दुदियो जीवाजीवाधियारो
The Soul and The Non-Soul
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जीव के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यतायें -

अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई।
जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूविंति।।
(2-1-39)

अवरे अज्झवासाणेसु तिव्वमंदाणुभावगं जीवं।
मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो त्ति।।
(2-2-40)

कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छंति।
तिव्वत्तणमंदत्तण गुणेहि जो सो हवदि जीवो।।
(2-3-41)

जीवो कम्मं उहयं दोण्णि वि खलु के वि जीवमिच्छंति।
अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छंति।।
(2-4-42)

एवंविहाबहुविरा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा।
ते ण परमट्ठवादी पिच्छयवादीहि णिद्दिट्ठा।
(2-5-43)

आत्मा को न जानते हुए परद्रव्य आत्मा को कहने वाले मूढ़ अज्ञानी तो रागादि अध्यवसान को और कर्म को जीव कहते हैं। अन्य कुछ लोग रागादि अध्यवसानों में तीव्र-मंद तारतम्य स्वरूप शक्ति-माहात्म्य को जीव मानते हैं; तथा अन्य कोई नोकर्म-शरीरादि को भी जीव है ऐसा मानते हैं। अन्य कुछ लोग कर्म के उदय को जीव मानते हैं। कुछ लोक जो तीव्रता-मंदता रूप गुणों से भेद को प्राप्त होता है, वह जीव है, इस प्रकार कर्मों के अनुभाग को जीव है ऐसा इष्ट करते हैं - मानते हैं। कोई जीव और कर्म दोनों मिले हुओ को ही जीव मानते हैं। और दूसरे कर्म के संयोग से जीव मानते हैं। इस प्रकार के तथा अन्य भी बहुत प्रकार के मूढ़ लोग पर को आत्मा कहते है। ऐसे एकान्तवादी परमार्थवादी नहीं है, ऐसा निश्चयवादियों ने कहा है।

Ignorant people, not knowing the true nature of the soul, maintain that the Self is but the non-self, and some uniformed people even say that the soul is identical with passions such as attachment and that it is indistinguishable from the karmic matter. Some others say that the psychic potency which determines the high or low intensity of passions, and their consequent effect on the conscious state, is the soul. Still others regard the soul as the quasi-karmic matter (nokarma). Some consider the fruition of karma as the soul and some consider the sensation resulting from the strength of the fruition – intense of mild – as the soul. Some believe that jiva and karma, taken together, constitute the soul, and some others consider the soul to be the result of the association of karma. In these and many other ways, ignorant people identify the Self with the non-self. Such absolutists are ignorant of the truth; say those who know the ultimate point of view.

अध्यवसानादि जीव नहीं है -

एदे सव्वे भावा पोग्गलदव्व-परिणामणिप्पण्णा।
केवलिजिणेहि भणिदा किह ते जीवो त्ति वुच्चंति।। (2-6-44)

ये पूर्वोक्त अध्यवसानादिक समस्त भाव पुद्गल द्रव्यकर्म के परिणाम से उत्पन्न हुए हैं, इस प्रकार केवली जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। वे जीव हैं, ऐसा किस प्रकार कहा जा सकता है।

The above mentioned affective states are all results of the manifestation of karmic matter, so says the Omniscient Lord. How can these be called the jiva or Pure Self?

आठों कर्म पुद्गलमय हैं -

अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं र्पोग्गलमयं जिणा विंति।
जस्स फलं तं वुच्चदि दुक्खं ति विपच्चमाणस्स।। (2-7-45)

आठों प्रकार के समस्त कर्म पुद्गलमय हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं। पक कर उदय में आने वाले जिस कर्म का फल प्रसिद्ध दुःख है, ऐसा कहा है।

As pronounced by the Omniscient Lord, all the eight kinds of karmas are subtle material particles, and that the fruition of these karmas results into suffering that everyone recognizes.

व्यवहार नय से राागादि भाव जीव हैं -

ववहारस्स दरीसणमुवदेसो वणिणदो जिणवरेहिं।
जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा। (2-8-46)

ये समस्त अध्यवसानादिक भाव जीव हैं ऐसा जिनेन्द्रदेवों ने जो उपदेश दिया है, वह व्यवहार नय का कथन है।

It is only from the empirical point of view (vyavahara naya) that the Omniscient Lord has declared all these affective states to be of the nature of the Self.

व्यवहार और निश्चय से जीव का कथन -

राया खु णिग्गदो त्ति य एसो बलसमुदायस्स आदेसो।
ववहारेण दु वुच्चदि तत्र्थेक्को णिग्गदो राया।।
(2-9-47)

एमेव य ववहारो अज्झवसाणादि अण्णभावाणं।
जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो।।
(2-10-48)

सेना के समूह को (निकलते देखकर) ’राजा ही निकला है’ इस प्रकार का जो कथन है, वह व्यवहार नय से किया जाता है। वास्तव में तो वहां एक ही राजा निकला है। इस प्रकार जीव से भिन्न अध्यवसानादि भाव जीव हैं, परमागम में यह व्यवहार किया गया है (व्यवहार नय से कहा गया है), किंतु निश्चय नय से उन रागादि परिणामों में जीव तो एक ही है।

On seeing the royal entourage, if one says, “The king has come out,” this statement is made from the empirical point of view (vyavahara naya). In reality, only one person in the whole entourage is the king. In the same way, scriptures declare, from the empirical point of view (vyavahara naya), that these affective states pertain to the Self, although they truly are different from the Self. From the transcendental point of view (nischaya naya), the Self is one, different from these passions (attachment etc.).

परमार्थ जीव का स्वरूप -

अरसमरूवमगंधं अव्तं चेदणागुणमसद्दं।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।। (2-11-49)

जो रसरहित है, रूपरहित है, गंधरहित है, इन्द्रियों के अगोचर है, चेतना गुण से युक्त है, शब्दरहित है, किसी चिन्ह या इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नहीं होता और जिसका आकार बताया नहीं जा सकता, उसे जीव जानो।

The pure soul should be known as without taste, colour and smell, beyond perception though the senses, characterized by consciousness, without sound, cannot be apprehended through a symbol or a sense organ, and who’s form or shape cannot be portrayed.

वर्णादि भाव जीव के परिणाम नहीं है -

जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण् वि रसो ण वि य फासो।
ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं।।
(2-12-50)

जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसा णेव विज्जदे मोहो।
णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि।।
(2-13-51)

जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा णेव फड्ढया केई।
णो अज्झप्पट्ठाणा णेव य अणुभागठाणा वा।।
(2-14-52)

जीवस्स णत्थि केई जोगट्ठाणा ण बंधठाणा वा।
णेव य उदयट्ठाणा ण ग्गणट्ठठाणया केई।।
(2-15-53)

णो ठिदिबंधट्ठाण जीवस्स ण संकिकिलेसठाणा वा।
णेव विसोहिट्ठाण णो संजमलद्धिठाणा वा।।
(2-16-54)

णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स।
जेण दु एदे सव्वे पोंग्गलदवस्स परिणामा।
(2-17-55)

जीव के वर्ण नहीं है, गंध भी नहीं है, रस भी नहीं है, स्पर्श भी नहीं है, रूप भी नहीं है, शरीरभी नहीं है, संस्थान (आकार) भी नहीं है, संहनन भी नहीं है। जीव के राग नहीं है, द्वेष भी नहीं है, मोेह भी नहीं हैं, मोह भी नहीं है, आस्त्रव भी नहीं है, कर्म भी नहीं है, उसके नोकर्म भी नहीं है। जीव के वर्ग नहीं है, वर्गणा नहीं है, कोई स्पर्धक भी नहीं है, अध्यात्मस्थान भी नहीं है और अनुभागस्थान भी नहीं है। जीव के कोई योगस्थान नहीं है, बंधस्थान भी नहीं है और उदयस्थन भी नहीं है, कोई मार्गणास्थान भी नहीं है। जीव के स्थितिबंधस्थान भी नहीं है, संक्लेशस्थान भी नहीं है, विशुद्धिस्थान भी नहीं है, संयमलब्धिस्थान भी नहीं है और जीवस्थान भी नहीं है और जीव के गुणस्थान नहीं है, क्योंिक ये सब पुद्गल के परिणमन हैं।

In the pure soul there is no colour (varna), no smell (gandh), no taste (rasa), no touch (sparsa), no form (rupa), no body (sarira), no shape (samsthana), and no skeletal structure (samhanana), The soul has no attachment (raga), no aversion (dvesa), no delusion (moha), no influx of armic matter (asrava), no karma (karma), and no quasi-karmc matter (nokarma). It has no class of potency of karmic matter (varga), no types o karmic molecules (vargana), no aggregates of karmic molecules (spardhaka), no ego-consciousness of different types (adhyatmasthana), and no karmic manifestations (anubhagasthana). There is no yoga activity (yogasthana), no bondage (bandhasthana), no fruition (udayassthana), and no variations according to the method of inquiry into its nature (maganasthana). The pure soul has no place for duration of bondage (sthitibandhasthana), no emotional excitement (samklesasthana), no self-purification (visuddhsthana), no self-restraint (samyamlabdhisthana). It has not classes of biological development (jivasthana), and no stages of spiritual development (gunasthana), as all the above mentioned attributes are manifestations of material conditions.

जीव का नयसापेक्ष स्वरूप

ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया।
गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस।।
(2-87-56)

ये वर्ण से लेकर गुणस्थानपर्यन्त भाव व्यवहार नय से जीव के होते हैं, परंतु निश्चय नय के मत में उनसे से कोई भी जीव के नहीं है।

The above mentioned attributes, from colour to stages of spiritual development, belong to the soul from the empirical point of view (vyavahara naya), but from the transcendental point of view (nischaya naya), none of these belongs to the soul.

जीव का पुद्गल के साथ सम्बन्ध -

एदेहि य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो।
ण य होंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा।।
(2-19-57)

इन वर्णादिक भावों के साथ जीव का सम्बन्ध दूध और जल के समान (संयोग-सम्बन्ध) मननपूर्वक जानना चाहिये; और वे वर्णादिक भाव जीव के नहीं हैं क्याोंकि जीव उपयोगगुण से परिपूर्ण है।

The association of the soul with these attributes, like colour etc. must be understood as the mixing of milk with water. These attributes are not part of the soul as the soul’s characteristic is consciousness.

जीव में वर्णादि का कथन व्यवहार नय से है -

पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी।
मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई।।
(2-20-58)

तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं।
जीवस्स एस वण्णे जिणेहि ववहारदो उत्तो।
(2-21-59)

गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य।
सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति।।
(2-22-60)

मार्ग में किसी को लुटता हुआ देखकर व्यवहारी जन कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है, किंतु कोई मार्ग नहीं लुटता (वस्तुतः पथिक लुटते हैं), इसी प्रकार जीव में कर्मों और नोकर्मों का वर्ण देखकर जीव का यह वर्ण है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने व्यवहार से कहा है। इसी प्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर और जो संस्थान आदि जीव के हैं, वे सब व्यवहार से निश्चयदर्शी कहते हैं।

When someone gets robbed on a robbed on a road, people, conventionally, say, “This road gets robbed,” but in actual, no road gets robbed (only the traveler gets robbed). In the same way, as an illustration, the Omniscient Lord describes, from the empirical point of view (vyavahara naya), the colour of the material entities of karma, and the quasi-karmic matter (nokarma), to be the attribute of the soul. Similarly, attributes like smell, taste, touch, form, body, and shape of the soul are predicated by the all-knowing only from the empirical point of view (vyavahara naya).

संसारी जीवों के वर्णादि का सम्बन्ध -

तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण हांति वण्णादि।
संसारपमुक्काणं णत्थि दु वण्णादओ केई।।
(2-23-61)

संसार अवस्था में संसारी जीवो के वर्णादि भाव होते हैं। संसार से मुक्त जीवों के तो कोई वर्णादि नहीं है।

So long as the souls have embodied existence in the world (samsara) attributes of colour etc., are said to be present in them. There are no attributes of colour etc. in liberated souls.

जीव और वर्णादि का तादत्म्य मानने में दोष -

जीवो चेव हि एदे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि।
जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई।।
(2-24-62)

जीव का वर्णादि से तादात्म्य सम्बन्ध मानने वालों को समझाते हुए कहते हैं- यदि तू ऐसा मानता है कि ये समस्त भाव वास्तव में जीव ही हैं तो तेरे मत में जीव और अजीव के मध्य कोई भेद नहीं रहता।

(Refuting those who assume that the soul and its colour etc. are but the same, the same, the Acharya says -) If you maintain that all these attributes really pertain to the soul itself, then, in your opinion, there would be no difference, whatsoever, between the soul and the non-soul.

पूर्वोक्त कथन का और स्पष्टीकरण -

अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी।
तम्हा संसारत्था जीवा रूकवित्तमावण्णा।।
(2-25-63)

एवं पोग्गलदव्वं जीवों तहलक्खणेण मूढमदी।
णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पोग्गलो पत्तो।।
(2-26-64)

अथवा यदि तेरे मत में संसार में स्थित जीवों के वर्णादिक (तादत्म्य रूप) होते हैं तो इस कारण संसार में स्थित जीव रूपीपने को प्राप्त हो गये। इस प्रकार हे मूढ़मते! रूपित्व लक्षण पुद्गल द्रव्य का होने से पुद्गल द्रव्य ही जीव कहलाया और (संसार दशा में ही नहीं) निर्वाण प्राप्त होने पर भी पुद्गल ही जीवत्व को प्राप्त हो गया।

Or else, if you maintain that the colour etc. of worldly beings are indistinguishable from the attributes of the souls, then these souls will be assumed to be endowed with physical form. In this way, O deluded person, a soul endowed with physical form will be made up of physical matter and then, not only in its worldly existence but also in its emancipated state, physical matter will acquire the status of a jiva.

जीवस्थान जीव नहीं है -

ऍक्कं च दोग्ण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंचइंदिया जीवा।
वादरपज्जत्तिदरा जयडीओ णामकम्मस्स।।
(2-27-65)

एदाहि य णिव्वत्ता जीवट्ठणा दु करणभूदाहिं।
पयडीहिं र्पोग्गलमइहि ताहि किह भण्णदे जीवो।।
(2-28-66)

एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तीनइंद्रिय, चारइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, वादर, पर्याप्त और इनसे इतर सूक्ष्य और अपर्याप्त जीव ये नामकर्म की प्रकृतियां हैं। इनक रणभूत प्रकृतियों से, जो पौद्गलिक हैं उनमें तो जीवनस्थान रचे गये हैं तब वे जीव किस प्रकार कहे जा सकते हैं।

Living beings with one, two three, four, and five senses, gross and fully developed, and their opposite, subtle and undeveloped, are classes based on their physique-making karma (nama karma). The classes of living beings (jivasthana) are the result of physique-making karma (nama karma) and since the causal conditions are physical in nature, how can these be identified with the nature of the soul?

देह की जीव संज्ञा व्यवहार से है -

पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा वादरा य जे जीवा।
देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता।
(2-29-67)

जो पर्याप्त तथा अपर्याप्त और जो सूक्ष्य तथा वाद जीव कहे गये है, वे देह की अपेक्षा जीव संज्ञाएं हैं। वे सब परमागम में व्यवहार नय से कही गयी हैं।

The developed and undeveloped, and subtle and gross, are classifications of living beings, termed jivas, from the standpoint of their physical constitution. And the scriptures convey this from the empirical point of view (vyavahara naya).

गुणस्थान जीव नहीं है -

मोहणकम्मस्सुदया दु वण्णिदा जे इमे गुणट्ठाणा।
ते किहहवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता।।
(2-30-68)

जो ये गुणस्थान हैं, वे मोहनीय कर्म के उदय से बतलाये गये हैं। जो नित्य उचेतन कहे गये हैं, वे जीव किस प्रकार हो सकते हैं?

The stages of spiritual development (gunasthana) are stated to be the result of deluding karmas (mohaniya karma). How can these, which are eternally non-conscious, be identified with the conscious jiva?

इति दुदियो जीवाजीवाधियारो समत्तो