दहमो सव्वविसुद्धणाणाधियारो
The All-Pure Knowledge

जीव अपने परिणामों का कर्ता है -

दवियं जं उप्पज्जदि गुणेहि तं तेहि जाणसु अणण्णं।
जह कडयादीहिं दु य पज्जएहि कणयमणण्णमिह।।
(10-1-308)

जीवस्साजीवस य जे परिणामा दु देसिदा सुत्ते।
तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाणाहि।।
(10-2-309)

ण कुदोचि वि उप्पण्णो जम्हा कज्जं ण तेण सो आदा।
उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण सो होदि।।
(10-3-310)

कम्मं पडुच्च कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि।
उप्पज्जंते णियमा सिद्धी दु ण दिस्सदे अण्णा।।
(10-4-311)

जो द्रव्य जिन गुणों से उत्पन्न होता है, उसे उन गुणों से अनन्य जानो। जैसे लोक में कटक आदि पर्यायों से स्वर्ण भिन्न नहीं है। जीव और अजीव के जो परिणाम सूत्र में कहे हैं, उन परिणामों से उस जीव और अजीव को अनन्य जानो; क्योंकि वह आत्मा किसी से उत्पन्न नहीं हुआ, इसलिए वह किसी का कार्य नहीं है; किसी अन्य को उत्पन्न नहीं करता, इस कारण वह किसी का कारण भी नहीं है। नियम से कर्म का आश्रय करके कर्ता होता है तथा कर्ता का आश्रय करके धर्म उत्पन्न होते हैं। कर्ता-कर्म की अन्य कोई सिद्धि नहीं देखी जाती।
The qualities that produce a substance are no different from the substance itself; like gold in the form of a bracelet is no different from gold. Whatever modifications of the soul and the non-soul have been enumerated in the scripture, know that the soul and the non-soul are no different from these modifications. Since the soul is not produced by anything whatever, therefore, it is not an effect; it does not produce anything whatever, and, therefore, it is not a cause either. Only with reference to its conditioning by karmas the soul is said to be a doer, and, as a result, karmas are produced. Only this relationship of cause-effect, as a doer of karmas, gets established.

आत्मा और कर्म-प्रकृति का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध -

चेदा दु पयडीयट्ठं उप्पज्जदि विणस्सदि।
पयडी वि चेदयट्ठं उप्पज्जदि विणस्सदि।।
(10-5-312)

एवं बेधां य दोण्हं पि अण्णोण्णपच्चया हवे।
अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे।।
(10-6-313)

यह आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है तथा वे कर्म-प्रकृतियाॅं भी आत्मा के निमित्त से उत्पन्न होती हैं और विनाश को प्राप्त होती हैं। इस प्रकार एक दूसरे से निमित्त से आत्मा और कर्म-प्रकृतियां - दोनों का बन्ध होता है। उस बन्ध से संसार होता है।
The (psychic states) soul re produced and destroyed by the operation of various species of karmas. Also, various species of karmas are produced and destroyed by the (psychic states of) soul. In this way, the soul and various species of karmas get bonded to each other. This bond is the cause of worldly cycle of birth and deaths.

ज्ञाता, दृष्टा, मुनि कैसे होता है?

जा एस पयडीयट्ठं चेदगो ण विमुंचदि।
अयाणगो हवे तावं मिच्छादिट्ठी असंजदो।।
(10-7-314)

जदा विमुंचदे चेदा कम्मफलमणंतयं।
तदा विमुत्तो हवदि जाणगो पस्सगो मुणी।। (10-8-315)

जब तक यह आत्मा कर्मप्रकृति के निमित्ति से होने वाले उत्पत्ति और विनाश को नहीं छोड़ता, तब तक वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंयत (रहता) है। जब आत्मा अनन्त कर्मफल को छोड़ देता है, त बवह बन्घ से मुक्त हुआ ज्ञाता दृष्टा और संयत (हो जाता) है।
So long as the self does not renounce this cycle of origination and destruction due to his association with various species of karmas, till then he remains ignorant, wrong believer, and unrestrained. When the Self renounces the infinite fruits of karmas, he becomes free from karmas – knowledgeable, right believer, and restrained

ज्ञानी कर्म-फल को जानता है -

अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि।
णााी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि।।
(10-9-316)

अज्ञानी प्रकृति के स्वभाव में स्थित हुआ (हर्ष, विषाद से तन्मय हुआ) कर्म के फल को भोगता है और ज्ञानी उदय में आये हुए कर्म के फल को जानता है, भोगता नहीं है।
The ignorant, engrossed in the nature of various species of karmas, enjoys the fruits of karmas (in the form of pleasure and pain), and the knowledge is aware of the fruits of karmas but does not enjoy them.

अभव्य अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता -

ण मुयदि पयडिमभव्वो सुट्ठु वि अज्झाइदूण सत्थाणि।
गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होंति।।
(10-10-317)

अभव्य जीव शास्त्रों को भलीभांति पढ़कर भी प्रकृति स्वभाव को नहीं छोड़ता। जैसे सर्प गुड़मिश्रित दूध को पीते हुए विषरहित नहीं होते।
The one incapable of attaining liberation, even though well-versed in scriptures, does not give up his attachment for varius species of karmas, like a snake does not give up its poisonous nature even after drinking sweetened (jiggery-mixed) milk.

ज्ञानी कर्म-फल को नहीं भोगता -

णिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणादि।
महुरं कडुयं बहुविहमवेदगो तेण सो होदि।।
(10-11-318)

वैराग्य को प्राप्त ज्ञानी मधुर, कटुक अनेक प्रकार के कर्म-फल को जानता हे, इसलिए वह कर्म-फल का भोक्ता नहीं हैं।
The knowledgeable, fixed in non-attachment, knows the sweet-bitter nature of the fruition of karmas; he, therefore, remains a non-enjoyer.

ज्ञानी पुण्य, पाप को जानता है -

ण वि कुव्वदि ण वि वेददि णाणी कम्माइ बहुप्पयाराइं।
जाणदि पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च।।
(10-12-319)

ज्ञानी बहुत प्रकार के कर्मों को न तो करता है, न भोगता ही है; किंतु वह पुण्य और पापरूप कर्म-बन्ध को और कर्म-फल को जानता है।
The knowledgeable does neither produce nor enjoy the fruits of various kinds of karmas, but he knows the karmic bondages involving merit or demerit, and the results of their fruition.

ज्ञानी कर्ता भोक्ता नहीं है -

दिट्ठी सयं पि णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव।
जाणदि य सबंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव।।
(10-13-320)

(जैसे) नेत्र (दृश्य से भिन्न होने से वह दृश्य को न करता है, न अनुभव करता है) उसी प्रकार ज्ञान (कर्म से भिन्न होने के कारण) स्वयं कर्मों का कर्ता नहीं है और उनका भोक्ता भी नहीं है। (वह तो) बन्ध, मोक्ष, कर्म के उदय और निर्जरा को जानता है।
विशेष - अब इससे आगे ग्रन्थ के अंत तक चूलिका का व्याख्यान करते हैं। (विशेष व्याख्यान, उक्त, अनुक्त व्याख्या अथवा उक्तानुक्त अर्थ का संक्षिप्त व्याख्यान (सार) चूलिका कहलाती है।)
Just like an eye, being different from the scene it is viewing, neither performs the scene nor enjoys it, similarly, knowledge, being different from the karmas, neither performs the karmas nor enjoys them. It only knows bondage, liberation, rise of karmas and their shedding.
Note: New onwards, till the end of this scripture, is contained the chilika. (A synopsis of explicit or inexplicit explanations and meanings of the subject matter is termed a chulika.)

कर्तृव्य मानने वालो को मोक्ष नहीं -

लोगस्स कुणदि विण्हू सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते।
समणाणं पि य अप्पा जदि कुव्वदि छव्विहे काये।।
(10-14-321)

लोगसमणाणमेवं सिद्धंतं पडि ण दिस्सदि विसेसो।
लोगस्स कुणदि विण्हू समणाणं अप्पओ कुणदि।।
(10-15-322)

एवं ण को वि मोक्खो दिस्सदि लोगसमणाणं दोण्हं पि।
णिच्चं कुव्वंताणं सदेवमणुयासुरे लोगे।।
(10-16-323)

लोके के मत में सुर, नारक, तिर्यंच और मनुष्य प्राणियों को विष्णु करता है और यदि श्रमणों के मतानुसार भी आत्मा छह काय के जीवों को (जीवों के कार्यों को) करता है तो इस प्रकार लोक ओर भ्रमणों में सिद्धांतों की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं दीखता। लोक के मत में विष्णु करता है और श्रमणों के मत में आत्मा करता है। इस प्रकार देव, मनुष्य और असुर लोकों को सदा करते हुए (कर्ताभाव से प्रवत्र्तमान) लोक और श्रमण दोनों का भी कोई मोक्ष दिखाई नहीं देता।
According to ordinary people, Visnu is the creator of celestial-infernal-, subhuman-, and human-beings. If the monks also believe that soul is the creator of six kinds of organic bodies (earth, water, fire, air, plants, and mobile beings), then there is no difference in the viewpoints of ordinary people and monks. In the opinion of ordinary people, Visnu is the creator, and in the opinion of monks, soul is the creator. Thus, there seems to be no liberation for any of the two – ordinary people and monks – as they are ever engaged in the creation (karmic dispositions) of worlds- celestial, human, or infernal.

ज्ञानी की मान्यता -

ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भणंति विदिदत्था।
जाणंति णिच्छयेणदु ण य मह परमाणुमेत्तमवि।।
(10-17-324)

(अज्ञानी जन) व्यवहार नय से ’परद्रव्य मेरा है’ ऐसा कहते हैं और पदार्थ के स्वरूप को जानने वाले ज्ञानी जन तो जानते हैं कि निश्चयनय से इस संसार में परमाणुमात्र कुछ भी मेरा नहीं है।
From the empirical point of view, (the ignorant) people call the non-self substance as their own, but knowledgeable people, who know the real nature of substances, say that, in reality, even an atom of alien substance is not theirs.

परद्रव्य को अपना मानने वाला ज्ञानी मिथ्यादृष्टि है -

जह को वि णरो जंपदि अम्हाणं गामविसयणयरट्ठं।
ण य होंति ताणि तस्स दु भणदि य मोहेण सो अप्पा।
(10-18-325)

एमेव मिच्छादिट्ठी णाणी णिस्संसयं हवदि एसो।
जो परदव्वं मम इदि जाणंतो अप्पयं कुणदि।।
(10-19-326)

तम्हा ण मे त्ति णच्चा दोण्हं एदाण कत्तिववसाओ।
परदव्वे जाणंतो जार्णेज्जा दिट्रिहिदाणं।।
(10-2-327)

जैसे कोई पुरूष कहता है कि यह हमारा ग्राम, जनपद, नगर और राष्ट्र है किंतु वस्तुतः वे उसके नहीं हैं, तथापि वह आत्मा मोह से ऐसा कहता है। इसी प्रकार जो ज्ञानी ’परद्रव्य मेरा है यह जानता हुआ परद्रव्य को निजरूप कर लेता है, वह ज्ञानी निःसन्देह मिथ्यादृष्टि है; इसलिए ’ये परद्रव्य मेरे नहीं हैं’ यह जानकर लोक और श्रमण इन दोनों के परद्रव्य में कर्तृव्य के व्यवसाय को जानते हुए समझो कि यह व्यवसाय मिथ्यादृष्टियों का है।
A person may say that this village, town, city, or nation, is his, but, in reality, these do not belong to him; he utters such words only due to his delusion. In the same way, a person, who considers an alien substance to be his own, and then identifies himself with it, is, without doubt, a wrong believer. Therefore, believe that these alien substances do not belong to you, and that the involvement of the Self in creation of non-self substances, as asserted by ordinary people and monks, is the view of the wrong believers.

भाव कर्म का कर्ता जीव है -

मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं।
तम्हा अचेदणा दे पयडी णणु कारगा पत्ता।।
(10-21-328)

अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वसस कुणदि मिच्छत्तं।
तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो।
(10-22-329)

अह जीवो पयडी तह पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं।
तम्हा दोहि कदं तं दोण्हि वि भुंजंति तस्स फलं।।
(10-23-330)

अह ण पयडी ण जीवो पोग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं।
तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं ण हु मिच्छा।।
(10-24-331)

यदि (मोहनीय कर्म की) मिथ्यात्व प्रकृति आत्मा को मिथ्यादृष्टि करती है, इस मान्यता से तेरे मतानुसार अचेतन प्रकृति निश्चय ही मिथ्यात्व भव की कर्ता हो गई; अथवा यह जीव पुद्गल द्रव्य के मिथ्यात्व को करता है, ऐसा माना जाए तो पुद्गल द्रव्य मिथ्यादृष्टि सिद्ध होगा, जीव नहीं; अथवा जीव तथा प्रकृति - ये दोनों पुद्गल द्रव्य को मिथ्यात्वरूप करते हैं, ऐसा मानने से दोनों के द्वारा किये गये मिथ्यात्व के फल को वे दोनों ही भोगेंगे; अथवा न तो प्रकृति और न जीव पुद्गल द्रव्य को मिथ्यात्वरूप करता है, ऐसा मानने से पुद्गल द्रव्य को (मिथ्यात्व भाव का प्रसंग आ जाएगा); क्या वह वास्तव में मिथ्या नहीं है?
If you believe that karmic matter (of the nature of deluding karmas) makes the Self a wrong believer, then your belief amounts to attributing the non-conscious karmic matter the ability to create delusion in the Self. Or if you believer that the Self creates delusion in the physical substance, then your belief amounts to attributing wrong belief to the physical substance and not to the Self. If you believe that both, the Self and the nature of the karmic matter, create delusion in the physical substance, then they both must enjoy the fruits of their action. Further, your contention that neither the Self not the nature of the karmic matter creates delusion in the physical substance will amount to attributing wrong belief to physical substance; is it not really an erroneous belief?

कर्म ही कर्ता है, जीव नहीं, यह मिथ्या है -

कम्मेहि दु अण्णाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं।
कम्मेहि सुवाविज्जदि जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं।।
(10-25-332)

कम्मेहि सुहाविज्जदि दुक्खाविज्जदि तहे कम्मेहिं।
कम्मेहि य मिच्छत्तं णिज्जदि य असंजमं चेव।।
(10-26-333)

कम्मेहि भमाडिज्जदि उड्ढमहं चावि तिरियलोयं च।
कम्मेहि चेव किच्ज्जदि सुहासुहं जेत्तियं किंचि।।
(10-27-334)

जम्हा कम्मं कुव्वदि कम्मं दे दि हरदि त्ति जं किंचि।
तम्हा सव्वे जीवा अकारगा होंति आवण्णा।
(10-28-335)

(पूर्व पक्ष-) ’कर्मों के द्वारा जीव अज्ञानी किया जाता है, उसी प्रकार कर्मों के द्वारा ज्ञानी होता है। कर्मों के द्वारा जीव सुलाया जाता है, उसी प्रकार कर्मों के द्वारा जगाया जाता है। कर्मों के द्वारा जीव सुखी होता है, उसी प्रकार कार्मों के द्वारा दुखी होता है। कर्मों के द्वारा जीव मिथ्यात्व और असंयम को प्राप्त होता है; ओर कार्मों के द्वारा जीव ऊध्र्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक के भ्रमण करता है। कर्मों के द्वारा ही जो कुछ जितना शुभ और अशुभ है वह होता है; क्योंकि कर्म करता है, कर्म देता है, इस प्रकार जो कुछ है, उसे कर्म ही हरता है; इसलिए सभी जीव अकर्ता सिद्ध होते हैं।’
(The aforementioned belief amounts to -) ‘The Self is made ignorant by the karmas and, likewise, he is made knowledgeable by the karmas. Karmas send the Self to sleep and, likewise, he is awakened by the karmas. Karmas make the Self happy and, likewise, he is made miserable by the karmas. It is by the karmas that the Self is brought to wrong belief and non-discipline, and is made to wander in the upper, middle, and lower worlds. All virtuous or wicked happenings are the handiwork of the karmas. Because the karma does, karma gives, and it is the karma that takes away; therefore, all souls are proved to be without any action.’

आत्मा को अकर्ता मानने का दुष्परिणाम-

पुरिसित्थयाहिलासी दत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि।
एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी।।
(10-29-336)

तम्हा ण को वि जीवो अबंभयारी दु तुम्हमुवदेसे।
जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसदि जं भणिदं।।
(10-30-337)

जम्हा घादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा पयडी।
एदेणत्थेण दु किर भण्णदि परघादणामे त्ति।।
(10-31-338)

तम्हा ण को वि जीवोवघादगो अत्थि तुम्ह उवदेसे।
जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं घादेदि जं भणिदं।।
(10-32-339)

(पूर्वेक्त, मत वाले यह भी मानते हैं कि -) ’पुरूष वेदकर्म स्त्री की अभिलाषा करता है, और स्त्री वेदकर्म पुरूष की अभिलाषा करता है, आचार्य-परम्परा से आई ऐसी श्रुति है; इसलिए तुम्हारे मत में कोई भी जीव अब्रह्मचारी नहीं है।
क्योंकि जो दूसरे को मारते है और दूसरे के द्वारा मारा जाता है, वह भी कर्म है। इसी अर्थ में परघात नामकर्म कहा जाता है; क्योंकि तुम्हारे मत में कोई जीव उपघात करने वाला नहीं है, क्योंकि कर्म ही कर्म को मारता है, यह कहा है।’
(It also amounts to-) “The karmic matter of the nature of male sex-passion creates a longing for woman and the karmic matter of the nature of female sax-passion creates a longing for man; this has come about from the ancient teachings of the Acharyas, and, as per this doctrine, there is no soul which is unchaste.
Then, killing others and getting killed by other will also be attributed to the nature of karma. The name karma of injury by others (parghata) implies this meaning, and, therefore, as per your doctrine, no soul can cause injury as it is only the material karma which kills the material karma.’

आत्मा को अकर्ता मानने वाले श्रमण नहीं हैं -

एवं संखुवदेसं जे दु परूविंति एरिसं समणा।
तेसिं पयडी कुव्वदि अप्प य अकारगा सव्वे।।
(10-33-340)

(आचार्यदेव कहते हैं कि-) इस प्रकार सांख्यमत का ऐसा उपदेश जो श्रमण (श्रमणाभास) करते हैं, उन के मत में प्रकृति ही करती है और सब आत्मा अकारक है (ऐसा सिद्ध होता है)।
(Says the Acharya -) If any monks preach such doctrine of the Samkhya system, then, in their view, the material karmas do everything, and, hence, it follows that all souls are inactive.

अपेक्षा-भेद से आत्मा कर्ता और अकर्ता है -

अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि।
एसो मिच्छसहावो तुम्हं एवं भणंतस्स।।
(10-34-341)

अप्पा णिच्चासंखेज्जपदेसो देसिदो दु समयम्हि।
ण वि सो सक्कद तत्तो हीणो अहियो व कादुं जे।।
(10-35-342)

जीवस्स जीवरूवं वित्थरदो जाण लोगमित्तं हि।
तत्तो सो किं हीणो अहियो य कदं भणसि दव्वं।।
(10-36-3343)

अह जाणगो दु भावो णाणसहावेण अत्थि दे दि मदं।
तम्हा ण वि अप्पा अप्पयं तु समयप्पणो कुणदि।।
(10-37-344)

अथवा (कर्तृव्य का पक्ष सिद्ध करने के लिए) ऐसा मानो कि मेरा आत्मा अपने द्रव्यरूप आत्मा को करता है। ऐसा कहने वाले तेरा यह मिथ्यात्व भाव है, क्योंकि परमागन में आत्मा को नित्य और असंख्यात प्रदेशी कहा गया है। आत्मा उससे हीन या अधिक नहीं किया जा सकता। विस्तार की अपेक्षा जीव काजीवरूप निश्चय से लोकमात्र जानो। आत्मा उससे क्या हीन अथवा अधिक होता है जो तू कहता है कि आत्मा ने द्रव्यरूप आत्मा को किया; अथवा अगर तेरा ऐसा मत है कि ज्ञायक भाव तो ज्ञानस्वभाव से स्थित है तो इससे भी आत्मा स्वयं अपने आत्मा को नहीं करता (यह सिद्ध होता है)।
Or (in order to substantiate your theory that the karmas do everthing - ) if you hold, “My sould transforms itself by itself,” then this opinion of yours is perverse thinking. Sourl has been described in sacred scriptures as eternal and having innumerable points of space. The soul, on its own accord, is incapable of increasing or decreasing its spatial points. Know that, from the point of view of extension, the soul is coextensive with the universe. Since the soul, on its own accord, is incapable of increasing or decreasing its spatial points, how can you say that the soul transforms itself by itself? If you accept that the knowing substance exists with its knowing nature, then also it is established that the soul does not transform itself by itself.

वस्तु नित्यानित्यात्मक है -

केहिचि दु पज्जयेहिं विणस्सदे णेव दु जीवो।
जम्हा तम्हा कुव्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो।।
(10-38-345)

केहिचि दु पज्जयेहिं विण्स्सदे णेव केहिचि दु जीवो।
जम्हा तम्हा वेददि सो वा अण्णो व णेयंतो।।
(10-39-346)

जो चेव कुणदि सो चेव वेदगो जस्स एस सिद्धंतो।
सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो।।
(10-340-347)

अण्णो करेदि अण्णो परिभुंजदि जस्स एस सिद्धंतो।
सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो।।
(10-41-348)

क्योंकि जीव कितनी ही पर्यायों से नष्ट होता है और कितनी पर्यायों से नष्ट नहीं होता इसलिए (जो भोगता है), वही करता है या अन्य करता है, ऐसा एकान्त नहीं है; क्योंकि जीव कितनी ही पर्यायों से नष्ट होत है और कितनीही पर्यायों से नष्ट नहीं होता; इसलिए (जो करता है), वही भोगता है अथवा अन्य भोगता है, ऐसा एकान्त नहीं है।
जो जीव करता है, वही भोगता है, जिसका यह सिद्धान्त है, वह जीव मिथ्यादृष्टि आर्हत मत का न मानने वाला जानना चाहिए। कोई अन्य करता है, कोई अन्य भोगता है, जिसका ऐसा सिद्धान्त है, वह जीव मिथ्यादृष्टि, अर्हत मत का न मानने वाला जानना चाहिए।
Since from the point of view of some modifications, the soul dies, and from the point of view of some other modifications, the soul does not die, therefore, the one-sided view that the soul (that enjoys) is the same as the doer, or else, some other is the doer, is not tenable.
Since from the point of view so some modifications, the soul dies, and from the point of view of some other modifications, the soul does not die, therefore, the one-sided view that the soul (that acts) is the same as the enjoyer (of fruits thereof), or else, some other is the enjoyer, is not tenable.
The one who believes that the soul that acts is the same as the soul that enjoys is a wrong believrs and does not have faith n the teachings of the Omniscient Lord.
The one who believes that the soul that acts is absolutely different from the soul that enjoys is a wrong believer and does not have faith in the teaching of the Omniscient Lord.

जीव परिणमन करता हुआ भी अन्य द्रव्यरूप नहीं होता -

जह सिप्पिओ दु कम्मं कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि।
तह जीवो वि य कम्मं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि।।
(10-42-349)

जह सिप्पिउ करणेहिं कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि।
तह जीवो करणेहिं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि।।
(10-43-350)

जह सिप्पिउ करणाणि य गिण्हदि ण य सो दु तम्मओ होदि।
तह जीवो करणाणि य गिण्हदि ण य तम्मओ होदि।।
(10-344-351)

जह सिप्पिउ कम्मफलं भुंजदि ण य सो दु तम्मओ होदि।
तह जीवो कम्मफलं भुंजदि ण य तम्मओ होदि।।
(10-45-352)

जैसे स्वणर्कार आदि शिल्पी कुण्डल आदि कर्म करता है, परंतु वह उनसे तन्मय नहीं होता। उसी प्रकार जीव भी ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्म को करता है, किंतु वह उनसे तन्मय नहीं होता।
जैसे शिल्पी (स्वर्णकार आदि) हथौड़ा आदि उपकरणों से कुण्डल आदि बनाता है, किंतु वह उनसे तन्मय नहीं होता। उसी प्रकार जीव भी मन-वचन-कायरूप करणों के द्वारा ज्ञानावरणादि कर्म करता है; किंतु वह उनसे तन्मय नहीं होता।
जैसे स्वर्णकार आदि शिल्पी उपकरणों को ग्रहण करता हे, किंतु वह उनसे तन्मय नहीं होता; उसी प्रकार जीव भी मन-वचन-कायरूप करणों को ग्रहण करता है; किंतु वहउनसे तन्मय नहीं होता।
जैसे स्वर्णकार आदि शिल्पी कुण्डलादि कर्मों के फल को भोगता है; किंतु वह उस फल से तन्मय नहीं होता, उसी प्रकार जीव भी कर्म के सुख-दुःख रूप फल को भोगता है, किंतु वह उस फल से तन्मय नहीं होता।
Just as an artisan (a goldsmity, for example), does his work to produce earrings etc. but does not become identical with it, so also the Self produces karmic matter lke knowledge-obscuring karma, but does not become identical with it.
Just as an artisan (a goldsmith, for example), uses tools like a mallet to produce earrings etc. but does ot become identical with them, so also the Self acts through the instruments of mind-, speech- and physical-activity to produce karmic matter like knowledge-obscuring karma, but does not become identical with them.
Just as an artisan (a goldsmith, for example), takes up tools but does not become identical with them, so also the Self adopts instruments of mind-, and physical-activity but does not become identical with them.
Just as an artisan ( a goldsmith, for example) enjoys the fruits of his work (earrings etc.) but does not become identical with the fruits, so also the Self enjoys the fruits of karmas (in the form of pleasure and pain) but does not become identical with them.

सूचनिका गाथा -

एवं ववहारस्स दु वत्तव्वं दंसणं समासेणा।
सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामकंद तु जं होदि।।
(10-46-353)

इस प्रकार तो व्यवहार नय का मत संक्षेप में कहने योग्य है। आगे निश्चयनय का वचन सुनो जो अपने परिणामों के द्वारा किया हुआ होता है।
The above perspective, from the empirical point of view (vyavahara naya), is worth speaking; now listen to the transcendental point of view (nischaya naya) which is the result of the modifications of the Self.

जीव अपने भावकर्मों में तन्मय होने से दुखी होता है -

जह सिप्पिओ दु चेट्ठं कुव्वदि हवदि य तहा अणण्णो सो।
तह जीवो वि य कम्मं कुव्वदि हवदि य अणण्णो सो।।
(10-47-354)

जह चेट्ठं कुव्वंतो दु सिप्पिओ णिच्चदुक्खिदो होदि।
तत्तो सिया अणण्णो तह चेट्ठंतो दुहो जीवो।।
(10-48-355)

जैसे स्वर्णकारादि शिल्पी (कुण्डलादि ऐसा बनाऊंगा, इस प्रकार मन में) चेष्टा करता है तथाउस चेष्ट से वह तन्मय हो जाता है। उसी प्रकार जीव भी रागादि भावकर्म करता है और वह उस भावकर्म में तन्मय हो जाता है।
जैसे स्वर्णकारादि शिल्पी चेष्टा करता हुआ नित्य दुखी होता है और उस दुःख से अनन्य (तन्मय) होता है, उसी प्रकार जीव हर्ष-विषाद रूप चेष्टा करता हुआ दुखी होता है (और उस दुःख से वह अनन्य है)।
Just as an artisan (a goldsmith, for example) makes his mind up to undertake the task (of making earrings etc.) gets engrossed and becomes one with the taks, similarly, the Self also gets engrossed and becomes one with his psychic dispositions like attachment.
Just as an artisan ( a goldsmith, for example), while performing the taks, suffers all the time and becomes one with that suffering, similarly, the Self, kindled by pleasure and pain due to his psychic dispositions, suffers all the times and becomes one with that suffering.

जीव के ज्ञान-दर्शन-चारित्र पर्यायों का निश्चय स्वरूप -

जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि।
तह जाणगो दु ण परस्स जाणगो जाणगो सो दु।।
(10-49-356)

जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि।
तह पस्सगो दु ण परस्स पस्सगो पस्सगो सो दु।।
(10-50-357)

जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि।
तह संजदो दु ण परस्स संजदो संजदो सो दु।।
(10-51-358)

जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि।
तह दंसणं दु ण परस्स दंसणं दंसणं तं तु।।
(10-52-359)

जैसे सफेदी-खडिया पर की (दीवाल आदि रूप) नहीं है, सफेदी वह तो सफेदी ही है (वह अपने स्वरूप में ही रहती है); उसी प्रकार ज्ञायक (आत्मा) पर का (ज्ञेयरूप) नहीं है। ज्ञायक वह तो ज्ञायक ही है (पर को जानता हुआ भी अपने स्वरूप में रहता है)।
जैसे सफेदी-खडिया पर की नहीं है, सफेदी वह तो सफेदी ही है; उसी प्रकार दर्शक (आत्मा) पर का नहीं है, दर्शक (दृष्टा) वह तो दर्शक ही है।
जैसे सफेदी-खडिया पर की नहीं है, सफेदी वह तो सफेदी ही है; उसी प्रकार संयत (आत्मा) पर का (परिग्रहादि रूप्) नहीं है। संयत वह तो संयत ही है।
जैसे सफेदी-खडिया पर की (दीवाल आदि रूप) नहीं है, सफेदी वह तो सफेदी ही है; उसी प्रकार दर्शन (श्रद्धान) पर का नहीं है। दर्शन वह तो दर्शन ही है।
Just as chalk, when applied to a board etc. does not become one with that board etc., but retains its own identity characterized by whiteness, similarly, the knower Self, while knowing an object, does not become one with that known object, but retains his own identity as a knower.
Just as chalk does not become one with an alien substance, but retains its own identity characterized by whiteness, similarly, the perceiver Self, while perceiving an object, does not become one with that perceived object, but retains his own identity as a perceiver.
Just as chalk does not become one with an alien substance, but retains its own identity characterized by whiteness, similarly, the Self with restraint, while exercising restraint from an external object, does not become one with that object, but retains his own identity as possessor of restraint.
Just, as chalk does not become one with an alien substance, but retains its own identity characterized by whiteness, similarly, the Self with right faith, while ascertaining an external object as it is, does not become one with that object, but retains his own identity as possessor of right faith.

सूचनिका गाथा -

एवं तु णिच्छयणयस भसिदं णाणदंसणचरित्ते।
सुणु ववहारणयस्स य वत्तव्वं से समासेण।।
(10-53-360)

इस प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विषय में निश्चय नय का कथन हुआ; और अब उसके विषय में संक्षेप में व्यवहार नय का कथन सुनो।
Knowledge, faith, and conduct, from the transcendental point of view, have thus been described. Now listen to their brief description from the empirical point of view.

सम्यग्दृष्टि स्वभाव से देखता, जानता और त्यागता है -

जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण।
तह परदव्वं जाणदि णादा वि सएण भावेण।।
(10-54-361)

जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण।
तह परदव्वं पस्सदि जीवो वि सएण भावेण।।
(10-55-362)

जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण।
तह परदव्वं विजहदि णादा वि सएण भावेण।।
(10-56-363)

जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण।
तह परदव्वं सद्दहदि सम्मादिट्ठी सहावेणा।।
(10-57-364)

जैसे सफेदी-खडिया अपने स्वभाव से ही परद्रव्य (दीवाल आदि) को सफेद करती है,उसी प्रकार ज्ञाता आत्मा भी अपने स्वभाव से परद्रव्य कोे जानता है।
जैसे सफेदी-खडिया अपने स्वभाव से ही परद्रव्य (दीवाल आदि) को सफेद करती है, उसी प्रकार जीव भी अपने स्वभाव से परद्रव्य को देखता है।
जैसे सफेदी-खडिया अपने स्वभाव से ही परद्रव्य (दीवाल आदि) को सफेद करती है, उसी प्रकार ज्ञाता आत्मा भी अपने स्वभाव से परद्रव्य को त्यागता है।
जैसे सफेदी-खडिया अपने स्वभाव से ही परद्रव्य (दीवाल आदि) को सफेद करती है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि अपने स्वभाव से परद्रव्य का श्रद्धान करता है।
Just as chalk whitens the alien substance (a board etc.) because of its intrinsic nature (of whiteness), similarly, the knower Self knows the alien substance because of his intrinsic nature of being a knower.
Just as chalk whitens the alien substance (a board etc.) because of its intrinsic nature (of whiteness), similarly, the perceiver Self perceives the alien substance because of his intrinsic nature of perception.
Just as chalk whitens the alien substance (a board etc.) because of its intrinsic nature (of whiteness), similarly, the Self who knows renounces the alien substance because of his intrinsic nature of non-attachment.
Just as chalk whitens the alien substance (a board etc.) because of its intrinsic nature (of whiteness), similarly, the Self with right faith ascertains the alien substance as it is because of his intrinsic nature of right faith.

जीव की अन्य पर्यायों का व्यवहार स्वरूप -

एवं ववहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते।
भणिदो अण्णेसु वि पज्जयेसु एमेव णादव्वो।।
(10-58-365)

इस प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विषय में व्यवहार नय का निर्णय कहा है। अन्य पर्यायों में भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
Knowledge, faith and conduct, from the empirical point of view, have thus been described. The other modes (of consciousness) should be understood similarly.

आत्मा के गुण परद्रव्य में नहीं है -

दंसणणाणचरित्त किंचि वि णात्थि दु अचेदणे विसए।
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु विसएसु।।
(10-59-366)

दंसणणाणचरित्त किंचि वि णात्थि दु अचेदणे किम्मे।
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तम्मि कम्मम्मि।।
(10-60-367)

दंसणणाणचरित्त किंचि वि णात्थि दु अचेदणे किये।
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु कायेसु।।
(10-61-368)

दर्शन, ज्ञान और चारित्र अचेतन विषय में किंचिन्मात्र भी नहीं है; इसलिए आत्मा उन विषयों में क्या घात करेगा?
दर्शन, ज्ञान और चारित्र अचेतन कर्म में किंचिन्मात्र भी नहीं है; इसलिए आत्मा उस कर्म में क्या घात करेगा?
दर्शन, ज्ञान और चारित्र अचेतन काय में किंचिन्मात्र भी नहीं है; इसलिए आत्मा उन कार्यों में क्या घात करेगा?
There is no faith, knowledge, and conduct whatsoever in the non-conscious sense-objects, therefore, what can the soul destroys in such objects?
There is no faith, knowledge, and conduct whatsoever in the non-conscious matter of karmas, therefore, what can the soul destroys in such karmas?
There is no faith, knowledge, and conduct whatsoever in the non-conscious body, therefore, what can the soul destroys in such bodies?

ज्ञानादि की घात होने पर पुद्गल का घात नहीं होता -

णाणस्स दंसणस्स य भणिदो घादो तहा चरित्तस्स।
ण वि तम्हि को वि पोग्गलदव्वे घादो दु णिद्दिट्ठो।।
(10-62-369)

ज्ञान, दर्शन और चारित्र का घात बताया है, (किंतु) उस पुद्गल द्रव्य में कोई घात नहीं कहा।
Desctruction of knowledge, faith, and conduct, has been mentioned; (but) destruction of physical matter has not been indicated.

सम्यग्दृष्टि को विषयों में राग नहीं है -

जीवस्स जे गुणा कोई णत्थि ते खलु परेसु दव्वेसु।
तम्हा सम्मादिट्ठिस्स णत्थि रागो दु विसएसु।।
(10-63-370)

जीव के जो कोई गुण हैं,वे वास्तव में परद्रव्यों में नहीं हैं; इसलिए सम्यग्दृष्टि को विषयों में राग नहीं है।
The attributes of the soul do not exist in alien substances; therefore, the right believer has not attachment for the sense-objects.

जीव के रागादि परिणाम परद्रव्य में नहीं हैं -

रागो दोसो मोहो जीवस्स दु ते अणण्णपरिणामा।
एदेण कारणेण दु सद्दादिसु णत्थि रागादी।।
(10-64-371)

राग, द्वेष, मोह वे जीव के अनन्य परिणाम है। इस कारण राग आदि (परिणाम) शब्द आदि में नहीं है।
Attachment, aversion, and delusion, are the soul’s own immutable modes; for this reason, sound (and other sense-objects) do not possess attachment etc.

परद्रव्य जीव में रागादि उत्पन्न नहीं करता -

अण्णदवियेण अण्णदवियस्स णो कीरदे गुणुप्पादो।
तम्हा दु सव्वदव्वा उप्पज्जंते सहावेण।।
(10-65-372)

अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य के गुणों की उत्पत्ति नहीं की जा सकती; इसलिए (यही कारण है कि) सब द्रव्य अपने-अपने स्वभाव से उत्पन्न होते हैं।
The qualities of a substance cannot be produced by another substance; therefore, all substances are produced by their own, individual nature.

पुद्गल शब्द को सुनकर रोष-तोष करना अज्ञान है -

णिंदिद संथुद वयणाणि पोग्गला परिणमंति बहुगाणि।
ताणि सुणिदूण रूसदि तूसदि य पुणो अहं भणिदो।।
(10-66-373)

णिंदिद सद्दत्तपरिणदं तस्स जदि गुणो अण्णो।
तम्हा ण तुमं भणिदो किंचि वि किं रूससि अबुद्धो।।
(10-67-374)

पुद्गल अनेक प्रकार के निंदा और स्तुति के वचनों के रूप में परिणमित होते हैं। उन वचनों को सुनकर ’मुझको कहा है’ यह मानकर तू रूष्ट और तुष्ट होता है।
पुद्गल शब्दरूप परिणमित हुआ है। उसका गुण यदि तुझसे अन्य है, तो फिर हे अज्ञानी! तुझको कुछ भी नहीं कहा है; फिर तू क्यों रूष्ट होता है?
Particles of physical matter get transformed into spoken communication containing words of censure or praise. On hearing those words you get angry or pleased thinking. I have been addressed thus.”
Particles of physical matter have got transformed into spoken words, and if it (physical matter) has qualities entirely different from your own, these words cannot address you. Why then, O ignorant person, do you get angry.

आत्मा अपने स्वरूप से शब्द को सुनता है -

असुहो सुहो व सद्दो ण तं भणदि सुणसु मं ति सो चेव।
ण् य एदि विविग्गहिदुं सोहविसयमागदं सद्दं।।
(10-68-375)

अशुभ या शुभ शब्द तुझे नहीं कहता है कि ’तू मुझको सुन’। वह आत्मा भी श्रोत्र इन्द्रिय के विषय में आये हुए शब्द को ग्रहण करने के लिए नहीं जाता।
Unpleasant or pleasant spoken words do not beckon you and say, “Hear me.” When the word reaches your organ of hearing the soul does not move to apprehend the incoming word.

आत्मा अपने स्वरूप से रूप को देखता है -

असुहो सुहो व रूवं ण तं भणदि पेच्छ मं ति सो चेव।
ण य एदि विविग्गहिदुं चक्खुविसयमागदं रूवं ।।
(10-69-376)

अशुभ या शुभ रूप तुझको यह नहीं कहता कि ’तू मुझको देख’। और आत्मा भी चक्षु इन्द्रिय के विषय में आये हुए रूप को ग्रहण करने के लिए नहीं जाता।
Unpleasant or pleasant visual from does not beckon yu and say, “See me.” When the visual from reaches your organ of sight, the soul does not move to apprehend the incoming visual form.

आत्मा अपने स्वरूप से गन्ध को सूँघता है -

असुहो सुहो व गंधो ण तं भणदि जिग्घ मं ति सो चेव।
ण य एदि विविग्गहिदुं घाणविसयमागदं गंध।।
(10-70-377)

अशुभ या शुभ गंध तुझको यह नहीं कहता कि ’तू मुझे सूँघ’। और आत्मा भी घ्राणेन्द्रिय के विषय में आये हुए गंध को ग्रहण करने के लिए नहीं जाता।
Unpleasant or pleasant odour does not beckon you and say, “Smell me.” When the odour reaches your organ of smell, the soul does not move to apprechend the incoming odour.

आत्मा अपने स्वरूप से रस को चखता है -

असुहो सुहो व रसो ण तं भणदि रसय मं ति सो चेव।
ण् य एदि विविग्गहिदुं रसणाविसयमागदं तु रसं।।
(10-68-378)

अशुभ या शुभ रस तुझको यह नहीं कहता कि ’तू मुझे चख’ और आत्मा भी रसना इन्द्रिय के विषय में आये हुए रस को ग्रहण करने के लिए नहीं जाता।
Unpleasant or pleasant flavour does not beckon you and say, “Taste me.” When the flavour reaches your organ of taste, the soul does not move to apprechend the incoming odour.

आत्मा अपने स्वरूप से स्पर्श करता है -

असुहो सुहो व फासो ण तं भणदि फास मं ति सो चेव।
ण य एदि विविग्गहिदुं कायविसयमागदं फासं।।
(10-71-378)

अशुभ या शुभ स्पर्श तुझे यह नहीं कहता कि ’तू मुझे स्पर्श कर’ और आत्मा भी स्पर्शन इन्द्रिय के विषय में आये हुए स्पर्श को ग्रहण करने के लिए नहीं जाता।
Unpleasant or pleasant physical contact does not beckon you and say, “Touch me.” When the contact reaches your organ of touch, the soul does not move to apprechend the incoming contact.

आत्मा अपने स्वरूप से गुण को जानता है -

असुहो सुहो व गुणो ण तं भणदि बुज्झ मं ति सो चेव।
ण य एदि विविग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं तु गुणं।।
(10-73-380)

अशुभ या शुभ गुण तुझे यह नहीं कहता कि ’तू मुझे जान’ और आत्मा भी बुद्धि के विषय में आये हुए गुण को ग्रहण करने के लिए नहीं जाता।
Unpleasant or pleasant quality of a substance does not beckon you and say, “Know me.” When the quality reaches your mind, the soul does not move to apprechend the incoming quality.

आत्मा अपने स्वरूप से द्रव्य को जानता है -

असुहो सुहो व दव्वं ण तं भणदि बुज्झ मं ति सो चेव।
ण य एदि विविग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं दव्वं।।
(10-74-381)

अशुभ या शुभ द्रव्य तुझेयह नहीं कहता कि ’तू मुझे जान’ और आत्मा भी बुद्धि के विषय में आये हुए द्रव्य को ग्रहण करने के लिए नहीं जाता।
Unpleasant or pleasant substance does not beckon you and say, “Know me.” When the substance reaches your mind, the soul does not move to apprechend the incoming substance.

पर में स्व बुद्धि का परिणाम -

एवं तु जाणिदूण य उवसमं णेव गच्छदे मूढो।
णिग्गहमणा परस्स य सयं च बुद्धिं सिवमपत्तो।।
(10-75-382)

इस प्रकार (शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श, परगुण और द्रव्य को) जानकर भी मूढ़जीव उपशम (शांति) को प्राप्त नहीं होता। वह पर के ग्रहण करने का मन करता है और स्वयं उसे कल्याणकारी बुद्धि (सम्यग्ज्ञान) की प्राप्ति नहीं हुई।
Thus, even after knowing the true nature (of spoken word, visual form, odour, flavor, physical contact, quality of a substance, and substance itself) the ignorant person does not achieve tranquility. He makes up his mind to acquire the non-Self and, as such, remains devoid of propitious comprehension (right knowledge).

निश्चय प्रतिक्रमण का स्वरूप -

कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं।
तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं।।
(10-76-383)

पूर्व में किये हुए (मूलोत्तर प्रकृति रूप से) अनेक विस्तार वाले जो शुभ और अशुभ कर्म हैं, उनसे जो जीव अने को दूर कर लेता है, वह जीव ही प्रतिक्रमण है।
The Self who drives himself away from the multitude of karmas, virtuous or wicked, done in the past, is certainly the real repentance.

निश्चय प्रत्याख्यान का स्वरूप -

कम्मं जं सुहमसुहं जम्हि य भावम्हि बज्झदि भविस्सं
तत्तो णियत्तदे जो सो पच्चक्खाणं हवदि चेदा।।
(10-77-384)

और भविष्यकाल में जो शुभाशुभ कर्म जिस भाव के होने पर बँधता है, उस भाव से जो आत्मा निवृत्त होता है, वह आत्मा प्रत्याख्यान होता है।
And the Self who drives himself away from the future thought-activities that may cause bondage of karmas, virtuous or wicked, is certainly the real renunciation.

निश्चय आलोचना का स्वरूप -

जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडि य अणेयवित्थरविसेसं।
तं दोसं जो चेददि सो खलु आलोयणं चेदा।
(10-78-385)

वर्तमान काल में उदय में आये हुए (मूलोत्तर प्रकृति के रूप में) अनेक विस्तार वाले जो कर्म हैं, उसे दोष को जो जीव (भेदरूप) अनुभव करता है, वह जीव वास्तव में आलोचना है।
The Self who realizes as evil the multitude of karmas, virtuous or wicked, which come to fruition in the present, is certainly the real confession.

निश्चय चारित्र का स्वरूप -

णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वदि णिच्चं पि जो पडिक्कमदि।
णिच्चं आलोचेयदि सो हु चरित्तं हवदि चेदा।।
(10-79-386)

जो आत्मा नित्य प्रत्याख्यान करता है, नित्य ही जे प्रतिक्रमण करता है, जो नित्य आलोचना करता है, वह आत्मा निश्चय से चारित्र है।
The Self who is always engaged in renunciation, who is always engaged in repentance, and who is always engaged in confession, is certainly the right conduct.

अज्ञानचेतना ही कर्म-बंध का कारण है -

वेदंतो कम्मफलं अप्पाणं जो दु कुणदि कम्मफलं।
सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।।
(10-80-387)

वेदंतो कम्मफलं मये कदं जो दु मुणदि कम्मफलं।
सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।।
(10-81-388)

वेदंतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा।
सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।।
(10-82-389)

कर्म के फल का वेदना करता हुआ जो आत्मा कर्म के फल को निजरूप करता हे (मानता है) वह दुःख के बीज आठ प्रकार के कर्म को फिर भी बाँधता है।
कर्म के फल का वेदन करता हुआ जो आत्मा ’कर्म का फल मैंने किया’ ऐसा मनता है, वह दुःख के बीज आठ प्रकार के कर्म को फिर भी बाँधता है।
कर्म के फल कावेदन करता हुआ जो आत्मा सुखी और दुखी होता है, वह दुःख के बीज आठ प्रकार के कर्म को फिर भी बाँधता है।
Experiencing the fruits of karmas, the Self who identifies himself with those fruits of karmas, bonds himself again with the seeds of misery in the form of eight kinds of karmas.
Experiencing the fruits of karmas, the Self who believes that he is the creator of those fruits of karmas, bonds himself again with the seeds of misery in the form of eight kinds of karmas.
Experiencing the fruits of karmas, the Self who gets happy or miserable with those fruits of karmas, bonds himself again with the seeds of misery in the form of eight kinds of karmas.

शास्त्र ज्ञान से भिन्न है -

सत्थं णाणं हवदि जम्हा सत्थं ण याणदे किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं सत्थं जिणा विंति।।
(10-83-390)

शास्त्र ज्ञान नहीं हैं क्योंकि शास्त्र कुछ नहीं जानता; इसलिए ज्ञान अन्य है, शास्त्र अन्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
Scripture is not knowledge because scripture does not comprehend anything. Therefore, knowledge is one things and scripture another, this has been proclaimed by the Omniscient Lord.

शब्द ज्ञान से भिन्न है -

सद्दो णाणं हवदि जम्हा सद्दो ण याणदे किंचि।
तम्हा अण्णं अण्णं सद्दं जिणा विंति।।
(10-84-391)

शब्द ज्ञान नहीं है क्योंकि शब्द कुछ नहीं जानता; इसलिए ज्ञान अन्य है, शब्द अन्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
Spoken word is not knowledge because spoken word does not comprehend anything. Therefore, knowledge is one thing and spoken word another; this has been proclaimed by the Omniscient Lord.

रूप ज्ञान से भिन्न है -

रूवं णाणं ण हवदि जम्हा रूवं ण याणदे किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं रूवं जिणा विंति।।
(10-85-392)

शब्द ज्ञान नहीं है क्योंकि रूप कुछ नहीं जानता; इसलिए ज्ञान अन्य है, रूप अन्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
Visual form is not knowledge because visual from does not comprehend anything. Therefore, knowledge is one thing and visual form another; this has been proclaimed by the Omniscient Lord.

वर्ण ज्ञान से भिन्न है -

वण्णो णाणं ण हवदि जम्हा वण्णो ण याणदे किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं वण्णं जिणा विंति।।
(10-86-393)

वर्ण ज्ञान नहीं है क्योंकि वर्ण कुछ नहीं जानता; इसलिए ज्ञान अन्य है, वर्ण अन्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
Colour (sight) is not knowledge because colour does not comprehend anything. Therefore, knowledge is one thing and colour another; this has been proclaimed by the Omniscient Lord.

गन्ध ज्ञान से भिन्न है -

गंधो णाणं ण हवदि जम्हा गंधो ण याणदे किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं गंधं जिणा विंति।।
(10-87-394)

गंध ज्ञान नहीं है क्योंकि गंध कुछ नहीं जानता; इसलिए ज्ञान अन्य है, गंध अन्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
Smell (odour) is not knowledge because smell does not comprehend anything. Therefore, knowledge is one thing and smells another; this has been proclaimed by the Omniscient Lord.

रस ज्ञान से भिन्न है -

ण रसो हेदि णाणं जम्हा दु रसो ण याणदे किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं रसं च जिणा विंति।।
(10-88-395)

रस ज्ञान नहीं है क्योंकि रस तो कुछ नहीं जानता; इसलिए ज्ञान अन्य है, रस अन्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
Taste (flavour) is not knowledge because taste does not comprehend anything. Therefore, knowledge is one thing and tastes another; this has been proclaimed by the Omniscient Lord.

स्पर्श ज्ञान से भिन्न है -

फासो णाणं ण हवदि जम्हा फासो याणदे किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं फासं जिणा विंति।।
(10-89-396)

स्पर्श ज्ञान नहीं है क्योंकि स्पर्श कुछ नहीं जानता; इसलिए ज्ञान अन्य है, स्पर्श अन्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
Touch (physical contact) is not knowledge because taste does not comprehend anything. Therefore, knowledge is one thing and touches another; this has been proclaimed by the Omniscient Lord.

कर्म ज्ञान से भिन्न है -

कम्मं ण हवदि जम्हा कम्मं णयाणदे किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं कम्मं जिणा विंति।।
(10-90-397)

कर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि कर्म तो कुछ नहीं जानता; इसलिए ज्ञान अन्य है, कर्म अन्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
Karma is not knowledge because taste does not comprehend anything. Therefore, knowledge is one thing and karma another; this has been proclaimed by the Omniscient Lord.

धर्मद्रव्य ज्ञान से भिन्न है -

धम्मं णाणं ण हवदि जम्हा धम्मो ण याणदे किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं धम्मं जिणा विंति।।
(10-91-398)

धर्मद्रव्य ज्ञान नहीं है क्योंकि धर्मद्रव्य कुछ नहीं जानता; इसलिए ज्ञान अन्य है, धर्मद्रव्य अन्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
Medium of motion (dharma - the non-soul substance) is not knowledge because medium of motion does not comprehend anything. Therefore, knowledge is one thing and medium of motion another; this has been proclaimed by the Omniscient Lord.

अधर्मद्रव्य ज्ञान से भिन्न है -

णाणमधम्मो ण हवदि जम्हाधम्मो ण याणदे किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णंधम्मं जिणा विंति।।
(10-92-399)

अधर्मद्रव्य ज्ञान नहीं है क्योंकि अधर्मद्रव्य कुछ नहीं जानता; इसलिए ज्ञान अन्य है, अधर्मद्रव्य अन्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
Medium of motion (adharma - the non-sould substance) is not knowledge because medium of motion does not comprehend anything. Therefore, knowledge is one thing and medium of motion another; this has been proclaimed by the Omniscient Lord.

काल द्रव्य ज्ञान से भिन्न है -

कालो णाणं ण हवदि जम्हा कालो ण याणदे किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं कालं जिणा विंति।।
(10-93-400)

कालद्रव्य ज्ञान नहीं है क्योंकि कालद्रव्य कुछ नहीं जानता; इसलिए ज्ञान अन्य है, काल द्रव्य अन्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
Time (kala - the non-soul substance) is not knowledge because time does not comprehend anything. Therefore, knowledge is one thing and times another; this has been proclaimed by the Omniscient Lord.

आकाश द्रव्य ज्ञान से भिन्न है -

आयासं पि ण णाणं जम्हायासंण याणदे किंचि।
तम्हायासं अण्णं अण्णं णाणं जिणा विंति।।
(10-94-401)

आकाश द्रव्य ज्ञान नहीं है क्योंकि आकाशद्रव्य कुछ नहीं जानता; इसलिए ज्ञान अन्य है, आकाश द्रव्य अन्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
Space (akas - the non-soul substance) is not knowledge because splace does not comprehend anything. Therefore, knowledge is one thing and space another; this has been proclaimed by the Omniscient Lord.

अध्यवसान ज्ञान नहीं है -

णाज्झवसाणं णाणं अज्झवसाणं अचेदणं जम्हा।
तम्हा अण्ण्ं अज्झवसाणं तहा अण्णं।।
(10-95-402)

अध्यवसान द्रव्य ज्ञान नहीं है क्योंकि अध्यवसान अचेतन है; इसलिए ज्ञान अन्य है तथा अध्यवसान अन्य है।
Thought-activity is not knowledge because thought-activity is non-conscious. Therefore, knowledge is one ting and thought-activity another.

ज्ञान ही दीक्षा है -

जम्हा जाणदि णिच्चं तम्हा जीवो दु जाणगो णाणी।
णाणं च जाणयादो अव्वदिरित्तं मुणेदव्वं।।
(10-96-403)

णाणं सम्मादिट्ठिं दु संजमं सुत्तमंगपुव्वगदं।
धम्माधम्मं च तहा पव्वज्र्ज अब्भुवेंत्ति बुहा।। (10-97-404)

क्योंकि जीव सदा जानता है, इसलिए ज्ञायक जीव ज्ञानी है और ज्ञान ज्ञायक से अभिन्न है, ऐसा जानना चाहिए। नीजन (गणधरदेव) देन को ही सम्यग्दृष्टिण् संयम, अंगूपर्वगत सूत्र, धर्म और अधर्म तथा दीक्षा मानते है।
Because the soul always knows, therefore, the knower soul is enlightened. It must be understood that knowledge is not separate from the knower.
Those who know (Ganadhareva – the primary disciple Acharya of Lord Jina) consider knowledge to be same as right belief, self-restraint, sacred sutras of ango-purva, merit and demerit, and asceticism;

आत्मा अनाहारक है -

अत्ता जस्स अमुत्तो ण हु सो आहारगो हवदि एवं।
आहारो खलु मुत्तो जम्हा सो पाग्गलमओ दु।।
(10-98-405)

ण वि सक्कदि घेत्तु जं ण वि मोॅत्तुं चे जं परं दव्यं।
सो को वि य स गुणो पाओग्गिय विस्ससो वा वि।।
(10-99-406)

तम्हा दु जो विसुद्धो चेदा सो णेव गिणहदे किंचि।
णेव विमुंचदि किंचि वि जीवाजीवाण दव्वाणं।।
(10-100-407)

इस प्रकार जिसकी आत्मा आमूर्तिक है, वह निश्चय ही आहारक नहीं है। वास्तव में आहार मृर्तिक है, क्योंकि आहार पुद्गलमय है। उस आत्मा का वह कोई प्रयोगिक अथवा वैस्त्रसियक गुण है कि वह परद्रव्य को न ग्रहण कर सकता है, न छोड सकता है, अतः (अनाहारक होने के कारण) जो विशुद्ध आत्मा है, वह जीव-अजीव परद्रव्यों में न ते कुछ ग्रहण ही करता है और न कुछ छोड़ता ही है।
Because the soul always knows, therefore, the knower soul is enlightened. It must be understood that knowledge is not separate from the knower.
Since the soul is incorporeal, it is certainly non-assimilative (of food). In reality food is corporeal, comprising physical matter. There is no attribute, acquired or natural, in the soul that it can either assimilate or discard any alien substance. Therefore (being non-assimilative) the pure soul neither assimilates nor discards any alien substances – animate or inanimate.

बाह्यलिंग मोक्ष का मार्ग नहीं है -

पासंडियलिंगाणि य गिहिलिंगाणि य बहुप्पयाराणि।
घेत्तुं वंदति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति।।
(10-101-408)

ण दु होदि मोक्खमग्गो लिं जं देहणिम्ममा अरिहा।
लिंगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवंते।।
(10-102-409)

अनेक प्रकार के साधु-वेष और गृहस्थ-वेष धारण करके आज्ञनी जन यह कहते हैं कि वेष ही मोक्ष का मार्ग है; किंतु द्रव्यलिंग मोक्ष का मार्ग नहीं है; क्योंकि अहंतदेव देह से ममत्वहीन हुए (बाह्य) लिंग को छोड़कर दर्शन, ज्ञान, चारित्र का सेवन करते हैं।
Ignorant persons adopt various kinds of alleged external insignia of monks and householder and claim that adoption of these insignia leader to liberation. But external insignia cannot lead to liberation as the Omniscient Lords, discarding all external symbols, and giving up attachment to body itself, only get immersed in right faith, knowledge, and conduct.

दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है -

ण वि एस मोक्खमग्गो पासंडियगिहिमयाणि लिंगाणि।
दंसणणाणचरित्तणि मोक्खमग्गं जिणा विंति।।
(10-103-410)

तम्हा जहित्तु लिंगे सागारणगारिये हि वा गहिदे।
दंसणणाणचरित्ते अप्पाणं जुंज मोक्खपहे।।
(10-104-411)

साधु और गृहस्थ के लिंग - चह भी मोक्ष-मार्ग नहीं है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्ष मार्ग है, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते है; इसलिए गृहस्थ ओर साधुओं द्वारा ग्रहण किये हुए लिंगो को छोड़कर अपनी आत्मा को दर्शन, ज्ञान और चारित्रस्वरूप मोक्ष-मार्ग में लगाओ।
Insignia of monks and householders do not constitute the path to liberation. The Omniscient Lords that right faith, knowledge, and conduct (together) constitute the path to liberation. Therefore, discarding all alleged external insignia of monk’s ad householders, lead your soul to the path to liberation by immersing it is right faith, knowledge, and conduct.

मोक्षमार्ग पर विहार कर -

मोक्खपहे उप्पाणं ठवेहि चेदयहि झायहि तं चेव।
तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु।।
(10-105-412)

(हे भव्य!) मोक्ष-पथ में अपनी आत्मा को तू स्थापित कर, उसी का अनुभव कर और उसी का ध्यान कर, वहीं पर सदा विहार कर; अन्य द्रव्यों में विहार मत कर।
(O bhavya – potential aspirant to liberation!) Establish your soul on to the path to liberation. That only ought to be experienced, meditated upon, and always trod; do not read in other objects.

लिंग के मोही समय-सार को नहीं जानते -

पासंडियलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु।
कुव्वंति जे ममत्तं तेहि ण णादं समयसारं।।
(10-106-413)

जो लोग बहत प्रकार के साधु-लिंगों में अथवा गृहस्थ-लिंगों में ममत्व करते हैं, उन्होंने समय-सर को। (शुद्धात्म स्वरूप को) नहीं जाना।
Those who exhibit attachment to insignia of various kinds of monks and householders have no understood the samayasara (pure and absolute consciousness).

लिंग के सम्बन्ध में दोनों नयों का मत -

ववहारिओ पुण णओ देण्णि वि लिंगाणि भणदि मोक्खपहे।
णिच्छयणओ दु पोच्छदि मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।।
(10-107-414)

व्यवहहार नय दोनों ही लिंगों को मोक्ष का मार्ग कहता है और निश्चय नय तो समस्त लिंगों को मोक्ष-मार्ग में इष्ट नहीं मानता।
Although the empirical point of view claims both kinds of insignia to be the path to liberation, the transcendental point of view does not consider any insignia whatsoever to be desirable for the path to liberation.

उपसंहार -

जो समयपाहुडमिणं पढिदूण य अत्थतच्चदा णादुं।
अत्थे ठाहिदि चेदा सो होहिदि उत्तमं सोक्खं।।
(10-108-415)

अन्त में आचार्य कुन्दुकुन्द उपसंहार करते हुए समयपाहुडं ग्रन्थ का माहात्म्य बतलाते हैं -
जो भव्यात्मा इस समयप्राभृत को पढ़कर और इसे अर्थ और तत्व से जानकर अर्थभूत शुद्धात्मा में ठहेरगा, वह उत्तम सौख्यस्वरूप हो जाएगा।
Acharya Kundkund concludes this scripture with a mention of its significance –
The bhavya (potential aspirant to liberation) who, after reading this Samayaprabhrita and understanding its meaning and essence, would establish himself in pure and absolute consciousness shall attain supreme bliss.
इदि इहमे सव्वविसुद्धणाणाधियारो समत्तो
इदि सिरिकुन्दकुन्दाइरियपणीदं समयपाहुडं