I miss out, do not misconstrue my intent.

Note: To misinterpret the speaker in order to distract from the intended meaning is to misconstrue.

शुद्धात्मा का स्वरूप

ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव।।
(1-6-6)

जो ज्ञायक भाव है, वह न ही अप्रमत्त है और न प्रमत्त है। इस प्रकार उसे शुद्ध कहते हैं; और जो (ज्ञेयाकार अवस्था में भी) ज्ञायक ही है।

The knowing consciousness is neither apramatta (vigilant of duties) not pramatta (non-vigilant of duties) and is thus said to be pure. The subject of consciousness (in the state of knowing) remains the same when the ultimate truth is revealed.

व्यवहार की आवश्यकता

जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदु।
तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं।।
(1-8-8)

जैसे अनार्य को अनार्य भाषा के बिना अर्थग्रहण कराना (आशय समझाना) शक्य नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार नय के बिना परमार्थ का उपदेश करना अशक्य है।

Just as it is not possible to explain something to a non-Aryan except in his own non-Aryan language, in the same way, it is not possible to preach spiritualism without the help of empirical point of view (vyavahara naya)

श्रुतकेवली -

जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं।।
तं सुदकेवलिमिसिणे भणंति लोयप्पदीवयरा।।।
(1-9-9)।

जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा।।
सुदणाणमाद सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा।।।
(1-10-10)

जो जीव वास्तव में भावश्रुत से अनुभवगोचर केवल एक शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है, उसको लोक प्रकाशक ऋषि (निश्चय) श्रुतकेवली कहते हैं।

जो जीव समस्त श्रुतज्ञान को (द्वादशांग द्रव्यश्रुत को) जानता है, उसे जिनदेव (व्यवहार) श्रुतकेवली कहते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण श्रुतज्ञान (द्रव्य श्रुतज्ञान के आधार से उत्पन्न भावश्रुत) आत्मा है। इस कारण उसे श्रुतकेवली कहते हैं।

The jiva who, through his faculty of scriptural consciousness, realizes the pure nature of the Real Self, is called a real, all-knowing Master of Scripture (nischaya srutakevali) by the Rsis, the illuminators of the world.

The jiva who comprehends the entire scriptural knowledge (comprising the twelve canonical works – angas) is called an empirical all-knowing Master of Scripture (vyavahara grutakevali) by Lord Jina. As the entire scriptural knowledge (and the resultant scriptural consciousness) is the Real Self, he is called a grutakevali.

निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहार नय अभूतार्थ है -

ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।।
भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो।।।
(1-11-11)

व्यवहार नय अभूतार्थ है और शुद्धनाय भूतार्थ है, (ऐसा ऋषियों ने) बताया है। जो जीव भूतार्थ के आश्रित है - भूतार्थ का आश्रय लेता है, निश्चय ही वह सम्यग्दृष्टि है।

The empirical point of view does not reveal the ultimate truth, and the pure, transcendental point of view reveals the ultimate truth. This has been said by the Rsis. The soul which takes refuge in the ultimate truth is surely the right believer.

व्यवहार नय भी प्रयोजनवान है -

सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं।।
ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ठिदा भावे।।।
(1-12-12)

शुद्धात्मभाव के दर्शियों के द्वारा शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला शुद्धनय-निश्चयनय जानने योग्य है। और जो जीव अशुद्ध भाव में (श्रावक की अपेक्षा शुभोपयोग में एवं प्रमत्त-अप्रमत्त की अपेक्षा भेदरत्नत्रय में) स्थित हैं, उनके लिए व्यवहार नय का उपदेश किया गया है।

The pure, transcendental point of view, expounded by those who have actually realized the ultimate truth about the real nature of substances, is worth knowing. And for those souls who are in their impure state (like the householder engaged in virtuous activity, and the ascetic, vigilant or non-vigilant, in the ratnatrai – three jewels – of right faith, knowledge and conduct), the empirical point of view (vyavahara naya) is recommended.

शुद्धनय से जानना सम्यक्त्व है -

भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।।
आसवसंवरणिज्जरबंधो माक्खो य सम्मत्तं।।।
(1-13-13)

शुद्ध निश्चयनय से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नवतत्व सम्यक्त्व हैं। (अभेदोपचार से सम्यक्त्व का विषय और कारण होने से सम्यक्त्व हैं अथवा शुद्धनय से नवतत्वों को जानने से आत्मा की अनुभूति होती है, अतः सम्यक्त्व हैं।

विशेष - इन्हीं नवतत्वों के आधार पर समयसार ग्रंथ की रचना की गई है।

Comprehension of these nine substances – soul, non-soul, merit, demerit, influx, stoppage, gradual dissociation, bondage, and liberation – through pure nischaya naya constitutes right belief. (Being the focal point of belief these nine substances are said to constitute right belief, and from the point of view of pure nischaya naya, the knowledge of these nine substances results into the realization of the Real Self, hence it is right belief).

Note: These nine substances are the subject matter of this treatise Samayasra.

शुद्धनय का लक्षण -

जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं।।
अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणाहि।।।
(1-14-14)

जो नय शुद्धात्मा को बन्ध रहित, पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्व रहित, नियत (चलाचलतादि रहित), ज्ञान दर्शनादि के भेद से रहित और अन्य के संयोग से रहित ऐसे छह भावरूप (आत्मा में) देखता है, उसे शुद्धनय जानो।

The point of view which sees the soul as ) free from bondage, 2) untouched by others, 3)distinct, 4) steady, 5) inseparable from its attributes of knowledge, faith etc., and 6) free from union with any other substance, is the pure point of view (suddha naya).

जो आत्मा को देखता है वही जिनशासन को जानता है -

जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं।।
अपदेस-संत-मज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं।।।
(1-15-15)

जो भव्यात्मा आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष (तथा उपलक्षण से पूर्वोक्त गाथा में कथित नियत और असंयुक्त) निरंश-अखण्ड एवं परम शांत भावस्थित आत्मा में देखता है, जानता है, अनुभव करता है - वही आत्मा सम्पूर्ण जिनशासनक - स्वसमय और परसमय को जानता है।

He who sees, knows, and experiences the soul as free from bondage, untouched by others, distinct, not other than itself (also steady, and free from union – as mentioned in the previous verse), indivisible whole (incorporeal), and absorbed in its own blessedness, comprehends the whole Jaina doctrine, including the Real Self and non-self.

रत्नत्रय ही आत्मा है -

दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।।
ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो।।।
(1-16-16)

साधु को (व्यवहार नय से) सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की सदा ही उपासना करनी चाहिए; और उन तीनों को निश्चय नय से एक ही आत्मा जानो।

From the empirical point of view (vyavahara naya), right faith, knowledge, and conduct, should always be cherished by the ascetic, but from the point of view of pure nischaya naya, these three are identical with the Self.

रत्नत्रय के सेवन का क्रम -

जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिदूण सद्दहदि।।
तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण।।।
(1-17-17)।

एवं हि जीवाराय णादव्वो तह य सद्देहव्वो।।
अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण।
(1-18-18)

जैसे कोई धन का इच्छुक पुरूष राजा को (छत्र, चमर आदि राजचिन्हों से) पहचान कर श्रद्धान-निश्चय करता है और उसके बाद प्रयत्नपूर्वक उसकी सेवा करताहै। इसी प्रकार मोक्षार्थी पुरूष् को जीव रूपी राजा का ज्ञान करना चाहिये तथा उसी का श्रद्धान करना चाहिए; फिर उसी का अनुचरण-अनुभव करना चाहिए।

Just as a man desirous of monetary benefits, after identifying the king by his crown and other insignia of royalty, exerts to serve him faithfully, in the same way, one who desires emancipation should know the soul as a king, put faith in it, and attend to it in right earnest.

आत्मा तब तक अज्ञानी रहता है -

कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्मणोकम्मं।।
जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव।
(1-19-19)

जब तक इस आत्मा की द्रव्यकर्म, भावकर्म और शरीरादि नोकर्म में ’यह मैं हूँ’ ओर ’मुझ में कर्म और नोकर्म हैं’ ऐसी बुद्धि रहती है, तब तक यह आत्मा अज्ञानी है (रहता है)।

So long as the soul believes that it comprises the karmic matter – the subtle karmic matter (dravya karma), the psycho-physical karmic matter (bhav karma), and the quasi-karmic matter (particles of matter fit for the three kinds of bodies and the six kinds of completion and development) (nokarma) – and that the subtle karmic matter and the body building karmic matter are its constituent parts, it remains lacking in discriminatory knowledge.

ज्ञानी और अज्ञानी जीव की पहचान -

अहमेदं एदमहं अहमेदस्सवे होमि मम एदं।।
अण्णं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा।।।
(1-20-20)।

आसि मम पुव्वमेदं अहमेदं चावि पुव्वकालम्हि।।
होहिदि पुणो वि मज्झं अहमदं चावि होस्सामि।।।
(1-21-21)।

एवं तु असंभूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो।।
भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो।।।
(1-22-22)

अपने से अन्य जो स्त्री-पुत्रादिक चेतन, धन-धान्यादिक अचेतन और ग्राम-नगरादि चेतनाचेतन परद्रव्य है; इनके सम्बन्ध में ऐसा समझे कि ’ये मैं हूँ’, ’यह द्रव्य मुझ स्वरूप है’, ’मैं इसका ही हू’, ’यह मेरा है’, ’यह पूर्व में मेरा था’, ’पूर्वकाल में मैं भी इस रूप था’, ’भविष्य में भी यह मेरा होगा’, ’भविष्य में मैं भी इस रूप होऊँगा’, इस प्रकार का मिथ्या आत्म विकल्प जो करता है, वह अज्ञानी (बहिरात्मा) है; और जो परमार्थ वस्तुस्वरूप को जानता हुआ वैसा झूठा विकल्प नहीं करता, वह ज्ञानी अंतरात्मा है।

One who erroneously considers any alien object such as an animate being (wife, son etc.) an inanimate thing (riches such as gold and silver), and mixed animate-inanimate object (land, cattle etc.) as ‘I am this substance’, or ‘It is me’, or ‘I am its’, or ‘It is mine’, or ‘It was mine in the past’, or ‘I was identical to it in the past’, or “it shall be mine in future also, and ‘I shall also be like to in future’, has only superficial awareness (bahiratma). But one who understands the real nature of the Self does not entertain such erroneous notions and, therefore, possesses intimate knowledge (antaratma).

आचार्य द्वारा प्रतिबोध -

अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिणं भणदि पोग्गलं दव्वं।।
बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो।।।
(1-23-23)।

सव्वण्हुणााणदिट्ठो जोवो उवओगलक्खणो णिच्चं।।
किह सो पोग्गलदव्वीभूदा जं भणसि मज्झमिणं।।।
(1-24-24)।

जदि सो पोम्ग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदं इदरं।।
तो सक्का वोत्तु जे मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं।।।
(1-25-25)

अज्ञान मे मोहित बुद्धि वाला और मिथ्यात्व रागादि अनेक भावों से युक्त जीव कहता है कि यह बद्ध-सम्बद्ध देहादि तथा अबद्ध देह से भिन्न स्त्री-पुत्रादि पुद्गल द्रव्य मेरा है; किंतु सर्वज्ञ के ज्ञान में देखा गया जो सदाउपयोगलक्षण वाला जीव है, वह पुद्गल द्रव्य रूप कैसे हो सकता है, जो कहता है कि यह पुद्गल द्रव्य मेरा है। यदि जीवद्रव्य पुद्गल द्रव्य रूप हो जाये और पुद्गल द्रव्य जीवत्व को प्राप्त हो जाये तो कहा जा सकता था कि यह पुद्गल द्रव्य मेरा है।

The Self, deluded with wrong knowledge and influenced by wrong belief and passions, declares that physical objects like the ones intimately bound to him (the body) and the ones not so bound to him (wife, son etc.) belong to him. The Omniscient Lord has declared that consciousness is soul’s distinctive characteristic. How can such an entity be regarded as physical matter? How can one say that a particular physical matte belongs to him? If it were possible for that should to become a physical matter and for the physical matter to become a soul (having consciousness), then only it would have been right to say that a particular physical object belongs to the soul.

शिष्य पुनः शंका करता है -

जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंथुदी चेव।।
सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो।।।
(1-26-26)

(कोई अज्ञानी शिष्य कहता है कि-) यदि जीव शरीर नहीं है तो तीर्थंकरों और आचार्यों की स्तुति करना सभी मिथ्या हो जाएगा, इसलिए (हम मानते हैं कि) आत्मा देह ही है।

(An ignorant disciple proclaims-) If the soul does not constitute the body, then worshipping the Tirthamkaras and the Acharyas will all be deceitful and, therefore, the soul must indeed be the body.

आचार्य उत्तर देते हैं -

ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु ऍक्को।।
ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि ऍक्कट्ठो।।।
(1-27-27)

(शिष्य का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं- व्यवहार नय कहता है कि जीव और देह वस्तुतः एक हैं और निश्चय नय के अभिप्राय के अनुसार तो जीव और देह कभी एक पदार्थ नहीं हैं।

(The Acharya responds-) The empirical point of view (vyavahara naya) indeed holds that the soul and the body are the same, however, from the transcendental point of view (nischaya naya) the soul and the body are never the same (as they are made up of different substances).

व्यवहार नय से केवली की स्तुति -

इणसण्णं जीवादो देहं पॉग्गलमयं थुणित्तु मुणि।।
मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवली भयवं।।।
(1-28-28)

जीव से भिन्न इस पुद्गलमय देह की स्तुति करके मुनि ऐसा मानता है कि मैंने केवली भगवान की स्तुति की और वंदना की।

By making obeisance to the body, which comprises physical matter and is different from the soul, the ascetic presumes that he has adored and worshipped the Omniscient Lord.

निश्चयनय से केवली की स्तुति -

तं णिच्छये ण जुंजदि ण सरीरगुणा कि होंति केवलिणो।।
केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि।।।
(1-29-29)

वह स्तुति निश्चय नय में उचित नहीं है क्योंकि शरीर के (शुक्ल कृष्णादि) गुण केवली भगवान के नहीं होते। जो केवली भगवान के गुणों की स्तुति करता है, वह परमार्थ से केवली भगवान की स्तुति करता है।

From the transcendental point of view (nischaya naya), this adoration is not proper as the attribute of the body (like its colouration) do not exist in the Omniscient Lord. Therefore, one who adores the divine attributes of the Omniscient Lord truly worships Him.

देह-स्तुति गुण-स्तुति नहीं है -

णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णे वण्णणा कदा होदि।।
देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति।।।
(1-30-30)

जैसे नगर का वर्णन करने पर भी राजा का वर्णन किया हुआ नहीं होता, इसी प्रकार देह के गुणों की स्तुति करने पर केवली भगवान के गुणों की स्तुति नहीं होती।

Just as the description of a city does not entail the description of its king, in the same way, eulogizing the body of the Omniscient Lord does not entail the adoration of His divine attributes.

आत्मज्ञानी ही जितेन्द्रिय है -

जो इदिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं।।
तं खलु जिदिंदियं ते भणंति जें णिच्छिा साहू।।।
(1-31-31)

जो इन्द्रियों को जीतकर ज्ञानस्वभाव से अधिक (शुद्धज्ञानचेतना गुण से परिपूर्ण) आत्मा को जानता है (अनुभव करता है) उस पुरूष को जेा निश्चय नय में स्थित साधु हैं, वे निश्चय ही जितेन्द्रिय कहते हैं।

The ascetic who, subjugating his senses, realizes his Real Self which is of the nature of pure knowledge-consciousness, is verily called a ‘conqueror of the senses’ by the saints who know the transcendental point of view (nischaya naya).

मोहविजेता साधु -

जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं।।
तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया विंति।।।
(1-32-32)

जो (साधु) मोह को जीतकर ज्ञान स्वभाव से अधिक (शुद्धज्ञानचेतना गुण से परिपूर्ण) आत्मा को जानता है (अनुभव करता है), उस साधु को परमार्थ के जानने वाले पूर्वाचार्य मोहविजेता कहते है।

The ascetic who, subjugating his delusion, realizes his Real Self which is of the nature of pure knowledge-consciousness, is verily called a ‘conqueror of delusion’ by the saints who know the ultimate truth.

क्षीणमोह साधु -

जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हवॅज्ज साहुस्स।।
तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं।।।
(1-33-33)

जब जिसने मोह जीत लिया है ऐसे साधु का मोह क्षीण हो जाता है, तब निश्चय के जानने वाले उस साधु को निश्चय ही क्षीणमोह कहते हैं।

When the deluding karma of the ascetic who has already conquered delusion is eradicated, he attains full knowledge of the ultimate truth, and is to be known as a ‘destroyer of delusion (ksinmoha)’.

प्रत्याख्यान ज्ञान है -

सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खादी परे त्ति णादूण।।
तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं।।।
(1-34-34)

यतः सब भावों को पर हैं यह जानकर त्याग देता है। इस कारण प्रत्यायान ज्ञान ही है, ऐसा निश्चयम से (मननपूर्वक) जानना चाहिए।

Since one deliberately renounces all alien dispositions, considering these to be other than the Self, therefore, renunciation (pratyakhyana), in reality, be deemed as the knowledge of the Self.

ज्ञानी द्वारा परभावों का त्याग-

जह णाम को वि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदुं मुयदि।।

तह सव्वे परभावे णादूण विमुंचदे णाणी।।।
(1-35-35)

जैसे लोक में कोई पुरूष यह पर द्रव्य है ऐसा जानकर उसे त्याग देता है, उसी प्रकर ज्ञानी पुरूष समस्त परभावों को, ये परभाव हैं ऐसा जान कर उन्हें छोड़ देता है।

As a worldly person renounces a thing which does not belong to him, in the same way, an enlightened person renounces all alien dispositions considering these to be foreign to him.

मोह से निर्ममत्व -

णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमॅक्को।।
तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विंति।।।
(1-36-36)

जो ऐसा जानता है कि मोह मेरा कुछ भी नहीं है, एक ज्ञान-दर्शनोपयोग रूप ही मैं हूँ, इसप्रकार जानने को सिद्धांत या आत्मस्वरूप के ज्ञाता पूर्वाचार्य मोह से निर्ममत्व कहते हैं।

The one who knows that delusion does not in any way belong to him, he is only knowledge- and faith-consciousness, is called ‘free from delusion’ by the saints well-versed in scriptural knowledge or who know the ultimate truth.

धर्मद्रव्य से निर्ममत्व -

णत्थि हि मम धम्मादी बुज्झदि उवओग एव अहमॅक्को।।
तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्य वियाणया विंति।।।
(1-37-37)

जो ऐसा जानता है कि धर्म आदि द्रव्य निश्चय ही मेरे नहीं है, एक ज्ञान-दर्शनोपयोग रूप ही मैं हूं। इस प्रकार जानने को सिद्धांत या आत्मतत्व के जानने वाले पूर्वाचार्य धर्मद्रव्य से निर्ममत्व कहते हैं।

The one who knows that substances such as medium of motion (dharma) do not in any way belong to him, he is only knowledge-and faith-consciousness, is called ‘unconnected to dharma’ by the saints well versed in scriptural knowledge or who know the ultimate truth.

उपसंहार -

अहमॅक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सयारूवी।।
ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि।।।
(1-38-38)

(ज्ञानी आत्मा यह जानता है कि) मैं एक हूँ, निश्चय ही शुद्ध हूँ, दर्शन ज्ञानमय हूँ, (रूप, रस, गंध, स्पर्श के अभाव के कारण) सदा अरूपी हूँ, कोई भी अन्य परद्रव्य परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है।

The enlightened Self knows that he is unique, absolutely pure, of the nature of knowledge- and faith-consciousness, eternally non-material (due to the absence of attributes of matter like colour, taste, smell, and touch), and as such not even an atom of alien objects, whatsoever, belongs to him.

इदि पढमो जीवाधियारो समत्तो