जीव के कर्म-बन्ध कैसे होता है -
जीव अब तक आत्मा और आस्त्रव दोनों के ही (भिन्न-भिन्न) लक्षण और भेद को नहीं जानता है, तब तक अपनी अज्ञानी क्रोधादिक आस्त्रवों में प्रवृत्त रहता है। क्रोधादिक आस्त्रवों में वर्तते हुए उसके कर्मों का संचय होता है। वास्तव में जीव के इस प्रकार कर्मों का बन्ध सर्वज्ञदेवों ने बताया है।
So long as the soul (jiva) does not recognize the differences in the attributes of the Self and the influx of karmas, it remains ignorant, and indulges in baser emotions like anger. The Omniscients declare that while indulging in anger etc., the soul accumulates karmic matter and, in this manner, bondage takes place.
ज्ञान से बंध का निरोध -
जब यह जीव आत्मा का और आस्त्रवों का (भिन्न-भिन्न) लक्षण और भेद जान लेताहै, तबउसके कर्मबंध नहीं होता।
When the soul (jiva) is able to recognize the differences in the attributes of the Self and the influx of karmas, then fresh bondage does not take place.
भेदज्ञान से आस्त्रव-निवृत्ति
आस्त्रवों का अशुचिपना, इनका विपरीत भाव और वे दुःख के कारण हैं, यह जानकर जीव उनसे निवृति करता है।
After knowing that karmic influxes are impure, of nature contrary to the Self, and the cause of misery, the Self abstains from them.
आत्म स्वभाव में स्थिति से आस्त्रवों का क्षय-
(ज्ञानी विचार करता है कि-) मैं निश्चय ही एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममत्वरहित हूं और ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण हँू। (उक्त लक्षण वाले) शुद्धात्मस्वरूप में स्थित और सहजानन्द स्वरूप में तन्मय हुआ मैं इन सब (क्रोधादिक आस्त्रवों) को नष्ट करता हूँ।
(The well informed asserts that -) I am really one, pure, free from possessive desires, and replete with knowledge and perception. Resting on pure consciousness (with the above mentioned attributes), and self-contented, I lead all the karmic influxes (like anger) to destruction.
ज्ञानी आस्त्रवों से निवृत्त होता है -
ये क्रोधादि आस्त्रव जीव के साथ निबद्ध हैं, अधु्रव हैं, अनित्य हैं तथा अशरण हैं (रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं) और ये दुःखरूप हैं और दुःखरूप फल देने वाले हैं। यह जानकर (ज्ञानी) उन आस्त्रवों से निवृत्त होता है।
These influxes like anger are associated with the soul, destructible, evanescent, incapable of providing refulge, misery themselves, and result into misery. Knowing this, the well-informed abandons them.
ज्ञानी की पहचान -
जो आत्मा इस कर्म के परिणाम को, इसी प्रकार नोकर्म के परिणाम को नहीं करता है, अपितु जो जानता है, वह ज्ञानी है।
The Self who does not get nvolved in the adoption of the karmic matter, and, in the same way, the quasi-karmic matter (nokarma), but is are of these, is knowledgeable.
ज्ञानी परद्रव्य की पर्यायों में परिणमन नहीं करता -
ज्ञानी अनेक प्रकार के पौद्गलिक कर्मों को जानता हुआ भी निश्चय से परद्रव्य की पर्यायों में न उन स्वरूप परिणमन करता है, न उन्हें ग्रहण करता है, न उन रूप उत्पन्न होता है।
The knower, while knowing the various kinds of karmic matter, surely does not manifest himself in the modifications of alien substances, or assimilate them, or transmute in their form.
ज्ञानी पौद्गलिक कर्मों के अनन्त फल का जानता हुआ भी निश्चय से परद्रव्यों के पर्यायों में न तो परिणमन करता है, न उन्हें ग्रहण करता है, न उन रूप उत्पन्न होता है।
The knower, while knowing the various fruits of karmic matter, surely does not manifest himself in the modifications of alien substances, or assimilate them, or transmute in their form.
पुद्गल द्रव्य पररूप परिणमन नहीं करता -
पुद्गल द्रव्य भी परद्रव्य की पर्यायों में उस रूप न तो परिणमन करता है, न उन्हें ग्रहण करता है, न उन रूप उत्पन्न होता है, क्योंकि वह तो अपने ही भावों से परिणामन करता है।
The physical matter too does not manifest itself in the modes of any foreign substance, or assimilate them, or transmute in their form, because it manifests in its own state or form.
जीव और पुद्गल के परिणामों में निमित्त-नैमित्तिक भाव है -
पुद्गल जीव के (रागादि) परिणाम के निमित्त से कर्म रूप सेपरिणमित होते हैं। इसी प्रकार जीव भी (मोहनीय आदि) पुद्गलकर्म निमित्त से (रागादि भाव रूप से) परिणमन करता है। जीव कर्म के गुणों को नहीं करता है। इसी प्रकार कर्म जीव के गुणों कोनहीं करता है; परंतु एक-दूसरे के निमित्त से इन दोनों के परिणाम जानो। इस कारण से आत्मा अपने ही भावों से कर्ता है, परंतु पुद्गल कर्म के द्वारा किये गये समस्त भावों का कर्ता नहीं है।
Physical matter gets transformed into karmic matter due to soul’s passions like attachment. Similarly, jiva also, conditioned by karmic matter like delusion, gets transformed, showing tendencies of attachment etc. Jiva does not produce changes in the attributes of the karma, nor does the karma produce changes in the attributes of the jiva. It should be understood that these two get modified as a result of one conditioning the other due to mutual interaction. As such, the sould is the cretor as far as its own attributes are concerned, but not the creator of all the attributes that are due to its association with karmic matter.
निश्चयन से आत्मा अपना ही कर्ता और भोक्ता है -
(निश्चयनय का इस प्रकार मत है कि) आत्मा अपने को ही करता है और फिर आत्मा अपने को ही भोगता है, ऐसा तू जान।
From the pure, transcendental point of view (nischaya naya) – know that the Self produces only his own self, and, again, the Self enjoys his own self.
व्यवहार से आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता है -
व्यवहार नय का मत है कि आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों को करता है और उन्हीं अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों को भोगता है।
It is only from the empirical point of view (vyavahara naya) that the Self is the creator of various kinds of karmic matter, and then enjoys the fruits thereof.
व्यवहार की मान्यता में दोष -
यदि आत्मा इस पुद्गल कर्म को करता है और उसी को भोगता है तो दो क्रियाओं से अभिन्न होने का प्रसंग आता है। ऐसा मानना जिनेन्द्रदेव के मत के विपरीत है।
विशेष - क्रिया वस्तुतःपरिणाम है और परिणाम क्रिया के कर्ता परिणामी से अभिन्न होता है। जीव जिस प्रकार अपने परिणाम को करता है और उसी को भोगता है उसी प्रकार यदि वह पुद्गलकर्म को करे और उसी को भोगे तो जीव अपनी और पुद्गल की - दोनों की - क्रिया एक द्रव्य करता है, ऐसा मानना जिनेन्द्रदेव के सिद्धान्त के विरूद्ध है।
If the Self creates the karmic matter and then enjoys the consequences thereof, it will lead to the hypothesis of a single cause producing two different effects. This is in conflict with the Jaina doctrine.
Note : Action (kriya) actually leads to made (paryaya) and the mode of a substance cannot be altogether different from the substance itself. As the Self produces his own modes, and, again, enjoys results thereof, and if he also creates the karmic matter and then enjoys the consequences thereof, then the Self will be no different from the two actions – of self and of karmic matter. To hypothesize that a single substance produces kriya in two substances is against the doctrine of the Omniscient Lord.
दो किरियावादी मिथ्यादृष्टि हैं -
क्योंकि आत्मा, आत्मा के भाव को और पुद्गल के भाव (परिणाम) को - दोनों को - करता है। ऐसा मानने के कारण दो- किरियावादी (एक द्रव्य द्वारा दो द्रव्यों के परिणाम किये जाते हैं, ऐसा मानने वाले) मिथ्यादृष्टि होते हैं।
Those who believe that the jiva or the Self is the producer of modifications in both – his own self, and in the physical matter, i.e one single substance producing modifications in two substances, are of erroneous faith.
मिथ्यात्वादि भाव दो प्रकार के हैं -
पुनः मिथ्यात्व दो प्रकार का है - जीवमिथ्यात्व और अजीवमिथ्यात्व। इसी प्रकार अज्ञान, अविरति, योग, मोह, और क्रोध आदि कषाय - ये सभी भाव (जीव-अजीव के भेद से) दो-दो प्रकार के हैं।
Again, erroneous faith is of two kinds – one pertaining to the jiva or soul, and the other pertaining to ajiva or non-soul. Similarly, nescience (ajnana), non-abstinence (avirati), actions of the body, the organ of speech and the mind (yoga), delusion (moha), and passions (kasaya) like anger, are of two kinds (in respect of being jiva or ajiva) each.
अजीव और जीव मिथ्यात्वादि भाव -
जो मिथ्यात्व, योग, अविरति और अज्ञान अजीव हैं, वे पुद्गल कर्म हैं और जो अज्ञान, अविरति और मिथ्यात्व जीव हैं, वे उपयोगरूप हैं।
Erroneous faith, actions of the body, the organ of speech and the mind, non-abstinence, and nescience, which are of the nature of ajiva, are karmic matter. And nescience, non-abstinence, and erroneous faith, which are of the nature of jiva, are modes of consceiousness (upayogarupa).
मोहयुक्त जीव के अनादिकालीन परिणाम -
मोह से युक्त उपयोग के तीन अनादिकालीन परिणाम हैं। वे (तीन परिणाम) मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरतिभाव जानने चाहिए।
The consciousness, conditioned by delusion, undergoes three different kinds of modifications perpetually. These three modifications must be knows as erroneous faith, nescience, and non-abstinece.
उपयोग विकारी भाव का कर्ता है -
(मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति) इन तीनों का निमित्त मिलने परभी आत्मा का उपयोग (यद्यपि निश्चय नय से) शुद्ध, निरंजन और एकभाव है, फिर भी तीन प्रकार के परिणाम वाला वह उपयोग जिस (विकारी) भाव को करता है, वह उसी भाव का कर्ता होता है।
Althugh the consciousness of the soul is inherently pure, flawless, and of unified disposition, when conditioned by the above mentioned three impurities (erroneous faith, nescience, and non-abstinence), it becomes the causal agent of corresponding psychic imperfections.
आत्मा जिस भाव को करता है, वह उस भाव का कर्ता होता है -
आत्मा जिस भाव को करता है , वह उस भाव को कर्ता होता है। उसके कर्ता होने पर पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणमित होता है।
The soul itself is the causal agent of whatever impure modifications it undergoes. As the soul turns into a causal agent, physical matter gets transformed into karmic matter.
अज्ञान से कर्मों का कर्तृव्य है -
पर को अपने रूप करता हुआ और अपने कोपररूप करता हुआ वह अज्ञानी जीव कर्मों का कर्ता होता है।
Believing non-self to be self, and self to be non-self, the ignorant soul becomes the causal agent of various karmas.
ज्ञानी कर्मों का कर्ता नहीं होता -
जो पर को अपने रूप नहीं करता और जो अपने को भी पर रूप नहीं करता, वह ज्ञानी जीव कर्मों का कर्ता नहीं होता।
The knowing Self, who does not engender feelings of non-self as self, and self as non-self; that Self does not become the causal agent of various karmas.
अज्ञानी अपने विकारी भाव का कर्ता है -
यह (मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरित रूप) तीन प्रकार का उपयोग ’मै क्रोध हूँ’ ऐसा आत्मविकल्प करता है। वह आत्मा उस उपयोग रूप अपने भाव का कर्ता होता है।
The Self, conditioned by the three impurities (erroneous faith, nescience, and non-abstinence), indulges in such self-assertiojns as “I am anger”. That Self becomes the causal agent of impure modifications in his consciousness.
इसी बात को विशेष रूप से कहते हैं -
यह (मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरित रूप) तीन प्रकार का उपयोग ’मै धर्मादिक हूँ’ ऐसा आत्मविकल्प करता है। वह आत्मा उस उपयोग रूप अपने भाव का कर्ता होता है।
Conditioned by the three impurities (erroneous faith, nescience, and non-abstinence), the self indulges in such self-assertins as “I am dharma etc.” That Self becomes the causal agent of impure modifications in his consciousness.
कर्तृत्व का मूल अज्ञान है -
इस प्रकार मंदबुद्धि (अज्ञानी) अज्ञानभाव से परद्रव्यों को अपने रूप करता है और अपने को भी पररूप करता है।
In this way, a person of dull intellect, due to his ignorance, considers alien substances to be the self, and also the Self to be alien substances.
ज्ञान से कर्तृव्य का त्याग होता है -
इस पूर्वोक्त कारण से निश्चय के ज्ञाताओं ने वह कर्ता कहा है। इस प्रकार वस्तुतः जो जानता है, वह सब कर्तृव्य को छोड़ देता है।
Because of the aforesaid reason, the knowers of reality call such a soul as a causal agent of various karmas. Whoever realizes the truth, gives up all causal relationship with alien substances.
व्यवहारी जनों का व्यामोह -
व्यवहार से (व्यवहारी जन ऐसा मानते हैं कि) जगत में आत्मा घट-पट-रथ आदि वस्तुओं को और इन्द्रियों को, अनेक प्रकार के क्रोधादि कर्मों को और शरीरादि नोकर्मों को करता है।
The self , in this worldly life, is identified, from the empirical point of view (vyavahara naya), as the producer of articles such as a pot, a cloth or a chariot, besides the sense organs, various types of karmas like anger, and the quasi-karmic matter (nokarma).
व्याप्य-व्यापक भाव से आत्मा कर्ता नहीं है -
यदि वह (आत्मा) परद्रव्यों को करे तो नियम से वह तन्मय (परद्रव्यमय) हो जाए; क्योंकि वह तन्मय नहीं होता, इस कारण वह कर्ता नहीं है।
If the Self is the producer of these alien substances then, surely, he shall amalgamate with them; since this amalgamation does not take place, the Self cannot be their producer.
निमित्त-नैमित्तिक भाव से भी जीव कर्ता नहीं है -
जीव घट को नहीं करता, न ही पट को करता है, न ही शेष द्रव्यों को करता है। जीव के योग और उपयोग घटादि के उत्पन्न करने में निमित्त हैं। उन योग और उपयोग का कर्ता जीव है।
The Self does not produce a pot, or cloth or any other substances. Only his yoga, the three-fold activity, and upayoga, the consciousness, are instrumental causes in producing the pot etc. The self is responsible for these-yoga and upayoga.
ज्ञानी ज्ञान का ही कर्ता है -
जो ज्ञानावरणादिक पुद्गल द्रव्यों के परिणाम हैं, उन्हें जो आत्मा नहीं करता, (परंतु जो) जानता है, वह ज्ञानी है।
The Self who does not engage in doing karmas, such as knowledge-obscuring karma, which are consequences of the karmic matter, but only knows these karmas, is the knower.
ज्ञानी अज्ञान भावों का कर्ता है -
आत्मा जिस शुभ या अशुभ भाव को करता है, वह उस भाव का निश्चय ही कर्ता होता है। वह भाव उसकाकर्म होता है, वह आत्मा उस भावरूप कर्म का भोक्ता होता है।
Whatever psychic disposition, virtuous or wicked, the Self engages in, he is definitely the author of the disposition. The disposition becomes his karma and he is the enjoyer of the fruits of this psycho-physical karmic matter (bhav karma).
कोई द्रव्य परभाव को नहीं करता -
जो वस्तु जिस द्रव्य और गुण में (वर्तती है), वह अन्य द्रव्य (और गुण) में संक्रमण नहीं करती। अन्य में संक्रमण न करती हुई वह वस्तु (अन्य) द्रव्य को किस प्रकार परिणमन करा सकती है।
The matter and quality of a substance are not transmittable into the matter (and quality) of another substance. Being non-transmittable, how can a substance change the modes of another substance?
आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता नहीं है -
आत्मा पुद्गलमय कर्म में (अपने) द्रव्य और गुण का (संक्रमण) नहीं करता। उसमें द्रव्य और गुण दोनों का (संक्रमण) न करता हुआ वह (आत्मा) उस पुद्गल कर्म का कर्ता किस प्रकार हो सकता है?
The soul does not transmit its matter and quality into karmic matter. How then, without transmitting its matter and quality, can it be considered a causal agent for producing the karmic matter?
आत्मा उपचार से पुद्गल कर्म का कर्ता कहा है -
जीव के निमित्तभूत होने परज्ञानावरणादि बन्ध का परिणमन देखक ’जीव ने कर्म किया’ यह उचार मात्र से कहा जाता है।
The sould is perceived as an extrinsic agent for the modifications of karmic bondages (knowledge-obscuring karma, etc.) and it is figuratively said that the karma has been produced by the soul.
व्यवहार से कर्मों का कर्त्तत्व-
योद्धाओं के द्वारा युद्ध करने पर ’राजा ने युद्ध किया’ इस प्रकार लोक हते हैं। उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म जीव ने किया, यह व्यवहार से कहा जाता है।
A war is fought by the warriors, still it is figuratively said that the king is at war. Similarly it is said from the empirical point of view, that the jiva, or the soul, has produced the karma.
व्यवहार से आत्मा पुद्गल का कर्ता है -
आत्मा पुद्गल द्रव्य को उपजाता है, कराता है, बांधता है, परिणमन कराता है और ग्रहण करता है, यह व्यवहार नय का कथन है।
That the soul originates, produces, binds, changes the modes, and assimilates the karmic matter is said from the empirical point of view (vyavahara naya).
दृष्टान्तपूर्वक व्यवहार का कथन-
जैसे राजा (प्रजा में) दोष और गुणों का उत्पन्न करने वाला है, यह व्यवहार से कहा जाता है; उसी प्रकार जीव व्यवहार से द्रव्य और गुणों का उत्पादक कहा गया है।
As a king is metaphorically said to be the producer of vice or virtue in his subjects, similarly, the soul is said to be the producer of the substance and quality of the physical matter frm the empirical point of view.
कर्म-बन्ध के चार मूल कारण -
वास्तव में चार सामान्य प्रत्यय (मूलप्रत्यय-आस्त्रव) बन्ध के कर्ता कहे जाते हैं। (वे) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग जानने चाहियें और फिर उनका तेरह प्रकार का भेद कहा गया है। (वे भेद) मिथ्यादृष्टि से लेकर संयोग केवली के चरम समय पर्यन्त हैं।
In reality, four primary conditions of influx of karmas are said to be the causal agents bringing about karmic bondage. These must be understood to be wrong belief (mithyativa), non-abstinence (avirati), gross passions (kasaya), and actions of the body, the organ of speech and the mind (yoga). These have been further subdivided into thirteen secondary conditions. The thirteen conditions exist, to different extent, in various stages of spiritual development (gunasthana), from ‘misbeliever’ (mithyadristi) to ‘omniscience with vibration’ (sayogakevali).
प्रत्यय कर्मों के कर्ता हैं -
ये मिथ्यात्वादि प्रत्यय निश्चय से अचेतन हैं क्योंकि ये पुद्गल कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं। यदि वे प्रत्यय कर्म करते हैं तो करें, उन कर्मों का भोक्ता भी आत्मा नहीं है; क्योंकि ये गुणस्थान नामक प्रत्यय कर्म करते हैं इसलिए (निश्चय नय से) जीव कर्मों का कर्ता नहीं है और गुणस्थान नामक प्रत्यय ही कर्मों को करते हैं।
These conditions of influx of karmas resulting into bondages, like wrong belief etc., are, in reality, non-conscious (achetana) because they are brought about by the rise of the karmic matter. If these result into karmas, then the Self cannot be the enjoyer of the fruits thereof. Because the conditions called gunasthana produce karmas, therefore, from the pure point of view, the Self is not the producer of karmas, and only the conditions called gunasthana produce karmas.
जीव ओर प्रत्यय एक नहीं है -
जैसे जीव के ज्ञानदर्शनोपयोग अभिन्न हैं, उसी प्रकार यदि क्रोध भी जीव से अनन्य हो तो इस प्रकार जीव और अजीव का अनन्यत्व (एकत्व) प्राप्त हो गया; और ऐसा होने पर इस लोक में जो जीव है, वही नियम सेउसी प्रकार अजीव होगा। प्रत्यय, कर्म और नोकर्म के एकत्व में भी यही दोष आता, अथवा (इस दोष के भ्य से ऐसा माना कि) क्रोध अन्य है और उपयोगस्वरूप आत्मा अन्य है तो जैसे क्रोध अन्य है, उसी प्रकार प्रत्यय, कर्म और नोकर्म भी अन्य है।
Knowledge- and perception-consciousness is inseparable from the Self; however, if we consider anger too as inseparable from the Self, then soul and non-soul will get amalgamated into one entity. This hypothesis will entail that all souls inthis world will surely become non-soul too. Same misleading notion prevails if we consider karmic conditions, karmic matter and quasi-karmic matter to be inseparable from the Self. Therefore, to dispel this misleading notion, as we regard anger to be distinct from the conscious Self, similarly, regard karmic conditions, karmic matter, and quasi-karmic matter also to be distinct from the conscious Self.
सांख्यमत का निराकरण -
यह पुद्गल द्रव्य जीव में स्वयं नहीं बंधा है और कर्मभाव से स्वयं परिणमन नहीं करता है - यदि ऐसा मानो, तब तो वह अपरिणामी हो जाएगा। अथवा कार्मण वर्गणाएं द्रव्यकर्मरूप से परिणमन नहीं करतीं - ऐसा मानो तो संसार के अभाव का प्रसंग आ जाएगा अथवा सांख्यमत काप्रसंग आ जाएगा।
जीव पुद्गल द्रव्यों को कर्मभाव से परिणमन कराता है - यदि ऐसा मानो तो जीव उन्हें किसी प्रकार परिणमन करा सकता है, जबकि वे पुद्गल द्रव्य स्वयं परिणमन नहीं करते; अथवा यह मानो कि पुद्गल द्रव्य स्वयं ही कर्मभाव से परिणमन करता है तो जीव कर्मरूप पुद्गल को कर्मरूप पिरणमन कराता है - यह कहना मिथ्या सिद्ध होता है। इसलिए जैसे नियम से कर्मरूप (कर्ता के कार्यरूप से) परिणत पुद्गल द्रव्य कर्म ही है, इसी प्रकार ज्ञानावराादि रूप परिणमित पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादि ही है; ऐसा जानो।
If you believe that physical matter does not get bound to the Self on its own accord, nor does it evolve into modes of karma on its own accord, then, it becomes immutable. Or else, if you believe that the karmic molecules (vargana) do not get transformed into various karmic modes, then this belief will lead to non-existence of the worldly state of the soul (samsara), identical with the Samkhya system.
If you maintain that the Self transforms the karmie molecules into various karmic modes, then how can the Self cause transformation in a substance that, by nature, is immutable? Or else, if you believe that the physical matter, on its own accord, transforms into various modes of karmas, then it will be false to say that jiva causes transformation of karmic matter into karmic modes. Therefore, in reality, just as the karmic molecules which get transformed into various karmic modes are material substance, in the same way, karmic modifications like knowledge-obscuring karmas etc., are mutated states of the karmic substance.
सांख्यमनातुनयायी शिष्य को संबोधन -
(संख्यमतानुयायी शिष्य के प्रति आचार्य कहते हैं कि -) यदि तेरी ऐसी मान्यता है कि यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बंधा हे और क्रोधादि भावों में स्वयं परिणमन नहीं करता है, तब तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है (और) क्रोधादि भावरूप से जीव के स्वयं परिणमन न करने पर संसार के अभाव का प्रसंग आ जाएगा अथवा सांख्यमत का प्रसंग आ जाएगा।
(यदि यह कहो कि) पुद्गल कर्मरूप क्रोध जीव को क्रोधभावरूप परिणमाता है तो स्वयं परिणमन न करने वाले जीव को क्रोधरूप िकस प्रकार परिणमन करा सकता है?
अथवा आत्मा स्वयं क्रोधभाव से परिणमन करता है, यदि तेरी ऐसी मान्यता है तो क्रोध जीव को क्रोधभाव रूप परिणमन कराता है यह कहना मिथ्या ठहरेगा।
(अतः सिद्ध हुआ कि) क्रोध में उपयुक्त (जिसका उपयोग क्रोधाकार परिणमित हुआ है ऐसा) आत्मा क्रोध ही है; मान में उपयुक्त आत्मा मान ही है; माया में उपर्युक्त आत्मा माया है और लोभ में उपयुक्त आत्मा लोभ है।
(Addressing the disciple of the Samkhya philosophy, the Acharya says - ) If you believe that the soul by itself is not bound by karmas, and that it does not have emotional modifications like anger, then it must, by nature, remain non-manifesting. And if the soul does not have emotional modifications like anger, then empirical life (samsara) will cease to be, akin to the Samkhya faith.
If you maintain that karmic matter like anger, by its own, causes emotional modifications (like anger etc.) in the soul, then how is it possible for the karmic matter, like anger, to cause modification in the soul which, by nature, is immutable?
If you believe that the soul undergoes emotional modification of anger on its own accord, then it will be false to say that the karmic matter of anger causes emotional modification (of anger) in the soul.
(Therefore, it follows that-) The sould which manifests its consciousness in the psychic state of anger is anger itself; the soul which manifests its consciousness in the psychic state of pride is pride itself; the soul which manifests its consciousness in the psycic state of deceitfulness is deceitfulness itself; and the soul which manifests its consciousness in the psychic state of greed is greed itself.
आत्मा अपने भवों का कर्ता है -
आत्मा जिस भाव को करता है वह उस भावकर्म का कर्ता होता है। ज्ञान के तो ज्ञानमय भव होता है और अज्ञानी के अज्ञानमय भाव होता है।
Whatever psychic mode the soul manifests itself into, it is the causal agent of that mode. The knowledgeable soul manifests itself into a disposition that is abundant with knowledge, and the ignorant soul manifests itself into a disposition of unawareness.
ज्ञान और अज्ञानमय भाव का कार्य -
अज्ञानी के अज्ञानमय भाव होता है, इस कारण वह कर्मों को करता है, और ज्ञानी के तो ज्ञानमय भाव होता है, इसी कारण वह कर्मों को नहीं करता है।
The ignorant self manifests himself in wrong knowledge and due to this wrong knowledge he does the karmas. But the Self, aware of his true nature, manifests himself in right knowledge and, therefore, due to this right knowledge he does not do the karmas.
ज्ञानी के सब भाव ज्ञानमय और अज्ञानी के अज्ञानमय होते हैं -
क्योंकि ज्ञानमय भाव से ज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होता है, इस कारण ज्ञानी के सब भाव वास्तव में ज्ञानमय होते हैं; क्योंकि अज्ञानमय ज्ञाव से अज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होता है, इस कारण अज्ञानी के सब भाव अज्ञानमय होते हैं।
Since manifestation of right knowledge can only lead to a disposition based on right knowledge, it follows that all dispositions of the knowledgeable Self are truly of the nature of right knowledge. Conversely, all dispositions of the ignorant Self are of the nature of wrong knowledge.
दृष्टान्त द्वारा पूर्वोक्त का स्पष्टीकरण
जैसे स्वर्णमय भाव से कुण्डल आदिभाव उत्पन्न होते हैं तथा लोहमय भाव से कड़ा आदि भाव उत्पन्न होते हैं; इसी प्रकार अज्ञानी के (अज्ञानमय भाव से) अनेक प्रकार के अज्ञानमय भाव उत्पन्न होते हैं तथा ज्ञानी के (ज्ञानमय भाव) से समस्त ज्ञानमय भाव होते हैं।
Just as when we think of gold, earrings etc. come to mind, and when we think of iron, shackle etc. come to mind, in the same way, the ignorant Self engenders thought-activities based on wrong knowledge, and the knowledgeable Self engenders thought-activities based on right knowledge.
कर्मबन्ध के चार कारण -
जीवों के जो विपरीत ज्ञान (वस्तु-स्वरूप का अयथार्थ ज्ञान) है, वह तो अज्ञान का उदय है; तथा जीव के जो तत्व का अश्रद्धान हे, वह मिथ्यात्व काउदय है; और जीवेम के जो अत्यागभाव (विषयों से विरत न होना) है, वह असंयम का उदय है; और जीवों के जो मलिन (क्रोधादि कषाय रूप उपयोग) है, वह कषाय का उदय है; तथा जीवों के जो शुभरूप या अशुभरूप, प्रवृत्तिरूप अथवा निवृत्तिरूप मन, वचन, काय के व्यापार में उत्साह है, उसे योग का उदय जानो।
Know that errorneous knowledge (of the nature of substances) in the Self is the rise of nescience (ajnana); flawed conviction (in soul and non-soul substances) is the rise of wrong belief (mithyatva), tendency not to abstain from sensual pleasures is the rise of non-restraint (asamyama), indulgence in perverted passions (like anger etc.) is the rise of passions (kasaya), and three fold activities (of the body, the organ of speech and the mind), whether meritorious or wicked, involved or uninvolved is the rise of yoga.
द्रव्यकर्म और भावकर्म का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध -
इन मिथ्यात्व आदि उदयों के हेतुभूत होने पर कार्मण वर्गणाओं के रूप में आया हुआ जो पुद्गल द्रव्य है, वह ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्म के रूप आठ प्रकार परिणमन करता है। वह कार्मणवर्गणगत पुद्गल द्रव्य जब वास्तव में जीव के साथ बंधता है, उस काल में जीव अपने अज्ञानमय परिणामरूप भावों का कारण होता है।
As a consequence of the rise of wrong belief (mithyatva) etc., the material substance that comes in the form of primary karmic matter gets modified into eight kinds of karmic matter like the knowledge-obscuring karma. The time when this primary karmic matter gets attached to the soul, during that period, the Self is the causal agent of his own ignorant dispositions.
जीव का परिणाम पुद्गल द्रव्य से भिन्न है -
यदि जीव के पुद्गल कर्म के साथ ही रागादि परिणाम होते हैं, ऐसा मानें तेा जीव और कर्म दोनों ही रागादि भाव को प्राप्त हो जाएं; किंतु रागादि अज्ञान परिणाम एक जीव के ही होता है, इसलिए कर्म के उदयरूप निमित्तकारण से पृथक् ही जीव का परिणाम है।
If we believe that both, the Self as well as the physical matter, produce modifications such as attachment, then both will be said to assume psychic modes like attachment. But only the Self assumes psychic modes like attachment and nescience, and, therefore, the Self is distinct from the connecting agent for the rise of karma, the physical matter.
पुद्गल द्रव्य का परिणाम जीव से भिन्न है -
यदि जीव के साथ ही पुद्गल द्रव्य का कर्मरूप परिणाम होता है, इस प्रकार माना जाए तो पुद्गल और जीव दोनों ही कर्मत्व को प्राप्त हो जाएंगे; किंतु कर्मभाव से परिणाम एक पुद्गल द्रव्य का ही होता है; इसलिए जीव के रागादि अज्ञान परिणामस्वरूप निमित्त कारण से पृथक ही पुद्गल द्रव्य कर्म का परिणाम है।
If we believe that both, the Self as well as the physical matter, transform into modes of various karmas, then both will be said to assume the state us of karma. But only the physical matter assumes modification as a result of karmic disposition and, therefore, this modification in physical matter is distinct from the psychic modes, like attachment and nescience, of the connecting agent, the Self.
जीव के साथ कर्मों का सम्बन्ध -
जीव में कर्म (उसे प्रदेशों के साथ) बंधा हुआ है और उसे स्पर्श करता है, यह व्यवहार नय का कथन है और जीव में कर्म अबद्ध और अस्पृष्ट है, यह निश्चयनय का कथन है।
The statement that the space-points of karmic molecules pervade the space-points of the soul, or that they touch the soul, has been made from the empirical point of view (vyavahara naya). From the transcendental point of view (nischaya naya), the soul neither gets bonded with nor touched by the karmic matter.
समयसार नयपक्षों से रहित है -
जीव के कर्म बंधा है अथवा नहीं बंधा है, यह तो नयपक्ष जानो (इस प्रकार का कोई भी विकल्प नयपक्ष है, ऐसा जानो) और जो नयपक्ष से अतिक्रान्त (किसी भी नयपक्ष्ज्ञ के विकल्प से रहित) कहलाता है, वह समय-सार (निर्विकल्प शुद्ध आत्मतत्व) है।
Thus, assertions that the soul gets bonded with the karmic matter, or that it does not get bonded with the karmic matter, are made from different points of view. But that which is independent of various points of view is the ultimate truth, the samayasara, pure and absolute consciousness.
पक्षातिक्रान्त का स्वरूप
(श्रुतज्ञानी आत्मा) दोनों ही नयों के कथन को केवलमात्र जानता है। वह (सहज परमानन्दैक स्वभाव) आत्मा का अनुभ्व करता हुआ और समस्त नयपक्ष के विकल्पों से रहित हुआ किसी भी नयपक्ष को किंचिन्मात्र भी ग्रहण नहीं करता (आत्मानुभाव के समय नयों के विकल्प दूर हो जाते हैं)।
The Self who knows the scriptures, only apprehends the states depicted by both the viewpoints. Experiencing the innate supreme bliss of the Self, and abjuring all viewpoints, he does not absorb even an iota of any viewpoint (Self-realization is free from all expressions of viewpoints).
समयसार ज्ञानदर्शन स्वरूप है -
जो समस्त नयपक्ष से रहित कहा है, वह समयसार है। यह समयसार ही केवल सम्यग्दर्शन इस नाम को पाता है। (समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।)
That which is free from all viewpoints is the samayasara. Only this samayasara is characterized by right faith and right knowledge (samayasara itself is right faith and right knowledge).
इति तिदियो कत्तिकम्माधियारो समत्तो